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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से स्नेहलता की कहानी— वापसी


साढ़े आठ बजे सुबह गाड़ी छूटने का टाइम था। गाड़ी सही समय पर छूटी। पुष्पक एक्सप्रेस में चाहे जिस मौसम में जाओ भीड़ होती है। पता नहीं लोग कहाँ-कहाँ की सैर करने चल पड़ते हैं। मैं जैसे-तैसे अपनी सीट पर पहुँची। सैकन्ड ए.सी. में केबिन की सीट थी। मेरी और मेरे पतिदेव की नीचे-ऊपर की बर्थ थी।

हम मुम्बई घूमने आए थे। मुंबई महानगरी का नाम आते ही एक भागते हुए शहर की तस्वीर मन में उभरती है, मुम्बई ऐसा शहर है जहाँ बस सब लोग चलते रहते है एक निश्चित गति से। हर किसी की अपनी जीवन शैली है और वह उसी में मगन है। आँखों में ऊँची उड़ान के सपने हैं पर कदमों तले बमुश्किल जमीन हासिल होती है। हिन्दुस्तान के चाहे किसी भी शहर से कोई क्यों न आया हो जल्दी ही वह वहाँ के रंग में रँग जाता है। मैंने भी छह दिन मुम्बई में बिताए और काफी अच्छे बिताए। घूमने के लिहाज से आए थे और घूमे भी खूब। अच्छी लगी मुम्बई, अब वापस जा रहे हैं।

गाड़ी के डिब्बे में हमारे सामने एक बुजुर्ग दम्पति बैठे हुए थे। पतिदेव की उम्र लगभग पैंसठ-सत्तर की लग रही थी। वे काफी टिप-टाप लग रहे थे। अपने ज़माने में जरूर हीरो लगते होगें। उनकी पत्नी ने गहरे हरे रंग की छापेदार साड़ी पहनी हुई थी। नाक नक्शा काफी अच्छा था। बाल बिलकुल सन जैसे सफेद, माँग में भरा लाल सिंदूर, गले में मंगलसूत्र और एक मोटी सी सोने की चेन। हाथों में लाल रंग की कामदार चूड़ियों के बीच सोने की दो-दो पतली-पतली चूड़ियाँ। गोरा रंग बड़ी-बड़ी आँखें। आँखें कभी सुन्दर रही होंगी पर बुढापे या बीमारी के कारण कुछ अधिक उभरी लग रही थीं। चेहरे पर झुरियों के निशान। काफी थकी हुई लग रही थीं। पर उन्हें देख कर पता लगता था कि काफी पढ़ी लिखी अवश्य होंगी।
थोड़ी देर तक हम चारों यों ही बैठे रहे फिर वे चुपचाप तकिया लगाकर आँखें बंद करके लेट गईं। उनके पतिदेव ने कहा चादर ओढ़ लो। बोलीं ऐसे ही ठीक है। मुझे उन्हें देखकर अच्छा लगा।
अक्सर लोगों को नए जोड़े पसन्द होते हैं मगर मुझे पुराने जोड़े अच्छे लगते हैं। पुराने जोड़ों को देखकर एक सुखद अनुभूति होती है। पूरे जीवन की धूप-छाँव को दोनों ने कैसे साथ-साथ जिया है। बरसों से एक बन्धन में बँधे आस और विश्वास का सम्बल लेकर एक इठलाती अल्हड़ नदी जैसी शुरू हुई जिन्दगी से लेकर रास्ते के झंझावातों, विशाल तूफानी चट्टानों के बीच से रास्ता बनाती हुई शान्त क्लान्त नदी जैसे ठहराव का विस्तार दोनों के बीच में फैला रहता है। कैसी आत्मीयता दोनों की आँखों में समायी होती है। वास्तव में सच्चे प्यार की पहचान पुराने जोड़ों में ही होती है। नए का क्या उन्होंने तो अपनी जिन्दगी के बही खाते का अध्याय खोला ही नहीं। भारतीय रेल की एक विशेषता है कि वह स्थानों को ही नहीं जोड़ती बल्कि दिलों को भी जोड़ती है। मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। लोकल गाड़ी में ठसाठस भरी भीड़ जिन्दगी की परवाह से बेखबर गेट पर लटके कड़े पकड़े लोगों को देख कर मैं अक्सर सोचती हूँ कि क्या यही फास्ट लाइफ का सिम्बल है। न अपनी सुध न पराई फिक्र। एक-एक करके स्टेशन ओझल होने लगे, बम्बई पीछे छूटने लगी। कुछ-कुछ मालाबार की ऊँची-नीची पहाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। बीच-बीच में उचटती सी निगाह न चाहकर भी सामने वाली महिला पर पड़ जाती थी।

मेरे पति और सामने की सीट पर बैठे बुजुर्गवार एक कप चाय के साझीदार क्या हुए लग रहा था कि जैसे जन्म-जन्म के साथी हों। बातों-बातों में ही पता चला कि वह श्रीमान त्रिवेदी हैं और रेलवे के ही रिटायर्ड इंजीनियर हैं। साथ में उनकी पत्नी हैं और दोनों कानपुर अपने भतीजे की शादी में शामिल होने जा रहे हैं। मैं चुपचाप बैठी श्रीमान त्रिवेदी और अपने पतिदेव की बातचीत सुन रही थी कभी-कभी हूँ हाँ कर देती थी पर मेरी नज़र बार बार मिसेज त्रिवेदी की ओर ही उठ जाती थी। उन्हें देखकर मुझे अपनी मम्मी मौसी की याद आ रही थी। लगभग वैसी ही उम्र वैसा ही पहनावा। चेहरे पर सौम्यता और सम्भ्रान्ता। शायद उन्हें नींद नहीं आ रही थी। परिचय की औपचरिकता के बाद बातें अब राजनीति और टी०वी० के प्रोग्राम की चल रही थी। वह भी शायद सुन रहीं थीं तभी उठ बैठीं बोलीं-
अब क्या बताएँ टी०वी० ने तो जैसे दुनिया ही बदल डाली है। कंप्यूटर से तो सारे जहान की खबर लग जाती है। हमको भले पता न हो पर जरा-जरा से बच्चों को देखो उन्हें ऐसी कौन सी बात है जो पता न हो।
पहली बार वह बोलीं उनके उच्चारण से लगा कि उनका ज्ञान काफी अच्छा होगा। एक टिफिन खोलकर सेमी और शक्करपारे निकाले...
घर के बने हैं...ले लीजिए...खुद ही बनाए थे...मुझे बाज़ार की चीजें पसन्द नहीं...अब जाने कैसा फैशन आ गया है पीज़ा-बर्गर के सिवा लोगों को कुछ अच्छा ही नहीं लगता...
कहते-कहते आवाज़ में एक दर्द उभर आया।
मैंने पूछा, “क्या मुम्बई के रहने वाले हैं?”
“नहीं...हम कहाँ मुम्बई के हैं...इनकी नौकरी बम्बई में लगी थी सो बम्बई में रहने लगे...शुरू-शुरू में बहुत कोशिश की कि कानपुर ट्रान्सफर हो जाए...पर नहीं हुआ...यहीं दोनों बच्चे हुए।“
“आपके दो बच्चे हैं?”
“हाँ एक बेटा और एक बेटी है...बेटी का ब्याह सन ९६ में ही कर दिया था। वह चेन्नई में रह रही है...उसके भी एक बेटी एक बेटा है...हमारे दामाद भी रेल में इंजीनियर हैं।“
“फिर तो बहुत अच्छा है...आप सब जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी हैं।“
“पर जिम्मेदारियाँ पीछा नहीं छोड़तीं। जब तक अपने बच्चे छोटे थे लगता था कि किसी तरह बड़े हो जाएँ...बस सब कुछ छोड़कर गंगा नहाएँगे...पर अब लगता है पहले ज़्यादा ठीक थे।“
“आपको नहीं लगता कि पहले से ज्यादा आप अब आराम से हैं।“
“हाँ, आराम तो है...मगर पहले की बात और थी।“
“पहले ऐसा क्या था?”
“अपनापन था...कमी तो थी...मगर दूरी नहीं थी...औरों की तो नहीं जानती पर अपना पता है...छोटा सा मकान था...तनख्वाह भी कम थी...बच्चों की परवरिश का बोझ...रिश्तेदारों की आवभगत...कोई न कोई रिश्तेदार घर में बना ही रहता था...मगर वह हमको भारी नहीं लगते थे...सभी तो अपने थे ...अपने मायके की तरफ या अपनी ससुराल की तरफ के ...हमें तो बराबर थे...अब तो जीने का ढँग ही बदल गया है।“
“हाँ, सभी कुछ बदल गया है...”
“अब कहाँ की रिश्तेदारियाँ...अब आप ही बताइए एक-एक दो बच्चे होते हैं...कहीं बिटिया ही बिटिया हो गई या बेटे ही बेटे हो गए तो आधे त्यौहार तो गए...अब भैया नहीं तो राखी किसके बाँधे...बहन नहीं तो राखी कौन बाँधे...बहन नहीं तो मौसी-मौसा मौसेरे जैसे सब रिश्ते गायब...और कहीं इकलौते हुए फिर रिश्तों की पूरी शृंखला ही गायब। कुछ भी कहिए खून के रिश्तों की बात ही कुछ अलग होती है...”

मुझे भी याद आया हम लोग पाँच-छह भाई बहन थे। मौसी या मामा के बच्चे जब गर्मी की छुट्टियों में आ जाते थे...पूरा घर खेल का मैदान बन जाता था। पूरी टीमें यों ही तैयार रहती थीं। अब अपने जगन के लिए सोचती हूँ बेचारा कितना अकेला है। पूरा घर खिलौनों से भरा पड़ा है मगर कोई साथी ही नहीं जिसके साथ खेले।
अचानक वे चुप हो गईं। लगा जैसे कहीं खो गईं। मैंने भी कुछ पूछना ठीक नहीं समझा। फिर खुद ही जैसे बातें करती हुई बोलीं...
“क्या घर है...सब कुछ सजा-धजा है। बेटे को इंजीनियर बनाया था...कितने सपने सँजोए थे...वह कम्पनी के मैनेजर बन गए हैं...पता नहीं क्या कुछ अच्छा सा कम्पनी का अंग्रेजी नाम है...बुलर एनुरसन और जाने क्या...काम ही नहीं खत्म होता...जाने कैसा काम है...सुबह चले जाते हैं...दिन भर काम रात को भी देर से लौटते हैं...आते ही कमरे में घुस गए...बस फिर लैपटाप निकालकर शुरू हो जाते है...दिन भर इन्तजार करो बिट्टू आएँगे...कुछ पूछो बस हूँ-हाँ...काम ही नहीं खत्म होता...

“इनके पापा भी इंजीनियर थे...रेल में जिम्मेदारी कोई कम नहीं होती... पर सब लेाग हँसते बोलते थे...अब तो कुछ नहीं...सबके अपने-अपने कमरे हैं...सब में ए.सी. लगा है...सब अपने-अपने कमरों में बन्द...अब भला बताओ यह भी कोई घर है...न किसी से बोलना चालना...न कोई मतलब...हमारी तो समझ में नहीं आता...जब कहो तो कहेंगे...पैसा कमाने के लिए तो मेहनत करनी पड़ेगी...अब बताओ ऐसे पैसे का क्या सुख...?”

फिर आँखों में कसैलापन तैर आया...शून्य में देखते हुए बोलीं...
“क्या सब सुख पैसे से ही है...हमारे पास बहुत पैसा नहीं था तो क्या हमने जिंदगी नहीं जी...बच्चों को पढ़ाया लिखाया नहीं...अब तो जब देखो बस पैसा-पैसा...क्या करोगे इतने पैसा कमाकर बैंक बैंलेस बनाकर...कहीं आने जाने की तुम्हें फुर्सत नहीं...खाने पहनने का तुम्हें होश नहीं...हमारी छोड़ो तुम्हें तो अपने बच्चों को पालने का भी वक्त नहीं है...किसके लिए कर रहे हो यह सब...क्यों भाग रहे हो...उसी दिन टी०वी० देख रही थी...अटल जी कह रहे थे मेरी समझ में नहीं आता कि एक इन्सान को जिंदगी जीने के लिए आखिर कितना पैसा चाहिए...जिसे देखो वही पैसे के पीछे दौड़ रहा है। ज्यादा पूछो तो कहेंगे...अच्छा बताओ क्या बातें करूँ...”

सामने वाली सीट वाले लोग भी यों ही फालतू की गप्पें मार रहे थे और हँस रहे थे, वे बोलीं-
“अब इन्हीं लोगों को देखो...क्या जाने किस विषय में बातें कर रहे हैं...मगर हँस तो रहे हैं... अब हम इतने बेवकूफ भी नहीं कि सबके साथ बात न कर सकें।“
“बच्चे नहीं हैं क्या ?”
हैं क्यों नहीं...दो बच्चे हैं...लड़का आठ साल का है...लड़की पाँच साल की है उन्हें भी हॉस्टल में भेज दिया...”
“हॉस्टल में क्यों भेज दिया ?”
कह दिया, “यहाँ रहकर बिगड़ जाएँगे...आप लोग सिर चढ़ा लेगें...वहाँ रहकर आत्मनिर्भर बनेंगे...अब इनसे पूछो तुम्हें तो हमीं ने पाला ...क्या तुम्हारी परवरिश में कोई कमी थी...महीने में मुश्किल से एक दिन आते हैं...लोकल ही हॉस्टल है...जाने क्या जरूरत थी...शौर्य को पिछले साल से हॉस्टल में डाला है...जब भी घर आता है मुझी से चिपका रहता है...मेरा तो कलेजा मुँह को आ जाता है...
“जब उसे जबरदस्ती हॉस्टल भेजा जाता है...कैसे दादी-दादी करके रोता है...कुछ कहो तो कहेंगे आपको क्या पता...हाँ हमें क्या पता ...तो बस इतना ही पता है कि उसका बचपन छीन रहे हो...जब वह किसी के साथ रहेगा ही नहीं तो बड़े होकर किसी को पहचानेगा क्या...उसे भला किसी से क्या लगाव होगा...प्यार तो साथ रहने से ही होता है...केवल पैसा दे देने से प्यार थोड़े ही हो जाता है...इतना बड़ा घर बनाया है...सब कुछ है...पर सब खाली...”
“क्या करती हैं आप दिन भर?”
“क्या करती हूँ ...बस इधर-उधर घूम लेती हूँ...काम कुछ है नहीं ...जब बच्चे छोटे थे सारा समय किचेन में ही निकल जाता था...कभी इनकी फरमाइश पकौड़े बनाओ...पिताजी कहते दाल का फरा कितने दिनों से नहीं खाया ...सब कुछ घर में ही बनता था...अब क्या ?...सुबह उठो बहू कहती है...मम्मी ब्रेड जैम दे दूँ...मुझे यह सब पीजा, बर्गर ,मैगी, चाउमीन बिल्कुल अच्छे नहीं लगते...आलू का पराठा खाए कितने दिन हो जाते हैं...मैं खुद भी बना लूँ...मगर वही बात...कोई और खाएगा नहीं...बहूरानी खाने से पहले ही नहीं ऑइली, नो फैटी और कैलोरी का हिसाब लगाने लगती है...मक्के की रोटी, सरसों का साग तो अपने ही देश में सपनों जैसे हो गए हैं...कोई मेहमान अगर आ जाए तो...चलो भाई आज रेस्टोरेंट में डिनर किया जाए।“

मुझे लगा पता नहीं इस भागती हुई जिन्दगी ने लोगों को कैसे अपने ही देश में बेगाना बना दिया है। सही तो कह रही हैं बेचारी जो इन्हें पसन्द है वह पुराना, गया-बीता चलन है और जो उन्हें पसन्द है वह इन्हें रास नहीं आता। यह भी एक विडम्बना ही तो है।

“घर में ही पड़े रहते हैं...जाएँ भी तो कहाँ...पहले जब शरीर में दम था हम लोग भी घूमने जाते थे अब हिम्मत ही नहीं होती...सड़क पर गाड़ियों की ऐसी रेस लगी रहती है कि सड़क पर चलने में डर लगता है...अब इस बुढापे में कहीं चोट लग गई तो और मुश्किल हो जाएगी...बस बालकनी से ही चलते-फिरते लोगों को देख लेती हूँ...मुम्बई में तो सूरज और चाँद भी ठीक से नहीं दिखते...बिल्डिंगें दिन पर दिन और ऊँची होती जाती हैं...आसमान और छोटा...हम लोग तो हफ्तों तक सड़क पर कदम नही रख पाते...दसवें माले पर घर है...न ज़मीन अपनी न आसमान अपना...कितनी याद आती है...वह अपने गाँव का आँगन...वह सरसों के खेत...वह आम का बाग वह खरबूजे के ढेर...”
“शादी में जा रही हैं कुछ दिन वहीं रहेंगी?”
“हाँ शादी में जा रहे हैं...महीने भर पहले से कार्ड आ गया था...बताया भी था मैंने बिट्टू को...कहा भी जब तुम किसी के यहाँ नहीं जाओगे तुम्हारे यहाँ कौन आएगा...इतना सब कुछ है, मैंने पूछा क्या देना है...कोई जवाब नहीं दिया...बोले क्या करूँ पैसा तो बहुत है शेयर मार्केट में लगा दिया है...होगा पैसा...किसी को क्या करना है तुम्हारे बैलेंस से...जब हमें कुछ पैसे देते। अब क्या है...हमें तो करना है...जो कुछ हमारे पास है उसी में से कर देगें...क्या अर्थ है ऐसे पैसे का ...उनकी आँखों में आँसू आ गए...बोलीं बहुत मन भर गया है...नहीं बनना बड़ा आदमी...हम तो छोटे ही ठीक थे...

तभी फोन की घंटी बजी। शायद फोन उनके बेटे का था पूछ रहा था वापसी का रिजर्वेशन कब का कर दूँ। वे बोलीं कोई जरूरत नहीं है। मैं अब गाँव में ही रहूँगी।

८ अप्रैल २०१३

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