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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से शुभदा मिश्र की कहानी- आ ही गयो री फागुन त्योहार


चारों ओर ढोल ढमाके...नगाड़ों की ध्वनियाँ सुनाई देने लगी थीं। बाजार तरह तरह के रंगों, गुलालों, पिचकारियों, टोपियों, मुखौटों से सजने लगे थे। दुकानो के सामने टँगी आकर्षक पोशाकें लोगों को लुभा रही थीं। घर घर बन रहे परंपरागत व्यंजनों की खुशबू बच्चे बूढ़े, जवान सबको मस्त कर रही थी। फिजा में रह रह कर उभरती सरगोशियाँ, खिल खिल करती दबी.दबी हँसी, चमकती आँखे और शरारत भरी मुस्कुराहटें बता रही थीं कि ननद-भाभी, देवर-भौजाई, सखि-सहेलियाँ, यार-दोस्त इस बार जमकर छकाने वाले हैं एक दूसरे को। सारी फिजा में मानो शरारतों भरी हवाएँ मचल रही थीं। दिलों में शोख अरमानों के वलवले उठाता मस्ती भरा फागुन त्योहार चला आ रहा था...
मगर वह मन ही मन आशंकाओं में डूब उतरा रही थी...कहीं इस बार की होली भी इस घर की मनहूसियत के आगे मात न खा जाए।
कंकड़बाग चलोगे क्या जी?...उसने डरते डरते पति से पूछा।

कंकड़बाग यानी उसकी ससुराल। उसके पति का घर। मात्र वही जगह है, जहाँ जाकर उसके पति के कठुआए, पथराए, जिस्म में जीवन संचार होता था। जीवन संचार ही नही, उत्साह, उमंग, आनंद, बल्कि परमानंद में डूब जाता था उसका पति। इसीसे उसने मन ही मन सोचा, अगर वहीं जाने से इस आदमी को खुशी मिलती है तो वहीं जाया जाए। आखिर पत्नी को बिना बताए तो वहाँ जाता ही है। पति के कंकड़बाग जाने से उसे कोई एतराज नही। आखिर वहाँ उसके मातापिता हैं, भाई बहन हैं। उनके बीच हँसता-हँसाता, चहकता, मस्तियाता रहता है। मगर इस घर में? पत्नी के साथ? या तो घृणा में उबलता रहेगा, या अपनी घृणा को किसी तरह दबाए, गले तक भरा बैठा रहता है...टी.वी. देखता या कंप्यूटर में आँखें गड़ाए।

वैसे पत्नी ही नहीं, सारी दुनिया से घृणा करता दिखता वह तो, एक कंकड़बाग वाले अपने घर को छोड़कर। शुरू शुरू में वह साहसकर पूछ बैठी थी...तुम्हारे कोई मित्र नहीं हैं क्या जी?
मित्र? उसके तेवर तन गए थे...मेरे मित्रों के बारे में तुम्हें क्यों रुचि है?
नहीं जी, सब आदमियों के मित्र होते हैं न इसीसे...
मित्र नहीं होते सिर्फ ढकोसला होता है। अभी मैं चार पाँच मित्र बना लूँ...आयेंगे, बैठेंगे, चाय पीयेंगे। भाभीजी भाभीजी करते तुमसे लिफ्ट लेंगे। तुम्हारे जैसी मूर्खा को हथिया लेंगे और एक दिन मुझे ही मेरे घर से बाहर खदेड़ देंगे। आज के ही अखबार में देखा नहीं, डाँक्टर सिन्हा के घर की डकैती में उनके ही जिगरी दोस्त का हाथ था। नारायण बाबू के लड़के का अपहरण उनके ही दोस्त ने करवाया था। शरण साहब...
“मैं तो कह रही थी,...पत्नी मिमियाने लगी...तुम्हारे बचपन का पढ़ने लिखनेवाला कोई मासूम सा दोस्त...”
“मेरे बचपन में कोई लड़का मासूम था ही नहीं। सब शातिर थे। पैदायशी। एक वह अभिषेक था। आजकल पुलिस आफिसर है। नामी स्मगलर की बेटी से शादी की है। रुपया पैसा, रौब दाब, अपराधियों से साँठ-गाँठ, शातिरों का शातिर है वह। दूसरा वह सुधीर, डाक्टर है। पिछले दिनो किडनी रैकेट में पकड़ा गया। तीसरा...

पत्नी की घिग्घी बँध गई। अब वह भूलकर भी किसी दोस्त का जिक्र न करती। मगर कभी कभी ताज्जुब करती, कोई पुराना सहपाठी इसे भूले भटके याद भी नहीं करता। उसके संबंधियों, रिश्तेदारों के बारे में बात करना तो और भी खतरनाक था। वह अपनी कर्णकटु आवाज में हर किसी के अवैध संबंधों एवं अवैध करतूतों के वह सनसनीखेज किस्से सुनाता कि पत्नी के दिमाग की नसें तड़कने लगतीं। रिश्तेदारों में मात्र एक बार उसकी काकी उसके घर आई थीं। मगर वह अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकला। बबुआ... बबुआ करती काकी स्वयं ही उसके कमरे में चली गई थीं। मगर वह बोला ही नहीं। पत्नी का दिल भर आया। उसने काकीसास का भावभीना सत्कार किया। उगर उसके जाते ही वह घिन से बमकने लगा...” अभी यह औरत मुझे बबुआ..बबुआ कर रही थी। जब मैं छोटा था, मुझे अवैध संबंधों के लिये उकसाती थी...फ्रॅाड..निंफ...”

“क्या तुम्हारा कोई भी रिश्तेदार शरीफ नहीं है जी...कातर स्वर में वह पूछ बैठी थी।”
“कह तो रहा हूँ, घर में घुसने देने लायक नहीं हैं”..वह कड़का।
“तुम्हारे आफिस में कोई.”...डरते डरते उसके मुँह से निकल ही गया।
“सब एक से एक हरामी बैठे हैं।”
वह थर्रा गई। अब आफिस वालों का कच्चा चिट्ठा न शुरू कर दे।
पड़ोसियों को वह वैसे भी नागनाथ..साँपनाथ कहता था। कभी उनसे सीधे मुँह बात न करता। किसी और विषय पर भी बात करना खतरनाक ही था।

पति टी.वी. में मैच देख रहा है। बतियाने के लालच में वह पूछ बैठी, “इंडिया कैसा खेल रहा है जी?”
“जूते खा रहा है।”
हमारे किसी खिलाड़ी को कोई मेडल?”
“एक को काँस्य मिला है, उम्मीद है छिन जाएगा।”
“आज श्री हरिकोटा से अपना उपग्रह छूटनेवाला था जी।”
“बंगाल की खाड़ी में गिर गया।”
बरसों तरह तरह के प्रयास करने के बाद वह हार मान चुकी थी। इस दमघोंटू सजा के साथ एक और प्रताड़ना भी थी। वह चाहता कि पत्नी भी अपने लोगों के बारे में वैसी ही कुत्सित बातें बताए जैसा वह अपने लोगों के बारे में कहता है। कई बार वह खोद-खोद कर पूछता। वांछित उत्तर न मिलने पर अपार क्रोध से भर जाता। इसी से पति के न बोलने को ही वह खैरियत समझती। कभी-कभी मन बहुत व्याकुल हो जाता किसी से बोलने बतियाने के लिये, तो पति के आफिस जाने के बाद किसी पड़ोसिन के घर चली जाती। मगर फिर पड़ोसिन भी मिलने आ जाती। बस, जी का काल हो जाता। पड़ोसिन के सामने पत्नी से टर्र टर्र करना, झिड़कना, डाँटना, उसके मायके वालों की बखिया उधेड़ना... “बड़े मक्कार लोग हैं, इसे कभी लेने तक नहीं आते। इसकी बहने तो मुझपर डोरे डालती हैं।”

एक एक शब्द जैसे जेहन में दनादन पड़ते संघातक हथोड़े। कहाँ तक विरोध करे नीचता में डूबी इतनी झूठी बातों का।
खामोशी से दिन बीतता। खामोशी से रात। इस दमघोंटू खामोशी से उबरने के लिये वह सूने घर मे अकेले पुराने दर्द भरे गीत गाती। मायके वाले उससे कन्नीकाट चुके थे। दूसरा कोई सहारा न दिखता। कभी-कभी अकेले में फोन में अपनी पुरानी सहेलियों से अपना हाल बताती। वे जो सलाहें देतीं, वे इस अमानुष पर कारगार नहीं हो सकती थीं। विक्षिप्त सी एक दिन वह पुलिसथाने ही चली गई। बताया, जलने मरने जैसी स्थिति होने के कारण ससुर ने ही उन दोनों के अलग रहने की व्यवस्था कर दी पर...

सहृदय महिला पुलिस अधिकारी ने सब बातें ध्यान से सुनी। बोली...देखिये वह आपको मारते पीटते नहीं हैं। पियक्कड़ या औरतबाज नहीं हैं। पैसे संबंधी कोई झंझट नहीं है। हम लोग भी परिवार तोड़ना ठीक नहीं समझते। परेशानी आपको सिर्फ उनकी मानसिकता को लेकर है। किसी तरह उसे बदलिये। किसी मनोवैज्ञानिक से मिलिये। कहीं दूर तबादला करा लीजिये। कहीं घुमाने फिराने ले जाईये।
कहीं नहीं जाना चाहते। किसी से नहीं मिलना चाहते। मनोवैज्ञानिक की तो बात करना खतरा मोल लेना है। सिर्फ एक ही जगह जाते हैं, अपने माता पिता के घर। वहीं इनके पथराए शरीर में जैसे जान आ जाती है।
तो जाने दीजिए। आप भी साथ जाईये। भले वे लोग आपको पसंद नहीं करते,पर ये तो खुश रहते हैं न वहाँ। खुश रहेंगे तो आपके साथ भी कुछ अच्छा व्यवहार करने लगेंगे। आपको कुछ दिन तो एक सामान्य जिंदगी के मिल जायेंगे। उसे ही होशियारी से बढ़ाईये। एक बच्चा हो जाए तो बहुत बदल जायेंगे। कोशिश कीजिये कि कोई ननद वगैरह आपकी हमदर्द हो जाए।

तब से वह पति को कंकड़बाग जाने के लिये स्वयं उकसाती रहती थी। होली आ रही है सो उसने डरते डरते कोमल स्वर में पूछा...कंकड़बाग चलोगे जी होली में?
पति ने उसका इरादा सूंघ लिया था। बोला...वहाँ जाकर भी क्या होगा। दरवाजा बंद कर बैठे रहो। पुए पुड़ी खाते रहो।
यहाँ घर में रहोगे तो कोई होली खेलने न आ जाए, इसी से...
“आएगा तो देख लेंगे”...उस चूहड़ से आदमी ने जवांमर्दी दिखाई।
आ ही गई होली की सुबह। हवा में मादकता। मस्ती। चारों ओर उभरती हुई सरगोशियाँ। दबी दबी खिलखिलाहटें, शरारती नजरें। मगर उसके लिये वही मनहूस जिंदगी। दिलेरी से स्वीकार कर लिया है उसने जीने के लिये। नित्यकर्म से निपट उसने चाय तैयार की। मेज पर लगाई। पति ने आकर चाय पी। एकाध बिस्कुट खाया। अखबार पढ़ते-पढ़ते अपने कमरे में चला गया।

नहा-धोकर वह पूजाकक्ष में चली गई। पूजा समाप्तकर किचन में। सब्जी बनाई आलू गोभी मटर की। फिर पूरियाँ छानी। फिर दूध के पुए जैसे कंकड़बाग में बनाए जाते हैं, छानने लगी। फिर पति के कमरे में आकर अत्यंत मीठे स्वर में बोली...पुए छान रही हूँ, खाओगे क्या जी?
पति ठस बैठा रहा। मझोले कद का भारी शरीर का पिलपिला सा आदमी। कद्दू जैसा मुँह फुलाए। देखते ही घिन आए। खैर किसी तरह खाने की मेज पर आया। मानो भारी अहसान किया। एक दो पुए गिदोल गिदोल कर खाया, मानो अहसान कर रहा हो। फिर मुँह फुलाए अपने कमरे में।

बाहर होली का शोर उभरने लगा था। जवान खिलखिलाहटें तेज होती करीब आ रही थीं। उसके भीतर की वह सदाबहार, खिलंदड़ी लड़की सौ-सौ बार मरकर भी जी उठती थी। वह लपककर बैठक में गई। बंद खिड़की से सटकर खड़ी हो, पर्दा जरा खिसकाकर शीशे के उसपार देखने लगी- रंग में सराबोर युवा लड़कियों का एक दल हँसता, खिलखिलाता, धमाल मचाता चला जा रहा था। कुछ ही देर मे युवा लड़कों के दल भूत बने मस्ती में गाते बजाते, एक दूसरे पर मिट्टी तारकोल लगाते, हुड़दंग मचाते गुजरने लगे।

और कुछ देर बाद गुजरा पुरुषों का दल। रंग गुलाल से सराबोर। एक दूसरे की खिंचाई करता। ठहाके पर ठहाके लगाता। परिचितों के घर के सामने खड़े होकर पूरी बुलंदी से आवाजें लगाता... “अरे ओ लालबाबू, निकलिये बाहर। नहीं, घर में घुस जाएँगे हम।” लाल साहब बाहर निकलते तो पहले बाल्टी भर रंग डालकर सराबोर किया जाता। फिर गुलाल लगाकर दो-चार धौल धप्पे, चुनिंदा गालियाँ। फिर सब गले मिलते और उन्हें अपनी टोली में शामिल कर आगे बढ़ जाते।
वह मन ही मन डरने लगी, सामने का दरवाजा तो बंद है। कहीं कोई टोली आकर भड़भड़ाने लगे तो...? यह आदमी तो दो-चार मर्दों के सामने बैठकर ठीक से बात नहीं कर सकता। इतने इतने उन्मत्त मर्दों के साथ इसकी क्या दशा होगी। दुर्गति कराकर आएगा, तो उसे गाली बक-बककर नरक कर देगा आज का दिन।

ग्यारह बजे के करीब आस पास के सब पड़ोसी भी होली खेलने लगे। कभी वह इस कमरे की खिड़की से झाँकती तो कभी उस कमरे की खिड़की से। प्रबोधचंद्र और उसकी पत्नी अपने बगलवाले पड़ोसी की खूब हुलिया बिगाड़ रहे हैं। नारायण बाबू की भारी भरकम पत्नी को लोग कुदा-कुदाकर रंग पोत रहे हैं। भूत बने नारायण बाबू हाथ जोड़ रहे हैं... “देखिये, उसकी तबियत सच में बहुत खराब है। बस कीजिये।”
उधर सहाय साहब के घर का पूरा हाता लाल, नीले, हरे, जामुनी रंगों से भर गया है। फिजा में चारो ओर इंद्रधनुषी रंग बिखर गए हैं। रह रहकर शरारती शोर उभर रहा है... “बुरा न मानो होली है...।”
शायद कोई पड़ोसी उसका भी दरवाजा खटखटा दे। शायद कोई महिला ही। इसी निरीह आशा में उसने भी चुपके से थोड़ा सा रंग लाकर रखा हुआ है।

इस घर में किसी ने घुसने की हिम्मत नहीं की... पिलपिले राम दंभ से कह रहे थे।
उसका जी दुख गया। सारे मुल्क को उल्लास के रंग में सराबोर करने वाला त्योहार उसके घर में दो छींटे तक नहीं डाल पाया।
उससे रहा नहीं गया। उसने एक मग में गाढ़ा लाल रंग घोला। दोनो हथेलियों में गाढ़ा लाल रंग लगाकर पति के कमरे में पहुँची। पति टी.वी. देखता बैठा था। पीछे से जाकर उसने पति के दोनो गालों पर कसकर रंग मल दिया और मग का सारा रंग उसपर उड़ेल दिया।
“यह क्या बेहूदगी है...पति एकदम भड़क उठा... घर में भी चैन नहीं।” घृणा से फुफकारता वह बाथरूम में चला गया।
वह बुरी तरह डर गई। अब बकेगा एक से एक गंदी गालियाँ। फौरन दौड़कर किचन में गई। पानी गर्म किया। गर्म पानी का पतीला लाकर बाथरूम के दरवाजे पर रखा। मधुर स्वर में बोली... पानी ले लेते जी। बाथरूम का दरवाजा जरा सा खोलकर उसने गर्म पानी लिया। नहाया। वह धन्य हुई। तत्क्षण धुला हुआ कुर्ता पाजामा लाकर दिया। पति ने ले लिया। उसने राहत की साँस ली। पति के कपड़े पहनकर अपने कमरे में जाते ही गर्म चाय का प्याला लेकर गई। मनुहार से बोली... चाय ले लेते जी। फूले मुँह से किसी तरह फूटा, “रख दो।” पास की तिपाई पर चाय रखकर वह आ गई। कुछ देर बाद उधर से गुजरी तो देखा, चाय वैसे ही रखी हुई है। पति कुर्सी में मुँह गड़ाए ऐसे बैठा है, जैसे कोई मर गया हो।
एक...दो...तीन...चार...पाँच बजने को हुए। पति वैसा ही बैठा रहा। मातमी चेहरा गड़ाए। वह अपने कमरे में जाकर लेट गई। जीने की हिम्मत जुटाती।

शाम उतर आई। रंगों वाली होली खत्म हुई। अब लोग खूबसूरत पोशाकों में सज-धजकर होली मिलन के लिये एक दूसरे के घर आ जा रहे थे। वह फिर बंद खिड़कियों से लपक लपककर झांकने लगी। सामने वाले वयोवृद्ध डाक्टर दंपत्ति अपने बगलवाले परिवार में आए हुए हैं। सब गले मिल रहे हैं। एक दूसरे को गुलाल के टीके लगा रहे हैं। बुजुर्गों के पैर छू रहे हैं। आशीर्वाद ले रहे हैं। उसके बगलवाले प्रसादजी के घर उनके भाई-भाभी अनेक रिश्तेदार आए हुए हैं। श्रीमती प्रसाद ने ढेरों पकवान बनाए हैं। उधरवाले प्रकाशचंद्रजी के घर तो आने-जाने वालों का ताँता लगा हुआ है। चारों ओर उल्लास, उमंग, रौनक, जिंदादिली...कि उसके घर की दरवाजे की घंटी बजी। उसका दिल उछला। हाँ, उसके घर भी कोई आया। जरूर किसी पड़ोसिन को दया आई होगी। उसके पति का स्वाभाव जानते हुए भी हिम्मत कर आ ही गई। दरवाजा खोला तो सामने देवर सुनील खड़ा था। हाथ में बड़ा सा टिफिन लिए हुए।
“आप लोग आए नहीं होली में.”..बड़बड़ाता हुआ वह सीधा अपने भाई के कमरे में चला गया... “घर में सब इंतजार कर रहे थे।”
वह लपककर किचन में गई। प्लेटें, चम्मच और कटोरियाँ ले आई। टिफिन खोलकर सास के भेजे हुए पुए, पुड़ी, खीर सब दोनो भाईयों को परोस दिए।

सुनील को देखते ही पति की सारी मनहूसियत गायब हो चुकी थी। आँखों में पानी छलक आया था। वह गदगद होकर माँ के भेजे हुए पुए-पुड़ी खा रहा था। रह रहकर भाई के सिर पर हाथ फेर रहा था। सहसा उसका मन हुलसा गया... “क्यों न इस सुनील के साथ ही होली खेल ले।” एक बड़े मग में गाढ़ा लाल रंग घोलकर मग लिए वह पति के कमरे के पास जाकर दुबक गई, अब सुनील बाहर निकले तो...

मगर भीतर सुनील तो अपने भाई से बतिया रहा था...माँ कह रही थी.... “वह डायन नहीं आने देती होगी बेचारे बबुआ को। जा तू ही यह टिफिन ले जा। अपने सामने बैठाकर खिलाना उसे।”
उसकी छाती में घूँसा लगा। सर्वांग थरथरा गया। किसी तरह जाकर बालकनी मे रखी कुर्सी पर धँस गई। मुँह गड़ाए।
अवसाद की गहराईयों में डूबी वह मुँह गड़ाए बैठी ही रही। नीचे सड़क पर लोग खुशगवार मुद्रा में लगातार आ जा रहे थे। होली मिलन की मधुमय बेला।

सहसा उसका ध्यान गया। एक प्रौढ़ सज्जन झक सफेद कुर्ते पाजामें में सजे, दो सुंदर सजीले नन्हे बालकों के साथ जा रहे थे। अवसाद में डूबी अकेली बैठी महिला को वे लोग कौतुक से देखे जा रहे थे। बालक उसकी ओर बार बार देखते सज्जन से कुछ पूछ भी रहे थे। उसे गुस्सा आ गया। हम अपने घर में दुख में डूबे बैठे हैं तो तुम्हारे लिए अजूबा हो गए। उसने आँखें तरेर कर एक बालक की तरफ देखा। बालक ठमककर खड़ा हो गया। उसने भी कमर पर दोनो हाथ रखकर आँखें तरेर कर उसे देखा। वह अकबक। भिन्नाकर उसने पास रखे मग का सारा रंग उसकी तरफ उछाल दिया। लाल लाल रंग सज्जन के कुर्ते में भदभदाकर गिर गया। बालकों के कपड़ों पर भी बड़े-बड़े लाल छींटे पड़ गए।

बालक ने भी आव देखा न ताव। जवाबी हमले के लिए सज्जन के हाथ से गुलाल का पैकेट लेकर उसकी तरफ दे मारा। पैकेट दन से उसके पैरों के आगे गिरा और फट गया। गुलाल उसके पैरों पर बिखर गया। उसने पैकेट उठा लिया। मजा चखाने के भाव से आँखे तरेर सिर हिलाते वह बच्चों की तरफ देखने लगी। बच्चे खिलखिला रहे थे। सज्जन पेशोपेश में। उसे कुछ लगा। उसने पैकेट से एक चुटकी गुलाल अपने माथे पर लगाया और पैकेट उछाल दिया बच्चों की तरफ। फटे हुए पैकेट से झरता हुआ गुलाल फिजा में चारें ओर रंगीन छटा बिखेरता गिरने लगा। बच्चे पैकेट लेने लपके। मगर सज्जन ने पैकेट लपक लिया। एक चुटकी गुलाल लेकर दोनो बच्चों के माथे पर लगाया। फिर एक चुटकी अपने माथे पर भी लगाया। उसकी तरफ देखकर सस्नेह मुस्कराए। हाथ जोड़े और आगे बढ़ गए।

उनका इस तरह उसके फेंके गुलाल के पैकेट से बच्चों को टीका लगाना, खुद के माथे पर टीका लगाना, सस्नेह मुस्कुराकर हाथ जोड़ना, उसकी छाती भर आई।
बच्चे भी हाथ हिलाते हँसते आगे बढ़ने लगे... “होली मुबारक आंटी...होली मुबारक...
उसका सारा अवसाद जाने कहाँ छू हो गया था। एक प्यारी सी खुशी ने सिर से पाँव तक सराबोर कर दिया था उसे। मनहूसियत की तमाम परतों को एक ही झटके में उखाड़कर शरारती फागुन त्योहार आ ही गया था उसके द्वारे...।

१ मार्च २०२३

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