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लघुकथाएं

लघुकथाओं के  क्रम में महानगर की कहानियोँ  के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है प्रमोद राय की लघुकथा — 'कानूनन'
ट्रेन जैसे ही नई दिल्ली से रवाना हुई मेरे बगल वाले कंपार्टमेंट में अचानक शोर-गुल शुरू हुआ। दर्जनों लोगों के कोलाहल के बीच केवल मारो . . .पीटो . . .छोड़ना नहीं जैसे शब्द ही सुनाई दे रहे थे। तभी किसी ने बताया कि कोई चोर पकड़ा गया है। तीन थे दो भाग गए एक पकड़ा गया। जिस आदमी का सूटकेस लेकर भाग रहा था उसी ने धर दबोचा। 

मैंने अपर बर्थ की जाली से झांक कर देखा। पांच छह यात्री एक युवक पर टूट पड़े थे। कोई थप्पड़ मार रहा था तो कोई लात घूसे। कोई बाल उखाड़ रहा था तो कोई उसकी तलाशी ले रहा था। पूरा कंपार्टमेंट लोगों से भर गया। ट्रेन के साथ-साथ लात जूतों की रफ्तार भी बढ़ गई। कुछ लोगों को धकियाते हुए मैं भी तमाशा देखने के लिए घुसा। ट्रेन गाजियाबाद पार कर गई लेकिन कोई पुलिस या सुरक्षाकर्मी डिब्बे में झांकने तक नहीं आया। करीब एक घंटे बाद एक हेडकांस्टेबल समेत जीआरपी के तीन जवान डिब्बे में घुसे तब तक शोर-गुल कम हो चुका था। कुछ चोर को पीट-पीट कर थक चुके थे, बाकी अपनी-अपनी सीटों पर जा चुके थे। पुलिस को देख 'अब क्या होगा' की उत्सुकतावश भीड़ फिर उमड़ी। 

पुलिस को देख फ्रर्श पर पड़े चोर की बची खुची जान में थोड़ी और जान आई। वह उठकर बैठ गया। शोर एक बार फिर शुरू हुआ। पुलिसकर्मियों ने उसके साथ थोड़ी डांट-डपट और पूछ-ताछ की। 
"साहब ग़लती हो गई अब फिर चोरी नहीं करूंगा।"
एक सिपाही ने पूछा किसका सामान लेकर भाग रहा था तो एक यात्री ने थोड़ी हरकत दिखाई। आप हमारे साथ दूसरे डिब्बे में चलिए कुछ लिखा-पढ़ी करनी है।यात्री हिचकिचाया। कभी पत्नी का तो कभी अन्य यात्रियों का मुंह निहारने लगा। तभी कुछ लोगों ने पुलिस वालों से कहा, आप लोगों को जो करना है यहीं कीजिए। 

शोर गुल फिर बढ़ गया। किसी ने कहा कि यहीं रिपोर्ट लिखवाओ और रसीद भी ले लो नहीं तो ले-देकर छोड देंगे साले को। एक सिपाही ने आंखे तरेरी लेकिन भीड़ के सामने चुप ही रहा। हेडकांस्टेबल ने एक पैड निकाला और कुछ लिखने लगा। पहले चोर से कुछ पूछा फिर उस यात्री की तरफ मुखातिब हुआ जिसका सूटकेस लेकर वह भाग रहा था;,
"आप अपना नाम, पता व फोन नंबर लिखवा दीजिए सुनवाई के दौरान आपको आना पड़ेगा।"
इतना सुनते ही यात्री सकपकाया। गुस्से और मजबूरी के मिले जुले स्वर में बोला,
"सर मैं क्यों आऊंगाँ" फिर वह अन्य यात्रियों का मुंह ताकने लगा। 
पुलिसवालों ने समझाया कि कानूनी प्रक्रिया है,
"बिना किसी आधार के इसे हम कैसे ले जा सकते हैं। आपको तो आना ही पड़ेगा।"
लोगों ने पुलिस वालों से बहस शुरू कर दी;,
"यह कैसा कानून हैं . . . कहां का यात्री कहां जा रहा है . . .वहां से यहां कैसे आएगाँ"
थोड़ा समर्थन पाकर वह यात्री भी बोला;, 
"मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता साहब। चोर आपके सामने हैं। इतने लोग गवाह हैं। जो करना धरना है यहीं कीजिए।"
पुलिस वाले शायद उसकी नासमझी पर मुस्कराए फिर बोले;, 
"ऐसे थोड़े न होता है। कानूनन तो आपको आना ही पड़ेगा और जो गवाही देंगे उन्हें भी बुलाया जा सकता है।" एक पल के लिए कंपार्टमेंट में सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे और वह यात्री सभी का। 
बहुत कहा सुनी और बहसबाजी के बाद पुलिसवाले झुंझला गए और बोले;, 
"भई बोलो रिपोर्ट लिखाना है कि नहीं कोई कुछ नहीं बोला। 
यात्री बोला, 
"साहब मैं बनारस का रहने वाला यहां क्यों और कैसे आऊंगा। अगर वहां सुनवाई हो तो सोच भी सकता हूं।"
हेडकांस्टेबल ने झल्लाकर कहा;, "यार तुम्हें कौन समझाए।" एकाध पढ़े लिखे यात्रियों ने पुलिस वाले के सुर में सुर मिलाया। 
यात्री बोला;, "भाड़ में जाए सज़ा-वज़ा मुझे कोई लिखा पढ़ी नहीं करानी। आपका मन करते तो ले जाइए या छोड़ दीजिए।"
तर्क-वितर्क चलता रहा। ट्रेन अलीगढ़ पार कर गई। मैं भी ऊब कर अपनी सीट पर आ गया और सोने की कोशिश करने लगा। बीच-बीच में कभी पुलिस तो कभी यात्रियों की आवाज़ आती रही।

24 मार्च 2005

 
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