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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से हर्ष कुमार की कहानी— फौजी


इंदौर स्टेशन पर खड़ी इंदौर-निज़ामुद्दीन एक्सप्रेस में अपनी सीट पर बैठ कर आराम से किताब पढ़ रहा था कि अचानक फर्श पर पड़ रहे किसी के कड़क जूतों की आवाज़ से उसका ध्यान बँट गया।

अगर आप किसी ट्रेन यात्रा कर रहे हों तो ट्रेन चलने से पहले स्टेशन लोगों के इधर-उधर भागने से जूतों की आवाज़ होती ही रहती है और उससे आपका ध्यान नहीं बँटता। पर यह आवाज एक अलग तरह की थी – सालों की कवायद के बाद पड़ी आदत से सख्ती से तन कर चलते हुये किसी फौजी की चाल की आवाज़। वह भी अकेली एक आवाज़ नहीं। एक साथ दो लोगों के चलने की आवाज़। आवाज़ मेरे पास आकर रुक गई थी। शायद यही कारण था कि मैं चौंक गया था। पर मैंने सिर ऊपर नहीं उठाया और आँखों को किताब पर ही रखा। बस आँखों के कोने से देखने की कोशिश की कि कौन है।

दो लोग थे एक के पीछे एक। अगला आदमी बड़ा अफसर था और उससे कुछ दूरी पर दूसरा आदमी। शायद उसका अर्दली या ड्राइवर था जिसने अफसर का सामान ले रखा था। वैसे आजकल सामान होता ही नहीं है। एक हलका सा ब्रीफकेस अफसर के हाथ में, पहियों वाला एक सूटकेस और एक वजनी एअरबैग पीछे वाले के हाथ में।

अफसर ने अपनी जैकेट उतार कर शीशे के पास लगी खूँटी पर टाँग दी और कहा – माफ़ कीजियेगा! मैं अपना सामान यहाँ रख दूँ तो आपको कोई ऐतराज़ तो नहीं? थोड़ी देर नज़र रखियेगा। प्लीज़”।

इतने सब के बाद कहाँ गुंजाइश रहती है कि आप मना कर सकें। वैसे भी बस डर यही तो है कि कोई बम न रख जाये। ये तो फौजी लोग हैं जो बड़े आदर के साथ देखे जाते हैं और वैसे भी इन से तो बम का खतरा नहीं हो सकता। मैं बोला – जी कोई बात नहीं मैं बैठा हूँ”। दोनो मुड़ कर चले गये शायद टीटी को खोजने। सोचने लगा न जाने ये रेलवे वाले कब सही सूचना देना शुरू करेंगे कि लोगों को स्टेशन आने से पहले ही पता चल जाये कि उनकी सीट है या नहीं, और है तो कहाँ पर है। कितने लोग नाहक परेशान होते हैं और दलालों के चक्कर में पड़कर पैसे बर्बाद करते हैं। पर सुना है कि रेलवे वाले तो टिकट नहीं खरीदते शायद यही कारण है कि उन्हें लोगों की परेशानियों का अहसास नहीं।

थोड़ी देर के बाद दोनों वापस आ गये। अफसर सीट पर बैठ गया और दूसरे से बोला – अच्छा तुम चलो। मैं गाड़ी चलने पर टीटी से बात करूँगा। यह भी पता करो कि उन्होंने मेरा आरक्षण क्यों नहीं किया। अगली बार जब वो रम लेने आये तो उसको थोड़ा रगड़ना। ये लोग रम तो ले जाते हैं पर जब काम पड़ता है तो हाथ नहीं आते”। यह एक अलग गणित है। पुलिस व फौज में सभी को अपने–अपने पद के अनुसार हर माह कैंटीन से शराब मिलती है। पर यह इतनी ज्यादा होती है कि वे इसे पी नहीं सकते। अत: कुछ बोतलें वे अन्य लोगों को दे देते हैं। इस कैंटीन की शराब की कीमत बाजार में मिलने वाली शराब से कम होती है तथा गुणवत्ता में यह बजार की शराब से बहुत अच्छी होती है और नशा भी खूब करती है। कहते हैं कि फौज और पुलिस के लोगों को मिलने वाली यह एक छोटी सी सुविधा है जो अंग्रेजों के जमाने से चल रही है। शायद यही कारण है कि यह सुविधा उन्हें मिलती रहनी चाहिये। हाँ एक बात जानकार लोग कहते हैं कि जो एक बार फौजी रम में रम गया उसे फिर और बहुत कुछ नहीं चाहिये। वो सुखी रहता है। राम जाने यह सच है कि शराबियों का बनाया हुआ पीने का एक और बहाना। पर उसको इन सब से क्या लेना-देना, वह तो ये सब छूता भी नहीं। वह अर्दली या ड्राइवर जो भी था चला गया।

मैं अपना ध्यान किताब में लगाये बैठा रहा। पर क्या यह हो सकता है कि कोई ट्रेन में बस किताब ही पढ़ता रहे और पास बैठा यात्री चुप-चाप शांत बैठा रहे। फौजी अफसर ने पहल की – मुझे ब्रिगेडियर जैक कहते हैं। दिल्ली जा रहा हूँ। और आप”? मैंने कहा– मेरा नाम पवन है और मैं भी दिल्ली जा रहा हूँ।”
“मैं तो छुट्टी में जा रहा हूँ। आप दिल्ली में रहते हैं या काम से जा रहे हैं?”
“मैं दिल्ली में रहता हूँ और काम भी वहीं करता हूँ। किसी से मिलने के लिये कल ही यहाँ आया था आज वापस जा रह हूँ।” अगले एक-दो प्रश्नों का अनुमान लगा कर और उनके भी उत्तर देते हुए मैंने कहा।
“मैं अभी जाना तो नहीं चाहता था पर क्या करूँ पत्नी के साथ दोंनो लड़कियाँ भी मिल गयीं और तीनों को सम्हालना मेरे बस में नहीं था। अगर तीनों साथ नहीं होतीं तो कोई बहाना जरूर बना देता पर तीनों एक साथ हों तो मुश्किल ही नहीं असम्भव है कि कुछ बहाना चल सके।

टीटी टिकट जाँच करने आ गया था। उसने मेरा टिकिट देखा अपनी सूची में निशान लगाया और मेरे टिकिट पर भी। फिर उनका टिकिट देखा। जोर से सर हिलाया – सर ट्रेन पूरी भरी हुयी है। बहुत से वीआईपी चल रहे हैं। कोई सीट नहीं है। आरऐसी के भी पूरे छ: हैं उसके बाद ही आपका नम्बर आयेगा। पर ये मान लीजिये कि आप तक नम्बर नहीं आयेगा”।
ब्रिगेडियर ने प्यार और आदर से कहा कि आप पूरा डिब्बा देख लें शायद सीट निकल आये। टीटी लोग तो बहुत ही हाजिर जवाब होते हैं और क्यों न हों, वहाँ उस समय ट्रेन के सबसे बड़े और एकमात्र रेल अधिकारी तो वे ही हैं। वह कब चुप रहने वाला था पलट कर बोला – “आप तक तो नम्बर नहीं आयेगा। आज तो शायद आरऐसी को भी सीट नहीं मिले”। फिर वह जाँच करता आगे चला गया।

ब्रिगेडियर पर टीटी की बात का कोई असर नहीं दिखा। मेरी तरफ देख कर बोले – “पता नहीं कि सीट क्यों नहीं हो पायी। चलिये कोई बात नहीं कुछ देर बाद टीटी से फिर बात करूँगा। ये लोग ऐसे ही बोलते हैं पर सीट तो दे देते हैं। दो-चार जरूर रहती हैं इनके पास। शायद सौ-दो सौ ले ले पर सीट जरूर दे देगा।“
कितनी अजीब बात है कि आप एक फौजी से रिश्वत की बात सुन रहे हैं।

हम लोग तो कभी नहीं लेते। लोग सोचते होंगे कि हमें कौन देगा? शायद आपने भी यही सोचा होगा। कभी किसी ने सोचा है कि अगर सीमा पर पैसे लेकर हम किसी घुसपैठिये को अंदर आने दें तो शायद वो पाँच-दस लाख से कम क्या देगा। सामान या अवैध नशीली दवाओं को आने दें तो भी कम नहीं मिलेगा। पर हम यह नहीं करते। हमारा प्रशिक्षण ही ऐसा होता है कि जीवन के मूल सिद्धांत ही बदल जाते हैं राष्ट्रीयता, देश प्रेम, देश भक्ति, बलिदान, समर्पण की भावना कूट-कूट कर भर दी जाती है। हर कदम पर सिखाते हैं कि पहले देश, फिर देशवासी, फिर हमारे मातहत, फिर हमारे साथी और सबके बाद हम। हमारा नम्बर हमेशा और हर बार सबके बाद ही आता है। बस जब यह बात घर कर गयी तो फिर कैसे हम बेईमानी का या रिश्वत का साथ दें। इसलिये हम कभी रिश्वत नहीं लेते। पर क्या करूँ जाना जरूरी है। रात भर खड़े – खड़े भी नहीं जा सकता। पूरा एक दिन सोने में बर्बाद हो जायेगा। छुट्टी कुल तीन दिन की है। आप बतायें कि क्या करूँ? ये जो कहेगा दे दूँगा।”

बात मेरी समझ में आ गयी कि बेचारा गलत फँस गया है। आज शायद वीआईपी ज्यादा चल रहे हैं इसलिये इन्हें सीट नहीं मिली। मैंने कहा आप पता करें कभी कभी देवास या उज्जैन से कोटा खाली होता है और शायद सीट वहाँ से हो सकती है। शायद कोटा से भी कुछ हो सकता है क्योंकि वहाँ ट्रेन पहुँचने में तो बहुत समय है। उन्होंने तुरंत ही अपने मोबाइल फोन से अपने किसी मातहद से बात की और बोला कि तुरंत ही जाकर पता करो कि अब क्या किया जा सकता है कि सीट जरूर मिल जाये। देवास, उज्जैन या नागदा से और अगर कुछ नहीं हो तो कोटा से जरूर मिल जाये। यह भी कहा कि कोई टीटी को फोन कर के कहे कि उनका ध्यान रखे।

मैं सोचने लगा कि कितना अजीब आदमी है कि इतनी सारी बातें अपने आप बताता जा रहा है। साथ ही मुझे यह भी लगा कि बहुत कुछ ठीक ही तो कह रहा है। घर के बारे में मेरा अनुभव उससे भिन्न नहीं था क्योंकि मेरी भी दो लड़कियाँ हैं मैं भी उसी तरह के अनुभव का भुक्त भोगी रहा हूँ पर उसका दिया गुरु ज्ञान- कि सच ही कहो पर कुछ इस तरह से कि सुनने वाले को लगे कि शायद झूठ है। वो परेशान सा रहे और आप चैन से’ मुझे बहुत भा गयी।

मेरी विचार शृंखला भंग हुयी, ब्रिगेडियर साहब कह रहे थे कि उनकी बात हो गयी है और जरूर कुछ बंदोबस्त हो जायेगा। कम से कम टीटी उन्हें तंग नहीं करेगा। मैंने कहा कि आप चिंता न करें अगर कुछ नहीं बना तो सामान मेरी सीट के नीचे रखा रहने दें और यहीं पर बैठे रहें। वो बोले – धन्यवाद! पर आप चिंता न करें कुछ न कुछ हो जायेगा। मैंने कई बार इस तरह यात्रा की है। जब मेरी लड़कियाँ देहरादून में वेलहम्स में पढ़ती थीं और मेरी पोस्टिंग झाँसी में थी तब अक्सर मुझे ट्रेन से जाना पड़ता था। हर बार इसी तरह भाग-दौड़ कर ट्रेन पकड़ना। पर सच मानिये हर बार कुछ न कुछ बन्दोबस्त हो जाता था। मुझे यकीन है कि इस बार भी कुछ हो जायेगा। बस ये फौज की नौकरी ही ऐसी है कि कुछ भी पहले से कोई योजना बना कर के नहीं चल सकते। जब लड़कियाँ छोटी थीं तो पोस्टिंग ऐसी जगह कि जहाँ अच्छे स्कूल नहीं या फिर जल्दी-जल्दी तबादला और पढ़ाई में बाधा। अब ऐसी जगह पोस्टिंग कि जहाँ कोई यूनीवर्सिटी नहीं। कालेज जाने वाली दो लड़कियाँ, हॉस्टल का खर्चा ज्यादा, पर क्या करें। अब पत्नी व बच्चों को दिल्ली में रखा है। बच्चे कालेज जाते हंन पत्नी उनकी देखभाल करतीं हैं। मैं अकेला रहता हूँ। मुझे सरकार चाहे जहाँ फेंक दे कोई चिंता नहीं। दो-तीन सूट्केस के साथ रहता हूँ, जहाँ भेजेंगे चला जाऊँगा। बच्चों को कोई परेशानी नहीं होगी वो आराम से पढ़ते रहेंगे। रही बात ट्रेन में जगह की वो तो मिल ही जायेगी। बस आपको मान लेना है कि मिल जायेगी।

आप जानते हैं जब हम लोग रात-रात जंगल में चलते हैं तो क्या वहाँ साँप-बिच्छू नहीं होते या कोई गड्ड़ा या खाई नहीं होती। सब होते हैं। पर न हमें साँप-बिच्छू काटते हैं, न किसी गड्डे में हमारा पैर जाता है, न हम खाई में गिरते है। जानते हैं क्यों? क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा। सच मानिये अगर हम ऐसे नहीं माने तो हम चल ही नहीं सकते। हर पल हर कदम पर खतरा हो सकता है कोई लैंड माइन हो, जंगली जानवर आ सकता है और हाँ दुश्मन की गोली भी। ये न समझियेगा कि हम बस अपने को बहलाने या झुठलाने के लिये ऐसा मानते हैं। यह छोटी बात नहीं है। हमें पूरा विश्वास होता है, ‘उस’ पर भरोसा होता है कि वो हमारे साथ है और हमारे साथ ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं होने देगा। आप यकीन मानें यह विश्वास हर बार खरा साबित होता है। हम लोगों ने इसे लाखों बार आजमाया है। आप एक बार आँखें बन्द करें, अपने भगवान का ध्यान करें और एक दो बार बोलें कि सब कुछ ठीक होगा और खुद को आराम से उस तरफ पहुँचा हुआ देखें। बस इतना ही करना है। सब कुछ ठीक तरह से हो जायेगा। आप कभी आजमाकर देखें। मैं बस अभी यही कर के आया हूँ और जानता हूँ कि सब ठीक हो जायेगा।”

तभी ब्रिगेडियर साहब का मोबाइल बजा – हाँ! ... अच्छा... बहुत अचछा... बहुत अच्छा... और ‘थेंक्यू’ कह कर उन्होंने फोन बन्द कर दिया। फोन की तरफ इशारा कर के बोले - मेरे ड्राइवर ने बताया कि बात कर ली है, टीटी को मैसेज भी दे दिया गया है। देखा आपने कितना असर है मेरे फार्मूले में। मैंने इसे श्रीलंका, आसाम, कश्मीर और सोमालिया सभी जगह आजमा रखा है। भगवान को साथ में लेकर, सच्चे मन से सही बात सोचो उस पर यकीन करो। बस सब ठीक होगा। कई साल पहले की बात है। मेरी लड़की बीमार रहती थी। मैं सोमालिया में था। एक दो बार छुट्टी पर आया जब उसका ऑपरेशन हुआ। पर मैं ज्यादा देर छुट्टी पर नहीं रह सकता था। न जाने पल्टन वाले क्या सोचते। बहुत परेशान था तो एक दिन मन कड़ा कर के बैठ गया। सोचा कि वह ठीक हो गयी है और मैं उसके साथ गोआ में पानी में खेल रहा हूँ। फिर अपने काम में लग गया। पोस्टिंग पूरी कर के वापस आया लड़की का इलाज जारी था अब तक बहुत ठीक भी हो गयी है। पर अभी गोआ जाने लायक नहीं हुई। मुझे यकीन है उतनी ठीक भी हो जायेगी। अरे आप ज्योतिष जानते हैं?” - कुछ चौंक कर उसने पूछा। उनकी नज़र मेरी किताब पर पड़ गयी थी जो मेरे हाथ में थी पर उसका कवर कुछ खिसक गया था और आधा नाम पढ़ाई में आ रहा था।

मैंने कहा – जी”। ब्रिगेडियर ने कहा - अच्छा तो क्या आप बता सकते हैं कि मुझे अगला प्रोमोशन मिलेगा कि नहीं। पिछ्ली बार की डीपीसी में मैं रह गया था। बतलाएँ कि इस बार क्या होगा। देखिये हमारी जिन्दगी भी क्या है। सत्रह साल की उमर में एनडीऐ में चले गये थे। तब से अब तक पैंतीस साल बस फौज ही फौज दिमाग में और मेरे आस पास रही है। हाँ कभी – कभी सिविल साइड यानी कि गैर फौजी लोगों से भी वास्ता पड़ता है पर बहुत कम। हमारा पूरा जीवन ही फौज को है। जब सेवानिवृत्त होंगे तो भी किसी फौजी आवासीय मुहल्ले में जाकर रहेंगे। लेकिन हमें भी हर बार यह प्रश्न सताता है कि प्रोमोशन मिलेगा कि नहीं। मैंने अपनी सभी परीक्षाऐं समय रहते पास की हैं सभी ट्रेनिंग में प्रथम तीन में मेरा नाम रहा है जब से मैंने एनडीए में दाखिला लिया था तब से। कई बार प्रथम आकर ‘सोर्ड ऑफ आनर’ भी ‘ली। पर हर बार वही प्रश्न कि क्या होगा? पिछ्ली बार को छोड़कर अब तक कभी नहीं हुआ कि प्रोमोशन मिस किया हो। पिछली बार भी हो गया होता पर पता नहीं क्यों नहीं हुआ। मेरा अंदाज है कि एक घटना हुई थी शायद जिसकी वजह से ऐसा हुआ होगा। 

यह २६/११ के कुछ दिन बाद की घटना है। दिल्ली में एक मीटिंग थी जिसमें मैं भी आया था। एक दिन लंच के दौरान इधर - उधर बातें चल रहीं थीं। रक्षा मंत्रालय के अधिकारी-गण भी थे। तभी किसी ने २६/११ की बात छेड़ दी। कई विचार प्रकट किये जा रहे थे। हर किसी का अपना अपना विचार था - भारत को एक कड़ा पत्र लिख कर अपना विरोध प्रकट करना चाहिये, यूएन यानी संयुक्त राष्ट संघ में भी प्रस्ताव रखना चाहिये, अमरीका से भी शिकायत करनी चाहिये, सभी देशों से आतंकवाद का विरोध कराना चाहिये आदि-आदि। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस तरह की बातों से क्या हल निकलेगा। रक्षा मंत्रालय के अधिकारी इस तरह की बात करें तो समझ में आता है। पर इन सारे फौजियों को क्या हो गया। इन्होंने तो मरने और मारने का काम किया है।

आपने किसी को मारा है या मरते हुए किसी को करीब से देखा है? मैं बताता हूँ आपको। मैंने कई जंग लड़ी हैं। कई घंटे की गोलाबारी के बाद घुटनों पर रेंगते हुए दुश्मन पर धावा बोला है। उसकी खंदक में कूद कर उसे ललकरा है। अपने संगीन को उसके पेट में घोंप कर सीने तक उसे फाड़ा है। फिर लात मार कर उसके शव को संगीन से हटाया है और तुरंत ही दूसरे पर वार, फिर तीसरे पर, फिर आगे। ऐसे में बस एक ही हल होता है – दुश्मन को मार डालो या मर जाओ। हमने हमला जीत कर खुशी मनाई है और मृत साथियों का शोक भी। उसके बाद अपने घाव भी गिने हैं। मौत को करीब से देखा है। अहसास हुआ है कि जरा चूक होती या भाग्य साथ नहीं देता तो मैं भी चल बसा होता। अपनी पल्टन के हर शहीद के घर गया हूँ। उनके माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी-बच्चों से और अन्य परिवार वालों से मिला हूँ। उनकी आँखों में गर्व और शोक दोनों को देखा है। मुझे जान की कीमत मालूम है। बहुत कीमती होती है। मरने वाले के परिवार के लिये तो अनमोल। जब कोई निरीह नागरिक आतंकवादियों के हाथ मारा जाता है तो मेरा खून खौल जाता है। उनके परिवार वाले कोई गर्व महसूस नहीं करते बस रोते हैं और पूछ्ते हैं – हमारा सगा वाला क्यों मरा? आप क्या करेंगे कि किसी के साथ ऐसा न हो? आतंकवादी तो एकदम डरपोक हैं हत्यारे हैं। निहत्थों पर भी घात लगा कर वार करते हैं। बराबर वालों से नहीं लड़ते।

हाँ! मैं बता रहा था कि उस समय लंच में बहुत सी बचकानी बातें की जा रही थीं। बहुत देर तक तो मैं चुपचाप सुनता रहा। अपने पर काबू रखा। पर जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैं बोल उठा - हमारे देश में निहत्थे लोगों को कितनी निर्ममता से मारा जा रहा है। आप लोगों ने जरूर ही देखा होगा कि मुम्बई में दस पाकिस्तानियों ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुन्ध गोलियाँ चला कर सैकड़ों लोगों को मार डाला। बच्चों, बूढ़ों और औरतों को भी नहीं बक्शा। आप सोचते हैं कि ये अकेले थे और इनके पीछे और कोई नहीं था? यह एक बहुत बड़ी साजिश थी और बहुत से लोग इसमें शामिल थे। आपने देखा कितनी बर्बरता से दानवीय योजना से यह काम किया है। क्या सचमुच ही आप मानते हैं कि एक कड़े पत्र से ये लोग मान जायेंगे और सब ठीक हो जायेगा। नहीं इस तरह से यह ठीक नहीं होगा। कभी ठीक नहीं होगा। आप लोग बस गाँधी जी एक बात ही जानते हैं – कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल सामने कर देना, उसका हृदय परिवर्तन हो जायेगा’। आप लोग भूल गये कि उन्हीं गाँधी जी ने यह भी कहा था – अगर कोई गाय मुझे मारने आयेगी तो मैं उस गाय को मार दूँगा’।

हमारी जिम्मेदारी है, हमारा धर्म है कि हम अपने देश और देशवासियों की हर समय, हर तरह से, हर खतरे से रक्षा करें। हमारे में क्षमता है, हिम्मत है, हौसला है। पर हम क्यों नहीं करते कि देश सुरक्षित रहे, देशवासी चैन से साँस लें? किसी के जान माल को खतरा नहीं हो। यह बुज़दिली क्यों? हमें इज़राइल से भी सीख लेनी चाहिये। ‘दाँतों के बीच में जीभ’ की तरह रहता है, पर रहता है पूरी शान से। अपने देश और देशवासियों की रक्षा करता है। कोई थप्पड़ मारने के लिये हाथ बढ़ाता है तो हाथ को रोक लेता है या उसे उखाड़ कर ही फेंक देता है। कोई हमले की सोचता है तो उसके दिमाग से यह विचार निकाल लेता है या उसका दिमाग ही निकाल कर रख देता है।

हम लोग हैं कि न जाने हमें क्या डर है? क्यों डरते हैं? किससे डरते हैं? क्यों हमारा खून जम गया है? और कितने बेकसूरों की मौत देखेंगे। हमारे यहाँ कमी है तो बस निर्णय लेने वाले एक आदमी की, जिसने जिन्दगी और मौत को करीब से देखा हो और उनकी कीमत मालूम हो। उन्होंने दस भेजे थे हम बीस भेजें और उनके सैनिक ठिकानों पर भी ऐसा कोहराम मचा दें कि अगली बार इस तरह की बात कभी उनके दिमाग में न आये। ईंट का जवाब पत्थर। म्यूनिक ओलंपिक व एँटबी के बाद किसी की मजाल है कि इजराइल के खिलाफ उस तरह की हरकत दोबारा करे। पर हमारी किस्मत ऐसी कहाँ। हमारे यहाँ २०० मरे ७०० घायल हुए मुम्बई की लोकल ट्रैन के धमाकों में और १७० मरे ३०० घायल हुए मुम्बई पर २६ नवंबर को हुए हमले में। हमारा खून सस्ता है। हम इजराइल की तरह निर्णय नहीं लेते कि आतंकवादी हमारे देश में कुछ हरकत करना तो दूर सोचने में भी डरें। हमारे यहाँ निर्णय लेने वाला वो है जो बन्दूकधारी सिपाहियों से घिरा रहता है सुबह दफ्तर जाता है और शाम को घर। घर-दफ्तर पर कमांडोज़ का पहरा। कोई खतरा नहीं। न मौत को करीब से देखा न कभी ज़िन्दगी को खुल कर जिया। ऐसे लोगों से और क्या उम्मीद रखी जा सकती है।

चारों तरफ सन्नाटा सब चुप। कुछ अधिकारी सकते में कुछ ग़ुस्से में। मंत्रालय के अधिकारियों के चेहरे कुछ ज्यादा लाल थे। पर इन लोगों की सबसे सराहनीय खूबी है अपने दिल और दिमाग के विचारों को दबा कर रखना। चुप्पी सेना के एक बड़े अधिकारी ने तोड़ी, बोले - ब्रिगेडियर जैक! आप बहुत अच्छे अफसर हैं पर शायद आपने स्वीट डिश में आइसक्रीम नहीं खायी बहुत अच्छी है। इसे ट्राई करें।

अगले दिन सेना के बड़े अधिकारियों के सामने मेरी पेशी की गयी। सबने सलाह दी कि ठंडा पानी ज्यादा पीना चाहिये और मेरी पोस्टिंग कशमीर के सीमा क्षेत्र से हटा कर यहाँ कर दी गयी। कुछ माह बाद डीपीसी का परिणाम घोषित हुआ। मैंने देखा कि मेजर जनरल के पद पर प्रोमोट हुए लोगों की सूची में मेरा नाम नहीं था। बहुत धक्का लगा। आप मेरा हाथ देख कर बताएँ कि इस बार होगा कि नहीं’।

मैंने उन्हें बताया कि हाथ देखना यानी हस्त रेखा विज्ञान और ज्योतिष दोनों अलग-अलग तरह की विद्या हैं। जरूरी नहीं कि हर एक ज्योतिषी हाथ देखना भी जनता हो। मैं हाथ देखना जानता हूँ पर सूर्यास्त के बाद हाथ नहीं देखता। क़ुण्डली बनाने के लिये जन्म स्थान, समय व दिनांक की जरूरत है। उन्होंने जन्म स्थान व दिनांक तो बता दिया। पर समय उन्हें ठीक से याद नहीं था। बोला कि शाम का समय था लगभग ७ या ८ बजे का। मैंने बताया कि इस तरह के समय से सही कुण्डली नहीं बनायी जा सकती। अगर ७ या ८ बजे के बीच लग्न वही रहे तो भी नवांश, दशमांश आदि वर्ग कुण्डलियाँ ली तो अवश्य ही बदल जायेंगी। इसलिये सही जन्म कुण्डली के लिये जन्म समय का सही पता होना अत्यावश्यक है। उन्होंने तुरंत ही अपना मोबाइल फोन खोला और उसमें से सिम कार्ड निकाल कर बदल दिया फिर बन्द करते हुए बोले – अब मैंने दिल्ली का सिम कार्ड लगा लिया है”। फिर अपनी पत्नी का नंबर लगा कर उससे बात की, बताया कि वह उनकी अलमारी से उनकी फाइल संख्या ३ में से देख कर उनका जन्म समय बताएँ। मैं आश्चर्य में - अपने कागज आदि कितने व्यवस्थित तरीके से रखता है।

आजकल फोन कम्पनियों ने भी कैसी सुविधा दे दी है कि आप कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं। खर्चा भी कम लगता है। हम लोग तो पुराने जमाने के लोग ठहरे कि जब एक डेड़ मिनट बात करने में ७० या ८० रुपये लग जाते थे। अब वह काम हो जाता है बस ६० से ९० पैसे में। एक दिन जब मैंने अपनी लड़की को अपनी नानी से बात करते सुना तो मेरा खून खौलने लगा। बात हो रही ठीक कि गार्डन में ठीक से पानी दिया कि नहीं, छोटे कुत्ते ने खाना खाया कि नहीं। बस दूध ही पिया या रोटी भी खायी। कुछ देर बाद मुझ से नहीं रहा गया। मैं चिल्ला उठा – बात बन्द करो। उसे एक लैक्चर भी दिया कि कम समय में कैसे बात की जाय। वो सकते में थी। बोली – पापा! मैंने नानी से पांच मिनट भी बात नहीं की बिल तीन रुपये से भी कम है। फिर इतना हल्ला क्यों’। मैं समझ गया कि हमारा समय बदल गया है हम बहुत आवश्यक होने पर ही फोने से बात करते थे और जब करते थे तो बस उतनी ही कि जितनी जरूरी होती।

तब तक ब्रिगेडियर की बात हो गयी थी और उन्होंने मुझे ठीक समय दे दिया। पर कुण्डली बनाने की सुविधा तो नहीं थी – न पंचांग न कम्प्यूटर। मैंने कहा कि दिल्ली जा कर कुण्डली बनाऊँगा तब कुछ बताऊँगा। तभी एक विचार मेरे दिमाग में आया और मैंने पूछा – आप इस विषय पर अपना सकारत्मक सोच वाला फार्मूला क्यों नहीं चलाते। भगवान का ध्यान एक बार सोचा फिर शायद सब ठीक।

ब्रिगेडियर ने कहा – जी करता हूँ। पर क्या करूँ प्रोमोशन का मामला है और सारा दारमदार उन लोगों पर है जो ऑफिस में बैठते हैं। न जाने क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं। उन्हें किसी बात का कोई असर नहीं होता। कुछ सुनते नहीं शायद समझते भी नहीं। अजीब तरह के हैं ये लोग। ये भूल जाते हैं कि हमें कितना काम करना पड़ता है। आप को अंदाज नहीं होगा हमें कितना पढ़ना पड़ता है। हर कोर्स में ठेर सारे कागज मिलते हैं। उन्हें पढ़ना पड़ता है याद रखना पड़ता है। उन पर चर्चा करनी पड़ती है। बर्मा की लड़ाई में क्या हुआ था। क्या हुआ पर्ल हारबर में। वो रेगिस्तान का धूर्त (डेज़र्ट फोक्स) रोमल कैसे लड़ता था और उसे कैसे परास्त किया गया। अफगानिस्तान में रूस ने क्या किया और अब अमरीका क्या कर रहा है। किस की क्या रणनीति थी। कौन जीता, कौन हारा और क्यों। सब कुछ पढ़ाते हैं सब याद रखना पड़ता है। लोगों को लगता है कि फौज में पढ़ना लिखना कम पड़ता होगा। एक बार नौकरी लग गयी तो फिर मौज। सुबह-शाम परेड, सेहत ठीक और क्या चाहिये। सारी सुविधाएँ हैं – अपना अलग इलाका, अपना अस्पताल, मैस में खाना, कैंटीन से सस्ता सामान, क्लब में सैर सपाटा और अच्छी तनख्वाह भी। यानी पाँचों उँगली घी में।

वो नहीं जनते कि कितनी मेहनत है और ऊपर से पूरी पढ़ाई भी। बहुत से लोग तो ऐसे भी हैं कि यदि उन्हें पता रहता कि इतना पढ़ना पड़ेगा तो फौज में नहीं आते। एक बात और है। पुलिस में तो चालीस-पचास डीजी होते हैं पर फौज में जनरल एक, लैफ़्टीनेंट जनरल, और मेजर जनरल भी ज्यादा नहीं होते। हर स्टेज पर छंटनी होती है। अच्छे-अच्छों का नंबर कट जाता है। इस लिए नहीं कि उन में कुछ कमी है बल्कि इसलिये कि पोस्ट कम हैं। यहाँ योज्ञता की बात नहीं बस किस्मत की है। कई सुधार हुए हैं पर कई बाकी हैं। अभी दिल्ली बहुत दूर है। यहाँ सिविल सर्विस की तरह नहीं है कि एक बार घुस जाओ तो फिर कोई चिंता नहीं। कोई परीक्षा नहीं। अपने आप समयबद्ध तरीके से ऊपर तक जरूर जाओगे। हम आज बत्तीस-पैतीस साल बाद भी अगर मंत्रालय में जाते हैं तो अट्ठारह-बीस साल की नौकरी वाले सिविल अधिकारी के अधीस्थ काम करना पड़ता है। अब आप बताएँ कि सकारत्मक सोच कहाँ तक साथ देगी। पर फिर भी उसका सहारा तो लूंगा ही पर आप मेरी कुण्डली देखकर बताएँ कि किस्मत में क्या है। वैसे अगर इस बार प्रोमोशन नहीं मिला तो मेरे जूनियर को प्रोमोशन मिलेगा। फिर मैं कैसे काम कर सकता हूँ। मैंने तय कर लिया है कि अगर प्रोमोशन नहीं मिलेगा तो नौकरी छोड़ दूँगा।

सेना के बहुत से अधिकारी हैं जो फौज छोड़कर प्राइवेट कंम्पनियों में सुरक्षा अधिकारी की नौकरी करते हैं या अपनी कम्पनी चलाते हैं। बहुत कमाते हैं। हम लोग जो फौज में हैं उनसे कई गुना ज्यादा। अब आप ही देखें, जो आदमी फौज में अच्छी तरह काम करता है वह काम करता रहता है। उसे सरकार वही गिने पैसे देती रहती है। वह पिसता रहता है। पर जो फौज में नहीं चल पाता और छोड़ कर बाहर चला जाता है वो ऐश करता है पैसे ही पैसे कमाता है। है ना कितनी अजीब बात। अगर इस बार प्रोमोशन नहीं मिला तो मैं भी नौकरी छोड़ दूँगा और बाहर जाकर ऐश करूँगा। बेकार पिसने से क्या फायदा।

तब तक टीटी आ पहुँचा उसके साथ चद्दर तकिये देने वाला लड़का भी था। वह ब्रिगेडियर साहब से बहुत अदब से बोला – सर! आपके लिये बगल वाले कोच में १९ नंबर की सीट कर दी है। नीचे की है आप आराम से वहाँ बैठें’। साथ वाले लड़के की तरफ इशारा कर के बोला कि यह लड़का आपका सामान ले जायेगा। आप चिंता न करें। इसके व्यवहार में इतना परिवर्तन देख कर मैं अचम्भे में था। पर शायद मुझे आश्चर्य नहीं करना चाहिये था क्योंकि आज के युग में दुआओं से असर हो न हो पर फोनकाल से असर जरूर पड़ता है।

ब्रिगेडियर ने चद्दर तकिये देने वाला लड़के को इशारे से अपना पहियों वाले सूटकेस और वजनी एअरबैग उठाने को कहा और ब्रीफकेस व जैकेट अपने हाथ में उठा ली और बोले – अब मैं इजाज़त लेता हूँ लगभग साड़े आठ बज गये हैं। रात होने लगी है। कल बहुत काम करना है। आप को भी आराम करना होगा। मदद के लिये धन्यवाद। मैं चलता हूँ। पर आप मेरा कुंडली देखना मत भूलियेगा। अरे हाँ! मैं आपसे आपका मोबाइल नम्बर लेना तो भूल ही गया। मैं आपको एक मिस काल देता हूँ। आप अपना नंबर बताएँ’। मैंने अपना नंबर बोला और उन्होंने उसे अपने मोबाइल से डायल किया और जैसे ही मेरे फोन में घंटी बजी तुरंत ही फोन काट दिया। यह एक दूसरे को अपना मोबाइल नंबर देने का सबसे आसान व पक्का तरीका है। बोले – अब आप के पास मेरा नंबर है और मेरे पास आपका। भूलियेगा नहीं। फिर गुड नाइट कह कर पलट कर चले गये।

मैं सोच रहा था कि रेल यात्रा भी जिंदगी को कितने करीब से दिखाती हैं। अभी एक पल पहले तक कितने आराम से बैठे थे जैसे बरसों का साथ हो और बरसों तक बना रहेगा। और जब बुलावा आया तो बस तुरंत ही चले गये जैसे कोई लेना देना न हो। मैं सोचता रहा कितना जिंदादिल कितना बहादुर आदमी था कितनी खुल कर बात कर रहा था। कितनी सारी बातें की घर परिवार की, फौज की और जंग की। इसे भगवान पर कितना भरोसा है और कितना भरोसा है अपनी सकारात्मक सोच पर। हाँ कितना होशियार आदमी था, कितना कुछ बताया पर यह न बताया कि कब और कहाँ-कहाँ पर उसकी पोस्टिंग रही थी, न किसी संगी साथी का नाम, न अपनी पल्टन, बटालियन या ब्रिगेड का नाम, न जगह। यानी कि बातें तो बहुत कीं पर बताया कुछ नहीं। शायद यह भी फौज में इन्हें सिखाते होंगे।

इन्हीं बातों को सोचते-सोचते न जाने कब मुझे नींद आ गयी। और जब नींद खुली तो सुना कि चद्दर तकिये देने वाला लड़का सभी को जगा रहा था कि अब गाड़ी निज़ामुद्दीन पहुँचने वाली है जल्दी उठें। जब तक मैं कुछ समझता कि देखा कि गाड़ी ने ब्रेक लगा दिये थे और धीरी होने लगी थी। जल्दी से उठा, जूते पहने, जा कर मुँह धोया। आकर अपना सामान संभाला। गाड़ी रुक गयी थी। कुछ कुली तो पहले ही अंदर आ गये थे बाकी एक साथ घुस आये। उन्हें मना करता हुआ अपना सामान उठा कर बाहर निकला और फिर स्कूटर पकड़ कर घर पहुँचा। फिर घर से दफ्तर, रोज की जिंदगी में व्यस्त।

कई दिन ऐसे ही निकल गये। जब कुंडली देखने की याद आती तो समय नहीं होता और जब समय रहता तो कुंडली देखने का ध्यान नहीं आता। हाँ कई बार उनके ‘सकारात्मक सोच’ के फार्मूले का ध्यान आया। कई दिन बाद एक रात एक अजीब सपना देखा। कोई जंग सी छिड़ी हुयी है और बहुत अफरा-तफरी है। अचानक नींद खुल गयी। मेरे सामने ब्रिगेडियर का चित्र उभर आया। याद आया कि मैंने उनकी कुंडली नहीं देखी है। निश्चय किया कि सुबह उठने के बाद पहला काम यही होगा और सोने की कोशिश की पर नींद नहीं आयी। बहुत देर तक ऐसे ही बिस्तर पर पड़ा रहा फिर उठ गया। दिन निकल आया था। सोने के कक्ष से बाहर आया और पढने के कक्ष में जाकर कंप्यूटर चला कर ब्रिगेडियर की कुंडली लगा कर बैठ गया और उसका अध्यन करने लगा। जनना चाहता था कि सितारे कहाँ तक ‘सकारात्मक सोच’ का साथ देंगे। जब ग्रहों का गोचर देख रहा था बाहर बरमदे में अखबार के गिरने की आवाज सुनी। अखबार वाले ने अखबार फेंका था।

तुरंत ही जाकर अखबार उठा लाया। पुरानी आदत है कि अखबार के आते ही उसे उठाने की जल्दी और फिर जल्दी कि उसे पढ़ा जाये। सभी को मालूम है कि अखबार में छपी खबर वही रहती चाहे तभी पढ़ो या बाद में। पर शायद सभी को जल्दी रहती है सभी चाहते हैं कि पहले पहले अखबार वही पढ़ें। मुझे भी यही बीमारी है और मैं उन लोगों में हूँ जो अखबार को पढ़ते ही नहीं चाटते भी हैं। पहली बार नजर से सभी बड़े अक्षरों में लिखी खबरें गुज़रती हैं फिर आराम से खबरों को बारीकी से पढ़ा जाता है। बड़े अक्षरों में लिखी खबरों को पढ़ते समय एक खबर पर मेरी निगाह रुक गयी – ‘तीन ब्रिगेडियरों का प्रोमोशन’। तुरंत ही नीचे लिखी पूरी खबर को पढ़ा और पाया कि तीन में से एक नाम के आगे लिखा ठीक “उर्फ जैक” मैं समझ गया कि अपने ब्रिगेडियर साहब का प्रोमोशन हो गया है। मैं सोच में पड़ गया कि उनकी मेहनत रंग लायी है, सितारों ने अपना काम किया है या ‘सकारत्मक सोच’ ने? या शायद तीनों ने।

२४ जनवरी २०११

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