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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ. कुसुम अंसल की कहानी— मेज पर जमी धूल


उसने फिर से मेज के शीशे की ओर देखा। उसके ‘ऐंगल’ से अभी भी शीशे पर मिट्टी जमी दिखाई दे रही थी। सीधी खड़ी होकर रधिया दो बार पोंछ गई थी उसे, पर फिर भी जैसे एक ही गति से घूमते उसके हाथ बीच की धूल के धब्बों को साफ नहीं कर सके। मन में आया एक बार उसे बुलाकर डाँटे, पर फिर स्वयं ही उठकर ‘डस्टर’ ले आया और झुक कर खास ऐंगल से जमी उस मिट्टी को पोंछ दिया। फिर झुक कर देखा तो उस शीशे पर एक परछाई मुखरित हो उठी।
‘’पम्मी आंटी.....” वह पलट कर खड़ा हो गया।
“हैलो आंटी!”
“हैलो सनी....” और वे पापा के कमरे की ओर बढ़ गईं। फिर ‘सनी’ कहा उन्होंने...? जिस प्यार की चाशनी में लपेट कर वह सनी शब्द उसके मन में उतारती है वह चाशनी कड़वाहट बनकर उसके गले में अड़ जाती थी और फिर वह झुँझला जाता था और उसी उलझन में वह जाने क्या-क्या सोच जाता था।

कितने ही साल हो गए थे शायद सात या आठ – वह पम्मी आंटी को इस घर में आते-जाते देख रहा था. माँ तब जीवित थीं और वह नौ या दस साल का था। पापा और माँ सदा ही जाने किस बात पर झगड़ा किया करते थे। माँ बहुत सीधी-सादी थीं, बहुत घरेलू और पापा इतने बड़े अफ़सर। माँ का दायरा सीमित था घर तक, वह भी तो बहुत अर्थों में ठीक से नहीं चला पाती थीं। उसे याद है, उन दिनों एक बड़ी-सी दावत देनी थी पापा को, तो बाहर से ही सारा खाना आया था। पम्मी आंटी ही तो उस दिन के सारे आयोजन के पीछे थीं। कैसी चमकीली साड़ी थी उनकी कि वह एक बार पास से केवल इसलिए निकला था कि उसे छू सके। उसकी चमक को महसूस कर सके। उसका मन तो एक बार कल्पना में पम्मी आंटी को परी ही समझ बैठा था। कितने ढेर सारे घुँघराले बाल थे उनके कि वह तो हैरानी से ही देखता रहा। वह तो अब जाकर पता चला कि बालों को जैसा चाहे बनवा सकते हो।

उस दिन से पम्मी आंटी इस घर का एक प्रमुख अंग बन गई। जब देखो चली आती थीं, पर सदा ही अकेली। कभी भी उसने उन्हें अपने पति के साथ नहीं देखा था। प्रकाश अंकल के साथ हमेशा मोटी आंटी होती थीं.... और भी बहुत से पापा के दोस्त लोग थे जिनका आना घर में किसी को बुरा नहीं लगता था। केवल पम्मी आंटी के आने पर हर कोई नाराज़-नाराज़ लगता था। रधिया एक खास हँसी से हँसकर महाराज को देखती और महाराज भी उसी तरह हँसकर एक जोर की खाँसी खाँसता।

और माँ .... जाने कैसा भाव होता था उनके मुँह पर ! वे बहुत चुप हो जाती थीं। उन दिनों पूर्णमासी के दिन होने वाली कथा भी बहुत फीकी होने लगी। पहले तो माँ ने प्रसाद बनाना ही बन्द कर दिया और फिर धीरे-धीरे कथा होनी ही बन्द हो गई। माँ अक्सर ही बीमार रहती थीं। उन कुछ दिनों बिस्तर से भी उठना उनके लिए कठिन हो गया था। वही अकेला पड़ोस के डॉक्टर के पास जाया करता था। पापा उन दिनों विदेश गए हुए थे। वह दो महीने पम्मी आंटी भी माँ को देखने या मिलने नहीं आईं। यह बात तो बाद में मालूम हुई कि पम्मी आंटी पापा के साथ ही विदेश-यात्रा पर गई हुई थीं। पापा के लौटने के कुछ महीने बाद ही माँ चल बसीं थीं। और कितना सूना हो गया था घर! माँ के चले जाने से घर में कुछ बचा ही नहीं था। पहले सभी रिश्तेदार आया करते थे पर माँ के जाने के बाद धीरे-धीरे सभी का आना बन्द हो गया। केवल पम्मी आंटी ही आती रहती हैं। अब वह बड़ा हो गया है, उन्नीस साल का, और समझने लगा है , पम्मी आंटी का इस घर में क्या स्थान है! अब तो सभी उनके अस्तित्व को जैसे स्वीकर कर चुके हैं। रधिया अब आँख दबाकर हँसती नहीं है, महाराज भी खाँसता नहीं है – सब की हँसी जैसे जम चुकी है।

पर उसके मन में बचपन की पड़ी वह छाप, वे स्मृतियाँ कभी गईं नहीं। आज वह उन दिनों की हर छोटी-छोटी बात का विश्लेषण कर लेता है। और उसका मन वितृष्णा से भर उठता है। पापा को शायद ज्ञात ही नहीं कि वह इतना बड़ा हो गया है, कैसे हो गया है, क्या पढ़ता है और अब क्या करेगा? वे तो सुबह ही चले जाते हैं—पहले गोल्फ और फिर जब तक वे लौटते हैं, वह स्कूल चला जाता है। रात को वे देर से आते हैं। कभी-कभी रात का खाना वे साथ खाते हैं पर कोई खास बात नहीं होती। उस खाने में भी बहुत बार पम्मी आंटी शामिल हो जाती हैं। उस समय पापा बहुत खुलकर हँसते हैं और बहुत से ‘जोक’ भी सुनाते हैं पर वह शायद और भी गम्भीर हो जाता है। पम्मी आंटी का चिरस्थायी आकर्षण उसे बाँध नहीं पाता। वह चाह कर भी उनसे समझौता नहीं कर पाता। पम्मी आंटी ने बहुत चाहा कि वह उनसे मित्रता कर ले पर वह उनके अस्तित्व मात्र से चिढ़ जाता था। ये कौन होती है हमारे घर में दखल देने वाली ? पर उसके न चाहने पर भी घर की धुरी पम्मी आंटी के ही चारों ओर घूमती थी। पम्मी आंटी का इतिहास कोई भी नहीं जानता। वह शहर के बड़े होटल के ‘मैनजमेंट’ में काम कर रही थीं और इतने सालों से वहाँ थीं। पता नहीं शादी की थी उन्होंने या विधवा थीं, या परित्यक्ता। सभी उन्हें ‘मिसेज पम्मी केदार’ के नाम से जानते थे। आज तक उसे वह यह नहीं मालूम कि उनका धर्म क्या था। खैर इन बातों से अलग खड़ा था उनका बेहद आकर्षक व्यक्तित्व ! इतने साल बीत जाने पर भी वहीं का वहीं स्थायी था उनका रूप, जैसे समय ने उन पर अपनी छाप न लगाने की कसम खा ली हो।

पम्मी आंटी के बारे में पापा ने उससे कुछ नहीं कहा। केवल जिस सहजता से वे उन्हें स्वीकरते आए हैं शायद मन ही मन चाहते रहे हैं कि वह भी पम्मी आंटी को उसी सरलता से अपने जीवन में आ जाने दे। पर वह उतना ही दूर भागता रहा है। पम्मी आंटी के घर आ जाने पर या तो वह अपने को अपने कमरे में बन्द कर लेता था या बहाना बनाकर घर के बाहर ही चल देता था। घर में रहने पर पापा के कमरे से आती उन दोनों की सम्मिलित हँसी का स्वर उसे एक अजीब उदासी से भर देता था। यूँ तो पापा बहुत गम्भीर रहते थे पर पम्मी आंटी के आ जाने पर उनका सारा का सारा व्यवहार बदल जाता और वह कितना अकेला पाता अपने आपको ! एक बार वह पापा के दो-तीन मित्रों और पापा तथा पम्मी आंटी के साथ पिकनिक पर चला गया। सारा दिन हँसी-मज़ाक चलता रहा। अपने साथ के कुछ और मित्रों के साथ उसका भी दिन ठीक बीता। पर शाम को चाय के समय बीती वह घटना तो वह भुला ही नहीं पाता।

पम्मी आंटी पतीले में चाय लेकर आई थीं। दूर लिफाफे में पड़ी चीनी ले आने के लिए उन्होंने पापा को आवाज़ दी। पापा को जाने क्या सूझी , चीनी हाथों में लेकर होली के गुलाल की तरह पम्मी आंटी के मुँह पर मल दी- वे वैसे ही बनी रहीं कुछ देर बाद किसी ने कहा –
“अब पोंछ लो न चीनी!”
तो हँसकर कहने लगीं – “जिसने लगाई है, वही पोंछेंगा....”

बृज अंकल बड़ी अर्थपूर्ण मुद्रा में बोले- “कैसे?” और सभी ज़ोर से हँस पड़े। और तब पापा के झेंप से लाल होते मुँह की भंगिमा उससे छुपी न रही। उसने अपने ही रुमाल से पम्मी आंटी के मुँह की चीनी धीरे-धीरे उतार दी।
उस दिन से वह चाय कभी भी पी नहीं सका था। पता नहीं, पापा ने इस बारे कभी सोचा या नहीं कि उस पर उनके इस प्रकार के जीवन का क्या प्रभाव पड़ता है ! पर वह तो जब भी खाली होता है, अपने को इसी बारे में सोचता पाता है। पापा और उसके बीच मित्रता का कोई भी नाता नहीं है। वे औपचारिकता निभा लेते हैं। उसकी हर ज़रूरत को पूरा कर देते हैं। “अरे तुम्हारे पास पैंटें कम हैं, कमीज़ का कॉलर भी फट रहा है” और उसी शाम बहुत से कपड़ों के टुकड़ों के साथ सिलाई के पैसे भी उसे थमा देते हैं।

“इम्तिहान कब से शुरु हैं?” यदाकदा पापा पूछ लेते हैं जबकि वह इम्तिहान दे चुका होता है।
कभी-कभी पापा उससे बहुत-सी बातें करना चाहते हैं। शायद कुछ है जो वे कहना चाहते हैं। पर उन क्षणों में वह बहुत अनमना हो जाता था और शायद उसका यह खुश्क व्यवहार पापा को आगे नहीं बढ़ने देता था। एक बड़ी चुप्पी थी उसके पूरे जीवन को रँग गई थी। असमय ही वह इतना गम्भीर हो गया था। पापा और उसके बीच आ गए इस असीम सन्नाटे को गुंजरित कर पाना उसके बस में अब नहीं था। एक आवरण था जो उन दोनों के बीच आ पड़ा था और उसके दोनों छोरों पर खड़े होकर वे अलग-अलग अपनी ज़िन्दगी जिए जा रहे थे। बीच-बीच में वे एक-दूसरे को देख लेते थे-महसूस कर लेते थे और फिर चल पड़ते थे।

अब स्कूल समाप्त हो गया था और कल की ही डाक से मिला उसका पिलानी से आया दाखिले का ‘कॉल सैंटर’ एक नया मोड़ लेकर आया था। रात के खाने के बाद उसने पापा को बताया था। पापा प्रसन्न हुए थे...एक बार उसको बाँहों में भींच कर फिर चुप रह गए थे... वही बताता रहा कि इतवार की शाम को वह चला जाएगा और इंजीनियर बन जाने का एक नया स्वप्न उसकी आँखों के आगे तैर रहा था। वह सपनों में खोया था। पापा कुछ सोच रहे थे। रात के बारह का घंटा बजा तो वह उठकर अपने बैडरूम में गए। फिर लौट कर जाने कितने ही सौ-सौ के नोट उसे थमा गए।

“लो, अपनी एडमिशन के पैसे वगैरह भेज दो...और जो चाहिए, वह खरीद लेना.... ओके ऑल द बैस्ट फॉर योर फ्यूचर....”
पापा के मुँह पर तब एक और ही तरह का भाव था एक उदासी, एक टूटने की सी भावना। कोई नाम नहीं दे पा रहा था उस भंगिमा को। खैर वह रात सपनों में ही बीती। वह खुश था कि इस घर से और पम्मी आंटी से दूर हो जाएगा। एक उन्मुक्त आकाश, एक खुली हवा से भरा संसार उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। पापा...शायद अकेले हो जाएँ .. कौन देखेगा उन्हें? पम्मी आंटी तो हैं ही... वह स्वयं तो मात्र... क्या है इस घर में – फर्नीचर का कोई पीस या मात्र पापा की अधूरी ज़िन्दगी का एक ‘फिलर’। पापा ने उसके अस्तित्व को किस रूप मे लिया है, यह वह स्वयं ही नहीं जानता है। बहुत बार जब उन्हें ‘कौलिक पेन’ का दर्द उठता है तो वही सारी रात बैठ कर दवाइयाँ देता है, गर्म पानी की बोतल देता है। अब रात को कौन देखेगा उन्हें ? तब पापा की दर्द से कातर आँखें उसे अपनी लगती हैं। पापा का ‘सनी, थैंक्स” कहना भी अच्छा लगता है। कभी-कभी ही तो वे उसे सनी कहते हैं, नहीं तो वही नाम...जैसे क्लास का कोई नाराज़ टीचर हो।

सुबह उठने पर सदा की तरह उसने पापा को नहीं देखा। वह पहले पोस्ट ऑफिस गया और उसने पिलानी के लिए आवश्यक काग़ज़ और मनीआर्डर भेज दिया। फिर बाज़ार जाकर कपड़े खरीदे। बाहर ही दोपहर का खाना खाया, शाम को लौटा। बाहर कुछ आँधी उठ आई थी। वह भागता सा घर में घुसा। होंठों पर एक अजनबी सी सीटी बजे जा रही थी। वह खुश था, या तो आज के दिन से या इस घर से चले जाने के भाव से। उस समय भी पापा लौटे नहीं थे। वह आराम से गोल कमरे में पैर फैला कर सोफे पर लेट गया। शायद झपकी लग गई। रधिया ने चौंका दिया।

“छोटे मालिक , दूध... “
और वह बड़ा सा दूध का गिलास मेज पर रख गई। वह उठ बैठा। दूध पीने लगा, तभी पापा आ गए। वे बहुत गम्भीर लग रहे थे। उसके सामने के सोफे पर बैठ गए। कुछ देर टकटकी बाँधे उसे देखते रहे जैसे पहले कभी देखा न हो। कितने अजनबी लग रहे थे दोनों। वही आज मित्रता का हाथ बढ़ाने की सोच कर बोल उठा---
“पापा, बहुत थके दिख रहे हैं.... चाय पीएंगें न ...”
“हाँ ... चाय मँगा लो....” पापा भी जैसे उससे बात करने के मूड में आ गए थे।
“रधिया, पापा के लिए चाय ले आओ।”
वह आज एक नई स्फूर्ति अनुभव कर रहा था।
“पापा , मैं चला जाऊँगा, अपना ख्याल रखना। समय पर दवाई खा लेना... हर हफ्ते पत्र लिखना और पापा.... महाराज से कहना, यहीं भीतर की गैलरी में सो जाएँ... आप अकेले पड़ जाएँगे। मैं दशहरे की छुट्टियों में घर लौट आऊँग़ा।”
अचानक ही वह पापा के प्रति चिंतित हो गया और जाने क्यों उसे लगा, यह कहते-कहते उसकी अपनी पलकें भीग उठी थीं।
पापा उसे देखे जा रहे थे – “सनी... मैं बहुत अकेला हूँ, सदा ही अकेला रहा हूँ। शायद अब तुम समझ सको, बड़े हो गए हो... मैं... मैं बहुत सोचता रहा हूँ , तुम भी जा रहे हो, इसलिए आज ही फैंसला किया है मैंने, मैं पम्मी से शादी कर लूँगा....”

पापा उठ कर अपने कमरे में चले गए और वह जाने कब तक सोफे की गद्दी में बने उस गड्ढे को देखता रहा जिस पर अभी-अभी पापा बैठे थे और जाने क्या-क्या सोचता रहा। शायद यही उचित है, शायद नहीं। अकेले चलते पापा बहुत थक चुके हैं, और बाकी का रास्ता वे ठीक से चलना चाहते हैं। इतने दिनों के पम्मी आंटी के साथ को अब तक क्यों नहीं स्वीकारा पापा ने ? शायद उसके कारण ! तो क्या वह कभी उनके रास्ते में अड़चन बना है? कभी भी नहीं। पूरा जीवन वे दोनों अलग-अलग रास्तोंपर चल कर जिए हैं। वह तो अब भी अलग है... अब भी बाधक नहीं है। यह बात और है कि पम्मी आंटी में माँ का रूप वह कभी नहीं पा सकेगा। रधिया चाय ले आई थी... पापा को वहाँ न देख वह पापा के कमरे में चली गई। वहाँ से लौट कर दूध का गिलास उठाने आई तो खिड़की से एक धूल भरा झोंका भीतर आकर पूरे कमरे में मिट्टी भर गया। वह तब भी बैठा ही रहा। रधिया के अभ्यस्त हाथों ने हर चीज़ को झाड़ना शुरू कर दिया। मेज पर की धूल भी वह पोंछ कर चली गई थी।
और वह बैठा देखता रहा, उसके ‘ऐंगल’ से अभी भी मेज़ पर की जमी मिट्टी दिखाई दे रही थी।

८ जुलाई २०१३

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