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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से ममता कालिया की कहानी— एक दिन अचानक


बसन्त को इस बार सिर्फ तीन हफ्ते का मौका मिला लेकिन उसने रस, रंग और गंध का तीन तरफा आंदोलन छेड़ दिया। मेडिकल कॉलेज के विस्तृत और विशाल कैम्पस का कोई कोना नहीं छूटा, उसके स्पर्श से। सामने बना बड़ा सा अस्पताल भी एक बार अपनी समस्त गंध, दुर्गन्ध और विरूपता के साथ पराजित हो गया। ये बड़े-बड़े झबरे डेलिया, साथ में नन्हें-नन्हें नैस्टर्शियम, कैलेन्ड्यूला और सिनेरेरिया दिन भर धूम मचाए रहते और शाम होते ही रातरानी, राजरानी की तरह बौरा जाती। ऑफिस के सामने कतार में लगे गमले भी तरह-तरह के फूलों से इतराते। ऐसी रंगों की बारात में सफेद रंग सिर्फ डॉक्टरों के कोट और दीवारों पर नज़र आता।

तीन हफ्ते खत्म होते न होते खुश्क हवाएँ चल निकलीं। ठंड एक बारगी कम हो गई। लोगों के बदन से गरम कपड़े उतरने लगे। उसकी जगह धूप के चश्मों की बिक्री बढ़ गई। अखिल इसी टर्म में हाउस फिजिशयन बना था। उसके सामने कड़ी मेहनत का धूप-पसीना था। पर वह पूरे जोश में था। उसे यह भी पता था कि अगला एक साल उसका ग्रामीण क्षेत्र में बीतेगा, पर वह जानता था हर सफल डॉक्टर के पीछे इस तरह की मशक्कत का लम्बा इतिहास रहता है। जब कभी माँ उसके घर आने के समय-असमय पर टोकती, वह कहता, ’माँ तुम भगवान से यही मनाओ कि मैं इतना कामयाब होऊँ कि मुझे खाने-पीने से ज्यादा मरीजों की फिक्र रहे।‘

माँ बड़े गर्व से अखिल को देखती है। जब बड़ा बेटा अमल इंजीनियर बना था वह कितनी बेचैन रहती थी कि अखिल पढ़ाई में न जाने कैसा निकलेगा। अखिल तब कहता, ’माँ तुम फिक्र क्यों करती हो। मैं भैया से भी ज्यादा नाम कमाऊँगा।‘

पहली ही बार में अखिल ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उसके आत्मविश्वास की हद यह थी कि उसने अन्य कोई भी प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी। माँ-बाप निश्चिंत हुए। अब चार साल में अखिल डॉक्टर बन जाएगा और छह-सात साल में ऐसी प्रैक्टिस जम जाएगी कि वे दो कमाऊ बेटों के माँ-बाप के रूप में बेफिक्र जीवन जियेंगे।

सब कुछ सोचे हुए नक्शे के मुताबिक चल रहा था। लेकिन उस दिन घर के गमलों में अचानक पतझड़ नज़र आया। यकायक कॉक्सकॉम्ब के पौधे मुरझा कर लटक गए और शाम तक ऐसे सूख गए जैसे उन पर कभी बहार आयी ही नहीं। उसी दोपहर की घटना है।

अखिल चौबीस घंटे की ड्यूटी कर अस्पताल से आ रहा था कि आनंद भवन के सामने सड़क क्रॉस करते एक बच्चे को बचाने की खातिर उसने अपने स्कूटर को ब्रेक लगाया। तभी पीछे से आ रही जीप ने स्कूटर में ठोकर मारी बच्चा तो बच निकला पर अखिल धक्का खाकर आगे को गिरा।

अगल-बगल कुछ पोस्टरों की दुकानें थीं। अब दुकानदारों ने उसे गिरता देखा पर यही समझा कि कुछ देर में स्वयं उठकर कपड़े झाड़ेगा और चला जाएगा। यह तो जब उसे पड़े हुए दो-चार मिनट हो गए, वहाँ मौजूद लोगों ने शोर मचाया, ’स्कूटरवाला मर गया, कोई है, इसे उठाए।‘

दुकानदार इतना तो पहचानते थे कि यह नौजवान डॉक्टर रोज़ सुबह-शाम यहाँ से गुज़रता है पर उन्हें उसका नाम-पता-ठिकाने का कोई इल्म नहीं था।

कुछ मिनटों के ऊहापोह के बाद ये उसे सामने के एक नर्सिग होम में डाल आए। जेब की तलाशी लेने पर जो कागज़ बरामद हुए उनके आधार पर उसके घर खबर भेजी गई।

पहले दो दिन माता-पिता ने डॉक्टरों के आश्वासनों पर बिताए, उसके बाद शहर के इलाज से उनका जी उखड़ गया। बेहोश अखिल की लखनऊ और दिल्ली में जाँच करायी गयी। हर जगह एक ही जवाब मिला, ’नर्व सेल दबने से डीप कोमा का केस है। ठीक होने में दस दिन से दस साल भी लग सकते हैं। बेहतर होगा, इसे वापस ले जाएँ और इन्तजार करें। इस बीच मरीज़ को अकेला न छोड़ें, उससे बातचीत करें। चेतना कब वापस लौट आए, कहा नहीं जा सकता।

उस दिन तो पिता और माँ कुछ संतुष्ट हुए। उन्हें लगा वे अपने इस सोए हुए बेटे को जगाने में बहुत जल्द कामयाब हो जाएँगे। वापसी के दिन प्रभावती ने मन्दिर में प्रसाद भी चढ़ाया, ’हे रामजी जैसे आपने बब्बू को जीवनदान दिया वैसे ही उसे सुध-बुध भी देना। मेरे हाथ से कोई भी पुण्य कभी हुआ हो तो इसे लगे। यह अपने हाथ-पैर से उठ खड़ा होय, भले ही मैं पड़ जाऊँ।‘

अभी पड़ने की कौन कहे, बैठने की भी फुर्सत नहीं थी प्रभावती को। बब्बू की हालत में इतना सुधार होता था कि वह दिन में आँख खुली रखता, रात में नींद आने पर मूँद लेता। भूख लगती तो छोटे बच्चे की तरह आँ-आँ कर मचलता। खिचड़ी या दलिये का चम्मच मुँह से छुआने पर होंठ थोड़े खोल देता। चबाने और निगलने का जतन भी कर लेता, पर बहुत धीमे। अक्सर प्रभावती को एक कटोरी खिचड़ी खिलाने में एक घंटा लग जाता। कभी उसे लगता बब्बू एक बार फिर डेढ़ साल का बच्चा बन गया है जिसका हर काम उसे करना है। लेकिन सुबह जब वह उसके चेहरे पर बेतरतीब उगी शेव देखती, उसका स्वप्न टूट जाता। बेटे को बेडपैन देने, शेव करने और स्वच्छ करने का काम जयकृष्णजी ने
संभाल लिया था। उसका बिस्तर बदलना, उसे करवट दिलाना और पीठ-कमर में पाउडर मलना, सब पिता के हिस्से के काम थे। ये सब वे बड़े नियम और एकाग्रता से करते। लेकिन पच्चीस साल के बेटे की देह का वज़न, सत्तावन साल के पिता से कई बार संभल न पाता। ऐसे में माँ-बाप दोनों मिलकर हाँफते हुए उसके नीचे से मैली चादर निकालते और साफ चादर बिछाते।

परिवार के लोग शुरू-शुरू में नियमिल आकर बेटे का हाल पूछते लेकिन जब यथास्थिति को एक साल गुज़र गया तो बेटे के दादी-बाबा, चाची-चाचा सबका आना कम हो गया। जयकृष्ण और प्रभावती कहीं निकल न पाते। छोटी बहन के बेटे का विवाह हुआ तो प्रीतिभोज में वे दोनों एक-एक कर गए। आखिर अखिल को अकेले कैसे छोड़ा जाए।

अखिल के साथी डॉक्टर कभी-कभी वक्त मिलने पर आते। वह दिन घर में चहल-पहल का होता। जयकृष्णजी आवाज़ लगाते, ’सुनती हो आज शुक्रवार है, बब्बू के दोस्त आएँगे।‘ प्रभावती उमंग से रसोई में लगी रहती। उसे पता था अखिल को अपने दोस्तों से कितना लगाव था। वह ढेरों मठरियाँ और लड्डू बनाती। कई बार डाक्टर संदीप, डॉ. विजय और
आरती कहते ’आज तो अखिल के चेहरे पर बड़ी रौनक है, लगता है बस अभी खड़ा हो जाएगा।‘

माँ-बाप को लगता इन दोस्तों का मुँह मोतीचूर से भर दें। खास-तौर पर आरती का आना तो उन्हें नवजीवन दे जाता। पढ़ाई के दिनों से ही अखिल और आरती की दोस्ती का उन्हें अन्दाज़ था। वे मन ही मन यह मान चुके थे कि आरती एक दिन उनके घर की बहू बन सकती है। आरती जो कहती उसमें वे आस्था और भविष्य देखते। लेकिन साल बीतते न बीतते, दोस्तों का आना कम हो गया। अब वे ग्रुप में न आकर अकेले-अकेले आते और थोड़ी देर में ही उठ जाते।

एक दिन आरती की शादी का कार्ड डॉ. संदीप ने उन्हें थमाया तो वे ठगे से रह गए। उस दिन उनसे खाना नहीं खाया गया। अन्ततः जयकृष्ण बोले ’’शायद यह ठीक ही हुआ। कोई कब तक राह देख सकता है किसी की। बब्बू तो लम्बी नींद में है।‘‘
’सावित्री को अपनी तपस्या का फल साल भर बाद मिल गया था, ’प्रभावती ने गहरी साँस लेकर कहा, नहीं तो जाने सतवान की कौन गत होती।‘
’सबसे लम्बी तपस्या तो हमारी-तुम्हारी है प्रभा‘, जयकृष्ण ने कहा।

कई बार जयकृष्ण थके-माँदे घर लौटते तो देखते बब्बू ने बिस्तर गीला कर दिया है। प्रभावती गीले हिस्से पर तौलिया बिछा कर उनके इन्तजार में रहती कि वे आएँ तो चादर बदलने में सहारा दें। तब बेटे की लाचारी और अपनी जिन्दगी के कठिन कर्त्तव्य के प्रति जयकृष्ण में अपार कातरता और आत्मदया पैदा हो जाती। वे कह उठते, ’भगवान उठा ले
मुझे अब और नहीं झेला जाता।‘

प्रभावती गीले कपडे़ बटोरकर कहती, ’सोच-समझ कर बोला करो। तुम्हें या मुझे कुछ हो गया तो बब्बू किसके सहारे जियेगा ? क्या पता यह कल उठ बैठे, साँस से आस है, आस से साँस।‘ वह घण्टों कपड़े धोती और दिन में कई बार बेटे के कमरे में पोछा फेरती। अखिल के कमरे को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि यह रोगी-कक्ष है। अन्दर के कमरों में चीजें बेतरतीब पड़ी रहतीं, रसोई में बर्तन लुढ़के रहते लेकिन अखिल का कमरा चमचमाता रहता। जयकृष्ण सुबह स्नान से पहले बेटे के कमरे की एक-एक चीज़ झाड़ते, पोंछते और यथास्थान रखते। उन्हें लगता पहले की तरह कभी भी बोल पड़ेगा, ’पापा चीजें बिखेरने की आपकी बहुत गंदी आदत है।‘

अब तो वे बेटे की डाँट सुनने को तरस गए थे। पहले कई बार पिता-पुत्र में नोक-झोंक होती थी। माँ-बेटे में भी। अखिल के दिमाग में सफाई का भूत था। उसे अपने मोहल्ले का ज़र्रा-ज़र्रा प्रदूषित नज़र आता। लेकिन माता-पिता निजी मकान छोड़ने का विचार भी गवारा नहीं करते। छोटी-छोटी बातों पर बहस हो जाती।
’माँ तुम हरी धनिया धोने के बाद काटा करो। काटने के बाद धोने से उसके तत्व खत्म हो जाते हैं।‘
’माँ हाथ धोकर पल्ले से न पोंछा करो, रसोई में टॉवेल रखो।‘
पापा गली से खुली जलेबी मत लाया करो।‘
’पापा मुँह ढक कर क्यों सोते हो ?‘

अब जब छोटी-छोटी बातों पर टोकने वाला बेटा मौन शय्याग्रस्त था, जयकृष्ण और प्रभावती ने अपनी मनमानी छोड़ उन सब बातों पर अमल करना शुरू कर दिया था।

इस साल दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में जयकृष्ण रिटायर होने वाले थे। ३१ दिसम्बर को एक सादे समारोह में उन्हें दफ्तर के साथियों ने भावभीनी विदाई दी और स्मृति चिह्न के रूप में एक व्हील चेयर। तिवारी ने उपहार देते हुए कहा, ’यह व्हील चेयर आपके लिए नहीं है। ईश्वर करे आप बहुत दिनों तक अपने पैरों पर खड़े रहें। पर शायद यह सामान आपको परिवार का बोझ ढोने लायक बनाए।‘

जयकृष्ण का चेहरा आँसू-आँसू हो आया। किसी तरह उन्होंने अपनी विह्वलता पर काबू पाया। साथियों से कहा, ’आपकी सहृदयता मेरी संचित निधि रहेगी। यह उपहार आप फुर्सत से कभी भिजवा दें। परिवार का बोझ सहने का मैं अभ्यस्त हो चला हूँ। ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे जैसा कठिन भविष्य किसी को न मिले।‘

माली, चौकीदार, चपरासी सबने उन्हें प्रणाम किया और गेट तक छोड़ने आए।

घर पहुँचते-पहुँचते जयकृष्ण थककर चूर हो गए। प्रभावती ने उनके हाथ से ऑफिस का थैला लिया, अपने आँचल से उनका ललाट पोंछा और कहा, ’आप थोड़ी देर आराम कर लो। बहुत काम कर लिया जीवन भर।‘
’बब्बू कैसा है ?‘
’सो रहा है। तुम्हारे लिए हलवा बनाया था। उसे थोड़ा सा खिलाया। खुशी से खाया। सच, मेरी धोती खींचकर और भी माँगा।‘
’सच्ची‘ ?
’बिल्कुल सच्ची‘ ?
जयकृष्ण के मन में उम्मीद जगी कि बब्बू ठीक हो रहा है। अखिल को खिलाने के बाद प्रभावती उठीं तो उनकी धोती का एक सिरा बब्बू के हाथ के नीचे दब गया। इसी से उन्हें लगा वह उनका आँचल खींच रहा है। ऐसीं छोटी-छोटी उम्मीदों से वे दोनों जीवन पाते थे।

अमल ने घर पर फोन किया; पापा अब दफ्तर का चक्कर नहीं रहा। अखिल को किसी अस्पताल में भरती कर आप और मम्मी मेरे पास आकर रहो। दो-चार महीने में फ्रेश हो जाओ, तो वापस चले जाना। इतने वर्षों में आप एक बार भी मेरे घर नहीं आए।‘

जयकृष्ण ने कहा, यह तू क्या कह रहा है अमल। अस्पताल में जीते-जागते मरीजों की दुर्गति हो जाती है, अखिल की
कौन कहे। मैंने सुना है कोमा के मरीजों का तो यहाँ बहुत बुरा हाल होता है डॉक्टर अपने सारे एक्सपेरिमेंट उन पर करते है।‘

’पर आप अपनी भी तो सोचिये, अमल ने कहा ’यह ड्यूटी कितनी साल चलेगी, बताना मुश्किल है। मुझे तो लगता है ये सब बब्बू के शरीर की हरकतों से उसके मरूदंड से होने वाली चेष्टाएँ हैं। इनमें दिमाग के जागने का कोई रास्ता नहीं है।‘
जयकृष्ण बिगड़ गए, ’तू इतनी दूर बैठे-बैठे कैसे कह सकता है। अरे, वह खाना देखकर मुँह खोलता है, नींद आने पर आँख बन्द करता है, तकलीफ होने पर कराहता है।‘
’ठीक है पापा जैसा आप चाहें। वैसे अस्पताल का आइडिया भी बुरा नहीं है। आपको कुछ आराम मिल जाएगा।‘ आराम तो उसी दिन मिलेगा जब वह उठ खड़ा होगा।‘ जयकृष्ण ने फोन रख दिया।

ऐसा नहीं कि अस्पताल में अखिल की भर्ती के बारे में उन्होंने सोचा नहीं था। खुद अखिल के डॉक्टर दोस्तों ने शुरू में यह सलाह दी थी। पर उनके दादा और पड़ोस के लोगों की राय दूसरी थी। तिवारी ने किसी का किस्सा बताया कि कैसे बम्बई में एक कोमा पेशेन्ट का गुर्दा निकालकर किसी और के लगा दिया गया था। पड़ोस के शैलेष गुप्ता की माँ सोलह दिन कोमा में रहकर चल बसी थीं। उसका अनुभव भी यही था कि कोमा के मरीजों को अस्पताल में कबाड़े के सिवाय कुछ नहीं समझा जाता। इन सब बातों से उन्होंने अस्पताल का विचार एकदम त्याग दिया था।

जल्द ही घर का नया रूटीन बन गया। सबेरे उठकर टहलने जाना, बाद में दूध लेते हुए लौटना, अखबार पढ़ना, चाय-पीना फिर अखिल की देखभाल में जुट जाना। अखिल उन दिनों के जीवन में सन्तान से ज्यादा भगवान होता जा रहा था। वह अपने बिस्तर पर निश्चल निद्रा में निमग्न रहता पर माता-पिता घर के हर काम में उसकी राय और इजाज़त लेते रहते। वे अपनी हर गतिविधि से उसे सूचित रखते।

’बब्बू में जरा डाकघर जा रहा हूँ दस मिनट में आता हूँ।‘ ’बब्बू आज सूखी-सब्जी बना लें, तू खा लेगा ?‘ ’बब्बू तेरे भाई की चिट्ठी आई है, तुझे ढेर सा प्यार लिखा है।‘

वे प्रत्युत्तर के मुखापक्षी नहीं थे। उन्हें अच्छा लगता कि उनके सारे क्रियाकलाप को देखने के लिए अखिल घर में मौजूद है। घर आए मेहमान उनके इस बब्बू-पुराण में ऊबकर थोड़ी देर में चले जाते पर उन्हें कोई अफसोस नहीं होता। वे दुगनी तत्परता से अखिल से बातचीत करने में जुट जाते।

इस बार डॉक्टर ने अखिल की जाँच कर हताशा में सिर हिला दिया, ’इनकी हालत में कोई बदलाव नजर नहीं आता। आँख के, हाथ के रिफलेक्स मूवमेंट्स हैं। यह बताइए, ये आप दोनों में से किसी को पहचानते है ?‘
’हम कैसे बताएँ डॉक्टर साब जब हम कमरे में आते हैं, यह बिटर-बिटर देखता रहता है।
कभी माँ या पा जैसा कोई शब्द ?‘

प्रभावती को रोना आ गया। आँसू के बाद निकला आक्रोश ’इत्ते दिनों से आप इंजेक्शन लगा रहे हो, दवा खिलाते हो, आप बताएँ यह कब बोलेगा। हमसे न पूछो, बब्बू का रोयाँ-रोयाँ हमसे बतियाता है।‘
अचानक एक दिन बब्बू की आँखों का भाव बदल गया, उसने खाने के लिए मुँह खोलना बन्द कर दिया। प्रभावती बौखला गई, ’सुनोजी आज बब्बू का जी अच्छा नहीं।‘

उस दिन पति-पत्नी से भी कुछ खाया नहीं गया। दूसरे दिन बेटे की हलक में पानी भी अटकने लगा। डॉक्टर ने आकर ग्लूकोज़ सेलाइन लगा दी। पति-पत्नी रात भर बैठे नली से टपकती टप-टप बूँदे देखते रहे। तीसरे दिन भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। अचानक अखिल की बाँह में ग्लुकोज़ जाना बन्द हो गया। वह मुंदी आँखों से ही, तीसरे दिन इस दुनिया से निःशब्द विदा हो गया।

माता-पिता का क्रन्दन आस-पास की दीवारें हिला गया। लोग इकट्ठा हुए। सांत्वना देने के उपक्रम हुए। सभी ने कहा, ’बड़ा कष्ट भोगा बेटे ने, समझो उसकी मुक्ति हुई।‘

माता-पिता ऐसी सांत्वना से तड़प उठे। यथार्थवादियों ने कहा, ’दो साल से तो हम देख रहे हैं ये बब्बू न मरे में न जिये में। आप दोनों को भी बड़ा बन्धन रहा। सबको आजाद कर गया वह।‘

जयकृष्ण और प्रभावती ने आग्नेय दृष्टि से लोगों को देखा। यह मौका नहीं था जवाब-तलब का।
शाम तक अमल भी आ गया। उसी के इन्तजार में अंत्येष्टि का कार्य रोका हुआ था। शास्त्रानुसार सूर्यास्त के पश्चात दाह संस्कार नहीं होता पर अमल समेत सभी सम्बन्धियों ने कहा ’विशेष परिस्थितियों में हर नियम का अपवाद भी होता है। बब्बू पहले ही बहुत झेल चुका है। अब उसे सद्गति मिल जाए।‘
अमल ने कहा, ’माँ अखिल ने पूरे ढाई साल भोगा नरक‘
’अरे नहीं अभी कल ही तो पड़ा था बिस्तर में !
सन् ९६ में डॉक्टरी पढ़कर हॉस्पिटल में लगा था। अगस्त में चोट लगी और अब यह 98 आ गया। पूरे ढाई साल। हमें तो लगे हमने चार दिन सेवा की।‘

समस्त तैयारी के साथ घाट तक जाते-जाते अँधेरा गहरा गया। अँधेरे का लाभ उठाकर कई लोग बीच में ही वापस चले गए। जयकृष्ण सब कुछ खत्म होने के बाद भी वहीं बालू में सिर झुकाए बैठे रहे। अमल ने पास आकर कहा, ’पापा मुझे चक्कर आ रहा है, मैं घर जाऊँ या आप चलोगे ?‘
जयकृष्ण जैसे नींद से जागे। घर पहुँचने पर वह बेटे के लम्बे-चौड़े कद के पीछे ऐसे दुबक गए जैसे कोई जघन्य अपराध करके लौटे हैं।

प्रभावती विलाप कर उठी, ’हाय घर कैसा खाली-खाली लग रहा है। अब हम कैसे जियेंगे।‘
अमल के मुँह से निकला, ’वह था तब भी तो चैन नहीं था आपको।‘
’यह तूने कैसे कही‘ ? प्रभावती ने कहा।
’एक बार फोन पर आप नहीं रो रहीं थीं कि भान्जी के विवाह में आप नहीं जा पाईं और पापा आप भी तो कहते थे बेटा मुझझे उसका बोझ नहीं सँभलता।‘
’बिल्कुल झूठ है यह।‘
’मैं सच बोल रहा हूँ।‘

जयकृष्ण ने कहा, ’कभी कह दिया होगा पर अपनी जान में तो हमने उसे ठाकुरजी की तरह सेवा की। सर्दी-गर्मी चौमासा क्या मजाल जो कभी उसे भूखा, प्यासा, गीला, गंदा रखा हो।‘

अमल बोला, ’क्या फायदा हुआ ? आप एक जिन्दा लाश को ढोते रहे ढाई साल। न वह आपको देख सकता था न आप उसकी पीड़ा जान सकते थे। ही वाज़ जस्ट ए कैबेज।‘
जयकृष्ण ने कानों पर हाथ रख लिए, ’राम राम अपने प्यारे भाई के लिए कैसी अधम भाषा बोल रहा है तू। तूने कैसे उसे कैबेज कह दिया। पता है एम.बी.बी.एस; में उसकी छठी पोजिशन थी। एम.डी. के लिए वजीफा यों ही नहीं मिला था।
अमल ने अटक कर कहा, ’मेरा मतलब यह नहीं था। मैं तो कह रहा था कि चोट खाने के बाद ढाई साल से वह आपके ऊपर बोझ ही था।‘
’कोई बोझ नहीं था‘ प्रभावती ने प्रतिवाद किया।
’वैसे अच्छा होता, उसके जीवन काल में ही आप किसी जरूरतमंद को उसकी किडनी, दिल और आँखें दान में देते। इस
तरह आपको चार-पाँच बेटे मिल जाते।‘
प्रभावती तड़प गई ’तूने खूब निभाया हिसाब। एक-दो बार डॉक्टर लोग भी हमारे पास यही सब समझाने आए थे। मैंने उन्हें धक्के देकर निकाल दिया। चंडाल भी अपने पेट का जाया नहीं बेचते।‘
’हमेशा उल्टा बोलती हो। इसे बेचना नहीं दान देना कहते हैं।‘
’यानी जीते में ही उसे मरा मान लेते। अरे उसके साँस लेने से यह घर भरा-भरा लगता था। कैसी रौनक थी उसकी। लेटा हुआ लगता था अब बोला, तब बोला। सच्ची कहूँ तो तेरे से ज्यादा उसका आसरा था हमें। तू इतनी दूर बैठा है। अभी भी घर की बहू नहीं आई।‘
’रिजर्वेशन नहीं मिला माँ। मैं तो हवाई जहाज से आ गया।‘
’पर मानता तू उसे नहीं था। हमारी तो वह सन्तान भी था भगवान भी। कैसा बिटर-बिटर ताकता रहता था। जरा सा मुँह पोंछ दो तो फूल की तरह खिल जाता।‘
’इन बातों का अब कोई लाभ नहीं है। माँ मुझे जल्दी वापस भी जाना है।‘
’सो तो हम जानते हैं। तेरा लछमन जैसा भैया चला गया, तेरी आँख तक गीली नहीं हुई। यही बताने हमें आया था तो जा, हम समझेंगे हम निपूते ही रहे। प्रभावती ने आँचल में मुँह छुपा लिया।

२५ मार्च २०१३

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