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कहानियाँ 

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से अलका पाठक की कहानी— 'फोकस'


इधर देश की आज़ादी को पचासवाँ साल लगा उधर ज्ञान बाबू की आँखें चिरौटा हो गईं। कोयलों पर मोहर लगाने वालों ने अशर्फ़ियों की बोरी पर बोरी खोल दी। जो सयाने होते हैं सो दोनों हाथ उलीचने का कोई मौका नहीं छोड़ते। हमारे ज्ञान बाबू तो ठहरे महा सयाने, एकदम काने कौवे के माफ़िक। दोनों हाथों उलीचने को कोई बहाना भी चाहिए। कब्रों में से खोद–खोद कर शहीद लाए जाने लगे। कई तो मुर्दा घाट से लौटा लाए गए काठी कफ़न समेत।

जब सारे मुल्क पर आज़ादी का पचासवाँ साल मियादी बुखार–सा लगा हो, ऐन उसी मौके पर ज्ञान बाबू की आँखें मैदान में लगी मूर्ति पर जा डटीं। ठीक पहाड़ जैसे पहाड़ों के बीच, नदी–घाटी–झरने के संयोग वाले चाय के खोखे पर गरमागरम चाय सुड़कते ज्ञान बाबू की खोजी निगाहों ने मूर्ति खोज डाली। जो मूर्ति वहाँ वर्षों से थी, बस ज्ञान बाबू ने तभी देखी थी। मूर्ति के बारे में कबूतर और कौओं की तरह चाय वाला छोकरा बहादुर भी अनजान था।

ज्ञान बाबू ठहरे मीडिया के आदमी, गिद्ध से भी तेज़ निगाह के मालिक हैं। चाय का कुल्हड़ बहुत दूर फेंक मारा। दूर की कौड़ी जो हाथ लगी थी। कैमरा, वीड़ियो के ताम–झाम के संग उसी पहाड़ी गाँव में घुस गए। ज्ञान बाबू उबरे तो संग एक पचहत्तर या कि सतहत्तर साल की बुढ़िया संग थी।

गाँव वाले ज़रूर जानते थे कि मूर्ति सिपाही की थी और सिपाही उसी गाँव का था– अंग्रेज़ों की फौज से बागी हो गया था। बाद में फाँसी मिली थी। आज़ाद हिंद फौज का फौजी था। फौजी तो बाद में कहा जाने लगा पहले तो गाँव वाले बागी ही कहते थे। सरकार ने शहीद कहा ज़रूर पर किसी जलसे में आला हकिमों ने कहा मूर्ति उसी फौजी, उर्फ़ बागी, उर्फ़ शहीद की थी और बुढ़िया जो थी सो शहीद की विधवा थी। उसे पेंशन मिलती थी। कस्बे के समारोहों में उसे माला–वाला पहनाकर बिठा दिया जाता था। यह हुए मामूली ढँग के मामूली काम। ज्ञान बाबू के हाथ एक 'अज्ञात' शहीद की विधवा लगी थी जिसे बाद में उन्होंने 'अल्पज्ञात' मान लिया।

ज्ञान बाबू के हाथ इसी 'अल्पज्ञात' शहीद की विधवा लगी। विधवा बुढ़िया थी, इतनी बुढ़िया थी कि उसका बेटा भी बूढ़ा था। सरकारी नौकरी से रिटायर भी हो चुका था। बेटे का बेटा विलायत में जा बसा था। बुढ़िया अपने घर में थी जो अब बेटे का कहलाता था। कहलाता यों था कि एक तो उस पर नेमप्लेट बेटे की थी दूसरा उसमें पैसा भी बेटे का ही लगा था। रिटायरमेंट के बाद वह अपने पहाड़ी गाँव लौट आया था। घर में बुढ़िया चैन से थी जितने चैन से इस उम्र की बुढ़िया अपने बेटे के घर में रह सकती थी।

पहली मुलाकात को ज्ञान बाबू गए तो बुढ़िया गरम सलवार सूट पहने हुए थी, साफ़–सुथरे बिस्तर पर धूप में बैठी थी। बेटा बूढ़ा था लेकिन अच्छे बच्चे की ही अदा से बैठा था। माँ की सेवा को तत्पर ज्ञान बाबू चाहते थे कि बुढ़िया की सही हालत दिखे। इतनी शान, इतने अमन, इतने चैन से तो बुढ़िया न रहती होगी, असली सूरत, असली हालत दिखे तो प्रोग्राम ढँग का बने– आज़ादी के पचास साल में शहीद की विधवा की दारुण दशा! अधिकारियों को पूछा जाय, नेताओं को टटोला जाय। पर बुढ़िया संतुष्ट थी। पेंशन मिल जाती है। काया निरोग है, घर में माया है, सुत आज्ञाकारी है और क्या चाहिए?

ज्ञान बाबू ने पहाड़, नदी, झरना के चित्र दिखाए। फूलों की बेल दिखाई, घाटी में मैदान में शहीद की प्रतिमा की तस्वीर हुई, कैमरा उनके इशारे पर घूम रहा था। कुछ बेचैनी, विकलता न थी और दुर्दशा सिर से गायब थी। कुछ मज़ा–सा न आया।
"भारत माता की तस्वीर होगी?"– ज्ञान बाबू ने सवाल किया। बूढ़े ने सिर हिला दिया। जंज़ीरों में जकड़ी भारत माता?
"नहीं!"
"नेहरू, गाँधी के साथ तस्वीरें?"
"नहीं है।"
"तिरंगा?"

ज्ञान बाबू ने शहीद की तस्वीर निकलवाई। रंग उड़ी काली–सफ़ेद तस्वीर! वह भी अकेले की। बीवी बच्चे के साथ तस्वीर भी नहीं। कैसे दिखाएं? ताम्र–पत्र तलक नहीं था। कोई सरकारी स्तुति का प्रमाण भी नहीं। एक पेंशन आर्डर था। कस्बे में नागरिक अभिनंदन हुआ था उसका एक काग़ज़ था। विजुअल पूरे नहीं बन रहे थे। एक शहीद खोजा है–सत्ता के गलियारे से। दूर किसी गुमनाम गाँव में, वहाँ शहीद की विधवा दुख भरे दिन काट रही है और कहीं कोई सुनवाई नहीं है, यों बनता धाँसू कार्यक्रम। शहीद की तस्वीर को सीने से लगाए हुए रो रही है।

ऐसा कुछ था ही नहीं, जो था वह ठीक था। हर एक चीज़ अपनी जगह ठिकाने पर और कोई शिकायत नहीं ज़माने से। ऐसे में आदमी क्या करे? अपनी टीम को संग ले और आगे निकल जाए। ज्ञान बाबू इतनी जल्दी हिम्मत हारने वाले नहीं। जब एक शहीद खोजा है तो कहानी भी धाँसू ही कर लेंगे। एक दिन और यहीं वास करें, कल खोजेंगे।

कल–कल के बाद एक और कल गुज़र गया। ज्ञान बाबू के हाथ कुछ न लियाकत का लगा। बुढ़िया का इंटरव्यू लेने बैठे, आख़िरी मुलाकात का। बाद में शहीद की शव यात्रा के बारे में।
"उन्होंने क्या कहा था आख़िर में?"
"कब?"
"फाँसी से पहले नहीं मिली थीं?"
"क्यों?"
"भाई को छुट्टी नहीं मिली थी!"
"बस, इसीलिए नहीं मिली?"

"भाई फौज में था न, मुश्किल से छुट्टी मिलती थी और उसको सज़ा हुई थी न, बागी से ताल्लुक रखने पर उनको सज़ा होती न। फिर भी मेरे लिए वह बहाना बनाकर छुट्टी ले भी आया। दिल्ली जाना था, काँगड़े तक पैदल, काँगड़े से पठानकोट मोटर पर और पठानकोट से गाड़ी चढ़ी। मेरा भाई दिल्ली में पूछता फिरा। फिर कोई बताने को राज़ी नहीं। भटकते–भटकते पता मिला। तब जेल में मुलाकात हुई– एक बुधवार को फिर एक मंगल को बस फिर चले आए।"
"आपको फाँसी का पता था?"
"बताया था उसने!"
"उसने किसने?"
"इसके बाप ने!"
"क्या कहा था आख़िरी बार?"

"कहना क्या था, चुप ही रहा। पहले तो छुप–छुप कर भागता फिरता था। बागी हो गया था न, सब तो मेरे को ही दोष देते थे कि नयी शादी हुई है और लड़का घर से भागता फिरता है ज़रूर लड़की में कोई ऐब होगा, कोई कमी होगी तभी न घर में नहीं टिकता, यह तो पता ही न था कि दिमाग़ में क्या फितूर चढ़ा है।"
"आपको न बताया था पहले?"
"बोलने की न थी, तब आज जैसा तो ज़माना न था, पहले तो घर में आता ही न था, रात पड़े आया और सबेरे भाग लिया– महीनों तो पता ही न था क्या चक्कर है फिर चिट्ठी आई तो पता चला कि फौज से भाग गया– बागी हो गया, जब जेल में गया तो पता चला कि सुभाष बाबू जी फौज में गया था।"

"आपको पता था कि वह आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं? आज़ादी की बात तो सैंतालिस के भी साल के बाद पता लगी कि किस्सा यों था, जब गाँधी वाले तो थे देश वाले, पर नेता जी वाले थे बागी, वो बात तो बाद में नेहरू ने कही कि ये भी देश का ही काम था, तब जाकर पेंशन हुई, फाँसी के कई साल बाद।"

"फाँसी से पहले क्या कहा था उन्होंने आख़िरी बार!"
ज्ञान बाबू कुछ खोज लाने में लगे थे।
"भारत माता की जय!"–बेटे ने जड़ा। बुढ़िया ने बेटे को फटकारा–
"तू था वहाँ ...बेकार बोले? भारत माता–वाता कुछ न कहो, यों बोला कि तेरे लिए कुछ न कर सका माफ़ कर दे।" बुढ़िया अपनी रौ में थी, बेटे को लगा कि माँ ने कद छोटा कर दिया शहीद पिता का, उसने फिर समझाया–
"यों कही थी कि बच्चों का पालन अब भारत माता करेगी, हमने भारत माता की सेवा की है!"
"हट्ट! कुछ ना कहा ...यों ही कही कि अब तू ही देखना!"
"फाँसी के बाद अंतिम संस्कार कहाँ और कैसे किया आपने।"
"वे तो फौजियों ने ही कर लिया होगा, हमको तारीख पता थी, उसके बाद फिर यही गाँव में ही कर लिया था छुप–छुपा के!"
"फूल सिराने नहीं गईं?"
"लाश ही न ली थी। भाई बोला कि कहाँ छुपाएँगे, मेरी नौकरी और चली जाएगी, पहले लौटा लाया, फिर छुट्टी न मिली।"
"आप नहीं गईं थीं?"
"अकेली औरत कहाँ जाती, साँस भी न निकाली थी, भाई की नौकरी का सवाल था, वो तो मेरी मदद में भागे फिर रहा था, मैं उसकी रोज़ी ले लेती क्या?"

"फिर?"
"फिर क्या? बस ऐसे ही कुछ कर करा लिया।"
"आपके परिवार वालों ने, घरवालों ने क्या कहा?"
"कहना क्या था ...मेरी तकदीर को रोते थे। वो तो भला हो जवाहर लाल नेहरू का जिन्होंने कहा कि 'बागी' न थे। ये भी देश का काम था' ...तब जाकर चेहरे की कालिख ज़रा गई, न तो रात को छुप–छुप कर चुप–चुप रोती थी।"
"अब कैसा लगता है आपको?"
"अब तो माला पहनाते हैं ...इज़्ज़त से बुलाते हैं ...कुर्सी पर बैठाते हैं– मूर्ति लगी थी जलसा किया था। सब सरकार आई थी।"
"कब की बात है?"
"बहुत पुरानी। बीस साल हुए!"
"हाँ ...फाँसी के पच्चीस साल हुए थे तब जलसा हुआ था।"
"मुझे गर्व है कि मैं शहीद का बेटा हूँ!" –बूढ़े ने सीना फुलाया और माँ की ओर देखा, माँ ने सिर हिलाया।

"इसने ही भागदौड़ की थी– यह भी सरकारी हाकिम था न, भागदौड़ न करता तो
क्या पता आज यह सब होता कि नहीं, तब तो बड़े दुख पाए थे। वो तो यह बड़ा हुआ, भागदौड़ की तब ..."
और ज्ञान बाबू को लगा कि वह इस भागदौड़ पर फोकस करेंगे! होता सब वैसा ही है। कमाल फोकस का है। और किस तरह प्रस्तुत करते हैं इस पर निर्भर है!
ज्ञान बाबू की योग्यता का लोहा लोग यों ही तो नहीं मानते!

 

१६ अगस्त २००६

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