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लघुकथाएं

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियाँ के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है डा फकीरचंद शुक्ला की लघुकथा - 'दृढ़ निश्चय'

सने दृढ़ निश्चय कर लिया है। शाम को घर पहुंचते ही पत्नी से बोल देगा, "कल से नौकरी पर जाने की ज़रूरत नहीं।" जब वह उसे कमा कर खिला सकता है तो उसे नौकरी करने की क्या आवश्यकता। न जाने हर रोज़ ही ऐसे होता होगा। उसकी आंखों में धूल झोंकती है।

'घर में बोर हो जाती हूं। कहीं नौकरी क्यों न कर लूं? समय भी कट जाया करेगा, थोड़े पैसे भी मिल जाएंगे।' न जाने कौन सी मनहूस घड़ी में पत्नी के इस सुझाव को मान लिया था उसने। उसे स्वयं पर गुस्सा आ रहा था। थोड़े से पैसों के लालच में हां कर दी थी। मकान का किराया, बिजली-पानी का बिल ही निकल जाया करेगा।' कुछ ऐसा ही सोचा था उसने उस समय।

लंच ब्रेक में सिगरेट लेने वह चौक में पनवाड़ी की दुकान पर गया था। सिगरेट सुलगा कर अभी पहला ही कश खींच पाया था, उसे लगा जैसे उसके बदन में आग लग गई हो। एकदम सारा बदन तपने लगा था। सामने किसी की कार में उसकी पत्नी जा रही थी।

मन में तो आया था कार के सामने वाले शीशे पर पत्थर मार कर दोनों के सिर फोड़ डालें। मगर कार का नंबर नोट कर के रह गया। शाम को घर जाकर जूता उतारेगा, "किस की कार थी? तुम्हारा उसके साथ क्या संबंध? शादीशुदा होकर ऐसे काम करते हुए शर्म नहीं आती।"
दफ्तर में बैठे रहना उसके लिए भारी हो रहा था। मस्तिष्क में कार के पहिये इतनी तेज़ी से घूम रहे थे कि दफ्तर के टाईप-राइटरों का शोर कार की घूं-घूं में दब कर रह जाता।

वह सुपरींटेंडेंट है। क्या वह घर का खर्च नहीं चला सकता जो उसकी नीच कमाई का अपने को कोई सहारा समझे।
बार-बार उसे घड़ी की ओर देखते हुए दफ्तर में कानाफूसी होने लगी थी। घड़ी की सूइयां तो जैसे रूक गई थीं। पांच बजने को ही नहीं आ रहे थे।
•••

उसने स्कूटर पार्क से स्कूटर निकाला और एकदम तेज़ कर दिया। सुबह उसके साथ जाने को तो कहती है;, "आप क्यों कष्ट करते हैं? आराम कीजिएगा। आपका आफिस तो नौ बजे लगता है। मुझे तो सात बजे पहुंचना होता है" और दो बजे घर लौट कर . . .। गुस्से से उसकी दिमाग़ की नाड़ी फटी जा रही थी।

वह गिरते-गिरते बचा। उसने एकदम जो ब्रेक लगाई तो स्कूटर थोड़ा उछल गया। लोग भी अंधे होकर चलते हैं, और खासकर ये लड़कियां तो यों मटक-मटक कर चलती हैं जैसे किसी पार्क में घूम रही हों।' उसके मन में तो आया था कि स्कूटर के सामने आई लड़की को चुटिया से पकड़ कर दो झांपड़ लगा दें।
"सर आप?"
वह थोड़ा चौंका।
वीना थी। पहले उसके आफिस में ही क्लर्क थी।
'हैलो' ज़बरदस्ती अपने होठों को हंसी का जामा पहनाते हुए उसने पूछा;, "इधर कहां?"
"घर जा रही हूं।"
"आओ मैं छोड़ता चलूंगा। वहीं है न तुम्हारा घर . . .?"
"हां सर, आपके घर की ओर ही है।"
और स्कूटर फिर तेज़ी से चलने लगा। इस वीना की बच्ची ने भी आज ही मरना था क्या?
कार के पहिये फिर उस पर हावी होने लगे थे।
" . . .सर सम्हलिए . . .ट्रक . . ."
और अगर वह तुरंत ब्रेक न लगाता तो स्कूटर सामने से आ रहे ट्रक से जा टकराता।
"बाऊ बीमा करवाया हुआ है?" कहता हुआ ट्रक वाला पास से गुज़र गया।
स्कूटर के पहिये फिर घूमने लगे।
मगर इस बार उस पर हावी न होकर बराबर चलने लगे। वह जैसे स्वंय से पूछने लगा, "वीना तुम्हारी क्या लगती है?"

9 नवंबर 2006

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