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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से अंतरा करवड़े की कहानी- गुलाबी सर्दियाँ


कॉफी के कप से निकलती भाप रोहिणी के अन्दर का बहुत कुछ पिघला रही थी। वह बार बार कहीं पर बह जाने को होती, फिर अचानक ख्याल आता, कि कैफे में बैठी है, देखी जा सकती है। यों बहते बहते रुकना जब सहने की सीमा से बाहर हो गया, तो एक घूँट में कॉफी खत्म की और निकल गई वहाँ से।

पराये शहर में, हाँ पराया ही तो हो गया है ये एक बार फिर से। इन्हीं खत्म होती सर्दियों में, अपने पसंदीदा फरवरी में, दो साल पहले यहाँ कदम रखा था। कस्बे और शहर के बीच की परिधि में आता रोहिणी का गृहनगर, इस महानगर के सामने थोड़ा बहुत अनाड़ी ही कहा जा सकता था। पराये शहर में आई, तब उम्मीदें थीं, नयी नौकरी की उमंग थी, पहली बार स्वावलंबन का मीठा स्वाद था, सीनियर्स से सुनी हुई एक-एक सीढ़ी चढ़ने की कहानियाँ थी और उन सभी खांचों में स्वयं को बैठाने के सपने भी।

घर से निकलते समय जब माँ अपने आँसू रोक नहीं पा रही थी, तब चाची ने टोक ही तो दिया था, "सुलभा, कुछ आँसू इसकी बिदाई के वक्त के लिये भी तो रख दो! कहीं हमेशा के लिये तो नहीं जा रही है बच्ची!"
और माँ थोड़ा बहुत सम्हली थी। थोड़ा बहुत ही।
और आज, फिर वही गुनगुनी सर्दी है। चूँकि ठिठुरते दिसम्बर जनवरी ने आदत ड़ाल दी है, इसलिये पुलोवर पर जैकेट चढ़ा हुआ है। रोहिणी ने महसूस किया कि वह काफी चल चुकी है। जैकेट की चेन आधी खोली, हल्की सी हवा लगने पर, पसीने की बूँदों ने राहत महसूस की लेकिन मन की टीस फिर हरी हो गई।

पिंक स्लिप... कॉर्पोरेट गलाकाट की शिकार हुई थी रोहिणी। उसकी ही सहकर्मी, रोज साथ बैठने, खाने पीने वाली रीना ने सब कुछ जानते हुए भी उसे पॉलिसी के बदलाव को लेकर कुछ नहीं बताया जबकि उन दिनों दीदी की शादी के कारण रोहिणी छुट्टी पर थी। कुछ कागज आए भी थे स्वीकृति के लिये लेकिन उस समय काम का दबाव इतना था कि रीना के कहने पर ही उसने उन्हें स्वीकार कर हस्ताक्षर कर दिये थे। दीदी की शादी की व्यस्तता के बीच अनमने भाव से मेल खोले भी तो पॉलिसी और एग्रीमेन्ट जैसे बोझिल मेल उसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगे नहीं।

और अब, जब छुट्टी से लौटकर वो दो दिन पहले ही सबको दीदी की शादी की मिठाई खिला चुकी है, अब उसका नंबर है जैसे जुमलों पर इतरा चुकी है, उसे पता चलता है कि इस भीड़ में से उसे अलग कर दिया गया है। तुर्रा यह कि कंपनी को शिकायत करने की पात्रता वह स्वयं अपने हस्ताक्षर से ही खो चुकी है।

रीना से कुछ कहना बेमानी था। सिंगल मदर, मायके ससुराल दोनों से रिश्ता नहीं, पति का छ: माह पूर्व दुर्घटना में छोड़ जाना, इस समय अपनी नौकरी बचाए रखने के लिये उसे दोस्ती जैसी चीज क्या रोक लेती। रोहिणी चाहकर भी अपने साथ हुए इस विश्वासघात के लिये रीना को दोषी नहीं ठहरा पा रही थी।

रोजाना का ही रास्ता था लेकिन इस समय गुजरना शायद ही कभी हुआ था। मोजे टोपी में कसे फँसे बच्चे, उन्हें स्कूल छोड़ने आए हुए मम्मी पापा, दादा दादी, परीक्षाओं की तारीखों की बातें, टीचर्स की शिकायतें और शिक्षा व्यवस्था के प्रति असंतुष्टि जैसे हमेशा के स्वर प्रत्येक पीली स्कूल बस के इर्द गिर्द गूँज रहे थे।

रोहिणी को लगा कि वो जिस जीवन को जी रही है, उसके पार कितने जीवन और है! कल तो वह वाकई संजीदा हो ही गई थी कि अब दीदी के बाद उसका ही नंबर है शादी का। मन में हल्का गुलाबी फूल खिला भी था, ब्रान्च के सहकर्मी निशान्त के नाम से। सुदूर गाँव से था निशान्त। कुछ वर्षों पहले ही पास के शहर में पापा की नौकरी के चलते आ बसे थे वे लोग। लेकिन मन में गाँव, खेत, भौजी, गुझिया... सब एकदम ताजे थे। बस दो दिन की ही तो मुलाकात रही है कुल जमा। रोहिणी हेड ऑफिस में है और निशान्त ब्रान्च में। लेकिन कभी कभार किसी काम से उसके यहाँ आने जाने पर, रोहिणी से बिना काम के मिलना, उसकी मुग्ध दृष्टि से स्वयं का पिघलना, वह महसूस करने लगी थी।

मन कहाँ की उड़ान भर लेता है सचमुच! रोहिणी ने स्वयं को निशान्त के साथ गाँव में आते जाते सिर पर घूँघट डाले वाली भूमिका में भी सोच लिया था। और हाँ, वहाँ जाने के लिये बुआजी की ओर से आने वाली साड़ियाँ एकदम सही रहेंगी। बुआजी को निशान्त के बारे में पता चलेगा तो वे आते जाते रोहिणी को बैठा-बैठाकर समझाएँगी। वहाँ ऐसा नहीं बोलना, ये नहीं करना, इस तरह से नहीं चलता, ये तो करना ही पड़ता है...

चलते-चलते रोहिणी बाग के करीब आ गई थी। वसंत ने अपनी परिभाषा को सार्थक करते सारे शब्द बाग के कान में फूँक दिये थे और उन मंत्रों को बगीचे ने, वहाँ के नन्हे पौधे से लेकर विशाल वृक्ष तक को सुना रखा था। पत्तों की हरी चिकनाहट से लेकर धूप की किरणों तक में हवा के ताल पर झूमते गुलाबी, नीले, पीले, केसरी, सफेद फूलों की पलटन के लगबद्ध नर्तन को रोहिणी ने किसी अभ्यस्त राजकुमारी के समान स्वीकार किया और उस मूक मौसमी आमंत्रण का मान रखकर बगीचे के एक धुपहले कोने में बैठ गई।

जब शुरुआत में जॉईन करने से पहले इस बाग को देखा था, तब कितना सोचा था, कि यहाँ रोज आएगी, चुस्त कपड़ों में, कानों में ईयरफोन और बालों में हेयरबैन्ड लगाकर अपने शैम्पू किये हुए बालों को लहराकर जॉगिंग किया करेगी। लेकिन इस नौकरी ने कहीं का नहीं छोड़ा। सुबह उठकर तैयार होकर समय पर ऑफिस पहूँच जाना ही किसी कसरत से कम नहीं होता। वो वास्तव में लिफ्ट में ऊपर जाते समय अपना सैन्डविच खत्म करती है... थी।

टीस फिर उभर आई। अब वह बेरोजगार है, पढ़ी लिखी बेरोजगार। ऐसा नहीं है कि कोशिश करेगी तो कहीं भी कुछ नहीं होगा। लेकिन पहले से कोशिश करते हुए बेहतर नौकरी खोजकर रखना और शान से अपना त्यागपत्र देना, ये सब उसके नसीब में नहीं रहा। पहले ही झटके में घाव मिल गया। अब रिस रहा है, टीस दे रहा है। सदमा इतना गहरा था कि किसी से मिले बिना, बस अपना सामान उठाकर बाहर निकल आई।

अब तक पता नहीं कितने फोन बजे होंगे। उसने फोन को सायलेन्ट कर पर्स में रख दिया है। अब बार-बार किसी से वे ही बातें नहीं करना चाहती। उसे बता दी गई है उसकी जगह, उसे मिल गई है भरोसा करने की सजा और नौकरी के दौरान आने वाले मेल्स और साईन किये जाने वाले कागजों को ’यों ही’ ले लेने का परिणाम भी एकदम सामने है।

क्या घर पर बता दे? नहीं! एकदम से उसने ही इस संभावना के पर काट डाले। मम्मी पापा कम से कम एक महीना और दीदी की शादी और उससे जुड़े खर्चों, कामों में व्यस्त रहेंगे। चाहती तो वह भी थी कि रुककर कुछ काम तो निपटा दे। लेकिन दीदी की जिद थी, शादी होने के दो दिन बाद ही चली जाना, लेकिन आठ दिन पहले आ जा। हम चारो एक हफ्ता साथ रहेंगे, पहले जैसे।
क्या सुनहरे दिन थे, बचपन की शैतानियों को याद कर रतजगा करती दीदी! जीजाजी के फोन बाथरुम में ले जाकर सुनने वाली गुलाबी गालों वाली दीदी! और रोहिणी के गालों पर आँसू ढुलक आए। इस समय यदि उसके ऑफिस से कोई उसके सामने आ जाएगा, तो उसे कितना कमजोर समझेगा, कि इसे नौकरी से निकाल दिया है इसलिये बगीचे में अकेली बैठकर रो रही है। नहीं नहीं, वह तो एक बार फिर से अपनी प्यारी दीदी की बिदाई पर रो रही है।

फिर वह अपने आप पर ही हँसने लगी। अब वह किसी को उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं है, वह स्वतंत्र है। कितनी ही देर इस बाग में, इन फूलों को निहारते देख सकती है। उनके शोख रंगों पर, कॉलेज के दिनों के समान ही कविताएँ लिख सकती थी और... कॉलेज का आखरी दिन! ओह, रोहिणी की यही तो समस्या है, वह किसी खुशनुमा याद को जीना शुरु ही करती है और उसके अंतिम सिरे को छूने लगती है।

हल्के गुलाबी कार्डिगन के साथ पहनी हुई दीदी की मोतिया रंग की माहेश्वरी साड़ी... फेयरवेल के दिन यही परिधान था उसका। जब घर लौटने को हुई, तब मन में मिश्रित भाव थे। इतने दिनों से जुड़ चुके अनेक रिश्ते मन में डूब उतरा रहे थे। लौट ही रही थी कि दौड़ता हुआ श्रीनिवास दिखाई दिया था। उसके हाथ में रोहिणी का बैग था। वह तो पूरी तरह से भूल ही गई थी उसे।
"थैंक्यू!"
"थैंक्यू क्या? अपने सामान को संभालकर रखा करो। नहीं तो कल को कोई भी आकर इसमें अपना सामान रख देगा।"
"अब कोई इसमें सामान रख भी दे तो क्या करना है, वापस कॉलेज तो आना नहीं है।" रोहिणी ने मासूमियत से कहा था।
"कॉलेज के आगे ही तो जिंदगी शुरु होती है, है ना?" श्रीनिवास ने ये कहते हुए सीधे रोहिणी की आँखों में झाँका था, और अपनी आँखों से इतना कुछ कह दिया था, कि रोहिणी क्षण भर को स्तब्ध रह गई। अपने आप को संभालते हुए उसने हल्के से ’बाय’ कहा, पता नहीं उसने सुना या नहीं, लेकिन वह निकल आई थी वहाँ से।

और फिर अपने कमरे में जाकर किताबें दराज में रखने के लिये बैग खोला ही था, कि उसमें से श्रीनिवास की आँखों में कहा गया काफी कुछ फूल, पत्र और एक सॉफ्ट टॉय जैसे लाल मखमली दिल के आकार के खिलौने के रुप में मौजूद पाया। रोहिणी ने श्रीनिवास को कभी गंभीरता से नहीं लिया था। संस्कृति में ही इतना फर्क था, सोच में और वैचारिक स्तर में भी। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता, रोहिणी तो इस क्षण को जी लेना चाहती थी। उसे भी कोई टूटकर प्रेम करता है, किसी के लिये वह पूरा संसार है! इस फूल को खरीदते हुए, काँपते हाथों से बैग में रखते हुए, सॉफ्ट टॉय को चुनते हुए, इस पत्र को लिखते हुए, उस लड़के के मन में पूरे समय रोहिणी के ही तो विचार होंगे। ओह, तो एक लड़के ने अपने प्रेम का इजहार किया है उसके सामने, उसका तो जीवन सार्थक हो गया। अब ये बात दूसरी है कि उसे वह स्वीकार करे या नहीं। कितनी खुश हुई थी रोहिणी उस दिन!

उम्र के उस दौर की नन्हीं आकांक्षाओं की पूर्ति और खुशी के नन्हे पैमानों पर, आज की नौकरीशुदा रोहिणी मुस्कुरा रही थी। देखा जाए, तो ये मौसम, ये जगह और खिले फूलों से सजा ये बगीचा, इस प्रकार की यादों की जुगाली के लिये कितना आदर्श है! कुछ घन्टों पहले ही रोहिणी का सामना जीवन के एक कटु सत्य से हुआ है लेकिन इस समय वह उस चोट को सहते हुए भी कुछ मखमली यादों को जीते हुए खुश हो पा रही है, तो निश्चय ही, वसंत ऋतु उसे सहला रही है, ये सुनहरी धूप वाला फरवरी उसे प्यारा सा दुशाला ओढ़ा रहा है। उसे तो खुश होना चाहिये।

रोहिणी के मन में जैसे यादों का सैलाब बह चला था। यही फरवरी का साफ नीला आकाश था जब ऑफिस की पिकनिक गई थी पिछले साल। और वहीं पर एक कॉर्पोरेट गेम खेलने के दौरान टीम बनाई गई थी लॉटरी से। उसके साथ था निशान्त का नाम। लंबा और आकर्षक निशान्त खुशनुमा साथी के रुप में किसी को भी पसंद आ जाए ऐसा ही था। अलग अलग इवेन्ट्स में, प्रतियोगिताओं में, क्विज में और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अब उन दोनों को ही एक टीम के रुप में काम करना था। जाहिर सी बात थी, दोनों के पास दो दिन साथ बिताने को भरपूर समय था। निशान्त के सामान्य ज्ञान की तो वह मुरीद हो गई थी और रही बात खेल और सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं की, तो वहाँ पर रोहिणी पहले से ही बेहतर थी। उन प्रतियोगिताओं के बहाने दोनों की आपसी समझ की परख भी हो गई थी। इस दौरान नृत्य के लिये तैयार होते समय उसकी पोशाक के साथ उसे सहज करने में समझदारी से मदद करने वाला निशान्त वास्तव में उसके मन में बस गया था। इतनी देखभाल, इतने अपनेपन से? इसमें हक भी था और सुरक्षा का आश्वासन भी। रोहिणी वास्तव में अंदर तक भीग गई थी।

दोनों में परिवार की, गाँव की, परंपराओं की, घरेलू से लेकर अर्थव्यवस्था और कंपनी की अन्दरुनी राजनीति को लेकर भी चर्चा हुई। रोहिणी से तीन साल सीनियर निशान्त को भी पहले पोस्टिंग इस हेड ऑफिस में ही मिली थी, लेकिन कुछ महीनों में ही यहाँ की राजनीति से बचकर रहने के लिये उसने अपनी पोस्टिंग ब्रान्च में करवा ली थी। उस समय और उसके बाद भी शायद निशान्त उसे अप्रत्यक्ष रुप से यह सब बताना चाह रहा होगा। अचानक रोहिणी को वह सब कुछ याद आया।

"यहाँ हेड ऑफिस में कोई किसी का नहीं होता। रोज आपके साथ उठने बैठने वाले ही कब आपकी कुर्सी खींच लेंगे, पता ही नहीं चलेगा।" ये निशान्त के ही तो शब्द थे।
तो क्या वह निशान्त को फोन लगा ले? वह तो उसके ऑफिस का कर्मचारी भी नहीं है। वैसे तो वह उससे बात करने के सैकड़ों बहाने खोजती रहती है लेकिन यह उसकी ओर से पहल हो रही है ऐसा न लगे, इसलिये स्वयं को रोकती भी रही है। लेकिन आज... नहीं आज रुकने का कोई कारण ही नहीं है।
हड़बड़ाकर पर्स में से फोन निकाला। निशान्त के सात मिस्ड कॉल दिखे। मन को चैन मिला। अनजाने ही आँखों से दो बून्दें टपक पड़ी। तो क्या निशान्त को पता था? अभ्यस्त हाथों से फोन मिलाया।
"हो कहाँ पर?" हैलो से भी पहले यही सुनाई दिया।
"बस यहीं पर हूँ।" अटक अटक कर बोलने का प्रयास किया रोहिणी ने।
"सुबह मेल दिखा तो समझ में आ गया कि एक बार फिर बलि का बकरा बनाया है। हाफ डे लेकर निकला जल्दी से। तुम्हारी बिल्डिंग में भी जाकर आया, तो चौकीदार ने बताया कि मैडम आई नहीं लौटकर। तब से फोन लगा रहा हूं।" निशान्त ने हडबड़ी में सब कुछ कह दिया, कुछ शब्दों में, कुछ तेज साँसों में।

रोहिणी को लगा, कि कोई अपना यदि मिलने आने वाला हो, तो मिजाजपुर्सी या मातमपुर्सी का बहाना भी प्यारा लगने लगता है। वह मुग्ध होकर सुनती रही उसकी बातों को। कंपनी की राजनीति की बातें, उसे कैसे टारगेट कर बाहर किया गया है इसकी बातें। अपने खिलाफ होने वाले इस षडयंत्र को सुनकर भी, आश्चर्य है कि रोहिणी को गुस्सा नहीं आया। शायद ये सब निशान्त कह रहा था इसलिये।

निशान्त खास उससे मिलकर इस राजनीति के लिये आगाह करने, पिछले दिनों हेड ऑफिस आया भी था लेकिन पता चला रोहिणी छुट्टी पर है।
"अरे, मुझे तो किसी ने नहीं बताया।" रोहिणी ने कहा।
"वो सब छोड़ो, इस समय कहाँ हो?" निशान्त ने अधीर होकर पूछा।
रोहिणी ने बगीचे का कोना बताया।
"आ रहा हूँ, वहीं इंतजार करना" निशान्त ने पूरे हक से कहा।
रोहिणी को लगा जैसे आज वह इस बाग में आई ही इसलिये है, कि वर्ष भर में जो बातें निशान्त से नहीं कह पाई, उनके लिये इससे बेहतर दिन हो ही नहीं सकता। उसे नौकरी से निकाल दिये जाने का दुख एकदम कम हो चला था। हे ईश्वर, कैसी विड़ंबना है, जो मैं चाहती हूँ, वह इस तरीके से मिल रहा है।

सुहानी धूप अब खुशनुमा लग रही थी। रोहिणी को अचानक ख्याल आया और उसने पर्स में से आईना निकालकर देखा। चेहरे का तो भुर्ता बना हुआ था। जल्दी से क्रीम लगाई, कंघी फेरी और स्वयं को संयत करने के प्रयास में ही थी, कि सामने से निशान्त आता दिखाई दिया।
उसके हाथ में फूल नहीं थे, लेकिन आँखों में बहुत कुछ खिला हुआ था। रोहिणी को लगा, कि निशान्त को इस तरह से वसंत के मौसम में, खिले फूलों से भरे इस बगीचे के सबसे ज्यादा खूबसूरत रास्ते से अपनी ओर आते हुए, वह लंबे समय तक देखना चाहती है। वह कोई नाटक नहीं कर पाई यह कहने का कि निशान्त ने यह मिलने की औपचारिकता क्यों की! उसे सामने पाते ही जैसे सुबह से अब तक का बाँधकर रखा हुआ प्रवाह फूट पड़ा। वह सिसकियाँ भर भरकर रोने लगी। निशांत ने उसे फिर उतने ही शालीन स्पर्श के साथ संभालकर बैठाया, शांत किया।
वह बैठकर रीना को, सहकर्मियों को, बॉस को और कंपनी को भी कोसती रही। मन की सारी भड़ास निकालती रही। घरवालों से क्या कहेगी, अब क्या करेगी और कहाँ जाएगी!

निशान्त सुनता रहा! समझाता रहा, रोहिणी बहती रही।
थोड़ी शांत हो जाने के बाद निशान्त ने उसे धीरे से बताया, कि उसके कुछ दोस्तों ने एक स्टार्ट अप शुरु किया है और पिछले हफ्ते ही उसे एक बड़ा फायनान्सर मिला है। वहाँ एक अच्छी पोस्ट के लिये वह रोहिणी का नाम पहले ही दे चुका है। इसी शहर में जॉब रहेगा, वेतन फिलहाल से पच्चीस प्रतिशत ज्यादा और इंटरव्यू की बस एक औपचारिकता।
रोहिणी को कुछ समय तक तो कुछ सूझा ही नही, समझ में ही नहीं आया कि निशान्त कह क्या रहा है। वास्तव में उसे खुश होना चाहिये था, लेकिन दुख और आनंद के इन मिले जुले भावों से अचानक वह सामंजस्य नहीं बैठा पा रही थी।

इन दोनों को बाग के इस एकांत कोने में इस तरह घंटे भर से भी अधिक समय से बैठे हुए देखकर बिना किसी कारण चौकीदार वहाँ पर ज्यादा आवाजाही करने लगा था।
निशान्त ने स्थिति की गंभीरता को समझा और रोहिणी से कहा, "कहीं ड्राईव पर चलें?"
बाईक पर निशान्त के पीछे बैठकर रोहिणी ने वस्तुस्थिति को समझा। अब उसके पास नौकरी भी थी, पहले से अच्छी वाली। उसे घर पर यह नहीं बताना था कि उसे पिंक स्लिप मिली है, बताना यह है, कि उसने पहले ही यहाँ इंटरव्यू दिया था और बेहतर काम के सिलसिले में यह नौकरी छोड़ी है। रही बात रीना की, तो शायद वह सबसे क्यूट विलेन होगी इस कहानी की, सोचते हुए अचानक रोहिणी मुस्कुरा उठी। सिग्नल आया, अचानक ब्रेक लगने से उसे सम्हलना पड़ा।

"अरे, सॉरी, ठीक तो हो? मैं कुछ सोचने लगा था अचानक! ध्यान नहीं रहा।" निशान्त का स्वर उभरा। बिल्कुल वही अन्दाज, उतनी ही चिन्ता, जो साल भर पहले इन्हीं दिनों में कहे गये शब्दों में थी। रोहिणी को लगा, इस बार के वसंत को तो बाँध ही लेना है मन की पोटली में। अचानक ही तो होता आया है उसके जीवन में सब कुछ।
और उसने बेधड़क पूछ ही लिया,
"निशान्त, ये नया जॉब शुरु करने से पहले, अपने गाँव में ले चलोगे मुझे?"
निशान्त ने अचानक ब्रेक लगाया। दोनों गिरते गिरते बचे। अच्छा था कि हाय-वे से अलग सुनसान सड़क पर थे दोनों।
"गाँव चलोगी मेरे साथ?"
निशान्त ने पीछे मुड़कर देखा, रोहिणी की आँखों में गुलाबी फूल खिले हुए थे। इन्हीं क्षणों की कल्पना में तो उसने खुद भी ये साल गुजारा था। आज भी पूरे हक से उससे अकेले मिलने इस विश्वास पर ही पहुँच गया था।
निशान्त भी कोई कम नही था। छूटते ही उसकी आँखों में आँखें डालकर बोला,
"वहाँ पर बहुओं को सिर ढँककर चलता पड़ता है! निभा पाओगी?"
और रोहिणी को लगा, कि आस पास के सारे रंगीन फूल टूटकर उसकी झोली में गिरते जा रहे हैं, बस गुलाबी फूलों का रंग उसके गालों से चिपककर रह गया था।
जाती सर्दियों को यों ही तो गुलाबी नहीं कहा जाता।

१ फरवरी २०२२

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