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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
हीरालाल ठक्कर की लघुकथा- बच्चे


पति-पत्‍नी झगड़ रहे थे। दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए बहस कर रहे थे।

पत्‍नी - 'मैं इस घर में नौकरानी से बदतर हूँ। दिन भर घर का सारा काम करके भी रूखा खाना और सस्‍ते कपड़े ही तो मिलते हैं। तुमसे शादी करके बहुत घाटे में हूँ।'

पति - 'मैं इस घर में दो वक्‍त का खाना और थोड़े से चाय-नाश्‍ते के लिए सारी तनख्‍वाह दे देता हूँ। मुझे तुमसे जरा भी आदर या इज्‍जत नहीं मिलती।'

पत्‍नी - 'यदि मैं चली जाऊँ और तुम्‍हें रसोईवाली रखनी पड़े तो वही खाना, पीना, कपड़े और वेतन मांगेगी। मैं कही और रसोई का काम कर लूँ तो मुझे इतनी गुलामी नहीं करनी पड़ेगी और पैसे भी मिलेंगे।'

पति - 'यदि तुम लोग चले जाओ तो तुम्‍हें पालनेवाले की इससे ज्‍यादा खुशामद करनी पड़ेगी, जबकि मैं कहीं पेइंग-गेस्‍ट भी बन जाऊँ तो इतनी तनख्‍वाह में भी मुझे ज्‍यादा आदर सत्‍कार मिलेगा।'

पत्‍नी - 'मैं बच्‍चों के साथ क्‍यों जाऊँ। उनकी जिम्‍मेदारी तो तुम्‍हारी है।'

पति - 'मैं भी बच्‍चों को क्‍यों रखूँ? उनकी चिंता भी तुम करो। लोग तो संतान पाने के लिए अदालत में जाते हैं और तुम बच्‍चों को यहाँ छोड़ना चाहती हो।'

पत्‍नी - 'जिनमें पालने की हैसियत होती है वे उनका अधिकार चाहते हैं। मैं तो अपना गुजारा ही मुश्किल से कर पाऊँगी।'

पति - 'तो तुम्‍हें जाने के लिए कौन कह रहा है। तुम खुद ही यह कहती हो। जाना है तो बच्‍चों को ले जाओ।'

पत्‍नी - 'मैं तुम्‍हें ऐसे मुक्‍त नहीं करूंगी। बच्‍चों का बोझ तुम्‍हें ही उठाना है।'

पति - 'पर मैं कहाँ तुम्‍हें भगा रहा हूँ।'

पत्‍नी - ' तो मैं कौन सी जा रही हूँ।'

१८ अप्रैल २०१०

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