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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से वल्लभ डोभाल की कहानी— नुक्कड़ नाटक


वर्षों नौकरी तलाशने पर जब निराशा ही हाथ लगी तो वह समझ गया कि पढ़ने-लिखने का मतलब सिर्फ नौकरी नहीं, अपना कोई भी धंधा शुरू किया जा सकता है। सोचकर उसने काम चालू कर दिया। काम कोई हो, मतलब पैसा निकालने से है। चल पड़े तो पैसा ही पैसा...!

शुरूआती दौर में जो दिक्कतें पेश आती हैं, उनका सामना उसे भी करना पड़ा। तब पहली बार एक बूढ़े आदमी ने रू-ब-रू खड़े होकर उसे डपट दिया था- "एक जवान आदमी इतना हट्टा-कट्टा होकर भीख माँगता फिरे, शर्म आनी चाहिए! मेहनत-मजूरी क्यों नहीं कर लेता?" बूढ़े आदमी की नसीहत उसने सुन ली और चुपचाप बर्दाश्त कर गया। चाहता तो वहीं मुँहतोड़ जवाब देता कि- ‘माँगना कम मेहनत-मजूरी का काम नहीं। सर्दी-गर्मी में दिन-भर घूमते जान आधी रह जाती है, फिर माँगता कौन नहीं! फर्क इतना है कि मैं तुम लोगों से माँग रहा हूँ और तुम मंदिर-मस्जिदों में जाकर माथा टेकते हो! भीख तो सभी माँगते हैं।

कोई धन-दौलत माँगता है, कोई औलाद के लिए तरस रहा है, किसी के व्यापार में घाटा है तो कोई अमानत में खयानत, हत्या-बलात्कार, चोरी-चकारी जैसे घोटालों से बच निकलने की जुगत में लगा है।’ कभी उसे लगता कि वह अकेला नहीं, दुनिया के सभी देशों, धर्मो और जातियों में, राजनीति से लेकर संस्कृति, साहित्य, कला आदि के क्षेत्र में हॉलीवुड से बॉलीवुड तक, सभी जगह मँगते बैठे हैं। भिखारी की तरह आदमी आता है और भिखारी जैसा चला जाता है।

इसी सोच के रहते उसने अपना इरादा मतबूत रखा और बेहिचक अगले ब्लाक में घुस गया। पच्चीस-तीस घरों के चक्कर लगाने पर जब कुछ न मिला तो लगा कि वह गलत जगह आ गया है। सभी कुछ गलत! गलत! सत्रह ब्लाक के आगे चौदह ब्लाक नहीं होना चाहिए। चाहिए तो यह कि सत्रह के आगे अठारह होता और फिर क्रमशः उन्नीस बीस...। लेकिन ऐसा कुछ नहीं। इस हिसाब से तो पुरानी दिल्ली के मोहल्ले ज्यादा सहूलियत वाले हैं। वहाँ नंबरवार दुकानें हैं, घर हैं, वहाँ जो है, सही होने के कारण समझ आता है। फिर जहाँ वह रहता है, वह जगह तो दिल्ली भर में अच्छी है। अमरीक सिंह की कोने वाली मिठाई की दुकान से बाजार शुरू होता है और पान वाले गुप्ता की दुकान पर खत्म हो जाता है। उसे अमरीक सिंह का ख्याल आता है, माँ-बाप अमरीका चले गए थे, वहीं वह पैदा हुआ। लेकिन इससे क्या! अपने देश की संतान कहीं जाकर पैदा हो, उसका देसीपन कहीं नहीं जाता। माँ-बाप ने उसका नाम अमरीक सिंह रख दिया। नाम जो हो, पर अब वह पहले वाला अमरीक नहीं रह गया। तब बिना माँगे ही कुछ दे देता था, अब दुकान के आगे टिकने नहीं देता। रोज जाने पर गालियाँ फेंकना शुरू कर देगा, गालियाँ भी ऐसी कि ढूँढने से न मिलें।

आगे फुटपाथ पर खड़े-खड़े ही जैसे वह सारी कालोनी घूम गया हो। मन में शंका व्याप गई। आज पहली बार पच्चीस-तीस घरों से खाली हाथ लौटना हुआ है। यहाँ किसी ने नजर-भर देखा तक नहीं। सरकारी कालोनी है, इन लोगों को सरकार के अलावा कुछ दिखता भी नहीं। तो भी हौसला रखकर उसने अगले ब्लाक की ओर रुख किया।

किसी दरवाजे पर एक मिनट से ज्यादा नहीं रुकना है, जैसे यह फार्मूला उसे बताया गया हो। बाबूजी, भैनजी और माता जी....! अठारह की उम्र से लेकर बड़े-बूढ़ों तक बाबूजी कहने में झिझक नहीं, जवान औरतों को अनुनासिक स्वर देकर भैनजी, और बूढ़ी औरतों के लिए माताजी का करुणाकर रूप स्वरों में उजागर करने की बात थी। वह नई कविता पढ़ने के लहजे में अपनी माँग रखता। शब्दों को नए प्रयोगात्मक ढंग से फेंकने में पारंगत और आँखों में निरीह खिंचाव के रहते ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। उसे मालूम था कि जिसे कुछ देना है, वह इतने में ही दे मरेगा। न देने वाले के आगे खड़ताल बजाने पर भी कुछ न देगा। उसे लगा, यहाँ के लोगों पर उसकी उच्चारण कला का न कोई असर है और न कोई आँखों की भाषा ही जानता है, तो कुछ ऊँचा बोलना चाहिए। सोचकर उसने अपना लहजा कुछ तेज किया और खड़े होने का समय भी बढ़ा दिया।

‘आगे बढ़ो!’ उत्तर पाते ही वह आगे बढ़ जाता। ब्लाक सत्रह-अठारह...वही अच्छा...जो ज्यादा देर खड़ा न रख एक छोटे वाक्य में विदा कर दे। यहाँ का वातावरण आज पहली बार उसकी समझ में नहीं आ रहा था। सुबह आते ही काम शुरू किया, लेकिन जमा नहीं। जिन लोगों से कुछ लेना है, वे ही उखड़े-उखड़े नजर आते हैं। बाबू लोग दफ्तर जाने की तैयारी में हैं, उन्हें किसी की तरफ देखने की फुर्सत नहीं। पर देने के लिए कितनी फुर्सत चाहिए! उसे याद आया, अमरीक सिंह तो जाते ही कुछ न कुछ पकड़ा देता है, कभी जलेबी का टुकड़ा, कभी दो-चार बासी पूरियाँ......इतना देने में कितना समय लगता है! इधर से उठाकर उधर रखने की बात है। पर ये बाबू लोग तो सभी काम फुर्सत से करते हैं। इनकी बीबियों को इनसे भी ज्यादा फुर्सत चाहिए....और साहबजादे तो हैं ही फुर्सतमंद। उसने पाया कि इस वक्त बच्चे लोग स्कूल जाने की हबड़-दबड़ में हैं, बीबियाँ किचन सँभाले हैं, और बाबू लोग! इन्हें तो हर जगह मौके की तलाश रहती है। गुसलखानों से ही बीबियों को आवाज देते हैं कि उनका कच्छा-बनियान जल्दी पहुँचाओ। इनकी गिरस्ती के सारे काम दस बजे के अंदर खत्म हो जाते हैं। उसके बाद फुर्सत ही फुर्सत!

देखकर उसका मन पूरी तरह उखड़ गया। छोडो! ऐसा भी क्या...! लौटकर उसने एक रेस्टोरेंट में भरपेट खाना लिया और वहीं पार्क में एक पेड़ के नीचे लेटा रहा।

शाम होते फिर वही आवाजें दरवाजे-खिड़कियों से अन्दर पहुँचने लगीं। तभी एक लड़की ने आकर बुरी तरह डाँट दिया। लड़की की डाँट अच्छी लग सकती है, पर अपने लिए माताजी संबोधन उसे अच्छा नहीं लगा। लड़की की डाँट खाकर वह गलियारे से निकलकर बाहर सड़क पर आ खड़ा हुआ।
क्या जगे है स्साली! कालोनी में रहने वालों के प्रति मन में जड़ता का भाव बन आया। ये लोग इस तरह नहीं मानेंगे। सोचकर वह सड़क के नुक्कड़ वाले मिल्क बूथ पर आ बैठा, दीवार से पीठ लगाई और लुंगी को ढीला किया, इतना ढीला कि वह बदन से हट जाए। इस हालत में वह वहीं पसर गया। वह जैसे मर गया।
मेन रोड की ट्यूबलाइट दूर पड़ जाने के कारण दूर से उसका नंगापन दिखाई न देता, लेकिन पास आने पर साफ जाहिर था कि कोई नंगा पड़ा है। इतना नंगा कि देखने वाला आँखें बंद कर लें। औरतों का उधर से निकलना मुश्किल हो गया। पर बाबू लोग हिम्मत करके उसके पास पहुँच गए और देखते-देखते भीड़ जमा हो गई।
"जिंदा आदमी होशो-हवास नहीं खोता! मर ही गया है, तभी नंगा पड़ा है!" एक आदमी बोला।
"मरा आदमी नंगा रहे या बढ़िया सूट पहने, क्या फर्क पड़ता है?" दूसरे ने कहा।

मद्धिम रोशनी में एक आदमी आगे बढ़ा। उसने आँखें फाड़कर मृतक के चेहरे को देखकर कहा- "मरा नहीं, बेहोश हुआ लगता है।"
एक दूसरे आदमी ने उस पर हाथ लगाने का साहस किया- "ए भाई!..तुम नंगे हो रहे हो, उठो!..जरा सँभलकर बैठो।"
इस करारी आवाज को सुनकर वह कुनमुनाया- "बा-बू-जी!"... जैसे कि उसके प्राण-पखेरू अब उड़ना ही चाहते हैं। उसके हाल पर तरस खाते हुए एक बोला- "गरीब बेचारा!... बिना खाए-पिए मरेगा ही। उठो भई! अपने को सँभालो!...खाना खाओगे?..। इसके पास कपड़ा भी तो नहीं।"
"अरे, कपड़े की क्या बात!.. कपड़ा हम दे देंगे। पर उसे उठाओ, तो जाए।"
तभी दो लोगों ने सहारा देकर उसे उठा लिया। एक ने अपने हाथों से उसकी लुंगी को मजबूती से बाँध दिया। जब उसकी जाँघ ढक गई तो दीवार के सहारे बिठा दिया गया। इसके बाद बाबू लोग अपने घरों को लौटे। कोई रोटियों के ऊपर गाढ़ी दाल रखकर ले आया, कोई पुराना कुर्ता-पाजामा ले आया, किसी ने पलंग की चादर ला रखी। कुछ लोगों ने दो-चार आना, रुपये-दो रुपये लाकर उसे दिए।
"कहाँ रहते हो?" एक ने पूछा।
"पहाड़गंज।" बड़ी मुश्किल से उसकी आवाज निकली।

रुपया निकालकर उसके हाथ थमाते हुए दूसरा बोला- "बस से चले जाना। रोटी खा लो और सुनो, ग्यारह बजे तक बसें चलती हैं, पहाड़गंज के लिए बाइस और छत्तीस नंबर में बैठ जाओ।"
वह चुप रहा। उत्तर में अपने को सँभाल कर बैठ गया। लगा कि करुणा और सहानुभूति सब जगह है। कहीं देर के बाद आदमी पिघलता है तो कहीं इतने में काम बन जाता है।

सभी उसे कुछ न कुछ देकर लौट गए। इसके बाद कुछ औरतें निकल आईं। बाबू लोगों ने शायद घर जाकर बताया कि एक आदमी वहाँ नंगा लेट रहा था। औरतें भी उसे कुछ देने आई थीं।
...अब कोई नहीं आएगा, कुछ मिलेगा भी नहीं। उसने रोटियों का रोल बनाकर मुट्ठी में कस लिया। कपड़ों की पोटली बना ली और पैसे उठाकर जेब में भर लिए। तभी जेब से घड़ी निकालकर देखा, नौ बजने में कुछ मिनट बाकी हैं। अभी वक्त है, अगले ब्लाक में एक शो और दिया जा सकता है। फिर ख्याल आया, एक कालोनी में एक से ज्यादा ठीक नहीं। सोचकर उसने पास से गुजरती बस को रोका और लपककर उसके भीतर जा बैठा।

१ दिसंबर २०१४

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