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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से कल्पना दुबे की कहानी- घर


भुवाली सैनीटोरियम से आते हुए यकायक शांति के पैर ठिठक गये। दरवाजे पर नीले रंग की प्लेट पर पीतल के शब्द चमचमा रहे थे- ‘शांति देवी’।

यह क्या? यह किसने किया? शायद राहुल का कार्य होगा। वह बहुत दिनों से कह रहा था कि दरवाजे पर नेम प्लेट तो होनी ही चाहिए, वह टालती जा रही थी। क्या करेगी नेम प्लेट लगा कर? किसके लिए लगाए? अब कोई अरमान नहीं इस ‘नेम प्लेट’ को लगाने का। हाँ... कभी था...।

शांति वहीं बरामदे में पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी, आज वर्षों बाद इस नेम प्लेट ने उसे फिर अतीत में घसीट लिया, जहाँ वह नहीं जाना चाहती थी। मनुष्य के दिमाग की फितरत भी तो बहुत अजीब है जहाँ जाने को जी नहीं चाहता, मस्तिष्क है कि बार-बार घसीटकर उधर ही ले जाता है। शांति भी सो गयी, उस अतीत में जिसने उसकी जिंदगी की दिशा ही बदल दी थी। शांति की बचपन से ही ख्वाहिश थी कि वह अपना एक सुंदर-सा, प्यारा-सा घर जरूर बनाएगी। जब छोटी थी, पिता के दो कमरों के घर में दस सदस्यों का गुजारा कैसे होता होगा, सहज अंदाज लगाया जा सकता है। अपना कहने के नाम पर सिर्फ आधी टेबल थी, जो बहन के साथ शेयर करनी पड़ती थी। बस इसके सिवाए कुछ भी अपना, सिर्फ अपना नहीं था। सबका था। वह चाहती थी, अपना एक कमरा हो, उसकी अन्य सहेलियों की तरह। जिसे वह सुंदर ढंग से सजाएगी। अपनी मनपसंद चीजें सँभालकर रखेगी। अपनी सखी-सहेलियों को उसमें बिठाएगी। अपने तरीके से पढ़ेगी लेकिन कुछ नहीं कर सकी। फिर सोचा, कोई बात नहीं, जब शादी होगी तब अपना घर सजाऊँगी।

पर हाय रे दुर्भाग्य! शादी हुई तो वहाँ पर भी किराये का घर था, अपना नहीं। किराये पर कोई कितना बड़ा घर ले सकता है? मन के अंतर में छिपी हुई इच्छा और भी बलवती होती गयी। लेकिन ससुराल के भरे-पूरे घर में से अलग घर बनाने को पैसे नहीं जुटा सकी। अंतर में छिपी भावना जीवन की अन्य समस्याओं की पूर्ति के सामने राख में छिपे अंगारे की तरह हो गयी, जो कभी-कभी हवा पाकर अपना प्रभाव दिखाए बगैर नहीं रहता था।

दो बेटे हुए चाँद-सूरज से प्यारे। बस अब परिवार को नहीं बढ़ने देगी क्योंकि वह अपनी इच्छाओं का दमन बड़े परिवार के होने की वजह से ही करती आयी थी, लेकिन दो बच्चे भी क्या कम होते हैं? परवरिश, पढ़ाई, कपड़े-लत्ते, शौक। क्या कुछ नहीं किया इनके लिए। शायद जीवन में अपनी इच्छा कोई भी पूर्ण नहीं कर सकी, हर इच्छा को भविष्य के संदूक में रखती गयी कि कभी उपयुक्त समय आएगा तो इसे अवश्य खोलूँगी।

हर महीने कुछ बचाकर, कुछ छोटे-मोटे काम करके, कुछ कंजूसी से थोड़ा पैसा जोड़ा। कुछ रिश्तेदारों से उधार लिया, कुछ ‘लोन’ लिया, जब एक-दो कमरे का घर जुटा पायी थी। यद्यपि कर्ज हो गया था, फिर भी पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। इतनी खुशी तो किसी राजा को चक्रवर्ती बनने पर भी नहीं होती होगी, जितनी उसे हुई थी। वह चक्रवर्ती तो नहीं बन सकी, लेकिन कर्ज के चक्कर में अवश्य फँस गयी। इधर कुआँ, उधर खाई, क्या करे। एक इच्छा पूरी कर तो ली, लेकिन खाने के भी लाले पड़ गये। समय सदा एक-सा नहीं रहता, वह भी निकल गया। बच्चे बड़े हुए। सोचा जब ये नौकरी करने लगेंगे, तब अपना कमरा अलग कर लूँगी। लेकिन नौकरी पाना भी क्या सहज है, बहुत हाथ-पैर मारे। न मिली सरकारी नौकरी और न मिली सहूलियतें। रोटी चलाने को प्राइवेट कंपनी में काम पकड़ा और नयी पीढ़ी का जीवन भी उसी ढर्रे पर चल पड़ा।

क्या करे? जीवन के कुछ आवश्यक कार्य हर हाल में करने पड़ते हैं। बच्चों की शादियाँ कीं और परिवार में अब चार की जगह छह सदस्य हो गये। घर फिर छोटा पड़ने लगा। पति से कई बार एक छोटा-सा लकड़ी का पार्टीशन लाने को कहा, लेकिन वे ऐसे घूरकर देखते कि आगे कुछ कहते नहीं बनता। वे क्या करते। घर के आवश्यक कार्य ऐसे फालतू कार्यों को पीछे छोड़ देते। जिंदगी अंतिम पड़ाव पर आवश्यक कार्य करते-करते ही आ गयी। बच्चों ने अपनी-अपनी नेम प्लेट दरवाजे के दोनों तरफ लगा दी। इस आपाधापी में पति भी शांति का साथ छोड़ परमशांति को प्राप्त कर गये।

शांति उस घर में, जिसे उसने कितने अरमानों से, कितनी परेशानी से, कितनी तपस्या से बनवाया था, अपने लिए एक कमरा खोजती रह गयी। एक कमरा बड़े बेटे का, एक छोटे का, रात को ड्राईंगरूम में सो जाती थी। एक दिन बेटों ने इस पर भी एतराज किया कि अचानक दोस्त आ जाते हैं तो शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ती है। यहाँ मत सोया करो। कहाँ सोये। यह किसी ने नहीं बताया। बैठी रहीं, जब बेटों ने अपने-अपने कमरों के दरवाजे बंद कर लिए तो पीछे के छोटे से बरामदे में लेट गयी। लेट क्या गयी, गिर गयी क्योंकि अब उसके बूढ़े शरीर में बैठने की भी हिम्मत नहीं थी। सच तो यह है कि हिम्मत तो अंदर से आती है। बूढ़े शरीर को भी बहुत उल्लासित देखा है, लेकिन तभी जब दिल में उमंग हो। जहाँ उमंगें ही मर जाएँ, वहाँ कैसी हिम्मत। कैसा जीवन।

खैर दिन कटते रहे। बच्चों को दया आयी तो एक बरसाती लाकर बरामदे के खुले भाग पर टाँग दी। सर्दी निकल गयी। जब गर्मी आयी तो साथ में मच्छरों को भी लायी। इतने मच्छर कि सोना तो क्या बैठना भी दुश्वार हो गया। एक दिन तपती दुपहरी में शांति देवी गर्मी से बेहाल हुई जा रही थीं। दोनों बेटे-बहू अपने कमरों में कूलर लगाये सो रहे थे और वह अपने घर में, जिसे उन्होंने पति के नाम पर नहीं अपने नाम पर बनवाया था, असहाय-सी बैठी थी। यकायक मन में पता नहीं क्या आया। दुःख, ग्लानि, घृणा या पश्चाताप, पता नहीं क्या? बच्चों से ममता नहीं रही। सब स्वार्थी नजर आये। घर से मोह नहीं रहा। विरक्ति हो गयी या करनी पड़ी, स्वयं उसको भी नहीं मालूम। बस एक आवेग-सा आया और वह तपती धूप में घर से निकल पड़ी।

चलती रही... चलती रही...पता नहीं किधर, पता नहीं कहाँ, पता नहीं क्यों? कुछ नहीं मालूम। जो रास्ता सामने आया, बस उसी पर चल पड़ी। कभी -कभी जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं, जब भविष्य उसे स्वयं नये रास्ते पर ले चलता है, जिसका उन्हें खुद ज्ञान नहीं होता, बस वह उसी भविष्य की ओर चल पड़ी। चलते-चलते हाँफने लगी, गला सूख गया, आँखों के सामने दिन में तारे घूमने लगे। लेकिन उसने अपनी गति कम नहीं की। वह चली जा रही थी...चली जा रही थी। अचानक लड़खड़ाकर गिरी तो होश नहीं रहा। जब होश आया तो स्वयं को इस प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत सैनीटोरियम में पाया। डॉ. कपूर सपरिवार सड़क से गुजर रहे थे कि उन्होंने रास्ते में इन्हें बेहोश पाया। अनाथ समझकर साथ ले आये। सबकी नजरों में वह अब भी अनाथ है। उसे इसी में सुख है। ये अनाथ शब्द किसी को उसके अतीत को तो नहीं उकेरने देगें।

यहाँ उसे काम मिला। जीवन में प्रथम बार अपने पैरों पर खड़े होने का सौभाग्य मिला। एक आत्मविश्वास जागा। जीवन के अर्थ बदल गये। यहाँ सबका प्यार मिलता है। वह सबसे बेहद प्यार करती है। सब उसे अम्मा कहकर बुलाते हैं। वह सबका सहारा है। सबकी सेवा ही उसका धर्म है। दुःखी-हताश चेहरों पर आयी मुस्कराहट ही परम आनंद है। सेवा से मिली आत्मिक शांति ही उसकी अपार संपत्ति है। यहाँ उसे जो सुख-शांति, आनंद मिला, वह जीवनभर उसके लिए तरसती रही थी।

शांति देवी एकदम उस नेम प्लेट को देखे जा रही थी। सामने राहुल खड़ा मुस्करा रहा था, जिसका उन्हें भान नहीं था। राहुल अभी कुछ ही दिन पहले इस सैनीटोरियम में आया था। शांति देवी के सेवा भाव से प्रभावित होकर उनकी कुछ सेवा करना चाहता था।
"अम्मा कैसी है नेम प्लेट"? राहुल ने पूछा।
"बहुत अच्छी", फिर कुछ उदासी से बोली, "इसकी क्या जरूरत थी"।
"वाह! जरूरत क्यों नहीं, किसी को कैसे पता चलेगा कि ये किसका घर है?"
"घर"? प्रश्नवाचक दृष्टि से शांति ने राहुल को देखा।
"मुझे घर के बंधन में नहीं बाँधो"।
मैं सभी बंधन तोड़ चुकी हूँ। जहाँ प्यार है, जहाँ स्नेह है, जहाँ अपनापन है, वही तो घर है। शांति देवी बड़बड़ायी, नेम प्लेट दरवाजे से उतारी और अंदर चली गयी। राहुल आश्चर्य से उन्हें देखता रह गया।

१५ नवंबर २०१५

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