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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से जयनंदन की कहानी- जरा धीरे जाएँ पुल कमजोर है


जगदल ने अपनी आँखों के सामने देखा कि पुल का फुटपाथ रेत के टीले की तरह भर-भराकर ढह गया। स्कूली बच्चों का एक झुंड एक सेकेंड के फासले से नदी में गिरते-गिरते बचा। उसे लगा कि एक बड़े अनिष्ट ने जान-बूझकर चेतावनी दे दी है कि सावधान! अब यह पुल कभी भी गिर सकता है।

मन एकदम उचट गया उसका। इतनी लापरवाही! कैसे चलेगा आदमी का धरम-करम। इंजीनियरों द्वारा मुकर्रर आयु यह पुल बीस साल पहले पूरी कर चुका है। फिर भी इसका विकल्प ढूँढने का कहीं से कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा। उलटे इसकी वजन-क्षमता से हमेशा दस-पंद्रह गुणा अधिक भार इस पर लदा रहता है।

चालीस-पचास चक्कोंवाले एक से एक बड़े ट्रेलर भारी-भारी मशीनरी और अन्य लौह-सामग्री लेकर अक्सर गुजरते रहते हैं। उस पार मुख्य कारखाना और शहर की दो तिहाई आबादी स्थित है तो इस पार सैकड़ों लघु कारखाने और एक तिहाई आबादी। अतएव आवाजाही का सघन सिलसिला दिन भर चलता रहता है। क्षण भर के लिये भी कोई बाधा पुल के बीच में उपस्थित हो जाती तो आदमियों और वाहनों का ऐसा सैलाब जमा हो जाता कि सुई रखने की जगह भी कहीं नहीं रह जाती। पुल की चौथाई किलोमीटर लंबाई और नौ मीटर की चौड़ाई में न जाने कितने टन वजन लद जाते।

पता नहीं किस सत्य-बल पर पुल फिर भी टिका था। जबकि बीच-बीच से कई जगह ढलाई फट-फट गयी थी और लोहे की छड़ें झाँकने लगी थीं। जगदल अक्सर सोचता कि कहीं जाम के वक्त पुल टूट गया तो हजारों आदमी और वाहन एक साथ नेस्तनाबुद हो जायेंगे। इस पार से उस पार की दूरी भी मिनटों से घंटों की ही हो जायेगी। आवागमन ठप्प हो जाने से लाखों-करोड़ों की क्षति रोज-रोज जो होगी सो अलग।

जगदल को रोज ऑफिस के लिये इस पार आना पड़ता था। कभी स्कूटर से तो कभी बस से। उसके दोनों बच्चे भी इस पार के ही स्कूल में पढ़ने आया करते थे। ज्यादातर पैदल, पर कभी-कभी रिक्शा, टेम्पो या बस से भी। जीवन की आवश्यकता पुरने वाले सारे बेहतर साधन इस पार ही विकसित किये गये थे।

मगर त्रासदी यह थी कि रास्ते की यात्रा को संदिग्ध और अनिश्चित बना देने वाला एकमात्र पुल ही नहीं था, एक रेलवे-क्रॉसिंग भी थी। यहाँ मुख्य कारखाने के लिये लौह-अयस्क या कोयला लेकर आनेवाली मालगाड़ियाँ पटरी बदलने के लिये घंटों आगे-पीछे करती रहती थीं। नाम ही था इसका शंटिंग-यार्ड। इसलिये ज्यादातर क्रॉसिंग का फाटक बंद ही रहा करता था। जिसके खुलने की प्रतीक्षा में लोगों को दोनों तरफ अटक जाना होता था। हिसाब लगाकर देखा जाये तो हजारों जन-घंटे की क्षति इस क्रॉसिंग की वजह से रोज हो रही थी। क्रॉसिंग के खुलते ही सभी पैदल या वाहनवाले तीर की तरह ऐसे छूटते थे जैसे दो तरफ से दो सेनाओं की भिड़ंत हो रही हो। आपातकालीन वजहों से जल्दबाजी में पार होने के चलते अब तक दर्जनों लोग कुचलकर मारे भी जा चुके थे। प्रायः दुर्घटनायें मालगाड़ी समझने की गलतफहमी में द्रुत गाड़ी के आ जाने से होती रही थीं।

ये सारे नुकसान रोकने का एक ही उपाय था - एक अंडरब्रिज का निर्माण। मगर इस तरफ कार्रवाई एक दशक से वायदा और आश्वासन, सर्वे और निरीक्षण तक ही सीमित थी।

इस क्रॉसिंग पर जब कोई आदमी मर जाता था तो कुछ दिनों तक एक स्वतः स्फुर्त हल्ला-हंगामा और धरना-आंदोलन मचा रहता था। जगदल एक मातमी-सन्नाटे में महीनों के लिये घिर जाता था और प्रशासनिक अकर्मण्यता को दम भर कर कोसा करता था। पर आज पुल के एक हिस्से को इस तरह ध्वस्त होते देख उसके भीतर बूँद-बूँद कर रिसने वाला भय अब बाढ़ की तरह उफन आया था। पुल की दुर्दशा में उसे एक लघु-प्रलय दिखाई पड़ने लगा था।

उसने घर आते ही पत्नी से मशविरा किया कि उस पार के स्कूल से बच्चों के नाम कटवाकर इस पार ही कहीं लिखवा देने चाहियें।
पत्नी ने इस प्रस्ताव को सिरे से निरस्त कर दिया, जैसे पुल का गिरना उसके लिये कोई परेशानी का विषय न हो। उसने कहा, “इस पार भी भला कायदे का कोई स्कूल है कि बच्चे इधर पढ़ेंगे? हजारों-हजार बच्चे जब आना-जाना कर रहे हैं तो फिर मेरे बच्चों को ही क्या डर है?”
अब जगदल भला कैसे समझाये कि सबकी अक्ल जब मारी गयी है तो मेरी भी मारी जाये यह जरूरी तो नहीं।

जगदल को उम्मीद थी कि अब जबकि फुटपाथ का एक भाग गिरकर पुल की डावाँडोल स्थिति का संकेत कर चुका है, जरूर आम जनता एवं प्रशासन का ध्यान इस तरफ खिंचेगा और इसकी मरम्मत एवं रख-रखाव की पहल शुरू होगी। वह रोज-रोज अपनी उत्सुक नजरें टूटे हुए भाग पर डालता और हताश हो उठता। कई माह इसी तरह बीत गये, पर कहीं कोई आसार नहीं। वह हैरत में पड़ गया जब एक दिन फुटपाथ का एक और बड़ा हिस्सा सड़े हुए किसी फल की तरह चूँ पड़ा।
इसी तरह धीरे-धीरे करके बायें-दायें दोनों तरफ का फुटपाथ रेलिंग समेत धराशायी होता चला गया। पैदल आने-जाने वालों को अब सड़क पर ही उतर कर चलने की मजबूरी हो गयी। लिहाजा सड़क की गर्दन पर भीड़ के पंजे और कस गये। उसे लगा कि अब पुल के गिरने में भी ज्यादा वक्त नहीं रह गया है।

वह अगले दिन से अपने कई सजग मित्रों और पड़ोसियों को इसके बारे में अपनी गंभीर चिंता से अवगत कराने लगा। पर हरेक ने इसे बेहद ठंडेपन से लिया, जैसे जगदल बेमतलब और बेसिर-पैर के मुद्दे पर खामखा वक्त जाया कर-करवा रहा हो। वह लक्ष्य कर रहा था कि आने-जानेवाले किसी भी शख्स को पुल की खस्ताहाली की तनिक परवाह न थी। सब बड़े इत्मीनान से और निश्चिंत होकर आना-जाना जारी रखे हुए थे, जैसे फुटपाथ का गिरना महज किसी पेड़ से पत्ते के गिरने के समान एक मामूली बात हो।

जगदल का चित्त एकदम अशांत और अस्थिर हो उठा था। ऑफिस के लिये वह अब डेढ़-दो घंटे पहले ही निकल जाने लगा था - क्या पता क्रॉसिंग बंद हो या पुल जाम हो! जाम की अवस्था में वह पुल में प्रवेश नहीं करता। धड़ल्ले से पुल की भीड़ में घुसते चले जाने वालों को वह मना भी करता कि नाहक पुल पर भार न बढ़ाएँ! पहले जाम खुल जाने दें!

हालाँकि उसकी सलाह पर कोई गौर करना गवारा नहीं समझता। उसकी आँखें एकदम असहाय हो उठतीं। पुल अगर न भी गिरा तो भी जिस तरह भिन्न-भिन्न प्रकार के वाहन और लोग एक-दूसरे पर चढ़े से प्रतीत हो रहे हैं, अगर बीच में किसी की शरारत की वजह से भगदड़ मच गयी तो भागने की जगह के बिना लोगों को कुचलकर अथवा नदी के गहरे पानी में गिरकर मरने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह जायेगा। तब इस तरह की जोखिम उठाने से क्या फायदा!

जगदल की घरवाली और पास-पड़ोसवाले ड्यूटी के लिये उसके इतना पहले निकलने पर बड़े हैरान हो रहे थे। पेंच ढीला तो नहीं हो गया इसके माथे का? घरवाली उलाहना देने लगी, "क्या पुल टूटेगा तो तुम्हारे ही कबूतर वजन से...क्योंकि और तो किसी को इसकी परवाह नहीं है। प्रायः लोग मात्र दस मिनट समय लेकर ड्यूटी जा रहे हैं।"

जगदल उसे समझाना चाहता था कि लोग अगर नहीं देखते-महसूसते तो पुल का इसमें क्या दोष! अपनी निरीह हालत का बयान पुल खुद बोलकर तो नहीं कर सकता? फुटपाथ के गिर जाने का भी क्या कोई अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए?

वह अपने बच्चों को समझाया करता कि ज्यादा से ज्यादा कोशिश हो कि तुमलोग एक-डेढ़ घंटे पूर्व स्कूल के लिये निकल जाओ। पहले पहुँचकर स्कूल में ही सुस्ताना या लिखना-पढना बेहतर है, बनिस्पत हड़बड़ी में रेल-क्रॉसिंग या पुल पार करने की जोखिम उठाने के।

वह ड्यूटी से रोज घर आते ही बच्चों की खोज-खबर लेता और उन्हें सकुशल देखकर बहुत राहत महसूस करता। वह जानता था कि उसकी लाख हिदायत के बावजूद पत्नी अब तक उससे सहमत नहीं दिख रही है और बच्चों को हड़बड़ी में ही रोज हाँक देती है।

उसे बेहद दुख था कि वह अपनी पत्नी तक को स्थिति से वाकिफ करवाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है!
उस साल दुर्गापूजा में तो पत्नी ने उसके सामने एक गजब का कठोर धर्मसंकट खड़ा कर दिया। कुछ रोज पहले ही साढ़ू का एक पत्र मिला कि वह अपनी पत्नी के साथ दुर्गापूजा मनाने आ रहा है। यहाँ की पूजा, मूर्तियों की जीवंत कारीगरी, पंडाल की कलात्मकता और बिजली की अभूतपूर्व सजावट के लिये काफी मशहूर थी, जिसे देखने की हसरत दूर-दूर के रिश्तेदार अक्सर प्रकट करते रहते थे।

जगदल को एक सगे और प्रिय रिश्तेदार के आतिथ्य करने की खबर पाकर खुश होना चाहिए, पर हो नहीं पाया। इन मौकों पर तो हर परिवार बेविचारे घर से निकल पड़ता है। ऐसे में पुल और क्रॉसिंग की भयावहता उसकी आँखों में तैर गयी। मन तो हुआ कि वह उन्हें आने से मना कर दे, मगर ऐसा करना शिष्टाचार के अनुकूल भी न था और पत्नी को नागवार भी।

उसने साढ़ू को पत्र लिख दिया कि आना है तो वह रात में आये या तड़के सुबह। यानी वैसे समय जब स्थानीय पुल एकदम खाली हो। चूँकि पुल अपनी अंतिम साँसें ले रहा है...बस अब गिरा कि तब!

जगदल किसी भी तरह नहीं चाहता था कि यहाँ हर्ष-उल्लास और मौज-मस्ती मनाने के लिये आने वाला उसका आत्मीय रिश्तेदार किसी हादसे का शिकार हो उठे।

खैर, जैसे भी, वे सही-सलामत आ गये, परन्तु उन्हें अथवा अपने परिवार में से किसी को भी वह उस पार पूजा-पंडाल घुमाने नहीं ले जा सका। जबकि आसपास की सभी महिलायें और बच्चे अब तक दर्जनों नामी-गिरामी तथा चकाचौंध से भरे पंडालों की शोभा अपनी आँखों में उतार चुके थे और गर्व से किस्तों में उनका बखान करते नहीं अघा रहे थे। जाहिर है इसके पीछे इतराना और उकसाना उनका मुख्य ध्येय था।

जगदल सोच रहा था कि पूरे शहर में जिस प्रतिस्पर्धा के साथ क्षणजीवी साज-सज्जा को निखारने के पीछे करोड़ों रुपये लोग बहा दे रहे हैं, उससे इस तरह के कई पुल का उद्धार हो जाता। अथवा आम जनता के लिये कई बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल हो गयी होतीं - भव्य स्कूल, कॉलेज, धर्मशाला, अस्पताल आदि।

पत्नी का मुँह एकदम लटक गया था, इस भाव से कि उसकी तो किस्मत ही खराब है कि ऐसे अजीब नालायक-निखट्टू से पाला पड़ गया। वह एक बार बेकाबू होकर झल्ला भी पड़ी, “औरों के लिये पुल नहीं टूटता...भगदड़ नहीं मचती...सिर्फ इसी आदमी के लिये ये सारी विपत्ति दुबक कर बैठी हुई है।"

जगदल ने देखा कि साढू भी उसकी आशंकाओं से खिन्न और असहमत है...मानो वह भी इसे फालतू की झख मान रहा था कि गाँव से यहाँ आने तक उसने हजारों पुल पार किये होंगे, पर उनमें कोई एक भी तो नहीं गिरा। जबकि इनमें कई पुल ऐसे होंगे जो ब्रिटिश जमाने से बने हुए होंगे और उनकी उम्र सौ-सवा सौ साल पहले पूरी हो गयी होगी।

जगदल क्या जवाब दे...अब यह कोई आदर्श स्थिति तो नहीं है। ठीक है चल रहा है तो चल रहा है। बहुत सारे पुराने मकान भी बेहतर रख-रखाव से चल रहे हैं। पर जो चलने से इंकार करने लगा है, उसे चलाये रखना सरासर एक गुनाह, बेशर्मी और बेईमानी है कि नहीं है?

एक दिन उसे बिना बताये सभी लोग घूमने निकल गये। जैसे जान-बूझकर उसे आहत करना चाहते हों। बेचारा घर में उनके आने तक उनकी सलामती की मन ही मन दुआ करता रहा।

इनके तृप्त होकर वापस आने के बाद पत्नी ने सिकंदरी अंदाज में ललकारा, "देखो, हम लोग तमाम जगह घूमकर आ गये, मगर तुम्हारा टूटने वाला पुल आज भी नहीं टूटा।"

जगदल अपना-सा मुँह लेकर रह गया। वह अच्छी तरह गौर कर रहा था कि पत्नी ही नहीं उसके पड़ोस और ऑफिस आदि के लोग भी उसे खब्ती समझकर उपहास की नजर से देखने लगे हैं, मानो वह कोई अर्द्धविक्षिप्त समझ का कुढ़मगज लल्लू हो। कोई-कोई तो उससे सीधे-सीधे ही चुटकी ले लेता था, "तब जगदल जी! क्या उम्मीद है...पुल कब तक गिर जायेगा?"

वह सिटपिटाकर रह जाता...पता नहीं लोग उसके अभिप्राय को क्यों नहीं समझना चाहते! भला वह कब चाहता है कि पुल गिर जाये?
उसे ऐसे लोगों पर तरस आता जो उसकी सकारात्मक सोच का उल्टा तात्पर्य निकालकर उसे जगतबंधु, दुखहरण, जनसेवक, पुल-उद्धारक आदि व्यंग्य-विशेषण से पुकराने की होशियारी दर्शाते।
मतलब पुल को लेकर किसी में रंचमात्र कोई संशय या ग्रंथि नहीं थी। अपने आने-जाने में पुल की बदहाली का किसी पर कोई दबाव नहीं था।

मित्रगण आपस में पार्टी, सैर-सपाटे या किसी गोष्ठी-बैठक का कार्यक्रम आराम से बना रहे थे और इस पार से उस पार की दूरी तथा इसे तय करने में लगने वाले समय पर अलग से विचारने की कोई जरूरत नहीं समझ रहे थे। मापने से जो दूरी होगी डेढ़ किलोमीटर और उसे स्कूटर से तय करने में अधिकतम पाँच मिनट...बस इसी धारणा को लेकर वे संचालित होते। मगर जगदल को इस समझ में सरासर एक नादानी और बेवकूफी शामिल नजर आती। उसके अनुसार यह नगण्य-सी लगनेवाली दूरी ऐसी है जो आसानी से मापी नहीं जा सकती और इसे तय करने में लगनेवाले समय का भी सही अंदाज नहीं लगाया जा सकता।

उससे जब कोई इस पार से उस पार होने का समय या दूरी पूछता तो वह एकदम हकला जाता। यही कारण है कि हर रोज अगले दिन की ड्यूटी उसे एकदम अनिश्चित प्रतीत होती। क्या पता आज ही पुल का अंतिम दिन हो या क्रॉसिंग पर किसी रेल और मोटर में भिड़ंत हो जाये।

समय पर पहुँचने का किसी से वादा करना तो उसने आजकल बिल्कुल ही छोड़ दिया था। उसके बॉस जब किसी खास काम से छुट्टी के बाद उसे बुलाना चाहते तो वह अपनी झिझक सामने रख देता, "सर, पुल और क्रॉसिंग की जो हालत है, इससे कहीं आना-जाना अपने काबू में नहीं रह गया है...कोशिश रहेगी मेरी, पर समय पर आ जाऊँगा, इसका भरोसा नहीं दिला सकता।"

उसके बॉस उसे कोस उठते, "यह आजकल क्या हो गया है तुम्हें? सुना है कि तुम एक विचित्र मनोरोग से आक्रांत हो गये हो? आत्म-विश्वास की कमी क्यों होती जा रही है तुममें? ऑफिस के सभी स्टॉफ तो उस पार से ही आते हैं और पूरे विश्वास से समय पर आते हैं।"

जगदल एकदम हताश हो गया कि जब बॉस जैसी ऊँची चीज को भी उसकी व्याकुलता की सही नब्ज पकड़ में नहीं आ रही तो मामूली आदमी की भला क्या बिसात!
थोड़े ही दिनों बाद उसने भाँप लिया कि उसे किसी अर्जेंट काम से ओवर टाइम में बॉस ने बुलाना छोड़ दिया और उसके प्रति हिकारत का भाव पूरी ऑफिस में दिखाई देने लगा। जगदल घुटने के सिवा और कर भी क्या सकता था!
सबकी मानसिकता एवं सलूक को मद्देनजर रखकर वह निष्कर्ष निकाल चुका था कि इस पुल के लिये किसी में कोई जुंबिश तक होने वाली नहीं है। सभी तटस्थ और ‘जो हो रहा है’, ‘जैसा चल रहा है’ के साथ रो-गाकर सामंजस्य बिठा लेने वाली आदतों के आदी हो गये हैं। पर उसकी तो मानो रात की नींद तक हराम हो गयी थी।

नगर में एक नागरिक सुरक्षा-परिषद चलती थी, जो हर बड़ी जन-समस्या की ओर प्रशासन का ध्यान आकृष्ट करती थी और इसके समाधान के लिये व्यापक अभियान चलाया करती थी। कई दफा उसने अधिकारियों पर फौरन दबाव डालने के लिये पुल को जाम भी करवाया था। दूसरे भी कई संगठन थे, जो अपनी माँगों को पूरा करवाने के लिये पुल-जाम को एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल कर चुके थे।
जगदल अचम्भित था कि दूसरे-तीसरे मामले के निपटारे के लिये पुल एक साधन बनाया जाता रहा था...पर स्वयं पुल के जीर्णोद्धार के लिये पुल-जाम का नुस्खा कोई प्रयोग में नहीं ला रहा था।
उसने परिषद के अध्यक्ष से इस बारे में मुलाकात की और पुल की दुर्दशा की विस्तृत जानकारी दी।

अध्यक्ष पहले तो उसे हिकारत की नजर से देखता रहा, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा जैसे एक जाहिल लतीफे से साबका पड़ गया हो। वहाँ उपस्थित अन्य सदस्य भी हँस पड़े। जगदल का चेहरा अपमान से एकदम विवर्ण हो गया।
अध्यक्ष ने कहना शुरू किया, "जाओ यार, अपने घर-परिवार के दुख-दर्द की चिंता करो। नाहक एक काल्पनिक फितूर के पीछे क्यों पागल हुए जा रहे हो! पुल को कुछ नहीं हुआ है, वह बिल्कुल ठीक-ठाक है, अगले पचास साल तक उसकी सेहत पर कोई आँच नहीं आनेवाली!"
जगदल की फरियाद का हौसला अब भी पस्त नहीं हुआ था। उसने कहा, "पुल के दोनों तरफ के फुटपाथ गिर चुके हैं, वह अपनी आयु कब की पूरी कर चुका है...।"

"इससे कुछ नहीं होता...। पूरा शहर निश्चिंत है, फिर एक तुम्हें ही क्या दिव्यज्ञान हुआ है कि तुम समझ रहे हो पुल गिर जायेगा? जाओ...घर जाओ...इस तरह बुजदिल बनने लगोगे तो एक कदम भी आगे बढ़ाना मुश्किल होगा। यहाँ बहुत कुछ विकृत, विद्रुप, डावाँडोल और जर्जर है, इन्हीं से तालमेल बिठाना होगा। कौन अपनी आयु पूरी कर चुका है, यह किसी को नहीं मालूम। क्या तुम जानते हो कि कब कहाँ बम ब्लास्ट हो जायेगा और तुम उसकी जद में होगे? क्या तुम जानते हो कि कब कोई तुम्हारे घर में आग लगा देगा और तुम सपरिवार उसमें स्वाहा हो जाओगे? इसलिये मेरे यार! भावुक और संवेदनशील होकर आज की जटिलताओं, विसंगतियों और अन्तर्विरोधों के बीच एक दिन नहीं जिया जा सकता...समझे!"
जगदल आसानी से समझ सकता था कि यह उसके प्रश्न का उत्तर कतई नहीं है। अप्रत्याशित या अनहोनी चाहे जो घटे, फिर भी इस आधार पर कोई जान-बूझकर आफत या जोखिम को दावत नहीं देता। ऐसे में तो सावधानी, सतर्कता और चौकसी जैसे शब्द ही बेमानी हो जाने चाहिए।

निश्चय ही ऐसे जवाब और दलील के पीछे अपनी जिम्मेदारियों से पलायन ही मकसद है। उसके अनुसार तो जो भावुक या संवेदनशील नहीं है, वह मनुष्य ही नहीं है और उसके जीने का कोई अर्थ भी नहीं है।
उसने तय कर लिया कि इस बारे में अब सीधे-सीधे उपायुक्त से ही दरख्वास्त करना बेहतर है।
कई बार आवा-जाही और सहायक की आरजू-मिन्नत करने के बाद उसे उपायुक्त से मिलने का समय दिया गया। सहायक के बहुत पूछने पर भी उसने वजह नहीं बतायी। अगर बता दिया होता तो निश्चय ही अपने स्तर से वह इस मुद्दे को निरर्थक समझकर उसे टरका देता।

उपायुक्त ने जब पुल के बारे में आर्तनाद मिश्रित उसके बयान सुने तो वे भी बरबस हँस पड़े। कहा, "आप तो इस तरह दुःखी और कातर हो रहे हैं, जैसे यह आपका व्यक्तिगत मामला हो। इस पुल के लिये दूसरा ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो आपकी तरह बेसब्र और व्यग्र हो। आपका हृदय इतना कमजोर क्यों है? आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि जब पुल गिरेगा तब आप ही खड़े होंगे उस पर? जाइये, उसकी मरम्मत के लिये सरकारी कार्रवाई शुरू हो गयी है। पुल एक आपको ही नहीं, और लोगों को भी दिखाई पड़ रहा है।"

हद हो गयी...। उसके कहने का, उसके ध्यानाकर्षण का कैसा-कैसा फूहड़ और सतही अर्थ निकाला जा रहा था। सिर पीटते और अपना मुँह चूहे-सा बनाये वह वापस हो गया। क्या उसका मकसद पुल के गिरने में सिर्फ उसके स्वयं के गिरने का था? क्या वह अपने निजी डर या दुर्बलता के कारण पुल का कायाकल्प चाहता था? क्या उसके कहने में एक व्यापक उद्देश्य या आकांक्षा की छाया नहीं थी?

पुल के बिना आखिर कोई व्यवस्था, कोई तंत्र, कोई जीवन, कोई अनुशासन कैसे चल सकता है? पति-पत्नी के बीच, पिता-पुत्र के बीच, व्यक्ति-समाज के बीच, जनता-सरकार के बीच, जन्म-मृत्यु के बीच, दो संप्रदाय के बीच, आकाश-धरती के बीच, इस पार से उस पार के बीच एक पुल तो जरूर ही होना चाहिए...। तब ही तो सांसारिक-कारोबार को गति और शक्ति मिल सकेगी। मगर आश्चर्य है कि इतने महत्वपूर्ण माध्यम के रख-रखाव और देख-रेख पर किसी का भी कोई विशेष ध्यान नहीं। जगदल ने मन ही मन एक सर्वेक्षण करके देखा तो लगा कि हर पुल की आज यही दुर्गति है, ऐसी ही उपेक्षा है।

तो क्या कल ऐसा समय भी आयेगा जब हर सेतु ध्वस्त हो जायेगा? परिणाम की कल्पना कर उसके रोंगटे खड़े हो गये।
बहुत अंतर्द्वंद्व के बाद उसने तय किया कि पुल के प्रति जन-जागरण अभियान चलाने की पहल अब उसे ही करनी होगी। ज्यादा अच्छा होगा कि शहर के माथे पर लटके इस अशुभ ग्रह से विद्यार्थियों को आगाह किया जाये। वे किसी भी अंधेरगर्दी के प्रति स्वभावतः जुझारू और संकल्पवान होते हैं। वे जरूर इस खतरे की आहट को सुनने-समझने में समर्थ होंगे।

जगदल ने उन्हें संबोधित करते हुए काफी बढ़ी संख्या में एक पर्चा छपवाया जिसमें पुल के बारे में उसने अपनी समझ और चिन्ता का मार्मिक उल्लेख प्रस्तुत किया। उसके व्यापक वितरण का यथासाध्य प्रबंध भी करवाया गया।
पर्चा पढ़ते ही जान-पहचान के कई पिताओं और अभिभावकों ने उसे आड़े-हाथों लेना शुरू कर दिया कि वह खामखा पढने-लिखनेवाले छात्रों को बिगाडने-भड़काने का धंधा करने चला है। अब स्पष्ट है कि पुल को एक जरिया बनाकर वह नेतागिरी में प्रवेश करना चाहता है।

लगा कि उसके आगे बढ़ने वाले पैर फिर पीछे की ओर तेजी से घसीट लिये गये। उसका यह उपाय भी फिस्स हो गया। आहूत सभा में सिर्फ चार-पाँच लड़के ही पहुँचे। वे भी अनमनेपन से लुत्फ लेने के ख्याल से जगदल की बात सुन-सुनकर मुस्कराते रहे और बिना कोई संवाद किये समोसे-चाय की व्यवस्था का उपभोग कर चलते बने।
जगदल को मानो शक्तिबाण लग गया यह सोचकर कि क्या ये ही युवा कल देश की नैया के खेवनहार बनेंगे, जिनमें जीवन को जीवंत एवं आसान बनाने की अहम भूमिका निभाने वाले पुल को रुग्ण जानकर भी, कोई हलचल नहीं...कोई खीज नहीं, कोई संवेदनशीलता नहीं।

एक बड़बोले लड़के ने तो उसकी अक्ल की दुहाई देते हुए उसे उलटे नियंत्रित करने की कोशिश भी कर डाली, "आप नाहक एक निराधार पचड़े के पीछे अपनी सेहत खराब कर रहे हैं। पुल जब तक गिर नहीं जाता आपकी कोई भी शिकायत को तरजीह नहीं दी जा सकती। पुल या सड़क आदि को देखने के लिये सरकार का एक बहुत बड़ा महकमा है, जिसमें विशेषज्ञ और पारखी भरे पड़े हैं। वे कहेंगे कि पुल बिल्कुल दुरुस्त है और उस पर किसी भी तरह का कोई संकट नहीं है, तब आपके पास क्या कोई और तर्क रह जायेगा? रही बात रेलिंग और फुटपाथ के गिर जाने की...। मेरे ख्याल में इस तरफ से भी इतना बड़ा महकमा अनभिज्ञ नहीं होगा। सरकारी काम है, ऊपर से स्वीकृति मिलेगी, टेंडर निकलेगा, कोई ठेका लेगा, तब ही तो काम शुरू हो सकेगा।"

जगदल पूछना चाहता था - तो क्या पुल जब अंतिम रूप से ध्वस्त हो जायेगा, तब नये पुल के बनने तक मतलब कई साल तक इस पार के लोग इस पार और उस पार के लोग उस पार ही रहने के लिये अभिशप्त रहेंगे? या कि नदी में नावें चलायी जायेंगी या लोग तैरकर पार होंगे?
पर उसने महज चोंचबाजी के लिये वक्त जाया करना फिजूल समझा।
अगले दिन उसने टिन की दो बड़ी तख्तियाँ बनाईं, जिन पर मोटे हरफों में - "जरा धीरे जायें, पुल कमजोर है" लिखवाया और उसे पुल के दोनों तरफ लकड़ी के दो खूँटों के सहारे इस तरह लगा दिया कि हर आने-जाने वाले की निगाह पड़े। उसे अपनी इस युक्ति पर बड़ा चैन मिला - चलो, लोग इस पर अमल करें या न करें, पुल के कमजोर होने की धारणा तो उनमें धीरे-धीरे बनेगी, बढ़ेगी।

मगर दो दिन बाद ही उसने देखा कि तीन-चार लोग मिलकर उसे उखाड़ रहे हैं। पास में ही एक सरकारी जीप खड़ी है और उस पर कुछ लोग बैठे हैं। जब उसने उखाडने का कारण पूछा तो एक साहबनुमा आदमी उस पर बुरी तरह झल्ला पड़ा, "पहले यह बताओ, यह तख्ती लगायी किसने? कहीं तुमने तो नहीं लगायी है?"
जगदल एकदम सकपका गया, "क्यों तख्ती लगाकर क्या मैंने कोई गुनाह कर दिया है?"
"बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है तुमने। चाहें तो हम तुम पर मुकदमा चलवा कर जेल की चक्की पिसवा दें। कौन होते हो तुम पुल को कमजोर बताने वाले? हमारे विभाग को तुम जलील करना चाहते हो? लोगों में तुम खामखा की एक दहशत भरना चाहते हो?"
बहुत झिझकते हुए उसने पूछने का साहस किया, "तो क्या आपलोग मानते हैं कि पुल कमजोर नहीं है?"
"खैरियत चाहते हो तो चुपचाप दफा हो जाओ यहाँ से...।"
जगदल गर्दन झुकाये पिटे हुए मोहरे की तरह धीरे-धीरे वहाँ से खिसकने लगा। अब तक दोनों तख्तियाँ उखाड़कर नदी के पानी में गिरा दी गयी थीं। "जरा धीरे जायें पुल कमजोर है" तेजी से बहता चला गया था। जगदल कुछ दूर पर खड़े होकर निरीह भाव से एक सच्चाई को पानी में घुटते-मिटते देखता रहा था।
जगदल मानसिक-यंत्रणा के एक कठिन-व्यूह में फँस गया था मानो। तब ही दो सप्ताह बाद एक दिन अचानक मरम्मत का काम शुरू कर दिया गया। लगा कि अब काफी कुछ होकर रहेगा। पर सड़क के दोनों किनारे तीन फुट ऊँची ईंट की मात्र चिनाई करके समस्या सलटा दी गयी।

उद्देश्य सिर्फ दीवार देकर पुल का नंगापन ढक देना था, भले ही सड़क को दोनों तरफ से दस-दस इंच और सिकुड़ जाना पड़े, जबकि जरूरत थी गिरे हुए फुटपाथ की पहले ढलाई करने या उसमें नया स्लैब डालने के बाद रेलिंग बनाने की।
उसे इस बेहूदी कार्रवाई पर झुँझलाहट तो बहुत हुई, पर थोड़ी तसल्ली भी हुई कि चलो कुंभकर्णी निद्रा पर कुछ असर तो हुआ, पुल के डरावनेपन में कुछ कमी तो आयी। अन्यथा वह अक्सर सोच लिया करता था कि कहीं किसी वजह से संतुलन खोकर वह नदी में फेंका गया तो उसे तैरना भी नहीं आता।

उसके चेहरे पर अनायास थोड़ी रौनक आ गयी। मन में एक विश्वास जगने लगा कि जरूर अब इसका कोई स्थायी समाधान निकालने का कागजी उपक्रम आरंभ हो गया होगा।
राहत के दो सप्ताह ही गुजरे थे कि एक दिन तेज आँधी-पानी में रेलिंग की ईंट-ईंट अलग होकर सड़क पर फैल गयी, मानो सीमेंट की जगह गोबर से जुड़ाई कर दी गयी थी। उसके चेहरे को फिर उदासी व्यापने लगी।
दो-तीन सप्ताह बाद फिर इसमें काम लगाया गया। इस बार फुटपाथ की जगह पर शटरिंग करके ढलाई की गयी और तब पहले की तरह इसके किनारे-किनारे ईंट की रेलिंग बनायी गयी।

जगदल को इस बार काफी संतोष मिला। फुटपाथ का बनना उसे बहुत भाया। पुल अब बेहद चौड़ा दिखने लगा था। लग रहा था जैसे उसकी छाती चौड़ी हो गयी।
दुर्भाग्य कि इस अनुभूति को भी अच्छी उम्र नहीं मिल पायी। एक-सवा माह बाद पूरे का पूरा फुटपाथ नयी रेलिंग को लिये-दिये पुनः ढह गया। वह सन्न रह गया - यह क्या मजाक है। हर जरूरी पुल की चाहे वह हिन्दू-मुसलमान, अमीर-गरीब, मालिक-मजदूर, स्त्री-पुरुष या फिर शहर के दो भाग के बीच के हों, उसकी ऐसी ही फजीहत क्या सरासर एक साजिश नहीं है?

फुटपाथ और रेलिंग फिर बने और नियति के अनुसार फिर ढहे। इसी तरह कई बार बने और हर बार ढहे।
नये निर्माण के हास्यास्पद हश्र के सामने जगदल के दिलो-दिमाग में मानो भूचाल मच गया था। वह इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहा था कि यह बूढ़ा पुल अपनी आयु पुरने के वर्षों बाद भी क्षमता से कई गुणा अधिक भार वहन करते हुए अब तक टिका कैसे है?

उसमें अब एक नये पुल की इच्छा मरती-सी जान पड़ने लगी थी। बूढ़े पुल के संभावित संकट से भी कहीं एक बड़ा संकट उसे नये पुल में दिखायी देने लगा था, जैसे वह बननेवाला पुल बनने के पहले ही तुरंत टूट जाने के लिये शापित हो।

वह अब जन साधारण की तरह पुल-त्रासदी को विस्मृत कर तटस्थ व निश्चिंत हो जाना चाहता था। पर पता नहीं क्यों, उसके सपने में रोज एक पुल बनता था और ध्वस्त हो जाता था।

१५ जुलाई २०१६

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