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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
मनीष कुमार श्रीवास्तव की कहानी— मैं वो और मेरी साइकिल


पाँच बड़े भाई-बहनों में मैं सबसे छोटा किन्तु सबमें जवान होने का रोमानियत भरा अहसास सबसे पहले मुझे होना अजीब सी बात है!

सबसे बड़े भाई ने ८० के शुरूआती वर्षों में गुल्लक फोड़कर पिताजी से ‘हाईस्कूल’ पास होने के एवज में ‘नई साइकिल’ की दरख्वास्त लगाई और हाईकमान ने भी आदर्श पिता की भूमिका निभाते हुए अपनी थोड़ी सी तनख्वाह से कुछ और पैसे मिलाकर भाई को नीले रंग की २० इंच की साइकिल खरीद दी, शर्त यह कि "सब भाई-बहन चलायेंगे वो भी बिना झगड़ा किये।" समझौते के निष्कर्ष तक कभी न पहुँचने वाली पाकिस्तान और भारत सरीखी अर्न्तराष्ट्रीय पॉलिसी का अजीब नमूना पिताजी ने घर में ही हमसे शर्त के रूप में रख दिया।

किन्तु मैं और मुझसे ठीक बड़े इस बात से आश्स्वत थे कि हमें कहाँ साइकिल की गद्दी यूज़ करनी है, हमें तो कैंची ही चलानी है चिंतित हों बड़ी दीदी और बड़े भाई लोग जिन्हें रोस्टर बनाकर साइकिल का पूरा प्रयोग करना है वो भी "बिना झगड़ा किये?"

खैर शर्त का आंशिक पालन करते हुए मैं भी बड़ा हो गया और अंततः मैं भी बड़ों की श्रेणी में आया जब मैंने हाईस्कूल की परीक्षा पास की और साइकिल की पूरी दावेदारी ठोंक दी।

सालों तक उच्चतम उत्पादकता देने के बाद साइकिल का रंग धूमिल पड़ गया था और चेन-कवर तथा मडगार्ड भी अब नीले की जगह लाल रंग के हो चुके थे जो कि किन्हीं और साइकिलों के थे और रिपेयरिंग के दौरान पिताजी ने बदलवा दिये थे किन्तु उस बदरंग साइकिल पर मेरा गुमान मुझसे ज्यादा मेरी हमउम्र मुहल्ले की लड़कियों से आज भी पूछा जा सकता है, जिनमें से कई अब सास और जेठानी के रूप में पायी जायेंगी। मेरी साइकिल ने स्कूल और ट्यूशन जाते समय गंतत्व तक पहुँचाने और मुझे "मेरी वाली" से मिलाने में भरपूर सहयोग दिया।

अब साइकिल का मुख्य मालिक होने के कारण मुझे स्कूल एवं ट्यूशन के साथ-साथ शहर जाते समय रास्ते में ही पड़ने वाली मित्रवत "टीटू सरदार" की छोटी सी साइकिल की दूकान पर भी समय देना बाध्यकारी हो गया था। कभी चेन-कवर से आ रही आवाज को म्यूट कराना, कभी कुत्ता छोड़ने (साइकिल की एक यांत्रिकी खराबी) की समस्या का निवारण और प्रायः तो आर्थिक विपन्नता के कारण सेकेण्ड हैण्ड टायर डलवाने से पंक्चर की समस्या।

साइकिल की दुकान पर बैठकर मैंने उसके मालिक "टीटू सरदार" की अधिकतर अनुपलब्धता का भरपूर फायदा लिया जैसे उसके जाने के बाद आयलिंग कर लेना, ग्रीसिंग कर लेना और फाइनल पेमेंट के समय इन हेड के खर्चों को छुपा जाना मेरे अतिरिक्त लाभांश हुआ करते थे।

उम्र के हिसाब से "टीटू सरदार" को ३५ से ३८ वर्ष की रेंज में डाला जा सकता है तथा वजन के हिसाब से ४५ किग्रा. की दावेदारी, किन्तु पहनावे में "साजन" फिल्म के मुख्य किरदार "सागर" से मेल खाता पहनावा उन्हें पूर्वांचल के एक छोटे से जिले से निकाल कर निःसन्देह मुम्बई की उच्चवर्गीय नागरिकता की पहचान देता था।

टीटू सरदार की रोजाना की दिनचर्या में प्रातः ६ बजे पूरी तरह तैयार होकर साइकिल से शहर में लड़कियों के सबसे पहले खुलने वाले कालेज के सामने जा कर ऐसी पोजीशन लेकर खड़े हो जाना जहाँ से प्रत्येक लड़की को इत्मिनान से निहारना उसके बाद ८-३० बजे से शुरू होने वाले स्कूल पहुँचना और वहीं तल्लीनता और उत्साह का प्रमाण देना। भागते-भागते फिर १० बजे वाले नियत बालिका इण्टर कालेज के सामने तिराहे पर पेड़ के नीचे साइकिल से ही एंगिल साधते हुये लड़कियों को अपनी पैनी नजर से स्कैनिंग करना। इसके बाद ११ बजे के करीब दुकान पर पहुँचना, थोडे़-बहुत काम और जायज थकान भी। "जिन्दगी में आराम कहॉ” का मूल-मंत्र समय-समय पर देने वाले टीटू सरदार का खैर अब लंच ऑवर शुरू हो जाता था किन्तु लंच जैसे अनावश्यक कार्यों में ज्यादा समय न व्यर्थ करते हुये शुरू होती थी फिर सब लड़कियों को स्कूल से घर छोड़ने की जिम्मेदारी और बारी-बारी से उन्हें देखकर स्वयं ही अपने अंदर उर्जा का संचार कर लेना, वाह रे लगन और डेडिकेशन!

होली के सिलाये कपड़े को पूरी सावधानी के साथ अक्टूबर - नवम्बर तक दुर्गा पूजा में होने वाले एक हफ्ते के मेले के लिए सम्भाल कर रखना उनकी पूर्व नियोजन और दूरदर्शिता का द्योतक तो था ही किन्तु सीमित संसाधन से इतनी उच्चतम उत्पादकता प्राप्त कर लेना टीटू सरदार के व्यक्तित्व की मुख्य प्रतिभा ही थी।

काफी समय तक उनके अनुभव का आँकलन करने के बाद टीटू सरदार की गौरवमयी प्रतिभा से प्रेरित होकर मैने भी इस क्षेत्र में उन्हें अपना गुरू बनाने की ठान ली और एक दिन उन्हें मैंने अपने दिल की बात बता डाली कि "फलाँ स्कूल की वो लड़की" जो "मैंने प्यार किया" की भाग्यश्री जैसी है, वो मेरे घर के सामने रहती है और मैं उससे बेइन्तहा प्यार करता हूँ, बस थोड़ी प्राब्लम बीच में आड़े रही है, वो यह है कि उसे अभी पता नहीं है।

बस क्या था टीटू सरदार ने उस लडकी की सारी पसन्द-नापसन्द बताते हुए उसकी सहेलियों के भी नाम और स्कूल जाने का रास्ता तक मुझे बता दिया और अपार अनुभव से भरे अपने गौरवमयी कथाओं से लड़कियों को इम्प्रेस करने के कुछ अचूक और अकाट्य नुस्खे मुझे बता डाले। किन्तु मैं कच्ची उम्र का नया खिलाड़ी उनके नुस्खें से पूरा-पूरा इत्तेफ़ाक नहीं रख पा रहा था जैसे मेरी जिज्ञासा कि "टीटू भाई, तेजी से साइकिल चलाते हुए जब मैं लड़की के बगल में "लाल गुलाब का फूल" गिरा कर उसे बिना देखे स्टाइल मारते हुये गुजर ही जाऊँगा तो वो मुझे देखेगी कहाँ? और मुझे पहचान भी तो नहीं पायेगी।”
टीटू भाई ने त्वरित प्रतिक्रिया देते हुये अपने लम्बे बालों को गर्दन की ताकत से ही सँवारते हुये झटककर बोले "अबे बौड़म, लड़कियों की नज़र को तुम मुझसे ज्यादा थोड़े जानते हो”और अपने गुब्बारे जैसी पैंट (बैगी) को सफेद, लम्बे हील वाले जूतों के ऊपर चढ़ाते हुए, शर्ट को थोड़ा सा पैण्ट की बेल्ट से बाहर निकाल कर बोले "अमॉ तुम काहे परेशान हो जइसा कहता हूँ वइसा करो, बाकी देखना।"

गुरू टीटू का आर्शीवाद प्राप्त कर अपने साहस पर तनिक भी सम्भावना को पूर्णविराम लगाते हुए मैने भी वीर रस में जवाब दिया "ठीक है भइया एकदम वैसा ही करूँगा।"

लम्बी छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गये थे। दुर्गा पूजा की समाप्ति के बाद सड़कों पर खाली बल्लियाँ गड़ी हुई रह गयी थीं, मूर्ति पंडाल और लाइटों के निकल जाने के बाद शहर जैसे विदाई के बाद लड़की के घर जैसा प्रतीत हो रहा था। मैंने भी सुबह-सुबह पडोसी से झूठ बोल कर अपनी माता जी के नाम पर पूजा अर्चना के लिये लाये हुये फूलों में से सबसे खूबसूरत दिखने वाले "लाल गुलाब के फूल" को दान में मिलने वाली किडनी से भी ज्यादा सम्भालकर अपनी जर्सी की पाकेट में रख लिया और आज आर-पार की लड़ाई के लिए कपड़े से साइकिल पर पड़ी धूल झाड़कर भीष्म प्रतिज्ञा के साथ ६:३० बजे ही रणक्षेत्र की ओर निकल पड़ा।

सड़क पर मोड़ से किनारे जाकर देखा तो मेरी वाली भी अपनी सहेलियों के साथ स्कूल यूनीफार्म में १०० कदम आगे जाते दिखाई पड़ी। बस फिर क्या था, आज तो बस अपनी वाली को जमाने से जीत लेने की प्रतिज्ञा के साथ टीटू भाई का नाम स्मरण कर लम्बी साँस छाती में भरते हुए अपनी "विश्वास की सवारी” की सीट को छोड़कर डण्डे पर आ गया और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए नुस्खे का अक्षरशः पालन कर स्टाइल में अपनी वाली को पार करने लगा।

लेकिन ईश्वर ने तो मेरे तकदीर में आज के लिये कुछ और ही प्रारब्ध कर रखा था। अपने दोनों पैरों के बीच तेज दर्द पर काबू पाते हुये जब मैंने अपने अगल-बगल के वातावरण का एहसास किया तो सबसे पहले पीछे से फटी पैंट और सड़क के सर्द डामर से हो रहे स्पर्श ने मुझे रात्रि की ठंड का एहसास कराया। किसी तरह आँखें खोलीं तो अपने चारों ओर आश्यर्च से भरी निगाहें पाईं मानो किसी निष्क्रिय किये जाने चुके बम को चारों ओर से जनता आश्चर्य से निहार रही हो।
तभी टीटू सरदार की आवाज "उठ जा मेरे शेर, चलकर दिखाओ, फ्रैक्चर तो नहीं हुआ है?” और उसी बीच वो आवाज भी कानों में सुनाई दी जिसके लिए मैं अपने जनाजे़ से भी उठ जाने का संकल्प लिए फिरता था "मेरी वाली की आवाज”तुम घर आओ शाम को चाचीजी से बताऊँगी कि लड़कियों को सड़क पर देखकर शेखी मारता है।”

अभी इस हादसे को पूरी तरह समझ भी नहीं पाया था कि तभी बड़ी दीदी की कर्णभेदी आवाज भी कानों में सुनायी दी "भइया शर्माओ नहीं यहाँ सब बहन जैसी ही तो हैं, चलकर देख लो कहीं हड्डी तो नहीं टूट गई हैं!

दर्शकों की संख्या थोड़ी कम होने पर दूर सड़क पर नजर डाली तो मेरी किताबों के पन्नों और उस लाल गुलाब की पंखुडियों से ज्यादा मेरी आबरू के टुकड़े सड़क पर बिखरे नज़र आ रहे थे। साइकिल में से अपने उलझे हुये पैर और सड़क पर फैली किताब कापियाँ बटोरते-बटोरते स्मरण शक्ति पर जोर डाला तो समझ में आया कि साइकिल के डण्डे पर आकर पैडल मारते समय दशकों पुरानी मेरी साइकिल की चेन टूट गयी थी और गति के भौतिकीय सिद्धान्त का सड़क पर प्रायोगिक नमूना देते हुये मैं भी उसी आवेग से लड़कियों के बीच में अर्द्धवृत्त बनाते हुए साइकिल के साथ गिर गया और असहनीय शारीरिक पीड़ा के कारण मुझे मूर्छा आ गयी थी। उस समय अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में मैने ईश्वर से बस यही प्रार्थना की, कि हे ईश्वर! अब इस बेइज्जती से बेहतर होगा कि मुझे भी सीता मैया की भाँति इसी समय धरती चीरकर अपने में समा लो!

घर पर महीनों आराम करने के बाद भी मेरी दोनों टाँगों के बीच दर्द होता रहा और भाइयों की फटकार सुनता रहा कि "अरे वो तो भला हो टीटू भइया का जो वहाँ समय पर आ गया नहीं तो उस दिन ये ससुरा तो सड़क पर लड़कियों को सर्कस दिखाते हुये मर ही गया होता।”

पिछले दिनों किसी रिश्तेदार के बेटे की शादी में मुझे वर्षों बाद अपनी उसी कर्मभूमि में पुनः जाने का मौका मिला। चौराहे से टीटू सरदार की दुकान की ओर जाने वाली सड़क पर कार के घूमते ही टीटू सरदार की दुकान पर नज़र पड़ी और उस मुखर प्रतिभा के धनी व्यक्ति का अक्स नज़र के सामने घूमने लगा। टीटू सरदार की दुकान बंद हो चुकी थी और लोगों ने बताया लगभग १५-१६ वर्षों से टीटू सरदार को शहर में नहीं देखा गया। तीन दिनों के ठहराव में मैं अपने किसी उत्तराधिकारी को पूरे शहर में खोजता रहा किन्तु आज की इस पीढ़ी में साइकिल की जगह बाइक असीमित संसाधन और डेटिंग सरीखी आयातित सुविधा के होते हुए भी उन दिनों जैसी वह रूहानी संलग्नता और उत्साह देखने को नहीं मिलता।

२ जून २०१४

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