मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से सुरभि बेहेरा की कहानी— पान की डिबिया


सुबह से नीता का यह तीसरा फ़ोन था। कल उसकी शादी की सालगिरह थी। बार-बार वह फ़ोन पर एक ही बात कह रही थी कि- ‘अगर तू मेरी पार्टी में नहीं आयेगी तो मैं केक ही नहीं काटूँगी। भला इस प्यार भरे अपनत्व को नीरू कैसे ठुकरा सकती थी? नीता उसकी सबसे अच्छी और प्यारी सहेली थी। उन दोनों की ज़िन्दगी एक-दूसरे के लिए खुली किताब की तरह थी। जीवन की हर छोटी-बड़ी ख़ुशियों में वे दोनों किसी न किसी बहाने एक दूसरे को शामिल करना नहीं भूलतीं। अचानक उसकी सालगिरह की ख़बर पाते ही नीरू के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसे जिस दिन का इन्तज़ार था, वह दिन एकदम करीब आ गया था। अतुल के उठने से पहले वह पूरे घर में चहलक़दमी करने लगी। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि पार्टी में जाने से पहले उसे किन-किन चीज़ों की तैयारी कर लेनी चाहिए। समय पर पहुँचने के लिए उसे अभी से ही तैयारी करनी पड़ेगी। आख़िर उसकी सबसे प्यारी सहेली की पार्टी में सबकी बारीक नज़र उस पर भी तो पड़ेगी।

अतुल जब द़़फ्तर के लिए जाने लगा तो उसने उसे याद दिलाते हुए कहा कि लौटते व़़क्त लॉकर से गहनों की डिबिया ज़रूर लेता आए। अतुल को किसी न किसी काम से हमेशा शहर से बाहर ही रहना पड़ता था। इसलिए नीरू ने अपने सारे ज़ेवरात बैंक के लॉकर में रख दिए थे। जब बहुत ज़रूरत पड़ती तभी उन्हें निकालती। आजकल शहर में जिस क़दर चोरी-डकैती होने लगी है उसे मद्देनज़र रखते हुए बैंक का लॉकर ही सबसे सेफ है।

शाम को द़़फ्तर से लौटते ही अतुल ने गहनों की डिबिया नीरू के हाथ में थमाते हुए कहा- ‘यह लो तुम्हारी गहनों वाली डिबिया। आख़िर इस जंग लगी हुई डिबिया को कितने दिनों तक सँभालकर रखोगी? वैसे तो रोज़ कोई न कोई सामान खरीदोगी, परंतु इस पुरानी जंग लगी हुई डिबिया को नहीं छोड़ोगी। गहने किसी दूसरे बॉक्स में भी तो रख सकती हो। तुम नहीं जानती इतने
लोगों के बीच से जब मैं इसे लेकर आता हूँ तो मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती है। बैंक के आधे कर्मचारियों की निगाहें तो इसी डिबिया पर ही टिकी रहती हैं। चाय का कप हाथ में लिए हुए अतुल बड़बड़ाये चला जा रहा था।

ऐसे समय में अतुल की बातें नीरू के कानों में देर तक गूँजती रहती थीं, किन्तु वह उन बातों को सुनकर भी अनसुना कर देती। जब भी वे गहनों की डिबिया को घर लाते इसी तरह बड़बड़ाते रहते। परन्तु, इस डिबिया के साथ उसका इतना गहरा लगाव था कि उसके जंग लगे हुए निशान की ओर कभी उसका ध्यान ही नहीं जाता। अतुल के लाख कहने के बावजूद उसने कभी भी उस डिबिया को बदलने के लिए नहीं सोचा। दरअसल उस डिबिया के साथ उसका एक अटूट रिश्ता था। जब भी वह उसे अपने हाथों में पकड़ती उसे अपने बाबा के स्पर्श का अहसास होता, उसे लगता जैसे अब भी बाबा की मज़बूत बाँहों ने उसे दुनिया की हर मुसीबत
से बचाये रखने के लिए कसकर पकड़ रखा हो। कुछ पल की इसी ख़ुशी को पाने के लिए ही तो वह इस बेमेल डिबिया को कभी भी खोना नहीं चाहती थी।

नीरू को अपने बाबा के साथ रहने का मौका बहुत कम मिल पाता। उसके बाबा उस इलाके के एक जानेमाने डॉक्टर थे। सुबह सात बजे से पहले ही उन्हें डिसपेंसरी के लिए निकल जाना पड़ता था। इतने अच्छे डॉक्टर होने के बावजूद पान खाने की उनकी एक बुरी आदत थी। उस छोटी-सी उम्र में भी नीरू सुबह जल्दी उठकर बाबा के लिए चार खिल्ली पान बनाना नहीं भूलती। अपने प्रति उसके इस प्यार को देखकर ही उसके बाबा पान खाने की आदत नहीं छोड़ पाये थे। बेटी के हाथ से पान के बीड़े लेने के बाद बाबा उसके हाथ में कुछ पैसे देते और वह ख़ुशी से झूम उठती। उनके दिये गये उन चन्द सिक्कों को वह अपने छोटे से गुल्लक में डाल देती। जब कोई पूछता कि इन पैसों का वह क्या करेगी तो अपनी तोतली जुबान में बड़े प्यार से समझाती कि उन सिक्कों को जोड़-जोड़ कर, वह पढ़ाई करेगी और एक दिन अपने बाबा की तरह अच्छा डॉक्टर बनेगी। लेकिन शायद भगवान को उस मासूम बच्ची की इस प्यारी-सी मुराद को पूरा करना मंज़ूर नहीं था।

वह जब आठ साल की ही थी तभी उसके बाबा की एक दुर्घटना में मौत हो गई। उस दिन अचानक आयी इस ख़बर ने नीरू के कोमल दिल को अन्दर से झकझोर दिया था। हठात् बाबा की मौत की ख़बर सुनते ही पूरे घर में कुहराम मच गया था। घर के सभी लोग दुर्घटना स्थल की ओर भागे चले जा रहे थे। पर इन सब से बेख़बर नीरू घर के एक कोने में चुपचाप बैठी पान की
उस डिबिया को एकटक निहारे चली जा रही थी। उसकी सारी ख़ुशियाँ, सारी उम्मीदें बाबा की अकस्मात् मौत के साथ ही चली गयीं। उसे लगने लगा जैसे अब तो पान की डिबिया ही उसे बाबा के होने का एहसास दिलाएगी।

दूसरे दिन जब बाबा के बेजान शरीर को श्मशान घाट ले जाने की तैयारी चल रही थी तभी नीरू एक बड़ी-सी थाली में पान के बीड़े लेकर आयी और धीरे-धीरे अपनी नन्हीं हथेलियों से बाबा के बेजान शरीर के ऊपर फूलों की जगह वे पान के बीड़े सजाने लगी। नीरू की इस हरकत को देखकर सभी की आँखें नम हो आयीं। उन चन्द सिक्कों से वह अपने प्यारे बाबा की तरह डॉक्टर तो नहीं बन पायी पर उस दिन उस गुल्लक को तोड़कर उसने पूरी रात पान के अनगिनत बीड़े ज़रूर बनाये थे। बाबा तो चले गये पर उनकी उस निशानी को वह बड़ी हिफ़ाज़त के साथ अपने तकिये के बगल में रखकर ही सोती रही।

बाबा की मौत के बाद नीरू अपने छोटे भाई-बहन और माँ के साथ मामाजी के घर रहने लगी। मामाजी ने उन बच्चों को बड़े प्यार से पाला-पोसा और कभी भी बाप की कमी का अहसास नहीं होने दिया फिर भी नीरू उस डिबिया का साथ नहीं छोड़ पायी। जब कभी भी वह अपने आपको अकेला पाती, चुपचाप एक कोने में जाकर उस डिबिया को निहारती रहती। उसने कभी भी उस डिबिया की सफ़ाई भी नहीं की। उसे लगता कि अगर वह उसे धो देगी या पोंछ देगी तो बाबा के हाथों का स्पर्श भी मिट जाएगा। उसमें लगे हुए चूने और कत्थे के दाग़ ही उसे अपने बाबा की याद दिलाते और उसकी आँखों से अपने आप ही आँसू निकल पड़ते।
सचमुच यह प्यार भी बड़ी अज़ीब चीज़ है जो दूर रहकर भी तन्हाइयों में आकर रुलाती रहती है।

नीरू को बचपन से ही साज-शृंगार का बहुत शौक़ था। कान के बूँदे, गले के नेकलेस, बिन्दी, अँगूठी आदि शृंगार की हर छोटी चीज़ों को वह उसी डिबिया में ही रखती ताकि जब कभी भी वह इन्हें पहनकर बाहर निकले तो बाबा का आशीर्वाद भी उसके साथ ही रहे। बाबा के प्रति उसके इस असीम प्यार से घर के सभी सदस्य वाकिफ़ थे। इसलिए जब नीरू ब्याहता होकर अपनी ससुराल आयी तो पान की डिबिया भी साथ ही ले आई थी। और आज भी अतीत की उन्हीं मीठी यादों के साथ वह डिबिया उसकी ज़िन्दगी के साथ जुड़ी हुई है, भले ही उसका रंग मटमैला हो गया हो, उसमें जंग लग गया हो, एक-दो जगह छेद भी हो गये हों, फिर भी वह डिबिया नीरू के लिए आज भी सबसे अनमोल है। बचपन की तरह अब भी वह उसमें अपने साज-शृंगार के क़ीमती सामान ही रखती है। अतुल की कड़वी बातें भी उसके मन को डिबिया बदलने के लिए मजबूर नहीं कर पातीं, बल्कि आज भी जब कभी उसका मन उदास होता, वह उस कत्थे और चूने की हल्की-सी छाया को एकटक निहारती रहती और न जाने किन ख़यालों में उसकी आँखों से बरबस ही आँसू निकल पड़ते। शायद उन आँसुओं में बाबा के साथ बिताये गये अतीत की कई यादें जुड़ी होतीं। उन्हीं खट्टी-मीठी यादों को संजोये रखने के लिए ही तो वह अब तक उस पान की डिबिया को सबसे सेफ जगह में सँभाल कर रखती थी। बैंक का लॉकर यानी सबसे निरापद जगह।

अचानक रसोईघर से बर्तन की खड़खड़ाहट को सुन वह घबड़ाकर उस ओर भागी। एक काली बिल्ली दूध के भगोने को गिराकर उसे साफ़ किये जा रही थी। इच्छा तो हुई कि उसी व़़क्त वह उसकी गर्दन मरोड़ दे पर उसकी ललचायी आँखों को देखकर वह चुप रह गयी। एक तो अतुल की कड़वी बातों से ही उसका मन खिन्न हो गया था, ऊपर से उस बिल्ली ने उसका काम बढ़ा दिया था। किसी तरह वह जल्दी-जल्दी काम निपटाकर कल की पार्टी में जाने के लिए तैयारी करने लगी।

दूसरे दिन सुबह-सुबह ही वह अतुल और बच्चों के साथ नीता के घर जाने के लिए निकल पड़ी थी। रास्ते में उसे याद आया कि वह हड़बड़ाहट में गहनों वाली डिबिया बिस्तर पर ही भूल आई थी। किसी से कुछ न कहकर वह चुप रह गयी। फिर भी उसका मन शंकित ज़रूर हो गया था।

नीता की सालगिरह बहुत धूम-धाम से हुई। शहर के बड़े-बड़े लोग निमंत्रित थे। पर इतनी भीड़ के बावजूद सहेली कम, बहनें ज्यादा लग रही थीं। न चाहते हुए भी नीरू को उस रात वापस घर लौटना ही था क्योंकि दूसरे दिन अतुल का ऑफिस और बच्चों का स्कूल जाना भी ज़रूरी था। रास्ता लम्बा था और पूरा परिवार साथ ही था इसलिए अतुल ने ड्राइविंग भी धीमी ही रखी थी। अतः घर पहुँचते-पहुँचते बहुत रात हो गयी। नीरू जिस कॉलोनी में रहती थी वह शहर के शोर-गुल से थोड़ा हट कर था। शायद अधिक ठण्ड की वजह से आस-पास के दरवाज़े भी जल्दी ही बन्द हो गए थे। उस पार्टी से वापस लौटकर जैसे ही नीरू ने ताला खोलना चाहा, वह अवाक् रह गयी। ताला पहले से ही खुला हुआ था। घर के अन्दर प्रवेश करते ही घर का नज़ारा देख वे सकते में आ गये।

घर का सारा सामान बिखरा पड़ा हुआ था। आलमारी में भी तोड़-फोड़ के निशान थे; किन्तु शायद चोरों के हाथों उसका दरवाज़ा ही नहीं खुल पाया था। हैंगर पर टँगे हुए अतुल के शर्ट के पॉकेट में हज़ार रुपये सुरक्षित थे। उन्होंने एक गठरी देखी जिसमें घर के बहुत सारे क़ीमती सामान बँधे हुए थे। शायद किसी के आने की आहट पाकर चोर उसे ले जाने में सफल नहीं हो पाये थे। नीरू की नज़र बिस्तर पर गई। गहनों वाली डिबिया उसी तरह पड़ी हुई थी। उसने जल्दी से खोलकर देखा- सारे गहने सहीसलामत थे। उसने सोचा कि शायद उस टूटी-फूटी डिबिया की ओर चोर का ध्यान ही नहीं गया।

सबने भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि घर खाली रहने के बावजूद भी कोई नुकसान नहीं हो पाया। लेकिन नीरू की निगाहें कुछ और ही खोज रही थीं। वह बार-बार बिस्तर पर पड़े हुए बाबा के उस रूप को देखे जा रही थी जो चुपचाप रहकर भी अपनी लाडली बेटी की ग़लतियों की ढाल बने हुए थे। उस दिन पहली बार नीरू ने महसूस किया कि उसने घर को अकेला छोड़ा ही कब था। उसके बाबा का आशीर्वाद तो पान की डिबिया के रूप में उसके गहनों एवं घर के अन्य वस्तुओं के साथ ही चिपका हुआ था। तभी चोर बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं ले जा सके थे और शायद इसीलिए उस दिन पहली बार अतुल भी उस मटमैली और जंग लगी हुई पान की डिबिया की तारीफ़ किये बिना नहीं रह सका।

७ जुलाई २०१४

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।