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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से राजवंत राज की कहानी- जूड़े वाला क्लिप


किसी ने बड़े भाई की तरह घुड़का नहीं, मेरा फोन चेक नहीं किया, पीठ पर धप्प से धौल नहीं जमाई, झूठा रुआब भी नहीं झाड़ा, माँ पापा से छुपा कर लड़कियों से की गई दोस्ती की तमाम सच्ची झूठी कहानी सुनाई ही नहीँ क्योंकि मेरा कोई भाई था ही नहीं। पेन के लिये, क्लिप के लिये, कंघी, कपड़ों, जूते, चप्पलों की खातिर, या फिर मैगजीन पहले पढ़ने के लिये कभी किसी से झगड़ा कर ही नहीं पाई क्योंकि मेरी कोई बहन भी थी ही नहीँ। ये दोनों रिश्ते मेरे नजदीक सिर्फ रिसालों तक ही महफूज रहे। इन रिश्तों के दरम्यान होने वाली नोक - झोंक मेरे हिस्से कभी आई ही नहीं थी। माँ पापा के एक्सीडेंट के बाद मेरे इर्द गिर्द पसरा सन्नाटा घर शब्द के एहसास को मानो निगल ही चुका था कि तभी अनु ने मेरी जिंदगी में दस्तक दी। एक मर्द जिसने कब अपनी जिंदादिली से मेरी लगभग मर चुकी तमाम ख्वाहिशों में आहिस्ता आहिस्ता रंग भरने शुरू कर दिये मुझे पता ही नहीँ चला और एक दिन अचानक तमाम चमकीले रंगों से लबरेज अपने आप को अनु के फ्रेम में जड़ा पाया।

परसों शाहदरा से आते वक्त मेट्रो में शिखा मिली। हास्टल में मेरी रूममेट थी। मारे खुशी के उसने मुझे गले से लगाते लगाते एकदम से भींच लिया था। बातों-बातों में जब पूछा- ''तुम्हारा घर कहाँ है?'' तब मैं एकदम से अचकचा गई, घर? मेरा घर था ही कहाँ?

एक लड़की अपनी आँखों में लरजता हुआ मासूम सपना सजाती है, उस पर मोरपंख लगाकर उसे नरम और रंगीन एहसास के साथ अपने दिल में उतार लेना चाहती है। ये कैसी कशिश है जिसके पीछे वह सालों गुजार चुके अपने तमाम रिश्तों को खुलती हुई मुट्ठी की रेत की तरह झरने देती है। पापा की आँखों में तैरता सुनहरा ख्वाब, माँ का दुलार और झिड़कियों साथ साथ गूथती चोटी में रिश्तों की मजबूती का पढ़ाया जाता पाठ, हर उधड़ती हुई सीवन के साथ जिंदगी के ताने बाने बुनने का फलसफ़ा... दहलीज के भीतर और बाहर का फर्क- सच, माएँ सारी जिंदगी जागती आँखों से अपने बच्चों का भविष्य चुनती रहती हैं... फिर भला इन्हें नींद कब आती होगी।

तपिश से हलकान कर देने वाली गर्मी का मौसम जा रहा है। आते मानसून की हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगी हैं। इस मौसम की गुलाबी आँच में मेरे भीतर कुछ पिघलने लगा है... ठीक कुछ उसी तरह जिस तरह सूरज की आँच पाकर रफ्ता रफ्ता पहाड़ों की बर्फ पिघलने लगती है... सपने में उस बर्फ को हाथों की थाप दे देकर मैं अपना घरौंदा बना रही हूँ... दरकती दीवारों की तरह ढह जाती बर्फ को देख कर रुआँसी भी होती जा रही हूँ। ये बनता -बिखरता घरौंदा मेरे अचेतन मन के किसी कोने में दुबक गया लगता है, फिर भी मैं लम्बी और गहरी साँस खीच कर उसे फिर से बनाने में जुट जाती हूँ।

घर !
भावनाओं और एहसासों की तमाम परतों को एक एक कर सहेजने से बनता है घर। अपना ख्वाब, अपना जुनून, अपनी कोशिशें, अपनी नेकनीयती और उसे जमाने की बुरी नजरों से बचा कर रखने का दम- इससे पुख़्ता होता है घर... और मकान? वह तो गारा-पत्थर जोड़कर, उस पर रुपयों की परतें चढ़ा कर बन ही जाता है। कितनी अजीब बात है न! ताउम्र इस्तेमाल करने के बावजूद दोनों कभी एक दूसरे का पर्याय नहीं बन सकते।

शादी के बाद आते हुये वक्त के हमारे तीन साल सर्दी, गर्मी, बारिश, बसंत के मौसम एक दूसरे को महसूसते जाने कब निकल गये पता ही नहीं चला। बहुत कुछ ही नहीँ बल्कि सब कुछ एक नये एहसास में तब्दील हो चुका था। मेरी हँसी, मेरी खुशी, मेरी उदासी, मेरी चुप्पी, रूठना-मनाना, मेरी शरारतें, हँसी मजाक हर नये अनुभव के साथ अनु कहते, ''अच्छा जी ! तुम ऐसी भी हो मुझे तो पता ही नहीं था।'' मेरी रूह ख़ुमारी का एक एक पंख बनकर उड़ान भरती और धीरे धीरे अनु के वजूद में समाती जाती।

मुझे याद है उस दिन पहली अप्रैल थी। अनु आफिस गये हुये थे और मैं बैठी कपड़े तह कर रही थी कि तभी बाहर बहुत तेज आवाज हुई।पता लगा कि हमारे कालोनी में लगा ट्रांसफार्मर फुक गया है।किसी ने बताया कि रात भर बिजली नहीं आयेगी। अनु शाम को घर आये तो मैंने पहली ख़बर दागी "आज रात भर गर्मी मे सड़ना पड़ेगा... गली वाला ट्रांसफार्मर फुक गया है ।” अनु हँस कर बोले " अरे वाह आज तो कैंडल लाइट डिनर करेंगे और चाँदनी रात मे छत पर रोमांस करेंगे।”
मैंने चिढ़ाते हुये कहा " उह ! रोमांस खाक करेंगे, मच्छर काट -काट कर बुरा हाल करेंगे।"
"अरे तब की तब देखी जायेगी... अभी इधर तो आओ" अनु ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया और फिर मैं भी उसके सीने में दुबक कर चूजा बन गई थी।
होटेल में कैंडिल लाइट डिनर लेने के बाद गद्दे, चादर, तकिये लाद फाँदकर हम दोनों छत पर पहुँच गये। इधर उधर की बातें करते हुए, आसमान मे छिटके सबसे चमकीले और बड़े-बड़े तारों में हम दोनों अपने-अपने पापा-मम्मा के अक्स ढूँढ रहे थे कि तभी अचानक अनु ने कहा "अरे परसों तुम्हें बताना भूल गया था... दिवाकर का ट्रांसफर का हो गया है, प्रमोशन के बाद सिंगापुर जा रहा है।“
"दिवाकर ?अच्छा अच्छा ! वही न जिसकी अभी पिछली गर्मी में शादी हुई थी ?"
"हाँ हाँ वही।"
"उसकी वाईफ तो बहुत लकी निकली, वो भी साथ ही जा रही होगी?" मेरे मुँह से उत्सुकतावश निकल गया।

"नैचुरली यार. "फिर थोड़ी देर बाद बोले "जानती हो उसने आज लंच के वक्त बताया कि अंकल के लिये उसने यहाँ किसी ओल्ड एज होम में बात कर ली है। तीन चार दिनों में उन्हें शिफ्ट कर देगा। "
"क्यों? साथ नही ले जा रहा क्या?" मैं हैरान हो गई ।
"नहीं ! कह रहा था कि उसकी वाईफ ने भी वहाँ जाब के लिये अप्लाई किया है, ऐसे में अंकल की देखभाल मुश्किल हो जाएगी। यहाँ वह सब इंतजाम करवा देगा। मुझे अच्छा नहीं लग रहा उनके लिये....शादी में देखा था ना अंकल कितना खुश थे।”
"हाँ अनु ये ठीक नहीं है। पेरेंट्स तो बच्चों को कभी नहीं ऐसे छोड़ते...हास्टल भी भेजते हैं तो उनकी पढ़ाई, डिसिप्लीन, बेहतरी के लिये।”
"बेचारे अंकल ! सच बताऊँ तुम्हें, मुझे उनके लिये बहुत बुरा लग रहा है। बताओ तो भला! घर होते हुये भी इस उम्र में घर से बेघर होना... .उफ ! मेरा बस चलता तो मैं.." बात करते करते अनु उदास हो गये थे।
"लेकिन अनु उनके मसले में हमलोग कर ही क्या सकते हैं?"
"तुम सही कहती हो। अभी तो नहीँ लेकिन मैं भविष्य में ऐसे बुजुर्गों के लिये जरूर कुछ न कुछ करूँगा। शायद वह हमारा एक आइडियल हाउस होगा। “
"जरूर। बिल्कुल सही कह रहे हो तुम।“
उस रात हम दोनों ने एक दूसरे की हथेलियों की गुथीं अंगुलियों की जकड़न में एक अदृश्य घेरा बना कर जाने अनजाने एक सपना जकड़ लिया था।

चाहना दिल से होता है ...और अनु को मैं दिल से ही चाहने लगी थी।
उसकी कोई भी आदत ऐसी नहीं थी जो मुझे अच्छी न लगे। किसी के भी कपड़ों की आलमारी उसके मिजाज के अंदाज को बयाँ कर देती है। अनु के वार्डरोब में न कोई कोट था न कोई टाई। बीसियों की तादात में हाइनेक के गाढ़े रंग के स्वेटर जो उस पर खूब फबते। गोल गले की प्लेन टी शर्ट और लिवाइस की तमाम जींस जो तरतीब से हैंगर में टँगी होतीं। शुद्ध शाकाहारी, मगर हर तीसरे चौथे दिन मेरे लिये बीसियों बार मना करने के बावजूद कोई न कोई नॉनवेज डिश पैक करा लाते... और साथ ही लाते सफ़ेद सफ़ेद नरम रसगुल्ले। किचन जाने से कोई परहेज नहीं था इसलिए अक्सर एक्सपेरिमेंटल खाना बनता, कुछ-कुछ कच्चा, कुछ-कुछ पक्का, कुछ-कुछ तीखा, कुछ कुछ फीका... लेकिन प्यार के आगे सब बेमानी। जगजीत चित्रा के मुरीद। जब तक घर पर रहते इश्क में पगी एक से एक गजलें गुनगुनाते।
अनु को मेरे पत्रिकाओं को पढ़ने के शौक का भी पता था। अक्सर कोई न कोई मेरी पसंद की मैगजीन बिना कहे ले आते। बाजार से लाये सामान में निकले कागज के लिफाफों पर कटे हुये वाक्यों को अपनी मर्जी से ऊटपटाँग लेकिन बहुत ही मजेदार बना-बना कर मुझे सुनाते। ये उनका शगल था।
घर की कोई सेटिंग बदलो तो कहते “अरे वाह, क्या बात है! “चाहे चायनीज बनाओ चाहे खिचड़ी, फिर वही वाह जी वाह! मुझे भी इस “वाह जी वाह“ की आदत सी पड़ती जा रही थी। कभी बच्चों की बाबत बात होती तो कहते ''उसके लिए पहले अच्छे से पैसे जोड़ लें फिर जब हमदोनों को लगेगा कि अब सही वक्त है तो ऊपर वाले से दुआ कर उसे भी माँग लेंगे।'' मुझे भी लगता ठीक कह रहे हैं।

अनु बनावटी बिलकुल भी नहीं। जैसे साफ पानी होता है न दरिया का... जिसमें नीचे बिछे पत्थर भी नजर आते हों... वैसे ही कुछ अनु भी। एक बार मैंने पूछा भी था, ''अनु तुम्हे गुस्सा नहीं आता, क्यों?'' तो हँस के बोले, ''अरे भई! किससे गुस्सा और किसपर गुस्सा। मैंने चाँद तारे तोड़ने वाली कोई ख़्वाहिश कभी पाली ही नहीं थी। अपनी फेहरिस्त भी कभी लम्बी चौड़ी नहीं होती है , हाँ! जब तुम्हें देखा तो ऊपर वाले से दिल से दुआ की थी... देखो न, उसने मुझे तुम्हारे जूड़े का क्लिप बना दिया न।”
मैंने बात काटते हुए ठुनक कर कहा ''बात मत टालो अनु... बताओ न... मैं सच हैरान हूँ।'' तो मेरा हाथ अपनी गर्म हथेलियों में थाम कर बोले ''जब तुम किसी से कोई उम्मीद करो और वह पूरी न हो तो उलझन होगी ही... गुस्सा भी आएगा... इसलिए इंसान को टोटली सेल्फडिपेंडेंट होना चाहिए। याद रखना, ताउम्र खुश रहने का सबसे बढ़िया फंडा है ये।” मैं हैरान हो जाती थी कि कोई इतना सहज कैसे हो सकता है। ख़ालिस पॉजिटिव एनर्जी का खजाना, ऐसा कि जितना निकालो उससे दुगुना अपने आप भर जाए।

सच! मर्द औरत के लिए जमीन और आसमां सब बन सकता है बशर्ते उसने औरत का दिल पढ़ लिया हो... लेकिन जहाँ गलतफहमी और बेएतबारी का कीड़ा लग जाता है वहाँ आसमान धुँधला और धरती बंजर हो जाती है। अनु इस हकीकत को जानते थे इसीलिए इस कीड़े से बहुत दूर रहते। अपनी दीवानगी को सुच्चे मोतियों का खजाना कहते। मेरे बालों की लट को अँगुलियों में घुमा घुमा कर बिलकुल अपने चेहरे के नजदीक लाते। इश्क में उतराते उतराते जब भी जिस्म में गर्म सी लकीर बनती, तमाम अनकहे फलसफे शक्ल अख़्तियार करते चले जाते। उनकी थिरकती अँगुलियों से न जाने कितने खूबसूरत सपनों की इकाई दहाई बनती। मैं भी संग संग पहाड़े बनती जाती। दो इक्क्म दो… दो दूनी चार...।
अनु के सपने मीठे होते थे, न कि महँगे। जिंदगी की आपाधापी में अपना सुकून गवाँ देना उन्हें क़तई गवारा नहीं था तभी तो मेरे इर्दगिर्द छोटी छोटी ख़ुशियों में ही तमाम खुशनुमा फूल उगाते। उन फूलों की खुशबू और मुलायमियत से जब मैं नहा रही होती अनु पीछे से आकर, मुझे अपनी बाँहों की गिरफ्त में लेकर, मेरे कंधे पर अपनी ठोढ़ी रगड़ते - गुदगुदाते हुए कहते ''जब भी हम अपना घर बनाएँगे उसमे खूब सारे रंगबिरंगे, खुशबूदार फूल उगाएँगे... .हमारे तुम्हारे इश्क में पगे हुए ढेर सारे फूल।” मैं पगली दीवानी अपनी आँखें बंद कर तसव्वुर में अनु का घर फूलों से सजाने लगती।

पुणे के आतंकी हमले में चुपचाप आई अनु की मौत उसके साथ मेरा सपनीला घर भी ले गई है। अब कोई गजल कानों में नहीं उतरती है... घर वाली पॉजिटिव एनर्जी मुझसे नहीं टकराती है... बच्चे की खिलखिलाहट वाला सपना भी नहीं आता है... बचपन में देखे जाने वाले सपने की पूरी बर्फ अब पिघल पिघल कर पता नहीं कहाँ गुम हो गई है। मैंने तीन साल ! सिर्फ और सिर्फ तीन साल घर की तासीर को महसूसा … उसे छुआ … उसे जिया ... . उसे ओढ़ा.… उसे पहना... उफ !

आज आलमारी से कपड़े निकालते समय वही चादर यकायक हाथों में आ गई जो उस रात छत पर बिछाई थी जब लाइट नहीं आ रही थी। एक रील आँखों के आगे घूमने लगी। अनु के गुजर जाने के बाद अपनी बिसारी सुध बुध में मैं अंकल के लिये अनु का दर्द ... उसकी आँखों में उतरी नमी...उनके जैसे बुजुर्गों के लिये कुछ करने की उसकी एक अदद ख्वाहिश कैसे भूल गई ? यों लगा मानो किसी ने बहुत गहरी नींद से झकझोर कर मुझे जगा दिया हो....जूड़े वाला क्लिप बिस्तर पर पड़ा था, उसे उठा कर फिर बालों में सजा लिया।

१ जनवरी २०२३

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