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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
शुभदा मिश्र की कहानी— नव वर्ष शुभ हो


फोन करने जाना था बेटा... परेशानी में डूबे बाबू जी तीसरी बार कह चुके थे।
नीलू स्वयं बहुत परेशानी में पड़ गई थी। फोन तो रखा था बगल के कमरे में। दरवाजा खोलो तो रखा है फोन। लेकिन दरवाजा थोड़े ही खोला जा सकता है। दरवाजा तो उस तरफ से बंद है। और उस तरफ है आफिस। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का जोनल आफिस।

सारे दिन काम चलता रहता है वहाँ। बैठा रहता है वहाँ सारे दिन नया मैनेजर। नो नानसेंस टाइप का कड़ियल आदमी। सारे दिन इस नए बास की सधी हुई फरमाबदार आवाज गूँजती रहती है आफिस में। आफिस के बाद वाले कमरे में ही तो रहते हैं नीलू लोग। सारे दिन आफिस की एक एक बात सुनाई पड़ती है नीलू लोगों को। जरूर नीलू लोगों की बातें भी उधर सुनाई देती होंगी ही।

यह आफिस देखकर ही बिदके थे नीलू और नितिन। जब यह मकान देखने आए थे। उस समय आफिस के मैनेजर थे अस्थाना साहब। उन्होंने ही आश्वस्त किया था नहीं आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी यहाँ। बल्कि सहयोग ही मिलेगा हम लोगों से। और मिला भी। बड़े ही माई डियर किस्म के इनसान थे अस्थाना साहब। ढीले ढाले अलमस्त। अस्थाना साहब शाम पाँच बजते बजते अपने घर चल देते। उनका अपना मकान इसी शहर में था।

उनका अपना मकान इसी शहर में था। अस्थाना साहब के पहले जो मैनेजर थे वे नीलू वाले हिस्से में ही रहते थे। दर असल यह हिस्सा था ही आफिस के मैनेजर के लिये। अस्थाना साहब के न रहने से मकान मालिक को किरायदार ढूँढना पड़ा था। बहुत शशोपंज में पड़े थे नीलू और नितिन जब मकान देखने आए थे। अस्थाना साहब ने ही कहा था। नहीं, आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि सहयोग ही मिलेगा। और सच में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। आफिस के सारे कर्मचारी युवक ही थे। अपने में मस्त रहते। अस्थाना साहब के घर के लिये रवाना होते ही और मौज मस्ती में आ जाते। मेज को तबला बनाकर खूब गाते। कभी फिल्मी गाने कभी भोजपुरी लोक गीत। कभी पाप सांग कभी शास्त्रीय गीत भी। खूब ठहाके लगते। लेकिन नितिन और नीलू से अदब से पेश आते। वे जब जरूरत हो आफिस जाकर फोन कर लेते। नितिन का फोन अभी इस घर में नहीं लग पाया था और मोबाइल अभी चलन में नहीं आ पाया था।

मगर इधर अस्थाना साहब का तबादला हो गया था उन्होंने ही बताया था नया मैनेजर पहले सेना में मेजर था। सचमुच उसने आते ही सेना का अनुशासन लागू कर दिया था आफिस में। सारे दिन आफिस में कड़क सन्नाटा छाया रहता सिर्फ मैनेजर की धीमे सधे हुए मर्दाना स्वर में दी गई हिदायतें सुनाई देतीं। नितिन ने एक दिन बताया था मैं फोन करने गया था तो इस मैनेजर को थोबड़ा लटक गया था। इसी कारण वह बाबूजी से बार बार कह रही थी आप मुझे नंबर और मैसेज दे दीजिये तो मैं मोड़ के टेलीफोन बूथ में जाकर कह दूँगी। आप तो उतनी दूर चल नहीं सकेंगे। मगर तब बाबू जी बिगड़ने लगे थे। कि उनका खुद बात करना बहुत जरूरी है।
मन मारकर वह बोली चलिये बाबू जी।

बाबू जी को संभालकर पकड़े हुए वह मैनेजर के कक्ष तक पहुँची। नया मैनेजर अपनी रौबीली आवाज में अपने सामने खड़े दो सहायकों को झिड़क रहा था। दरवाजे पर एक संभ्रांत वृद्ध एवं के शालीन रमणी को देखकर औपचारिकतावश बोल गया। आ जाइये आप लोग। कई लोग बैठे थे आफिस में। सिर्फ एक कुर्सी खाली थी। उसने बाबू जी को उसमें बैठा दिया। दोनो ने हल्के से नमस्ते किया। मैनेजर ने हल्के से सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया। वह बोली ये बगल वाले शर्मा जी के पिताजी हैं। इन्हें जरा फोन करना था। मैनेजर ने फोन आगे बढ़ा दिया। बाबू जी से नंबर लेकर वह मिलाने लगी। नंबर लग नहीं रहा था, मैनेजर बेचैन सा दिख रहा था। अधीर भी। उसने फोन स्वयं ले लिये उससे नंबर लेकर लगाया रिसीवर बाबू जी की ओर बढाया। बाबू जी बातें करने लगे अब जैसे मैनेजर ने बड़ी मेहरबानी से उसकी तरफ देखा, “बोला आप मिसेज शर्मा हैं?”
जी वह मुस्कुराई, “और आप मेजर सिंह?”
जी हाँ वह भी जरा हँसा जरा सहज हुआ। पास में रखे सूटकेस की तरफ इशारा किया और अपने धूल धूसरित सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, “अभी ही टूर से लौटा हूँ। घर भी नहीं जा पाया फिर अपने सहायक को बुलाकर कुछ हिदायत दी और फाइल खोलकर देखने लग गया।“

नीलू अब तक खड़ी ही हुई थी। अब एक नजर उसे देखा- कद्दावर पौजी शरीर, तीखे नाक नक्श, साँवले से चेहरे पर एक सख्ती एक खीझ एक व्यस्तता। तिस पर नाक पर चढ़ा हुआ चश्मा। बेशक वह एक रौबीली और कड़क छवि देता था।

घर लौटकर उसने बाबू जी को ठीक उसी कमरे में बैठाया। यानी आफिस से लगे कमरे में। फिर काफी बनाकर लाई। बाबूजी काफी सिप करने लगे। वह फी सिप करने लगी। फिर कहने लगी, “बाबूजी, फौज लोग तो महिलाओं का बहुत सम्मान करते हैं न?”
“बहुत।“ बाबू जी बोले।
“लेकिन लगता है बाबूजी, अब फौजियों के मापदंड बदल गए हैं। इनके सामने महिलाएँ खड़ी रहती हैं और ये कुर्सी पर बैठे रहते हैं।“
बंद दरवाजे के उस पार मानो भारी निस्तब्धता छा गई थी।
“सभी जगह स्तर गिर गया बैटा,” बाबूजी धीरे से बोले।
“असल में बाबूजी, वह सुनात हुई आवाज में कहने लगी, “अब लोग कोई देशभक्ति के चलते थोड़े ही सेना में जाते हैं। ऐश करने के लिए जाते हैं। मौका मिलते ही छोड़ देते हैं सेना और ज्वाइन कर लेते हैं खूब पैसा देने वाली किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी।“

उधर की एक्जिक्यूटिव चेयर चरमराई। कुछ पलों में बंद दरवाजे की दरार से सिगरेट की तीखी गंध आई। वह दुष्टता से मुस्कुराई, बाबू जी भी मुस्कुरा दिये।

एकाध हफ्ते में बाबूजी अपने गाँव चल दिये। जब तक वह रहे, उनसे बतियाते हुए एक न एक बोल मार देती नीलू। नितिन सुबह नौ बजे आफिस के लिये निकलता तो शाम पाँच बजे ही लौटता। इसी बीच इसे जब मौका मिलता, चुटकी बजा बजाकर उलटे सीधे गीत गाती, और मैनेजर का भेजा उड़ाने लगती।
ऐसी नौकरिया की का कहूँ सजनी
मुच्छड़ बिचारो दिन रात टरटरावै रे
कभू टरटरावै कभू गरियावै रे
आफिस में बिजली बेबात कडकड़ावे रे।

नितिन लौटता तो और मौज हो जाती। चाय नाश्ता गरम गरम पकौड़े इडली दोसे आलू पोहे खाते जाते गपियाते जाते नितिन दंभी और शेखी बाज था। बताता रहता कि वह कितना कुशल कितना कर्मठ अधिकारी है। वह उसे उचकाए जाती, “हाँ जी मैं जानती हूँ इतने चोट्टे और निकम्मे अफसरों के बीच तुम्हीं सबसे काबिल सबसे ईमानदार अफसर हो। मैं तो देख ही रही हूँ आफिसर कितना काम करते हैं।“

“इशारा समझकर नितिन टरटराने लगता। मैं कोई प्राइवेट कंपनी का अफसर नहीं हूँ। हम राष्ट्र की प्रगति में योगदान करनेवाले लोग हैं। एक एक बात को खुद चेक करता हूँ वर्ना ये जनम जनम के दरिद्र पूरा विभाग बेच खाएँ। तुम करो किसी सरकारी आफिस में नौकरी तब न जानो। लाइब्रेरी से मोटी मोटी किताबें लाना घंटों बैठे बैठे पढ़ते रहना और कलम घिसना। सिर्फ नवाबी करती हो तुम तो।“

“हम क्यों करें साहब नौकरी। हमारी किस्मत में तो राजयोग लिखा है। जिनकी किस्मत में चाकरी लिखी है वे करते फिरते हैं चाकरी। एक छोड़ते हैं तो दूसरी के पीछे भागते हैं। दूसरी छोड़ते हैं तो तीसरी के पीछे। हर जगह अत्यं विनम्र और विश्वस्तता की मूरत बने।

उसने सुन रखा था कि इस मैनेजर ने सेना छोड़ने के बाद दो तीन नौकरियाँ और भी की थीं। कोई दिन कुछ सहेलियाँ आ जाएँ तो फिर क्या पूछना। शरारत परवान चढ़ जाती। चाय नाश्ते के साथ दुष्टता शुरू हो जाती, “जानती हो कितने फौजी अफसर तो आतंक वादियों के डर से सेना छोड़कर भाग गए हैं। सरकार ने जासूसी कुत्ते छोड़ रखे हैं इन सेना के भगोड़ों के पीछे। फिर आँख दबाकर मुस्कुराती। एक तो इसी बिल्डिंग में छुपा बैठा है।“

सारी सहेलियाँ खी खी हँसने लगतीं, “बुला न रे भौं भौं करते जासूसी करते कुत्ते कुदवाएँगे इसको।“
“कर न फोन।“
“अरे फोन ही के तो चलते तो सारा भंडाफोड़ हुआ री बहना।“
सारी महिलाएँ खिलखिलाने लगतीं।

मेजर के लिये जब ये ताने बर्दाश्त बाहर हो गए तब वह बाहर बिल्डिंग के हाते में ही अपनी मेजकुर्सी लगवा लेता। वहीं काम करते दिसंबर की गुनगुनी धूप में।

मगर एक दिन नितिन आफिस से आया तो कहने लगा,
“अब आई अकल इस अहमक को कि पड़ोसियों से बनाकर रखना चाहिये। उस दिन मैं फोन करने गया तो कैसा थोबड़ा लटका हुआ था। अब तो मुझे देखते ही नमस्ते करता है। कुछ न कुछ बतियाता है, आज तो मुझे जबरदस्ती बैठाकर चाय पिलाया। जानती हो यह तो राज शेखर जी का पोता है। तुमने नाम सुना होगा। शास्त्री राजशेखर सिंह का। महान साहित्यकार थे वे। तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें चाय पर बुलाया था। तब एक नीली कलम भेंट की थी उन्होंने। यह बता रहा था अपनी बाद की श्रेष्ठ रचनाएँ उसी कलम से लिखी थीं राजशेखर सिंह जी नें। इसका बड़ा भाई ट्रांबे में वैज्ञानिक है। परिवार में यही एक निकम्मा निकला ग्रेजुएट तो हैं आगे पढ़ा ही नहीं। घर से भागकर सेना में भर्ती हुआ था।“
“हा हा और अब सेना से भाग कर यहाँ आया है,” वह बोली।
“यहाँ से भी भागेगा।“ नितिन कहने लगा। मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी इसके बस की नहीं। कितना टेंशन पालता है जैसे सारी जिम्मेदारी इसी की हो।

मगर उस दिन नीलू स्वयं मुसीबत में पड़ गई। एक परिचित के घर सगाई थी। परी की तरह सजधज कर निकली नीलू। अपने दरवाज में ताला लगाकर जैसे ही पलटी सामने मेजर सिंह धूप में बैठे अपनी फाइल निपटाते नजर आए। निगाहें मिलते ही वे हाथ जोड़कर मुस्कुराए। नीलू का चेहरा आरक्त हो उठा। क्या सचमुच इसी सुदर्शन पुरुष को वह इस कदर चिढ़ाती रहती थी। जल्दी जल्दी कदम बढ़ाती वह हाते के बाहर निकल गई।

सगाई के सारे कार्यक्रम के दौरान वह अपना आरक्त चेहरा लिये सन्नाटे में रही। घंटे भर के बाद लौटी तो हाते के फाटक पर कदम रखते ही उन्होंने ऐसे प्यार से फिर अभिवादन कर दिया कि नीलू का सर्वांग सनसना उठा।

मुश्किलें और भी बढ़ने लगी थीं। वह जब भी दरवाजे तक जाती दूध वाला आता तो दूध लेने, सब्जी वाला आता तो सब्जी लेने, अखबार पत्रिकाएँ उठाने धूप में बैठे मेजर की दृष्टि टप से उस पर ही पड़ा जाती। इधर उन्होंने अपनी मेज कुर्सी ही ऐसी जगह लगवा ली थी कि नीलू एक मिनट के लिये भी आए तो दिख जाए। कभी एकाध बार नीलू भी देख ले तो ऐसी मुहब्बत से नमस्कार करते कि नीलू की जान ही निकल जाती।

नीलू की बोलती बंद हो चुकी थी। वह हर वक्त एक ताप में झुलसती सी रहती। भीतर भीषण अंतर्द्वंद्व चलता रहता। यह क्या हो रहा है। लोग क्या सोच रहे होंगे।

वह पहली जनवरी थी। लगभग दस बजे का समय। नीलू और नितिन तैयार होकर निकले। मित्रों के साथ पिकनिक मनाने। नितिन अपनी मोटर साइकिल निकालने लगा नीलू अपने घर के दरवाजे में ताला बंद करने लगी। सामने हल्की नरम धूम में मेजर बैठा हुआ था। अपने पूरे स्टाफ के साथ। नए साल की नई सुबह कुछ हँसी दिल्लगी चल रही थी। संभवतः उसी मूड में मेजर बोल उठे,
“नमस्कार शर्मा जी, किधर चल दिये। कभी हमें भी तो काफी वाफी पिलाइये भाई। सुना है आपकी मेम साहब बहुत बढ़िया काफी बनाती हैं।“
नितिन का चेहरा तमतमा गया। वह कुछ बोला नहीं।
“क्या बात है शर्मा जी, नाराज हैं क्या।“ मेजर कुछ सहम कर बोले।
नितिन ने सिर उठाकर उनकी तरफ घृणा से देखा। फिर अपनी टरटराती आवाज में बोला, “क्या बात है साहब मैं अपनी फैमिली के साथ जा रहा हूँ तो आप मुझे क्यों टोंक रहे हैं। मैंने पहले ही जता दिया था कि मैं नॉन एकेडेमिक लोगों की कंपनी पसंद नहीं करता। मेजर पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। पूरा स्टाफ सनाका खा गया। सारे रास्ते नितिन गुस्से में फुँकारता रहा। सुबह से मूड खराब कर दिया बेहूदे ने। मैं मकान बदल लूँगा साहब।“
अवसाद की गहराइयों में डूबती वह किसी तरह बोली, “जल्द बदल लो जी मकान। उस दिन के बाद फिर कभी कोई बाहर हाते में नजर नहीं आया।“

आफिस में तो जैसे मातम छा गया था। कर्मचारियों के बोलने की आवाज तक कभी सुनाई नहीं पड़ती। मेजर की आवाज तो बिलकुल भी नहीं। दरवाजे से बहुत कान सटाकर सुनती नीलू तो आभास होता कोई बेहद कमजोर सी आवाज में कुछ निर्देश दे रहा है और फिर एकदम खामोशी छा जाती।

लेकिन एक दिन अस्थाना साहब ही आगए नीलू के घर। नितिन था नहीं। वे नीलू से ही बतियाने लगे। परेशान से बताने लगे कि कंपनी के डायरेक्टर मिस्टर एंडरसन और मिस्टर सुब्रमण्यम आ रहे हैं मुआयना करने। लेकिन यहाँ तो सब ठंडा पड़ा है कोई तैयारी ही नहीं। इस मेजर को जाने क्या हो गया है।

नीलू का हृदय विदीर्ण होने लगा। इनका डायरेक्टर्स आ रहे हैं और इनका ये हाल। क्या इनके घर में कोई इनका मूड ठीक करने वाला नहीं है। इनके मित्रों में कोई नहीं करता इनका मूड ठीक। सारी करतूत तो उसी की है। बिना बात उनका दिमाग खराब किया सरे आम अपमान करवा दिया। वह जनवरी की सात तारीख थी। संपूर्ण उत्तर भारत शीत लहर की चपेट में था। चारों ओर घना कोहरा तिसपर सुबह से लाइट नदारत, नितिन अपनी आफिस की गाड़ी में जा चुका था। मेजर की जीप भी आकर सामने हाते में खड़ी हो चुकी थी। दस बज गए थे। कुछ ही देर में आफिस के बाकी कर्मचारी भी आ जाएँगे।

नीलू का हृदय धक धक कर रहा था। वह जो कदम उठाने जारही है कहीं गलत तो नहीं समझी जाएगी। कहीं कोई बैठा न हो वहाँ। न जाए तो अच्छा। बेकार नया फसाना बन जाएगा।
मगर वह तैयार हुई। राख के रंग की सादी साड़ी हल्के भूरे रंग का पुराना कार्डिगन, बिना किसी प्रसाधन का सादा सलोना चेहरा।

दरवाजे से कान लगाकर आहट ली. एकदम सन्नाटा। कुर्सी जरा सी चरमराई तो लगा हाँ है। भीतर के सारे डर को धकेल कर वह पहुँच ही गई आफिस के दरवाजे पर। भीतर मेज पर एक मोटी सी मोमबत्ती जल रही थी। मोमबत्ती के मायावी प्रकाश में कुर्सी पर बैठे मेजर डायरी में कुछ लिख रहे थे। गहन विचारपूर्ण मुद्रा में। बदन पर मैरून रंग का पुलोवर आँखों में चश्मा सुव्यवस्थित कमरा, पूरा वातावरण स्वप्न लोक सा।

वह दरवाजे पर ठिठक गई। मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी। मेजर ने ही सिर उठाकर देखा और मृदुल स्वर में बोले आइए। वह भीतर आ गई। कुर्सी पर बैठ गई। कागज पर लिखा एक फोन नम्बर मेजर की तरफ बढ़ा दिया। मेजर ने नंबर मिलाकर रिसीवर उसकी ओर बढ़ा दिया।
रिसीवर लेकर उसने कुछ बातें की। फिर उठने लगी। मन में एक हूक सी उठी। भय संकोच की इतनी घाटियाँ लाँघकर यहाँ तक पहुँच पाई हूँ क्या सिर्फ फोन करने के लिये। बोली,
“आपने हमें नए साल का कैलेंडर नहीं दिया?”
“अरे रे अभी लीजिये। बैठिये बैठिये तो जरा।“

घंटी बजाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और उसे कैलेंडर लाने को कहा। चपरासी कैलेंडर निकालने गया। अब दोनो आमने सामने थे। मेजर की अनुराग भरी दृष्टि ने उसे अपने घेरे में ले लिया था। घबराहट से वह इधर उधर देखने लगी। बोली,
“बाप रे कितनी ठंड है।“
“बहुत।“ वे वैसे ही मंत्रमुग्ध से निहारते गहरे स्वर में बोले। फिर मेज की दराज में से एक पेन निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया,
“यह रखिये।“ उसने डायरी रख ली। चपरासी ने कैलेंडर लाकर उन्हें दिया। उन्होंने कैलेंडर उसकी ओर बढ़ाया यह भी रखिये। कैलेंडर और डायरी लेकर वह उठ खड़ी हुई। सहसा बोल गई, लेकिन आपने तो हमें कुछ नहीं दिया। मानो एक बारगी ही तड़प गए हों वे कुर्सी में सिर टिका निढाल से हो गए। बोले बैठिये बैठिये न एक मिनट। वह बैठ गई। मेजर व्यवस्थित हुए बड़े प्यार से अपनी पेन पर कैप चढ़ाया फिर उसकी तरफ यों बढ़ाया जैसे कुछ समर्पित कर रहे हों। बोले आप लिखती हैं न ये रखिये। उसने पेन ले लिया। डायरी और कलेंडर भी। उठी बाहर चली। मेजर भी उठे। साथ चले। तृप्त आह्लादित स्वर्गिक आनंदित सुख में डूबे से क्षण।

दरवाजे पर पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़े। उसने भी। अंतिम बार उसने साहस कर पलकें उठाईं नजर भर मेजर को देखा। आँखें डबडबा आयीं बोली, “नया साल शुभ हो मेजर।“

मेजर का चेहरा भरे बादलों सा हो रहा था भरे गले से बोले, “शुक्रिया, आपका भी।“ मंत्रमुग्ध सी वह घर लौटी। सोफे में सिर टिका आँखें मूँद लीं। पेन का ध्यान आया। आँखें खोलकर गौर से देखा नीली पेन, नीचे अत्यंत बारीक सुनहरे अक्षरों में चमक रहा था की ओर से उपहार... किसकी ओर से उससे पढ़ा नहीं गया आँखें झर झर बरसने लगीं। शाम तक पूरे आफिस का माहौल जीवित हो चुका था। जीवंत और क्रियाशील। बढ़ती हुई सरगर्मियाँ बाता रही थीं कि मिस्टर एंडरसन और मिस्टर सुब्रामण्यम के स्वागत की जोरदार तैयारयाँ हो रही हैं। मेजर अपनी स्नेह सिक्त गंभीर आवाज में कर्मचारियों को आवश्यक निर्देश दे रहे हैं।

बगल के कमरे में नीलू अपना सामान पैक कर रही थी। अपने में डूबी आत्म तृप्त नितिन ने नया मकान ले लिया था। यहाँ से दूर बहुत दूर।

ऐसे ही बहुत दूर रहते हुए बहुत बरस बीत गए नीलू को मेजर को उसने फिर कभी नहीं देखा। लेकिन हर साल सात जनवरी को दस बजकर बीस मिनट पर वह अलमारी खोलकर वही नीला पेन निकालती है पेन को देखकर कहीं खो जाती है वह मंजर आँखों के आगे जीवंत हो उठता है। सिंदूरी आभा बिखेरती वह पृथुल मोमबत्ती, अनुराग छलकाती वे अवश आँखें उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ता है- नव वर्ष शुभ हो मेजर
और उसे भरे कंठ की धीमी आवाज सुनाई देती है- शुक्रिया आपका भी।

३ जनवरी २०१०१ जनवरी २०२१

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