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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से रत्ना ठाकुर की कहानी- श्वानकथा


यह कहानी काल्पनिक न होकर पूरी तरह वास्तविक घटनाओं पर आधारित है और इसका बहुत से जीवित और मृत पात्रों से सम्बन्ध संयोग न हो कर तथ्य पर आधारित है। लिहाज़ा लेखिका को भय है कि कहानी के प्रकाशन के बाद कुछ उच्च पदस्थ भद्र लोग अपने बचपन की करनी उजागर करने के लिए उस पर जानलेवा हमला कर सकते हैं। उम्मीद है कि पाठक लेखिका को बचाने के लिए दुआ करेंगे।

ट्रेन की सीटी बजे हुए दस मिनट गुजर चुके थे। तीन जोड़ी पैर घर के बरामदे में चहल कदमी कर रहे थे। लग रहा था जैसे समय रुक गया हो। “चिकमंगलूर" बाबू दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। “चिकमंगलूर” नाम आप को शायद अजीब लगे पर इस नाम के पीछे भी एक कहानी थी। जिस दिन इंदिरा गाँधी “चिकमंगलूर” से जीत कर आयीं थीं, उसी दिन पापा के ऑफिस के इन बाबू साहब की पोस्टिंग पास के जिले में हो गई थी, लिहाज़ा दफ्तर के लोगों ने इनका नाम “चिकमंगलूर” रख दिया था। बेचारे तब से इस लम्बे चौड़े नाम को ढोते हुए रोज ट्रेन से अप डाउन कर रहे थे।

खैर, उनके नाम में या आने जाने में हम लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं थी, पर आज उनका इंतज़ार करने की एक खास वज़ह थी। अचानक “चिकमंगलूर” बाबू आये तो चहल कदमी करते हुए कदम रुक गए। आँखों में निराशा के भाव उभर आये। प्रश्न होठों तक आये ही थे, कि उन्होंने झोले से एक भूरे रंग की नरम सुतली की गोले जैसी चीज़ निकाली और हम तीनों बच्चे हवा में उछल पड़े, "कुत्ता आ गया!”

असल में पापा जब पिछले दिनों दौरे पर नरसिंहपुर जिले गए थे तो वापस आ कर उन्होंने बताया था कि शर्मा अंकल के पालतू कुत्ते ने बच्चे दिए हैं। बस, कुत्ता पालने की हमारी दबी हुई इच्छा जागृत हो गई थी और उसी दिन से हम बच्चे पीछे पड़ गए थे कि एक कुत्ता हम भी पालेंगे। करीब एक हफ्ते की धुआँधार बहस और कई आश्वासनों के बाद मम्मी पापा मान ही गए थे और “चिकमंगलूर” बाबू को कुत्ते को नरसिंहपुर से लाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी।

पर कुत्ता आने के लिए सारा क्रेडिट मम्मी पापा को भी नहीं दिया जा सकता। आखिर दीदी ने चौराहे के छोटे से मंदिर में पच्चीस पैसे का प्रसाद चढाने की मन्नत भी मानी थी। दीदी को क्रेडिट देना वैसे तो हमें भा नहीं रहा था, पर मन ही मन हमें मानना पड़ा कि भगवान् ने कृपा करके कुत्ता भेज दिया था। (ये तो बाद में हम सोचने पर मजबूर हो गए कि कुत्ता भगवान ने प्रार्थना सुन कर भेजा था या पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का सबक सिखाने के लिये) खैर, कुत्ते को देखते ही जो ख़ुशी हुई उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। हम सब शोर मचाते हुए उसके पीछे घूमने लगे और वो छोटा सा प्राणी रेंगता हुआ जाकर पापा के जूते में मुँह डाल कर सो गया।

उस सोते हुए निरीह प्राणी को क्या पता था कि झोले से शुरू हुए इस सफ़र के साथ ही उसकी ज़िन्दगी बदलने वाली है, और उसके साथ साथ हमारी भी!

अगले दिन से ही हम सब भाई बहन उस छोटे से प्राणी की ट्रेनिंग में जुट गए। आखिर, कई सालों के इंतज़ार के बाद कुत्ता आया था, इसलिए सब के मन में लम्बी फेहरिस्त तैयार थी कि कुत्ते को क्या क्या सिखाना चाहिए कि वो कुत्तों की दुनिया में एक मिसाल के तौर पर जाना जाये।

अब आगे की कुत्तामय ज़िन्दगी के सपनों के साथ साथ हम लोग उसका नाम तलाशने में भी जुट गए। काफी सोच विचार के बाद जिस नाम पर सहमति बनी वो था “बनी”! वैसे नाम रखने के पहले पता नहीं था कि बाद में ये बनी इतना विशाल हो जायेगा कि लोगों को सफाई देनी पड़ेगी।

खैर, बनी के आने का सबसे पहला फायदा तो यह लगा कि हम भाई बहनों ने उसे घुमाने के लिए सुबह उठना शुरू कर दिया। उसे घर में गन्दा न करने की ट्रेनिंग देना भी तो जरूरी था! वैसे भी जब सहेलियाँ उसे देखने आतीं थीं तो गोद में उसे ले कर परिचय करवाने में जो गर्व अनुभव होता था, उसके एवज में सुबह उठने का कर्तव्य हम सब ख़ुशी ख़ुशी निभा रहे थे।

कुत्ते के आने से कोई तकलीफ भी हो सकती है ये तो तब पता चला जब एक दिन खेल ही खेल में बनी के दाँत भैया को लग गए। वैसे तो बनी को इंजेक्शन लग चुके थे, पर फिर भी एहतियात के तौर पर भैया को इंजेक्शन लगवाने और एक देसी दवाई लेने के लिए जबलपुर भेजा गया।

बस फिर तो यही सिलसिला चल निकला। जब एक एक करके हम सारे भाई बहन इलाज़ के लिए जबलपुर के चक्कर लगा आये, तब हमारे दादाजी का माथा ठनका। हमारे दादाजी जिन्हें हम बब्बा कहते थे, वैसे तो हम सब को बहुत प्यार करते थे, परन्तु उनके तेज तर्रार व्यक्तित्व की कल्पना सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जिन्होंने अपने बाल्यकाल में बब्बा जैसे दादाजी का सामना किया हो। बब्बा उठते बैठते “अहं ब्रम्ह द्वितियो नास्ति” का उद्धरण करते रहते थे, जिसका भावार्थ चाहे जो भी हो, शब्दार्थ हमें यही समझ आता था कि बब्बा खुद को भगवान् समझते थे और बाकी सबको शून्य!
बब्बा के व्यक्तित्व पर तो वैसे एक पूरा का पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है, पर उनसे आपको परिचित कराने के लिए उनकी एक छोटी सी विशेषता ही काफी है। बब्बा जब भी हमारे शहर आते थे, उनका पहला काम होता था, सुबह की सैर पर जाकर एक नीम का पेड़ ढूँढना। फिर चपरासी को भेज कर नीम की पत्तियाँ मँगवाई जातीं और उन्हें सिल बट्टे पर पिसवाया जाता। उसके बाद चपरासी ट्रे में पानी के गिलास और चम्मच लेकर खड़ा हो जाता था। फिर एक एक कर के हम बच्चों की हाजिरी लगती थी। नीम की कटोरी बब्बा अपने हाथ में रखते थे। मूँछों ही मूँछों में मुस्कुराते हुए चपरासी एक एक चम्मच और पानी का गिलास पकड़ाता जाता था और हम सब बब्बा के मुख से नीम के गुणों के बारे में सतत प्रवचन सुनते हुए मुँह बना कर खाते जाते थे। बब्बा से बहस करने का तो प्रश्न ही नहीं था। मजा तो तब आता था, जब कभी कभार बब्बा को यह नेक ख़याल आ जाता था कि नीम जैसी अमृत औषधि से बेचारी उनकी प्यारी बहुएँ क्यों वंचित रहें? ऐसे समय में अपने शैतान बच्चों की बदहाली पर पल्लू से मुँह दबा कर हँसती हुई मम्मी और चाची को बुलाने में हम बच्चे पीछे नहीं रहते थे।

जो बब्बा शैतान से शैतान बच्चों को नीम खिला कर सीधा कर देते थे, वे भला एक कुत्ते की बदतमीजियाँ कैसे बर्दाश्त करते? लिहाज़ा, कुत्ते का वर्णन अपने नाती पोतों के मुँह से कई बार सुनने के उपरान्त एक दिन बब्बा खुद ही सशरीर हमारे घर पधार गए।

उन्होंने आते ही आदेश जारी किया कि कुत्ते को गेट पर बाँध दिया जाए। हम बच्चे डर गए कि इतनी मुश्किल से प्राप्त हुए कुत्ते को कोई चोरी न कर ले जाए। पर हमारे इस डर की बब्बा ने यह कह कर धज्जियाँ उड़ा दीं कि कुत्ता हमारी चौकीदारी के लिए है, या हम कुत्ते की चौकीदारी के लिए?

गेट से आती हुई बेचारे बनी की करुण पुकारों के बीच बब्बा को अपनी कोर्स बुक की कवितायें और कबीर और रहीम के दोहे सुनाते हुए हम बच्चों के दिल पर क्या बीतती थी, ये हम बच्चे ही जानते थे।

खैर, बब्बा पर सिर्फ हमें ही नहीं, बनी को भी गुस्सा आया था, यह हमें अगले दिन पता चला, जब सुबह बब्बा की दहाड़ सुनकर नींद खुली। पता चला कि बनी की जिस समझदारी का वर्णन बब्बा से करते हुए हम सब नहीं अघा रहे थे कि वह कभी घर गन्दा नहीं करता, उस ने बब्बा के पलंग के नीचे की जगह को अपने नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए चुना था।

बस, फिर क्या था, बब्बा को हम सब को हिदायतें देने का बहाना मिल गया। बब्बा का दिन रात का धुआँधार लेक्चर शुरू हो गया कि किस प्रकार हम सब एक नालायक कुत्ते का महिमामंडन करके अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं।

इसमें बब्बा को भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि लग रहा था कि बनी ने भी हम सब बच्चों को बब्बा के सामने बेइज्ज़त करने की कसम खा रखी थी और हमारे सारे दावों को झुठलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। हम सब बब्बा को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि बनी कभी भी खाने पीने की चीजों को नहीं छेडता पर उस नालायक ने एक दिन बब्बा के नकली दाँतों के डिब्बे में से पानी पी कर हमारी सारी इज्ज़त मिटटी में मिला दी।

खैर, बब्बा का स्वाभाव किसी जगह ज्यादा दिन रुकने का नहीं था, लिहाज़ा कुछ दिनों तक हमें सुधारने की नाकाम कोशिश करने के बाद मम्मी पापा को हिदायतें दे कर बब्बा लौट गए। हमने चैन की साँस ली, पर बब्बा के जाने के बाद पता लगा कि बब्बा भले ही बनी के खिलाफ कुछ ज्यादा ही कटु हों पर बनी महाराज भी कुछ कम नहीं थे।

बनी की समझदारी के बारे में तो कोई शक नहीं था, पर ज्यादा समझदार कुत्ते कैसे सिरदर्द साबित होते हैं, यह अब पता चला। जब दोस्तों के सामने हम शान दिखाने के लिए गेंद फेंककर बनी को लाने के लिए कहते तो वो गेंद ले कर दूर भाग जाता और आशा करता कि सब बच्चे उसके पीछे भागेंगे। अब भला दौड़ में कोई एक कुत्ते को पकड सकता है? ये ही नहीं उसे घर में लाने का श्रेय भले ही बच्चों का था, पर उसने बिलकुल किसी दलबदलू विधायक की तरह पार्टी बदल ली और मम्मी पापा के ज्यादा करीब पहुँच गया। अब जब भी हम सब कहीं बाहर से वापस आते, तो वो हम बच्चों के बजाय मम्मी पापा के पीछे पूँछ हिलाते हुए घूमने लगता था। यही नहीं, गर्मियों की शाम को जब दोस्तों पर इम्प्रैशन जमाने के लिए हम उसे शान से बुलाते तो कई बार वो साफ़ अनसुना कर जाता और हमारे साथ खेलने के बजाय मम्मी पापा के पैरों के पास बैठना ज्यादा पसंद करता था।

बनी पर गुस्सा आने का सिर्फ यही कारण नहीं था। शुरू शुरू में सब बच्चों को दल बना कर उसे घुमाने ले जाने का जो शौक चर्राया था (बब्बा को कुत्ते के फायदे गिनवाये गए थे, उनमे एक यह भी था कि इस बहाने हम बच्चे जल्दी उठने लगे थे), वो अब उतरने लगा था।

घर में गंदगी न करने की बनी की आदत अब मुसीबत प्रतीत होने लगी थी क्योंकि सुबह पाँच बजे से ही वो कूँ कूँ करके आसमान सर पर उठा लेता था। बिस्तर पर लेटे लेट ही उसे डांट कर चुप कराने का प्रयास करते करते दिल करता था, बनी को गोली मार दी जाए। घूमते समय भी एक तो बार बार रुक कर हर एक झाड़ी का मुआयना करने की उसकी आदत थी, उस पर कोई कुत्ता दूर से भी दिख जाए तो जनाब ऐसा जोश दिखाते थे मानो चेन तुड़ा कर भाग जायेंगे। कुत्ते को लेकर जो मधुर सपने हम लोगों ने देखे थे, उनमें कुत्ते को घसीटते हुए चेन से हाथ छिल जाने और पत्थर मार मार कर आवारा कुत्तों को भगाने का दृश्य दूर दूर तक नहीं था।

खैर, अब गले में ढोल बाँध ही लिया था तो बजाना तो था ही, क्योंकि मम्मी पापा से किसी भी परेशानी का जिक्र करने का मतलब था, “हमने पहले ही कहा था...” से शुरू हो कर एक घंटे तक चलने वाला एक लम्बा चौड़ा भाषण सुनना। बहरहाल हम सब बच्चे असंतुष्ट विधायकों की तरह एक दुसरे पर इलज़ाम लगाने लगे थे। जिन बातों को लेकर पहले हर कोई कुत्ते को घर में लाने का क्रेडिट लेना चाहता था, अब उन्हीं को लेकर एक दूसरे को ताने मारना शुरू हो गया था, मसलन, "कुत्ता पालने के लिए सबसे ज्यादा जिद किसने की थी?”, “मम्मी पापा को किसने मनाया था?” “कुत्ते के लिए भगवान को प्रसाद किसने बदा था?” आदि जैसे जो वाक्य पहले गर्व से बोले जाते थे वही अब ताने देने के अंदाज़ में हम एक दूसरे पर कसते थे।

खैर, इन सब खट्टे मीठे अनुभवों के साथ साल दर साल बीतते गए और बनी हमारे घर का एक अभिन्न अंग बन गया। यहाँ तक कि जो मम्मी पापा पहले कुत्ता पालने के बिलकुल पक्ष में नहीं थे, अब बनी के निश्छल स्नेह से अछूते नहीं रह सके थे।

एक दो बार जब हम लोग उसे चपरासियों के भरोसे छोड्कर कर गर्मी की छुट्टियों में जबलपुर गए तो वापस आने पर पता चला कि हमारी अनुपस्थिति में उसने रो रो कर पड़ोसियों का जीना हराम कर दिया था। लिहाज़ा यह तय हुआ कि आगे से लम्बी छुट्टियों में बनी भी साथ जाएगा। अगली बार उस छोटे से शहर के रेलवे स्टेशन पर अजीब नज़ारा था। बनी सारे स्टेशन पर लोगों के सामान सूँघता हुआ घूम रहा था और लोग आपस में खुसुर पुसुर कर रहे थे कि लगता है पुलिस का कुत्ता है। जब ट्रेन आई तो बनी को लगेज के कम्पार्टमेंट में चढ़ा दिया गया। आश्चर्य तो इस बात का था कि बनी ने जरा भी विरोध नहीं किया। एक ही विजिट के बाद बनी को जबलपुर का घर भी अपना लगने लगा और शायद यही वजह थी कि अगली बार से वो भी ट्रेन यात्रा के लिए उत्साहित दिखने लगा। आश्चर्य की बात थी कि बब्बा के साथ इतने मतभेदों के बावजूद बनी ने बब्बा से मिलने पर पूँछ हिला हिला कर इतना लाड़ प्यार दिखाया कि बब्बा भी पिघल कर उसके सर पर हाथ फेरने लगे।

हालाँकि उनके बीच में छोटी मोटी तकरारें अभी भी चलती रहती थीं। मसलन गर्मी के एक दिन जब हम सब बच्चे आराम से ताश खेल रहे थे, अचानक बब्बा के दहाड़ने और बनी के जोर जोर से भौंकने का स्वर सुन कर हम लोग उछल कर आवाजों की दिशा में दौड़े। पता चला कि बनी गर्मी से बचने के लिए मटके के स्टैंड के पास सो रहा था। उधर बब्बा अपनी छड़ी लेकर पूरे घर का राउंड लगा रहे थे। गर्मी में लू से बचने के लिए बब्बा ने रात को आठ बजे भी धूप का चश्मा लगा कर रखा था। मटके के स्टैंड के पास सोते हुए बनी को देख कर बब्बा ने सोचा कि कोई भूरे रंग की बोरी पड़ी हुई है। बब्बा ने अपनी छड़ी के सिरे से बोरी को उठाने की कोशिश की तो बनी ने तिलमिला कर बब्बा की छड़ी पकड़ ली थी। अब बनी के भौंकने की आवाजों के बीच बब्बा हम सब को बनी को चेन से न बाँधने के लिए डांट रहे थे और बता रहे थे कि अगर उन्होंने छड़ी का प्रयोग न करके अपने पैर से बोरी को उठाने का प्रयास किया होता तो बनी ने उनका पैर लहू-लुहान कर दिया होता।

जबलपुर में बिताई हुई छुट्टियाँ वैसे भी यादगार होती थीं, अब उनमें बनी से जुडी यादें भी जुड़ गयी थीं। हम सभी कजिन्स दल बना कर सुबह बनी को भँवरताल गार्डन ले जाते थे। आवारा कुत्तों से बचने के लिए बब्बा की पुरानी छड़ी के सिवा हाथों में पत्थर भी ले लिए जाते थे। इस प्रकार कुत्ता घुमाने का काम भी अपने आप में एक रोमांचक गतिविधि साबित होता था।

जब हमारा ट्रान्सफर हुआ और सामान पैक होने लगा तो पहले तो बनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, पर जब रस्सियों वाला कूलर जिसके नीचे बनी जी सोते थे, उठाने की बारी आई तो उसने भौंक भौंक कर आफत कर दी। सामान के साथ साथ बनी को भी ट्रक में नयी जगह भेजा गया। इसी तरह पापा की पोस्टिंग्स होती रहीं और हम लोगों की तरह बनी भी नयी नयी जगहों में एडजस्ट करना सीख गया।

समय के साथ साथ बनी भी परिवार का हिस्सा हो गया था और अब पापा मम्मी के बर्ताव से लगता था कि वो भी घर के बच्चों में से ही है। हालाँकि एक बार बनी ने ऐसा काम कर दिया जो किसी बच्चे के करने से माँ बाप शर्मसार हो जाते हैं। हुआ यों कि बनी को किसी बीमारी ने घेर लिया था जिसके लिए उसे एक हफ्ते तक इंजेक्शन लगने थे। दो दिन तक इंजेक्शन लगाने के बाद जब तीसरे दिन कम्पाउंडर आया तो बनीजी नदारद थे। आस पास सब जगह ढूँढा गया पर बनी नहीं मिला और हम लोगों को यह मान लेना पड़ा कि बनी घर से भाग गया है। रात के ग्यारह बजे कंपकंपाती सर्दी में भरे मन से हम सब सोने के लिए बिस्तरों में घुसे ही थे कि गेट के पास से चिरपरिचित कूँ कूँ की आवाज़ सुनाई दी। हम सब बच्चे दौड़ते हुए गए तो बनी भीगी बिल्ली की तरह गेट के पास खड़ा हुआ था। घर में घुसते ही वो माफ़ी माँगने के अंदाज़ में पापा के पैरों में लोट गया।

बनी को डाँटने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि उस का राख में लिपटा हुआ शरीर अपनी दास्ताँ खुद बयान कर रहा था। जाहिर था कि वो सर्दी बर्दाश्त न कर पाने पर कहीं बुझी हुई आग की राख में लोट कर आया था। घर से भागने के अनुभव ने शायद बनी को यह अमूल्य सीख दे दी थी कि इंजेक्शन की तकलीफ के बावजूद अपना घर अपना ही होता है, क्योंकि उसने ऐसी हरकत फिर कभी नहीं दोहराई।

इसी तरह बनी के साथ खट्टे मीठे अनुभवों को जीते हुए जिंदगी गुज़र रही थी। पाँच सालों की अवधि में बनी के साथ साथ हम भी प्रतिदिन बड़े होते जा रहे थे। रोज सुबह पाँच बजे उसे नालायक, गधा आदि विशेषणों से नवाज़ने के बावजूद हम सब ने स्वीकार कर लिया था कि वो हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। बनी की समझदारी कायम थी। घर गन्दा न करने और किचन में न घुसने की जो तालीम उसे बचपन से मिली थी, उसे वो कभी नहीं भूला। जब हम सब खाना खाने बैठते तो वो डाइनिंग रूम के बाहर बैठ कर देखता रहता था। उम्र बढ़ने के साथ साथ उस ने कई शब्द सीख लिए थे, जैसे “चूहा!” सुनते ही वो झपट्टा मार कर खड़ा हो जाता था, और चूहे को मारे बिना चैन नहीं लेता था। घर के सारे चूहों का उसने सफाया कर दिया था। यही नहीं, तोते की रक्षा का दायित्व उसने खुद सँभाल लिया था और तोते के पिंजरे के पास किसी भी अनजान व्यक्ति को जाने की इजाजत नहीं थी। हालाँकि मिट्ठू मियाँ मौका मिलते ही बनी को चोंच मार कर रुला देते थे, पर इससे बनी की उसके प्रति वफादारी में कोई अंतर नहीं आया था।

ज़िन्दगी एक निश्चित ढर्रे पर चल पड़ी थी, पर पता नहीं कैसे बनी को किसी बीमारी ने घेर लिया जिससे उसके बाल झड़ने शुरू हो गए। लाख इलाज़ करवाने के बावजूद उसकी हालत बिगडती गई।

बनी के डॉक्टर का कहना था, कि अब उसके गिने चुने दिन रह गए हैं। बनी की शारीरिक क्षमता भी धीरे धीरे कम होती जा रही थी, जिससे उसकी चुस्ती फुर्ती घट रही थी। डॉक्टर का कहना था, कि बनी को तकलीफ से बचाने के लिए उसे मरवा देना चाहिए, पर हम बच्चे किसी हालत में राजी नहीं थे।

एक दिन सुबह जब बनी अपनी जगह से नहीं हिला तो हम सब हैरान रह गए। इन दिनों उसे चेन से बाँधना बंद कर दिया गया था, फिर भी उसने अपनी जगह से उठने की कोई कोशिश नहीं की। कुछ देर बाद जब बनी अपने अगले दो पैरों पर घिसटता हुआ बाहर जाने लगा तब हमें एहसास हुआ कि असल में बेचारा अपने पिछले पैरों से लाचार हो गया था। घर में गन्दा न करने का अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए बनी किस कदर तकलीफ झेल रहा था, देख कर हम सब की रुलाई छूट गई। बनी बाहर बगीचे में लस्त हो कर लेटा हुआ था। उसके सर पर हाथ फेरने पर वो आँखों से अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा था। उसकी आँखों से साफ़ जाहिर था कि उसकी ज़िन्दगी मौत से भी ज्यादा तकलीफदेह हो चुकी थी। रोते रोते हम बच्चों ने आखिर पापा के सामने बनी को मरवाने के लिए सहमति व्यक्त कर दी। जब बनी को खाद्य पदार्थ में मिला कर जहर दिया गया तो उसने चुपचाप खा लिया। खाने के बाद बनी एक बार बहुत जोर से तड़पा और फिर ज़मीन पर ढेर हो गया।

चपरासियों से घर के पीछे बगीचे में गड्ढा खुदवा कर बनी को दफना दिया गया।
हम सब की रुलाई रोके नहीं रुक रही थी। घर की हर छोटी बड़ी चीज़ से बनी की कोई न कोई याद जुड़ी हुई थी, जो रह रह कर दिल को तड़पा रही थी। मौत को इतने करीब से देखने का यह पहला अवसर था और हम इस शाश्वत सत्य को पचा नहीं पा रहे थे।

उस दिन शाम को खाने की मेज़ पर पूरी तरह सन्नाटा था। डाइनिंग रूम के दरवाज़े से हमें ताकने वाली आँखें नदारद थीं, और हमारे गले से निवाले नीचे नहीं उतर रहे थे। बिलख बिलख कर रोते हुए बच्चों को को मम्मी पापा ढाढस बँधा रहे थे, पर उनकी आँखों के आँसू भी हम से छिपे नहीं थे। उदास स्वर में पापा ने कहा, "बेटा, अब कुत्ता पालने की जिद मत करना! जब ये परिवार का हिस्सा बन जाते हैं तो इन्हें खोने का दुःख बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल होता है!”

पापा को शायद आश्चर्य हुआ हो, पर जिन बच्चों ने पाँच साल पहले कुत्ते की जिद को लेकर आसमान सर पर उठा रखा था, उन्होंने अब एक साथ आँसू भरी आँखों से सहमति में सर हिला दिया।

१ अक्तूबर २०१५

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