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                      बच्चा गेलिसदार नेकर और 
						चमचमाते हुए बूट पहने हुए था। उसकी कमीज भी खूब सफेद थी। 
						कंधे पर बस्ता लादे हुए वह आँखों में आँसू भरे एक तरफ खड़ा 
						था। मैंने देखा तो कुछ विचित्र सी स्थिति प्रतीत हुई। 
						कौतूहल जगा। पूछा, “बच्चे तुम किस स्कूल में पढ़ते हो।““इसी स्कूल में”, उसने बिल्डिंग की तरफ संकेत किया और अपने 
						कमीज के कफ़ से आस्तीन पोंछते हुए नाक सुड़क ली। उसकी 
						वेशभूषा पर इस प्रकार का व्यवहार बिलकुल नहीं फबता था। 
						इसलिये पूछ लिया, “तुम रो क्यों रहे हो?”
 “हमारे पास मनी नहीं है।“ वह फिर सुबक उठा।
 “क्या करोगे मनी का?”
 “हमारी टीचर ने मनी मँगाई है पिकनिक के लिये।“
 “तुम तो अभी अपने घर से आ रहे हो। घर से क्यों नहीं लाए?”
 “वह देते नहीं।“
 “कौन?”
 “आंटी।“
 “माँ से क्यों नहीं माँगा?”
 “माँ नहीं हैं, आंटी हैं वे नहीं देतीं।“
 मन में तरस जगा। शायद बच्चे की सौतेली माँ होगी। जो जरूरत 
						की चीजों के लिये भी उसे पैसे के लिये तरसाती होगी। इसलिये 
						फिर परामर्श दिया- “तुम अपनी टीचर से यही बात कह देना।“
 मैं आगे बढ़ आई। सोचा स्थिति ज्यों की त्यों रख देने पर 
						शायद उसकी टीचर उसे पिकनिक के चंदे से मुक्त कर दे। पर 
						देखा मैंने बच्चा पीछे पीछे अब भी चला आ रहा था।
 
 “आंटी एक रुपया दे दो।“ उसने बड़ी आजिजी से फिर कहा… 
						“सिर्फ एक रुपया। जी हाँ, हम पिकनिक जाएँगे।“ वह बुरी तरह 
						सुबक उठा था।
 “देखो बेटे पैसा तुम घर से माँगो, अपने डैडी से कहो।“ 
						मैंने समझाया पर वह साथ साथ चलता रहा।
 “आंटी आज पिकनिक डे हैं, हम भी पिकनिक जाएँगे।“ उसने मेरा 
						पल्लू पकड़ लिया था।
 चलो अब दे ही दिया जाए। देखा जाएगा। पिकनिक आज है और अगर 
						आज पैसे नहीं दिये गए तो बच्चे का मन मर जाएगा। सोच मैंने 
						अपने पास का मात्र एक रुपया उसे दे दिया।
 
 बच्चा मुसकुराने लगा था। अगर एक रुपये में रोते हुए बच्चे 
						के चेहरे पर हँसी की एक रेखा जाग उठती है तो रुपया देना 
						क्या बुरा हुआ।
 ‘थैंक्यू’ कह कर बच्चा लौट गया था।
 
 मैं अभी सोच ही रही थी कि तभी उसी उम्र के कुछ दूसरे उसी 
						स्कूल के बच्चे सामने आते हुए दिखे।
 
 “बच्चों आज तुम्हारा पिकनिक डे हैं न?” मैंने बड़े आश्वस्त 
						भाव से पूछा तो वे बच्चे हैरान रह गए।
 “कैसी पिकनिक?” उन्होंने प्रश्न मुझसे ही किया... कैसी 
						क्या बताती मैं?
 “आज तो तो कोई पिकनिक नहीं है। पिकनिक तो हम अभी परसों ही 
						गए थे रविवार को?” बच्चों ने अधिक स्पष्ट किया। वे आगे बढ़ 
						गए थे। मैं समझ गई थी फैशनेबल भिखमंगेपन की शुरूआत थी वह, 
						जिसमें योगदान मैंने दिया था, पर आँसुओं से भर चेहरे पर वह 
						हँसी की रेखा सही क्या था मैं निर्णय ही नहीं कर पा रही 
						थी।
 
 ८ 
						नवंबर २०१०
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