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समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से राजकुमार राकेश की कहानी— पिता

कहानियाँ


बच्चा साढ़े बारह बरस से कुछ महीने ज्यादा उमर का था। यही कोई दो ढाई महीने ज्यादा। पर दादी यानी अम्मा उसे तेरह का जवान सधान कहती थी। इसी तर्ज पर लोगबाग भी उसे अच्छा भला जिम्मेदार जवान मान लेने लगे थे। हालाँकि उसके साथ के बच्चे खूब खेलते और आपस में लड़ते झगड़ते थे पर खुद उसने ऐसे कामों से तौबा कर ली थी। उसने मान लिया था कि उस बच्चे के साथ ऐसा ही होता होगा, जिसकी माँ बहुत पहले मर चुकी हो। और अब कुछ ही दिन पहले मजदूरों की हड़ताल में पुलिस की गोली से उसके पिता की भी मौत हो गई हो। और उन दोनों के मरे हुए शरीरों की कपालक्रिया उसने अपने हाथों से की हो। और खासकर तब तो और भी ज्यादा जब अम्मा अनगिनत बार कह चुकी हो कि अब उसके कंधों पर उसके छोटे दो भाईयों और दो बहनों का भार है। बल्कि वह तो अक्सर कहती थी कि यह इन चारों के लिए अब पिता की तरह है। उसका कहना था कि पिता कहीं बाहर से उधार नहीं लाया जा सकता। वह तो हमेशा अपने घर के अंदर होता है। वह अम्मा से लड़ भी पड़ता कि वह पिता कैसे हो सकता है। वह कोई बूढ़ा थोड़े न हो गया है, जो पिता हो जाए। पर अम्मा अपने कहे पर अटल रहती।

उसके पिता ने अपने घर में पाले बैलों नीलू और बग्गू की जोड़ी के कंधे पर धरे जुए से बँधी हल की मूठ जब पहली बार को उसके हाथ में थमाई थी, तब वह दस साल से कुछ महीने उपर की उमर का था। ‘ग्यारह ही मान लो,’ अम्मा ने उस साँय, जब वे सब अपने घर के आँगन में आम के पेड़ के नीचे बैठकर रोटी खा रहे थे, तब बेहद प्रसन्न-चित मन से बयान किया था। आज जब वह अपने बैलों की उसी जोड़ी को हाँके बरछवाड़ के नलवाड़ के मेले में बेचने को लिए जा रहा है, तब उस घटना को पूरे दो साल बीत चुके हैं। वह मन ही मन खुश था कि अब इन मरदूदों की सेवा-पाणी से उसे निजात मिलने वाली है। उनके पीछे चलते वह अपने सिद्ध बाबा दियोटिया को याद करता और उससे अरदास भाँजता चल रहा था कि अगर ये जोड़ी आज ही बिक जाए तो आने वाले ऐतवार को वह अम्मा से तीन टिक्कड़ रोट पकवाकर, बाबाजी की मजार पर बतौर परसाद चढ़ाकर अपने हमउम्रों के बीच बाँटकर ऐलान कर देगा कि अब वह भी उन्हीं की तरह लड़ाई झगड़े और स्कूल की पढ़ाई में शामिल होगा। उसे अपने सिद्ध बाबा पर पूरा विश्वास था कि वे इन्हें ले जाते ही बिकवा देंगे।

प्रमाण के तौर पर वह इनकी दुलकी चाल में बाबा की छवि देख रहा था। वे एकदम हौली गति से चल रहे थे। और तो और बग्गू ने आज एक बार को भी पूँछ उठाकर बैलों वाली वह दौड़ न लगाई थी। जरूर ही ये बाबाजी की मेहर का परसाद होगा। वर्ना अभी तक तो ये जानवर उसके नाक की बिम्बली काढ़के न रख देते। खासकर उसे बग्गू के व्यवहार पर ज्यादा हैरानी हो रही थी। वह तो कुछ इस मंथर चाल से चला जा रहा था मानो एकदम किसी शरीफ जानवर का बच्चा हो। एकदम से कछुआ बन गया था। जैसे आज उन्हें हाँक लिए जाने वाले इस बच्चे से उसकी कभी कोई दुश्मनी रही ही न हो। हालाँकि यह मामला विश्वास करने काबिल था नहीं। वह जानता था, इस जानवर से उसकी दुश्मनी खत्म हो नहीं सकती। बल्कि ये तो इस कदर पैनी थी, जितना कि अम्मा से उसकी खार रहती थी। पर यह उतना ही दोस्ती का भी मामला था। जैसे कभी अम्मा उसे दुलारने पुचकारने लगती तब मानो उसकी तरह की दयावान औरत इस दुनिया में दूसरी कोई न हो। बग्गू से भी उसका कुछ ऐसा ही रिश्ता बनता था। एक इस वक्त में वह बेहद दयावान और एक उस वक्त में वह अति क्रूर हो जाता था। आज मेले की ओर अपने साथी नीलू के साथ चलते वह बच्चे के साथ पहले वाले रिश्ते में था। और नीलू? वह तो हमेशा से ही उसके साथ इतना प्यार करता था कि अपने साथी बग्गू को अपने सींगों से बहुधा झाड़ देता कि काहे बिन माँ और अब बिन बाप के इस बच्चे को तंग करता है।

आज सुबह जग जाने के बाद अभी वह आँखें मूँदे लेटा पड़ा सोच रहा था कि किसी भी पल में अम्मा आने ही वाली होगी और रोज की तरह सिर पर सवार हो लेगी, कि उठता काहे नहीं रे टिंचुआ, जाके इन बैलों का सुबह का सानी पानी कर। और ले वह सचमुच सामने आ खड़ी हुई। बोली, ‘ओ टिंचुआ, उठ ले। और कुछ खा धरके इन मरदूद बलदों को बरछवाड़ के नलवाड़ में ले जा। बेच दे इनको। हमसे अब ये नहीं पलेंगे।’

कुछ पलों के लिए तो बच्चा सकते की सी हालत में रहा। मानो उसे अम्मा के शब्दों पर विश्वास ही न हुआ हो। पर अम्मा ने एक बार फिर वही कुछ कहा तो वह हौसले से उठ बैठा, और सोचने लगा कि आज की इस सुबह अचानक अपने बाबाजी कैसे प्रसन्न हो गए होंगे, जबकि घर के बैलों की इस खाँटी जोड़ी को बेचने की सोचना तो इधर अम्मा के तईं ही भारी कुफ्र था। ‘भला हो तेरा अम्मा और उतना ही भला हो तेरा बग्गू,’ उसने अपने मन में उच्चारा। ‘आज का दिन बड़ा भाग लेके आया है। जै बाबे दी।’ यानि वह अब मुक्ति के कगार पर खड़ा था। हालाँकि इनसे बिछड़ने का दुख भी जरूर था। वे जैसे भी थे अपने तो थे। दुश्मन कम और दोस्त ज्यादा थे। बल्कि नीलू तो सिर्फ उसका दोस्त ही था। पर उनके पालने पोसने और जमीन जोतने के उस कठिन काम से मुक्ति का अहसास इतना ज्यादा था कि वह झटके से उठ खड़ा हुआ। आने वाली मुक्ति का अहसास हर दोस्ती से बड़ा था।

छः माह पहले उसके ऊपर परिवार का बोझ तब पड़ा जब उसके पिता का मृत शरीर घर के आँगन में लाकर रखा गया था। इससे तकरीबन इतना ही अरसा पहले उसकी माँ मर गई थी। दोनों की मौत के दो अलग कारण थे। लोग कहते हैं उसकी माँ इसलिए मरी कि उसके दिमाग में टयूमर था। वह नहीं जानता कि टयूमर क्या होता है और क्यों होता है। और यह तो बिल्कुल ही नहीं कि आखिर वह टयूमर उसकी माँ को ही क्यों बरजा था। वह पूरे सात आठ महीने बिस्तर में बेहोश पड़ी रही थी। जब उसके मरे हुए शरीर को शमशान ले गए तो इस टिंचू से उसकी कपालक्रिया करवाई गई थी। और ठीक छः महीने बाद उसके पिता की गोली खाने से मौत। माँ तो अकेली मरी थी, पर पिता के साथ तीन लोग और थे जाने वाले। गोली इतना बेदर्द होती है, बच्चा अब जाना था। घर के आँगन में थोड़ी देर रखे रहने के बाद इसे भी शमशान की ठीक उसी जगह पर ले जाया गया जहाँ उसकी माँ को दाग दिए गए थे और अभी तक धरती पर से उस कालिख के निशान मिटे नहीं थे। ठीक उसी कालिख पर उसके पिता की उसी के हाथों कपालक्रिया करवाई गई। वहाँ से जब वह घर वापस लौट रहा था, तब उसके दिमाग में एक हैरानी यह हो रही थी कि ऐसा क्यों होता है कि चाहे आदमी दिमागी टयूमर से मरे या आदमियों से भरी बस के नदी की धार में गिर जाने से, दोनों ही बार कपालक्रिया एक ही तरीके से होती है। घर पहुँच जाने के बाद ऐसे और भी कई सवाल उसके दिमाग में आए थे, पर अम्मा से कुछ पूछने का टैम मिल ही नहीं सकता था। वह तो हुमक हुमक कर लगातार रोए चली जा रही थी। कभी चीखने लगती, तो कभी सिर के बाल उखाड़ने लगती। कभी एक बच्चे को छाती से चिपकाकर जोर जोर से विलाप करने लगती, तो कभी दूसरे को। पर टिंचू के दिमाग में सवालों का जखीरा इस कदर भरा पड़ा था कि खाली होने का नाम लेने को तैयार नहीं। उसी सब के अंदर एकाध सवाल यह भी था, मसलन उसकी माँ टयूमर से क्यों मरी और उसके पिता गोली लग जाने से क्यों मरे। और एक यह भी कि दोनों के मरने के बीच छः महीने की दूरी क्यों बनी। और आज पिता के मरने के छः महीने बाद अम्मा ने इन बैलों को बेच आने को काहे कहा होगा?

उन दोनों के मर जाने के बाद बच्चे को एक तसल्ली ये जरूर थी, कि चलो वह अकेला नहीं है। अम्मा तो थी ही थी, साथ में उससे छोटे उसके चार भाई बहिन और थे। बैलों की जोड़ी उपर से। उनके सानीपानी में उसका खासा वक्त गुजर जाता था। इतना कि स्कूल में दिए घर के काम को करने का टैम कम पड़ जाता। स्कूल में मास्टरों की डाँटट खानी पड़ती सो अलग से। उसके पिता अपने इस परिवार की रोजी के लिए घर से कहीं दूर चले जाते थे और कभी बरसों छमाहियों में वापस लौटते। चार आठ दिन घर में रहते फिर लौट लेते। ऐसे में उनके बगैर रहने की आदत तो हो ही गई थी। पर अब उनके मर जाने का मतलब था कि उनके आने जाने का वह सिलसिला हमेशा को टूट गया था। इतना तो वह बूझता ही था। अम्मा ने इन बच्चों के दूध और छाछ के इंतजाम के वास्ते घर में एक भैंस पाल रखी थी। बाकी रोटी के इंतजाम को जो थोड़ी सी खेती थी, उसके कामों के निपटान के लिए कदावर बैलों की यह जोड़ी पिता उस देस की तरफ से खरीद के लाए थे, जिधर वे रोजी कमाने को जाते थे। और बैल भी ऐसे कदावर थे, कि गाँव में उनपर हर किसी की आँख लग आती थी। माँ के मरने तक तो सब ठीक था। पिता थे। घर आते जाते रहते। खुद से खेती की बिजाई करते। टिंचू कभी कभार हल की मूठ पकड़ लेता तो वे बेहद खुश होते। अम्मा कहती इसको हल चलाना सिखा देगा तो फिर घर के अंदर मुश्किल नहीं आएगी। बाजवक्त बत्तर-बारिश आ जाने पर पिता के लौट आकर हल चलाने का इंतजार तो करना पड़ता। दो साल में वह काफी कुछ हल चलाने भी लगा था, पर पढ़ाई का ऐसा नुकसान झेलने में उसे तकलीफ का अहसास होता था। ऐसे में एक रोज उसने अम्मा से कहा था, ‘अम्मा, मैं पढ़लिखकर बडा आदमी बनना चाहता हूँ।’

उसने सोच के रखा था अम्मा डाँटट देगी। कहेगी जरूर कि इस घर का काम तेरा बाप देखेगा। पर वह उसका मुँह ताकती रही थी। बोली एक लब्ज नहीं। फिर अपना हाथ उठाया और उसके सिर के बालों को अपनी हथेली से सहेजने लगी। टिंचू की समझ में न आया उसने उसके सवाल का जवाब दिया क्या है। हाँ, थोड़ा सा भला ये जरूर लगा कि उसने एकदम खामोश रहकर सिर पर हाथ फेर दिया, वर्ना दूसरा कोई मौका होता तो वह ऐसा फटकार देती कि सामने रखी थाली में पड़ी ज्वार की मुटल्ली रोटी और सरसों के उबले साग का मजा ही किरकिरा हो लेता।

अम्मा के बुढ़ाते शरीर में इतनी गजब ताकत थी, कि तमाम रोने धोने के बावजूद वह मुँह अँधेरे खेती के कामों में जा जुटती और आधी रात बीत जाने के बाद घर के एक कोने में पड़ी चक्की को घरड़ घरड़ पीसने लगती। उन आवाजों के बीच उसके गाने की आवाजें ज्यादा ऊँची सुनाई देतीं। हर चीज ज्यादा चाहती थी। ज्यादा काम। खेतों से ज्यादा उपज। जमीन से इतना सारा अनाज जो पूरे साल बच्चों का पेट भरता रहे। भैंस से ज्यादा दूध। बैलों की जोड़ी इतनी मोटी ताजी रहे कि जब वे खेतों में हल खींचें तो मिट्टी को पलट कर रख दें। घर में लकड़ू छिड़ू,घास घिसौनी, दूध छाछ इतना काफी रहे कि कोई आने जाने वाला भूख प्यासा न लौटे। पर मुसीबत अकेली नहीं आई। न सिर्फ उसके बहू और बेटा अकाल मौत मरे बल्कि मौनसून की बारिश न आने के बाद भी कई महीनों तक भी एक बूँद न बरसी। अकाल को भी अब ही आकर पडऩा था। ऐसे में सवाल ज्यादा का उतना नहीं रहा जितना कि गल्ले में कुछ न कुछ होने का। जरूर पिछली रात के अँधेरे में उसने फैसला कर लिया होगा कि अब बैलों की इस नरजोड़ी को फरोक्त कर डालने के सिवा कोई चारा बचा नहीं है। उसने कहा, न केवल इन बैलों को बेच डालने से कुछ रूपए गल्ले में आएँगे, बल्कि सालभर के तईं उनके हिस्से की जो सूखी घास तिनका तिनका बचाके रखी है, उसे बेचकर भी चार पैसे आएँगे उनसे कुछ दिन ही सही, बच्चों के खाने की फिक्र जरा कम हो जाएगी। इस फैसले पर खुद टिंचू को हैरानी नहीं हुई थी। बल्कि खुशी हुई थी। इन मरदूउों से खैड़ा छूटेगा। आगे कुछ पढ़ाई बढ़ाई हो लेगी। तेरह साल के उस लड़के की, जो इस वक्त नीलू और बग्गू की अपनी जोड़ी को बरछवाड़ के नलवाड़ में हाँक लिए जा रहा था।

पर इस जवान-सधान टिंचू ने अम्मा से ज्यादा बौराया हुआ दूसरा कोई आदमी देखा न था। हालाँकि अकाल भूखमरी के उस वक्त में किसी भी दूसरे तीसरे घर में माकूल रोटी मौजूद रही हो ये मुमकिन नहीं था, पर इतना चीखोपुकार कोई दूसरा नहीं मचाता दिखता था जितना कि ये अम्मा। वह अपने हिस्से की रोटी भी इन पाँच बच्चों में ही बराबर बाँट देती थी। फिर अगर इनमें से कोई ग्राह दो ग्राह जूठा छोड़ देता तो वह उसे खा लेती। और भाँडे टिंडे माँजकर चक्की पीसने लगती। तब वे पाँचों एक बँद कमरे के अँधेरे में बेसुध होकर सोए पड़े रहते। पर भोर हुई नहीं कि अम्मा उनपर टूट पड़ती थी। ‘मरो तुम नभागे,’ वह उठते ही फुँकाररने लगती। ‘माँ बाप को खा गए मरभूखे, अब मुझको खाओ।’

और फिर इन्हीं की भूख खत्म करने की फिक्र में चारों खाने दौड़ने लगती। मानो खेतों में इस बार अनाज नहीं सीधे रोटी की फसल उगने वाली हो। तोड़के लाई और सीधे इन बच्चों के सामने परोस दी। इस बीच उसका सबसे भारी झगड़ा टिंचू के साथ ही होता था। वह उसकी बातों को काटता फाँटता तो फिर झगड़ा तो होना ही होना था। वह उसे चिढ़ाता तो अम्मा उसे मारने को दौडती। बार बार वह एक ही बात दोहरा देती, ‘मुझको खा ले, मरभूखे।’ वह इतना तेजी से भाग खड़ा होता कि उसके हाथ न आ पाए। बीच में नौ साल की छोटी बहिन शांता से भी उसका सनातन झगड़ा रहता था। बाकी तीन कुछ ज्यादा छोटे थे। लड़ पाने के काबिल अभी हुए नहीं थे। महज छः, चार और दो साल के। शांता उसे टिंचू कुछ ऐसे पुकारती मानो चिढ़ा रही हो कि क्या तो तेरा नाम है और ये बाकी के सब ईंचू ईंचू...ईंचू करते उसके साथ लिपटने की कोशिश करते रहते। जिस रोज वह शमशान से माँ की कपालक्रिया करके लौटा था, तो आँगन में पहुँचते ही छः साल का देबू उससे ऐसे ही ईंचू ईंचू पुकारता आ लिपटा था। और एकदम वोही सीन पिता की कपालक्रिया से लौट आने वाले दिन दो साल के जनोद ने दोहराया था। ईंचू ईंचू...!

टिंचू ने दोनों ही बार दोनों भाईयों के सिर पर हाथ फेरकर जैसे कोई खामोश दिलासा दिया था। चार साल की ईला हमेशा की तरह दोनों बार खामोश रही थी। वह खामोश ही रहती थी। जब टिंचू शांता से छिपते छिपाते अम्मा द्वारा लाई गई डिपू की खांड एक फक्का चुराकर खुद खा रहा होता, तो थोड़ी थोड़ी उन तीनों के हाथ पर भी धर देता। शांता पूछती क्या चुराके खा रहे हो तो वह नमक के घड़ेले से एक चुटकी बूरा निकाल उसे देने लगता। पर साँझ ढले अम्मा आ जाती तो शांता का पहला काम यही रहता कि इस टिंचू ने आज फिर खांड चुराके खाई है। फिर शुरू होती अम्मा की फटकार। ऐसे में अम्मा से ही नहीं, नौ साल की उस लड़की से भी उसका घोर झगड़ा बना रहता था। ‘चुगलखोर कहीं की,’ वह भरसक उसे गाली देता और शांता जीभ निकालकर दिखा देती। झगड़े की ये खार बिल्कुल वैसी ही थी जो बैलों की इस जोड़ी के बग्गू से थी। उसे वह मरकटा कहा करता था। और बग्गू अपने सींगों को ऐसे हिलाता ज्यों उसकी अँतड़ियाँ निकालकर बाहर रख देगा। उसे इस याद से गुस्सा आ गया। ‘चला चल बे लठिम्बरा,’ उसने कहा। ‘काहे पीछे मुड़ मुड़ के देखता है।’ बग्गू ने एक नजर उसे देखा और निरीह भाव में चलता रहा। ऐसे में उसे अम्मा की याद आ गई। आज की सुबह अभी होने को आई ही थी जब बौराई सी अम्मा ने उसे झिंझोड़कर जगाया और बैलों को बेच आने को कहा। इसके आगे उसने एक हलके से वक्फे के बाद उसके सिर पर अपनी हथेली रखकर कहा, ‘इस घर में तेरे सिवा दूसरा कौनो मर्द है बचवा!’

बिना कहे भी वह आज जिम्मेदार आदमी बनके नलवाड़ में जा रहा था। अपने बैलों की जोड़ी को बेचने की गर्ज से। कोई अल्हड़ छोरू नहीं रह गया था कि पहले की तरह अपने साथ पढ़ने वाले मित्रों के साथ इधर उधर मटरगश्ती मारता घूमता, जलेबी के तरेड़ू डकारने की चाह रखता। उसके ठीक आगे ये दो जैले नरबैल थे। जब अपने ऊँचे कियाडाँट पर रखे जुए से बँधा हल खींचते तो हलवाहे को अपने उपर अभिमान होता था। वह इन्हीं को बेचने नलवाड़ में लिए जा रहा था।
मार्च का महीना था। स्कूल में इम्तिहान निपट लिए थे। इसी बीच नलवाड़ सजता था। भँवरे गाते थे। चारों ओर फूलों की बहार थी। अलसुबह से ही कोयल कूकने लगती थी। और उसके विलोम में बहुत सारे पक्षी अपना अपना गीत गाते चलते। हवा में बसंत की खुशबू फैलती चलती। पर आज पास चारों ओर फैली उस खुशबू को सूँघते चलने का उसके पास मौका न था। ऐसा कुछ महसूस हो रहा था कि खुशबू बगैरा के ये चोंचले, ये सब बेहले लोगों का काम है। वे सब जो काम धाम के मामले में नकारा हो चुके हैं। उसने अनायास नथुनों में चली आती उस खुशबू से अपना ध्यान हटाया और हाथ में पकड़ी परैंठ को अपने सिर के उपर लेजाकर घुमा दिया। ये उसका अपने तईं ज़िम्मेवार आदमी हो जाने का संकेत था। अम्मा उससे यह अपेक्षा रखती कि वह बच्चों का सा व्यवहार न करके बड़ों की तरह पेश आए। वह इस घर का सबसे बड़ा है न, इसलिए उसको बड़ा बनके दिखाना भी तो होगा। जब भी उसे मौका मिलता तो वह यही कुछ कहती चलती।

हालाँकि उसने काफी हद तक बड़ा बनना सीख लिया था, मगर कभी उसका मन होता कि छोटा बनकर थोड़ी बहुत शरारत भी कर लिया करे, जैसा कि उसके साथ के बाकी बच्चे करते रहते हैं। पर अम्मा को यही तो मान्य नहीं था। नतीजन डाँटट तो खानी ही खानी थी। बस मेला एक ऐसी चीज थी जहाँ उसकी रोकाटाकी नहीं रहती थी क्योंकि वह वहाँ मौजूद थोड़े न होती। कभी तो उसका मन होता कि वह हमेशा इस मेले में ही रहे। कि न कभी यह मेला खत्म हो और न कभी उसे इसमें मौजूद अपने दोस्तों से दूर जाना पड़े। पर अबकी बार वह इन बैलों के साथ होगा, दोस्तों के साथ नहीं। उनके साथ की मस्ती वाली जलेबी का एक तरेड़ू भी इस बार वह खा न सकेगा। पर उसे अच्छा लगा कि अब आगे से बैलों की इस जोड़ी से हमेशा के तई निजात मिल लेगी। पर इस इत्मीनान के बाद उसके अंदर एक शंका ने जन्म ले लिया। मेले में तो भीड़ कंधे से कंधे को छीलती है। उसमें से बैलों को निकाल लिए जाना और नदी किनारे तक पहुँचाना काफी मुश्किल होने वाला था। ऐसे में उसके दोस्त उसे बैलों के साथ उलझा देखेंगे और खुद अपनी आजाद मस्ती में झूम रहे होंगे तो उसे मन ही मन कितन खराब लगेगा।

खुद जब वह बेफिक्र होकर मेले में से बैलों को लिए जाने और आदमियों की मस्त भीड़ में उनके पूँछ उठाकर बिदकते चलने के नजारे देखा करता था, तो उसे बैलों की उन जोड़ियों को हाँक लिए जाने वाले उनके मालिकों की दयनीयता पर तरस आता था। उसे लगता इन लोगों के कंधों पर कितना मुश्किल काम आन पड़ा है। पर आज जब खुद उसके कंधों पर वही जिम्मेवारी आ गई है, तब अपने उपर क्या खाक तरस खाए। उपर से इस बग्गू से तो उसका चिरंतन झगड़ा था। ये तो जरूर मेले की उस भीड़ में जरूर उसका दम निकाल के रख देगा।

आदमी तो आदमी, वह तो अपने साथी कौम को भी बक्शने वाला नहीं था। जाने किससे कब सींग भिड़ा दे। टिंचू जानता था वह इतना बेहया है कि उसे तंग करने के लिए ये कोई भी हरकत कर सकता है। किसी चलते बच्चे के पेट में सींग घुसेड़ने से लेकर भरे मेले में आसमान की ओर पूँछ उठाए बिदककर भाग जाने तक। पर इस शुरूआती विचार के बाद उसे दूसरा सुखद ख्याल बैलों की उस जोड़ी से मुक्त हो जाने का आया। इनके न रहने के बाद मिलने वाली आजादी का यह विचार उसे आल्हादित कर रहा था। ऐसे में इन नामुराद बैलों की इस जोड़ी को किसी तरह मेले में लेजाकर बेच आना भले ही थोड़ा सा कठिन लग रहा हो, मगर इनके बिक जाने के बाद जो खुशी उसे मिलने वाली थी, वह उसका भाग्य ही बदल देगी।

और इस शैतान बग्गू से मिलने वाली निजात के तो कहने ही क्या। वह पूरे का पूरा हरामी था। जब भी खूँटे से खुलता तो तत्काल अपनी पूँछ आसमान की ओर उठाकर ऐसा भागता कि उसे फिर वापस निंयत्रण में ला पाने की सूरत ही न बचती थी। टिंचू उसके पीछे दौड़ते दौड़ते हलकान हो जाता। ऐसे में उसके अंदर इस कदर गुस्सा भरा होता कि दिन भर के काम धंधे से निपट जाने के बाद जब यह जोड़ी खूँटे से आ बँधती तो टिंचू बदले की आग में जलता हुआ, अपना गुस्सा उतारने को बाँस से बनी इस परैंठ से बग्गू के पिछवाड़े को खूब खलास कर लिया करता था। पर बग्गू कौन कम था। जब उसे मौका लगता, तो प्रतिशोध में बच्चे के पेट में अपने सींगो की मार कुछ इस कदर देता कि उसको सचमुच का नुकसान तो न पहुँचे, पर आगे के लिए वह उसे परैंठ से पीटने की क्रिया से बाज रहे। एक किस्म से यह उन दोनों के बीच का कभी न खत्म होने वाला याराना था। पास ही नीलू किसी शरीफ गवाह की तरह अपनी सिद्धावस्था में बना, अपनी खामोश नजरों से इस याराने को भालता अपनी शराफत में बना रहता।

अनगिनत बार अपने पेट पर उसके सींगों की धौंस झेल चुकने और उसे परैंठ से उससे ज्यादा गिनती में दड़का चुकने के बावजूद दोनों का ही काम एक दूसरे के बगैर चलता भी नहीं था। दोनों ही जानते थे, कि हैं तो वे दोनों ही साथ काम करने को मजबूर संगी न। पर जब मेले में जाने की बारी आई तो टिंचू का डर बढ़ गया। निर्जन एकांत में बग्गू उसे जितना मर्जी तंग कर ले सो कर ले, पर नलवाड़ में अगर उसने अपनी पूँछ उठा ली तो बतौर मालिक वही तो उसकी हरकतों के लिए ज़िम्मेवार होगा कि नहीं? लोग पूछेंगे कि अगर अपने बैलों को सम्भाल नहीं सकता तो वे ही उसपर काहे दया करें। कहीं किसी ने पीटपाट लिया तो और मुश्किल दरपेश आएगी। जबकि वह आश्वस्त था कि इस हरामी जानवर ने उस भरी भीड़ में भागादौड़ी तो करनी ही करनी है। ऐसे में अगर उस भीड़ में ये कहीं खो-खवा गया तो उलटा नुकसान। घर आके अम्मा ऐसी खबर लेगी कि आगे की जिंदगी फिर मुहाल हो लेगी। अपनी आदत के मुताबिक रोज वक्त बेवक्त कौंचती फिरा करेगी। वह तो इस बग्गू से भी ज्यादा गुस्सैल थी। न खुद कभी डरती थी और न कभी डर को जिंदगी के किसी मूल्य की तरह तस्लीम करती थी। उसके लिए ये सोचना कुफ्र से कम न था कि घर खेती के काम में कोई अड़ंगा डाले। काम ही तो पेटभर रोटी देता है। और इसमें बिघ्नबाधा डालने वाला व्यक्ति इस परिवार का द्रोही होता।

उसने अम्मा से कहना चाहा था, कि वह अकेले इन बलदों को नलवाड़ में ले कैसे जाएगा? इतने पर ही वह भड़क उठी थी। उसकी आधी-अधूरी बात सुनने के बीच ही वह बोल पड़ी, ‘ओ मुआ टिंचुआ, तू कुछ समझता भी है! माँ बाप तूने खा लिए अब मेरी इस बूढ़ी जान को खाएगा। तू इस घर का मर्द हुआ कि नहीं? फिर बोल तू काम नहीं करेगा तो इस घर का घरयाक्खड़ा होगा कि नहीं? बोल तो।’ इसके आगे उसकी आवाज अचानक मद्वम पड़ गई। उसके सिर पर हाथ रखकर बोली, ‘जा मेरा मुन्नू। बडा लैक पुत्तर है। छोटा सा काम तो है। जा मेरा बछू। करके आ जा।’

टिंचू चुप रहा। उसे मालूम था, कि उसके पास अपने इन बैलों को नलवाड़ में ले जाने के सिवाय अब दूसरा कोई चारा है नहीं। बल्कि उसे तब भी यह सच मालूम था, जब वह अम्मा के साथ अपने अंदर के उस काल्पनिक भय को व्यक्त करने की कोशिशों में जुटा था। फिर भी जरा सी मद्द और अपना हौसला बनाए रखने को, किसी दूसरे व्यक्ति का संग साथ पाने के इरादे से उसने सहमते हुए से कहा, ‘अम्मा! इस शांता को मेरे साथ भेज न दे।’

बिल्कुल बग्गू की तरह, अम्मा के गुस्से को आने में पल दो पल का ही वक्त लगा था। बोली, ‘मुआ टिंचुआ, तू समझता ई नईं। घर में दस काम पड़े हैं। मैं अभी जोलटू में जाके भैंस का दरोड़ा पटने को निकल जाऊँगी। घर में जो ये तीन छोटे छोटे कैरू-बैरू बिलबिलाते रहेंगे इनको कौन रोटी टुकड़ू पका के देगा रे। इती सी बात तेरी समझ में न आती है ओए टिंचुआ? बलदों को ले ही तो जाना है। जो आज दिन में बिक गए तो ठीक, नईं तो न्हेरा उतरने से पहले वापस ले आना। कल फिर ले जाएगा तो बिक ई जाएँगे। इतने सोहणे सणक्खे बैल हैं। अपने बच्चों की तरै से पाले पोसे हैं। कोई भी इनका रंग देखके ई खरीद लेगा रे। जा मेरा बछू।’ उसने उसे पुचकार दिया था।

टिंचू ने सुना दोनों बैल गोहड में रम्भा रहे थे। ये वक्त उन्हें सानी ही नहीं पानी देने का भी होता था। वह उठा और पानी की बालटी भर गोहड में चला गया। आज उसने पहले बग्गू के सामने बालटी धर दी। बग्गू ने उसे हमेशा की तरह के अपने आमफहम खूँखार नेत्रों से ताकने की बजाए जैसे दया के भावों से देखा और अपनी गर्दन हिलाकर जैसे नीलू की तरफ इशारा किया कि रोज ब रोज की तरह तू पहले पी ले। पर नीलू अपनी सिद्ध और योगी जैसी उसी चिरंतन मुद्रा में बना रहा। आज उसने बग्गू को ही पहले पी लेने की अपनी रजामंदी दे दी थी। बग्गू ने एक बार फिर से बच्चे को अपनी आज बनी उस नई दयावान नजर से ताका और पीने लगा। आधी बालटी पी चुकने के बाद उसने अपनी गर्दन वापस हिलाकर सींगों से नीलू को इशारा किया कि अब बाकी का हिस्सा तेरा है। पी ले। नीलू पीने लगा और लगातार पीता चला गया। एक बारगी को भी उसने मुँह ऊपर न उठाया, जब तक बालटी पूरी तरह खाली न हो गई। उसके बाद वापस अपनी उसी सिद्धावस्था में जा लौटा। बच्चे ने गोहड के बाहर बने बरांडे में रखे सानी के ढेर में से चारा उठाया और उन दोनों के सामने बनी माँद में डाल दिया। खाली बालटी को एक किनारे हटाकर वह घर के चूल्हे के पास आ गया। शांता वहाँ अपने नन्हें हाथों से रोटियाँ पका रही थी। तीनों छोटे कैरू-बैरू आसपास बैठे उनके पकने का इंतजार कर रहे थे। दो साल की वय से लेकर छः तक के वे तीनों। बाहर से अम्मा की आवाज आई, ‘ओए टिंचुआ, मैं जा रई हूँ। बलदों को जरा समाल के ले जाना बछुआ। घर का मर्द तू ई है अब। जान ले।’

टिंचू ने रौशनदान से झाँका। दादी के सिर पर मवेशियों के ताजा गोबर से भरी डल थी और हाथ में दराती। तेज कदमों से वह नीचे घाटी की तरफ उतरने वाली पगडंडी की तरफ बढ़ी चली जा रही थी। देखते ही देखते वह उस ढलानदार पगडंडी के दोनों ओर उगे घने झंखाड़ों में जा खोई थी।

सुबह का उजास अभी कुछ ही देर पहले धरती पर आया था। इधर तै हो गया कि आज उसे अपने बैलों की जोड़ी उस मेले में ले जाकर नदी किनारे के किसी खाली कोने में बाँध देनी होगी। उसके बाद बैलों का कोई व्यापारी आएगा और उन्हें पसंद करके खरीद ले जाएगा। अम्मा ने शांता को साथ भेजने से इन्कार कर दिया था। ऐसे में उसे अकेले ही जाना होगा। खुद तो वह खेत में रोटी उगाने को चली गई थी। घर और तीन छोटे बच्चे शांता के हवाले थे। उसने लड़की पर अपने मर्द होने का रौभ जमाने की सी गरज से उसे डाँटट देने वाली आवाज में कहा, ‘ओ मरी, क्या टुकटुक लगाई है। जल्दी जल्दी पका। मुझे बलदों को बेचने मेले में ले जाना है।’
लड़की उसकी डाँटट काहे सुनती। ‘अभी तेरे को नहीं मिलने वाली रोटी,’ उसने जवाब दिया। ‘पहले इन कैरूओं-बैरूओं को मिलेगी। समझ ले उसके बाद तेरी बारी आएगी। इतना बडा तो लठिम्बर बलद हो गया है तू। समझता नई।’

उसकी इस फटकार के चलते उसे गुस्सा आ गया। बोला, ‘मर तू, अम्मा की मसौड़ जितना मोटी। मुई कहीं की,’ और उठकर चल दिया। गोहड में जाकर उसने बैलों के गले में पड़े रस्से खोले और आँखों में पानी भरकर बग्गू से बोला, ‘अब तेरा देणा-द्वाणा इस घर में खत्म हो गया रे बगुआ।’ उसने ये संवाद गाँव के बड़े बूढों के मुँह से अक्सर तब सुना था जब उनके घर की भैंस या बैल बिक बिकवा लेने को होते थे। वे सब अपने उन मवेशियों के गले मिलते और घड़ी भर को रो लेते थे। बग्गू के गले का रस्सा खोल देने के बाद बच्चे ने उसके गले में अपनी बाहें डाल दीं। और कोई वक्त होता तो बग्गू अपने सींग उसके पेट में घुसेड़ देता, पर जैसे शायद आज वह भी जान गया था कि बिछोह के पल सामने आ खड़े हुए हैं, और इनमें दुश्मनियों के बने रहने के तमाम तकाजे खत्म हो चुकते हैं। कुछ देर तक उसके गले से लिपटे रहने और अपने आँसुओं को बह दे चुकने के बाद उसने अपने दाहिने हाथ से उसके पुट्ठे पर अपनी हथेली फेरी और फिर नीलू को खोलकर उसके गले मिलकर रो लिया।

दोनों बैलों ने अपने सींग आपस में भिड़ाए और जरा सी देर में गोहड के द्वार से बाहर निकल आकर बरांडे में खड़े होकर सामने घर की दीवारों और आरपार के हरे भरे पेड़ों पर नजर दौड़ा चुकने के बाद एकदम शराफत से भरे जीवों की तरह पगडंडी की तरफ बढ़ चले। आगे बग्गू और उसके पीछे नीलू। बिना पूँछ उठाए, दोनों जने अपने सधे हुए कदमो से बढ़े चले जा रहे थे। बच्चे ने दोनों के गले की रस्सियाँ बाएँ हाथ में पकड़ लीं और बाँस की बनी पतली परैंठ दाहिने हाथ में ली और उन दोनों के पीछे चल दिया। जब घर के सामने ओझल हो जाने वाले मोड़ के मुहाने पर वह था तब पीछे से शांता की आवाज आई, ‘ओए, टिंचुआ, भूखे पेट क्यों जा रहा है मुआ। कुछ खा ले।’

कोई दूसरा वक्त होता तो बच्चा मर्द बनकर उसे डाँटट देता। कह देता, ‘मरभूखी कहीं की। जा मेरा हिस्सा भी तू ही खा ले।’ पर अभी अपने बैलों को बेच आने को ले जाते इस वक्त में उसने कुछ नहीं कहा। तीन कदम और चल देने के बाद सामने मोड़ लाँघ देने के बाद वह अपने घर की नजरों से ओझल हो गया।

आज दो मील का वह रास्ता उसे खासा लंबा लगा। पर जैसा कि आशंका थी कि बग्गू हमेशा की तरह मछरा नहीं। वह सबसे आगे कुछ इस कदर सिर झुकाए चलता चल रहा था मानो उससे ज्यादा शरीफ जीव इस धरती पर दूसरा कोई न हो। बस सही रास्ते पर डाल देने को बच्चा पीछे से हाँक लगा देता और बग्गू उसी राह पर अगुवानी करता चल देता। नीलू उसके पीछे सधे कदमों से अनुकरण करता चल रहा था। आज कहीं कोई अट्खेली नहीं। उन तीनों के बीच का पूरा रसायन जैसे पीछे न लौट सकने वाली किसी दिशा में जा बदला था।

रास्ते में उसे ऐसे कई बैलों की जोड़ियाँ मेले की दिशा में जाती दिखीं। ऐसा भी नहीं था कि किसी जोड़ी के साथ कोई बच्चा हो ही न, पर हर जोड़ी के साथ काई न कोई बड़ा जरूर दिख रहा था। ऐसे में वही अकेला ऐसा था, जो अपनी उमर आने से पहले ही बड़ा हो गया था। उसे इस तथ्य पर गौर करने के बाद अपना सिर जरा सा ऊँचा उठा देने का मन हुआ। पर उसने ऐसा किया नहीं। वह जानता था, उसके तईं इस वक्त बाकी के सारे दुनियाबी कामों से ज्यादा जरूरी अपने बैलों की जोड़ी पर ध्यान केंद्रित करना था।

पर जिस शांत तरीके से उसके बैल पूरा नलवाड़ लाँघकर नदी किनारे तक चले आए, उसकी जरा सी उम्मीद बच्चे को न थी। अभी वह उन्हें बाँध देने की जुगत भिड़ाने में ही लगा था कि तीन लंब-तडंगे आदमी उसके सामने आ खड़े हुए। उनमें से एक दबंग सा लगने वाला बोला, ‘ओए छोरूआ, कै गाँओं से आया है?’
बच्चे ने बता दिया।
‘बेचना हुआ इन बलदों को?’
बच्चे ने सिर हिला दिया।
‘कै कीमत रखी है?’ दूसरे आदमी ने पूछा। बच्चा सिर्फ सिर हिलाता चलता रहा और ले दे के कीमत उन लोगों ने ही टिका दी। वह सिर्फ ये सोचता चल रहा था कि ये मरदूद जल्दी बिकें तो उसका खैड़ा छूटे। जब वे उसे नोट थमा रहे थे तब तीसरा आदमी आगे आ गया। ‘ओए छोरूआ,’ उसने ऊँची आवाज में कहा। ‘पंचैत का टैक्स लगेगा। बलदों की जो कीमत मिली उसमें से दे दे। ये ले रसीद।’ बच्चे ने सारे पैसे उसके हाथ में थमा दिए। उसने अपना टैक्स काटा और बाकी पैसे उसको लौटा दिए। ‘अब जा बलद म्हारे हुए।’ उस दबंग जैसे आदमी ने कहा। बच्चा चला आया। नलवाड़ में भीड़ बढ़ने लगी थी। बच्चा जल्दी से जल्दी घर लौट लेना चाहता था। उसकी जेब में इत्ते सारे पैसे थे। बीच नलवाड़ में उसे अपने कई सहपाठी मिले पर उसने किसी से बात नहीं की। बल्कि उन्हें देखकर कदमों को ज्यादा तेजी दे दी। जब वह नलवाड़ की भीड़ से बाहर निकल आया तो उसको अपने कैरूओं बैरूओं के लिए जलेबी खरीदने का विचार आया। वह पीछे लौटा और पूरा एक किलो जलेबी खरीदकर अपने गमछे में बाँधी और पहले से ज्यादा तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ चला।

जैसे ही वह घर के आँगन में पहुँचा तो तीनों कैरू बैरू उसके साथ ईंचू ईंचू करते आ लिपटे। शांता एक किनारे खड़ी उन्हें यह सब करते देखती बोली, ‘ओए टिंचुआ, मुआ रोटी खा ले। पकाके रखी है।’ पर टिंचू ने गमछे की गाँठ खोली और जलेबी के तरेड़ू एक एक कर निकालता उन तीनों को बारी बारी से खिलाने लगा। ‘तू भी खा ले री, शांता,’ उसने कहा। जब तक वह आगे बढत़ी, तो वे तीनों कैरू बैरू उसके साथ ज्यादा आ लिपटने लगे थे। ईंचू ईचू...! उसका मन हुआ वह जोर जोर से रो दे। फिर ख्याल आया कि वह तो इस घर का सबसे बड़ा मर्द है। रो थोड़े न सकता है। इस विचार के बावजूद वह अपनी आँखों में आए पानी को रोक नहीं पाया। इसकी धार उसके गालों बह निकली और अंदर ही अंदर उसके गले में जाकर अटकने भी लगी थी। कुछ देर बाद ये नाक में से बह आने लगी। तीनों कैरू बैरू उसके साथ ज्यादा चिपट आए थे। ईंचू ईचू...करते हुए।

शांता कुछ कदम बढ़ाकर आगे चली आई और टिंचू की आँखों से बह रहे पानी को अपने हाथों से पोंछने लगी।

१५ सितंबर २०१४

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