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					 जितनी 
					बार उसकी शक्ल टेलीविजन पर एक नयी खबर के साथ दीखती, आँखों के 
					आगे उस तीस वर्ष पुराने कोमल बेचारे से लड़के का चेहरा आ जाता। 
					जो वार्डन के बुलाने पर बाहर आश्रम के ग्राउण्ड में अपने हम 
					उम्र लड़कों के साथ हाथ में तिरंगा लिये 'कदम-कदम बढ़ाए जा' गाते 
					हुए छब्बीस जनवरी की परेड की तैयारी के बीच से भागता हुआ आया 
					था। आज के चेहरे में कहीं भी वह नम्रता, कोमलता, वह भोलापन 
					नहीं दिख रहा और उस पर इस सनसनीखेज खबर को सुनकर उसे विश्वास 
					नहीं हो रहा है कि यह वही वीरवर्धन है। 
					 
					प्रतिमा ने अपने को समझाने का 
					असफल प्रयास भी किया। एक नाम के कई व्यक्ति होते हैं... लेकिन 
					साथ ही अंतर्द्वंद्व शुरू हो जाता क्या पिता का नाम भी वही? 
					गाँव, शहर भी एक ही। भला हो इस मीडिया का, जाने कहाँ कहाँ गोता 
					लगाकर सारी जानकारी इकट्ठी कर लाते हैं। फिर दिनकर देव ने ही 
					तो कई वर्ष पहले वीरवर्धन के राजनीति में सक्रिय होने की खबर 
					दी थी। सुनकर प्रतिमा आश्चर्यचकित रह गयी थी ''वह सीधा सादा 
					बेचारा सा लड़का और राजनीति? लोग उसे खड़े-खड़े बेच देंगे। 
					''अच्छा... सीधा सादा, कहते हुए दिनकर ने ठहाका लगाया था। आप 
					को पता है कल का वह छोटा बच्चा कैसे राजनीति में आया?  
					 
					'बारहवीं कक्षा की परीक्षा में नकल करते हुए चार लड़कों के साथ 
					पकड़े जाने पर निरीक्षक के साथ हाथापाई कर दीवार फाँद कर भागने 
					के साथ जुर्म की शुरुआत हुई, दो वर्ष बाद हेरा-फेरी कर स्थानीय 
					कॉलेज में दाखिला ले लिया और पहले वर्ष ही छात्रासंघ के साथ 
					नेतागिरी करने लगे। अगले साल चुनावी मैदान में कूद पड़े और अगले 
					पाँच वर्ष तक कॉलेज में दादागिरी करते हुए समय बिता, जाली 
					डिग्री लेकर स्नातक बन गए। देखते-देखते एक राजनीतिक पार्टी में 
					टिकट लेने में भी कामयाब हो गए फिर क्या था रोज एक नया किस्सा 
					सुनने को मिल जाता है।' यह सारी बातें दिनकर देव के मुँह से 
					सुनकर भी उसने अनसुनी कर दी थीं। 
					 
					गिरफ्तार हुए गुण्डों को एम.एल.ए. का आदमी बताया जा रहा है। 
					नेता के इशारे पर ही बालिका संरक्षणगृह में इस कांड को अंजाम 
					दिया गया। लड़की को नाजुक हालत में सरकारी अस्पताल में... 
					समाचार वाचिका तीसरी बार इस खबर को दोहरा रही थी... 'ये टी.वी. 
					चैनल वाले भी रट्टू तोते की तरह एक ही बात को लेकर टर्र-टर्र 
					करते रहते हैं।' खीजते हुए उसने टी.वी. बंद कर दिया। लेकिन 
					दिमाग में मची उथल-पुथल को कैसे शांत करें? दिनकर देव के पास 
					जरूर कोई खबर होगी... वह अपने को रोक नहीं पायी, फोन घुमाते ही 
					उधर से टी.वी. के किसी दूसरे चैनल पर वही खबर गूँजने लगी। 
					'हाँ, तो सुन लिया, वीरवर्धन ने अपने नाम और ताकत के कैसे 
					झण्डे गाड़ रखे हैं?' दिनकर ने बड़े तीखे लहजे में अपनी बात पूरी 
					की, जैसे वीरवर्धन की करतूतों के लिये प्रतिमा ही जिम्मेदार 
					है। अब इस खबर पर विश्वास नहीं करने का कोई कारण नहीं था। उसने 
					चुपचाप रिसीवर रख दिया। 
					 
					उसे आज भी वह तीस वर्ष पुरानी पहली मुलाकात याद है। जब वह उनकी 
					क्लास खत्म होने की प्रतीक्षा में आधे घण्टे से कॉलेज गेट पर 
					खड़ा दिखा था। एक दिन पहले ही बड़े भाई हर्षवर्धन ने किसी 
					इंटरव्यू के सिलसिले में शहर से बाहर जाते हुए प्रतिमा को एक 
					फार्म देकर उस पर किसी अफसर के सत्यापन के बाद वीरवर्धन को 
					देने का आग्रह किया था। सरकारी वजीफे के लिये आवेदन पत्र पर 
					किसी अफसर के हस्ताक्षर चाहिए थे और प्रतिमा ने अपने पिता से 
					वह करवा भी लिये थे लेकिन फार्म घर भूल आयी थी। ''क...ल... 
					आवेदन... देने...की...अंतिम...तारीख है, सहमते सकुचाते कुए बड़ी 
					मुश्किल से वह अपनी बात कह पाया था। "घबराओ नहीं, मुझे अपने 
					हॉस्टल का पता बता दो, मैं शाम को स्वयं तुम्हारा फार्म पहुँचा 
					दूँगी'' कहने पर सिर झुकाए अता पता बता वह आश्वस्त होकर वहीं 
					से लौट गया था। 
					 
					स्कूल पहुँचने पर पता चला जिसे वह हॉस्टल समझ रही थी वह 
					अनाथाश्रम था। 'पिता हैं कहने को जीवित हैं पूर्वज गाँव के 
					पुराने जमींदार थे और बच्चों का लालन-पालन आश्रम में हो रहा 
					है। प्रतिमा को बहुत अटपटा लगा था। अनाथाश्रम के वार्डन ने 
					पारिवारिक खुलासा करते हुए उसके परिवार की और भी कई चौंकाने 
					वाली जानकारी दी थी। चलिये आप लोगों के योगदान से इनका भविष्य 
					बन जाएगा, अच्छा है घर के, पिता के साए से दूर हैं। कैसी 
					विडंबना है इसका बड़ा भाई स्वयं पढ़-लिख अपने पैरों पर खड़ा हुआ, 
					हमेशा से अव्वल आता है, सुलझा हुआ समझदार है तभी भाई को सही 
					जगह ले आया, प्रतिमा के वाक्य पूरा करते ही.. ''हाँ... पढ़ाई 
					में वह शुरू से ही तेज रहा, वह भी यहाँ से पढ़कर निकला लेकिन अब 
					सुना है वह भी चर्चाओं में रहता है..." मुस्कराते हुए उन्होंने 
					अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी। 
					 
					प्रतिमा ने कॉलेज में उसके बारे 
					में 'गोपियों बीच कन्हैया' 'अवारा बादल' जैसी कुछ आधी-अधूरी 
					बातें सुन रखी थीं। लेकिन वह प्रतिमा की बहुत इज्जत करता था और 
					कभी उसके सामने उसने न कोई गलत बात की, न ही कोई नाजायज हरकत 
					अतः प्रतिमा ने वार्डन की बात अनसुनी कर चर्चा का विषय ही बदल 
					दिया था। वहाँ से लौटकर वह कुछ परेशान सी हो गयी थी 
					बातों-बातों में एक दिन उसने हर्षवर्धन से कह भी दिया था। घर 
					के माहौल से दूर रखना ही था तो किसी बोर्डिंग स्कूल में डाल 
					देते, अनाथाश्रम में डालने की क्या जरूरत थी? वहाँ के माहौल 
					में शायद उसके व्यक्तित्व का सही विकास नहीं हो पाएगा। वहाँ तो 
					अनाथ, बेसहारा और गरीब बच्चों की ही परवरिश होती है।' 'जमींदार 
					तो अब सिर्फ कहने को हैं, यहाँ खाने को तो मिल जाता है। घर पर 
					तो फाँके करने की नौबत आ गयी है। अच्छा है बचपन से जीवन की 
					सच्चाई देखेगा तो एक दिन इन जैसे बच्चों के लिये कुछ करेगा।' 
					प्रतिमा वार्डन से उसके परिवार की आधी-अधूरी कहानी सुन ही चुकी 
					थी अतः हर्षवर्धन को कुरेदना ठीक नहीं समझा। 
					 
					रात आखिरी बार उसने एक बार फिर टीवी देखना चाहा। अब तो खबर को 
					पूरी तरह मिर्च मसाला लगाकर, पिछले दस पंद्रह वर्षों का 
					कच्चा-चिट्ठा खोला जा रहा था। चैनल पर एक नई तस्वीर फ्लैश हुई। 
					विधायक वीरवर्धन मुस्कराते हुए उसी अनाथाश्रम का उद्घाटन करने 
					पधारे थे। चार छह छोटी-छोटी बच्चियाँ फूल माला पहनाकर उनका 
					स्वागत कर रही थीं। भाषण शुरू करते ही बड़े नाटकीय अंदाज में 
					विधायक ने स्वयं के बिताए वर्षों का जिक्र किया, ''उन दिनों यह 
					सिर्फ बालकों के लिये था, मुझे खुशी है कि अब यह नयी इमारत 
					बनने से हमारी बच्चियाँ भी यहाँ सुरक्षित वास कर सकती हैं। मैं 
					बराबर अपना सहयोग देता रहूँगा।'' लाख कोशिशों के बावजूद 
					प्रतिमा को उस चेहरे में कहीं भी उस मासूम चेहरे की झलक नहीं 
					मिल रही थी। परेड की तैयारी में 'कदम कदम बढ़ाए जा' गाते हुए 
					कदम किस ओर बढ़ गए, सोचकर उसे बहुत तकलीफ हो रही थी। 
					 
					'अभी-अभी घायल युवती की मौत होने की खबर आयी है।' अचानक न्यूज 
					चैनलों में इस खबर को दिखाने की होड़ लग गयी। प्रायः सभी चैनल 
					मौत की पुष्टि कर रहे थे। 'स्थानीय लोगों ने संरक्षणगृह से 
					युवती को बलात उठा ले जाने की दुर्घटना के पीछे विधायक 
					वीरवर्धन का हाथ होने की पुष्टि की है। विधायक ने उस 
					संरक्षणगृह में पाँच छह वर्ष बिताए थे और इमारत का पूरा नक्शा 
					एवं उस जगह का चप्पा-चप्पा उनका जाना-पहचाना था। बल्कि युवती 
					को उनकी सेवा में ही भेजा गया था यह भी उतना ही सच था।' 
					 
					अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रतिमा को बेचारा सा लगने वाला 
					लड़का एक दबंग, चरित्रहीन विधायक का रूप ले चुका था। घृणा से 
					उसका मुँह कसैला हो गया। नीचता और बेशर्मी का इससे बड़ा उदाहरण 
					और क्या हो सकता है? जिस संरक्षणगृह में बचपन बीता, समाज में 
					जगह मिली उसका कर्ज इस तरह चुकाया। सारी रात बेचैनी में करवट 
					बदलते बीत गयी। कई बातें दिमाग में आती जाती रहीं। क्यों न एक 
					बार उस से मिलकर उसे समझाया जाए? आखिर बड़े भाई की सहपाठी का 
					कुछ तो लिहाज होगा। फिर उसने कई बार उसके हॉस्टल जाकर अभिभावक 
					का रोल निभाया था। प्रतिमा आज भी उसे नादान बच्चा समझ 
					मार्गदर्शन के लिये बेचैन होने लगी। 
					 
					अचानक उसे विधायक से मिलने का बहाना भी सूझ गया। तीस वर्ष पहले 
					लिया गया जमीन का एक टुकड़ा, जिसके सारे कानूनी कागजात होने के 
					बावजूद उसका कब्जा आज तक नहीं मिल पाया था क्यों न इस काम के 
					लिये विधायक की मदद ली जाए। 'एक पंथ दो काज' की योजना बनाकर 
					प्रतिमा ने अगले दिन ही उस शहर के लिये प्रस्थान किया। 
					 
					ट्रेन से उतरकर स्टेशन के पास ही दो दिन के लिये कमरा लिया और 
					बगैर समय बर्बाद किए उसी हाल में विधायक के दफ्तर का अता-पता 
					पूछती वहाँ तक पहुँच गयी थी। शहर पूरी तरह बदला-बदला लग रहा 
					था, वर्षों पहले बिताए दो-ढाई वर्षों की खुशनुमा यादें आज भी 
					उसके मन में रची बसी थीं। विधायक की मीटिंग खत्म होने की 
					प्रतीक्षा में वह पूरे दो घण्टे वहाँ बैठी उन्हीं यादों में 
					खोयी रही। कई बार पूछने पर भी उसे मिलने के कोई आसार नहीं लगे। 
					उसने हारकर पुराने परिचित होने का हवाला भी दिया लेकिन 
					बेकार... 'आप की पुरानी पहचान है तो आप शाम बँगले पर चली जाएँ' 
					संतरी ने बड़े विश्वास के साथ उसे बँगले का पता बता दिया था। 
					लेकिन उसकी कुटिल मुस्कान प्रतिमा से छिप न सकी। 
					 
					बँगले का फैलाव, रख-रखाव और सजावट देख प्रतिमा की आँखों के 
					सामने एक बार फिर उस अनाथाश्रम की तस्वीर ताजा हो गयी थी। शहर 
					के पुराने मोहल्ले में कई गलियों को लाँघते हुए किसी खण्डहर बन 
					गयी भुतही हवेली को आश्रम बनाया गया था। जिसकी दरो-दीवार पर 
					जगह जगह पीपल के उग आए छोटे पेड़, सीलन भरे अँधेरे कमरों में 
					पचास-साठ बच्चों की व्यवस्था थी। पढ़ाई के लिये सरकारी वजीपफा 
					और खाने-पीने का खर्चा बड़े-बड़े सेठ साहूकारों की दान राशि से 
					होता था। 
					 
					आप कुछ देर प्रतीक्षा करें, साहब अभी आते हैं, कहते हुए दरबान 
					ने उसे बरामदे से लगे बायीं ओर के कमरे का पर्दा हटाकर अंदर 
					बैठने को कहा था। प्रतिमा की नजरें दीवार पर लगी नेता जी की 
					आधे दर्जन तस्वीरों पर जाकर ठहर गयी। अलग-अलग समारोह, चेहरे पर 
					हमेशा विजयी मुस्कान, फूल-मालाओं से भरी गर्दन, चमचों से घिरे, 
					वाहवाही लूटने का जश्न... और खोखले भाषणों को सुनते लोग... अभी 
					उसने अंतिम तस्वीर की ओर रुख किया ही था कि ''अहो भाग्य... अहो 
					भाग्य... आज तो जीवन धन्य हो गया'... हाथ जोड़े, खीसें निपोरते, 
					सफेद खादीधारी को देख वह हड़बड़ा गयी और मेज से ठोकर लगकर गिरने 
					को ही थी कि विधायक जी के भारी वजूदों ने उसे लपक कर थाम लिया। 
					उसने उतनी ही फुर्ती से अपने को उसकी मजबूत पकड़ से छुड़ाया और 
					दो कदम पीछे हटकर खड़ी हो गयी,
					
					 
					'आपको देखने के लिये आँखें तरस 
					गयीं, दुनिया के किस कोने में जा बसी हैं आप?' वह उसके व्यवहार 
					से हतप्रभ... आपको कोई गलतफहमी हुई है, क्या आप मुझे पहचानते 
					हैं? प्रतिमा ने सोचा था धुँधली सी याद हो। मैं... मैं आपके 
					शहर से नहीं हूँ।' सुनते ही वह ठहाका लगाकर हँसने लगा, पान से 
					रंगे दाँत, और तम्बाकू की तेज दुर्गंध से प्रतिमा को उबकाई आने 
					को हुई। 'कई बार दिल्ली जाना हुआ बड़ी उम्मीद लेकर जाता, शायद 
					कहीं अचानक दर्शन हो जाए, भाई साहब से तो संबंध रहे नहीं, पता 
					पूछता भी तो किससे? हर बार बैरंग लौट आया, आज भी वह नीली शर्ट 
					सँभालकर रखी है' कहते हुए उसने अपने दोनों हाथ दिल पर रखे...अब 
					प्रतिमा को जैसे करंट लगा, नीली शर्ट... तभी नेता जी के मोबाइल 
					में 'ए मालिक तेरे बंदे... के सुरीले बोल कमरे में गूँजने लगे 
					और वह हैलो... हैलो... करता हुआ कमरे से लगे बरामदे में निकल 
					गया।  
					 
					प्रतिमा ने झपट कर मेज पर रखा अपना बैग उठाया और कमान से निकले 
					तीर की गति से कमरे से निकल लॉन को लाँघती सड़क तक निकल गयी। 
					पिछले चार दिनों से जो खबर मीडिया की सुर्खियों में रहकर भी 
					उसके गले नहीं उतर रही थी, आज एक और नया रूप अपनी आँखों से देख 
					लिया था। रास्ते भर वह सोचती जा रही थी, क्या कॉलेज 
					 कॉर्निवाल 
					के लकी ड्रॉ में निकला इनाम वह नीली शर्ट जो उसके किसी काम की 
					नहीं थी उसे दयास्वरूप एक अनाथाश्रम में पल रहे लड़के को देकर 
					उसने कोई भूल की थी? लेकिन उसने ऐसा सोच भी कैसे लिया? बड़े भाई 
					की सहपाठी... जिसने स्थानीय अभिभावक की... और तब उसकी उम्र ही 
					क्या रही होगी शायद पंद्रह या सोलह... कोई कैसे ऐसी सोच रख 
					सकता है? कमरे का ताला खोल वह कटे पेड़ सी पलंग पर गिर पड़ी, सिर 
					दर्द से छटपटाती वह सोच रही थी... शायद... गलती उसकी अपनी 
					थी... वर्ना पूत के पाँव तो पालने में ही पहचाने जाते हैं। फिर 
					उसके पूरे परिवार का कच्चा-चिट्ठा वह सुन ही चुकी थी।  |