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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
रवींद्र खरे 'अकेला' की लघुकथा- बरगद का दर्द


घर के सामने लगे बूढ़े बरगद के पेड़ को देख वह बेहद खुश होता.

घरवाली ताने देती- 'रोज डलवा-डलवा भरके इन पत्तन को फेंकना पड़ता है.मैं तो तंग आ गई बरगद के पेड़ से। मैं तो शुरू से ही कहती आ रही हूँ कि कटवा क्यूँ नहीं देते इस पेड़ को। वह कुछ न कहता चुपचाप रहता।

आज सुबह से ही तीनों बहुओं में कहा-सुनी के बाद तेज लड़ाई हो गयी जिसमें बेटे भी बहुओं के साथ हो गये छोटा बेटा छगनू तो बँटवारे को लेकर अड़ ही गया कि आज तो इस घर से अलग होकर ही दम लूँगा।

उसने पत्नी से बरगद के पत्तों को इकट्ठे किये गये डलवे का सबके सामने उंडेल दिया जिनमें कुछ हरे पत्ते थे, कुछ पीले, कुछ सूखे, कुछ अध-पीले, कुछ एकदम हरी कोंपल सदृश उसने सभी तरह के पत्तों को करीने से संवारकर लगाया और छगनू से पूछा -बेटे तू चाहता है अलग घर में बँटवारा कर रहना मुझे कोई ऐतराज नहीं तू शौक से अलग रह सकता है. घर में तुझे जो सामान अच्छा लगे वह सब ले जा तेरी मर्जी मैं कुछ नहीं मना करूँगा किंतु एक बात मेरी सुनता जा ये सारे पत्ते जो तू देख रहा है न, इसी बरगद के पेड़ के हैं न?

'हाँ, तो इसमें क्या नई बात है ?'

'देख, इसमें कुछ पत्ते तो एकदम पीले हैं, सूखे हुये जो पेड़ से अलग हो गये क्योंकि वे अब उनके साथ नहीं रह सकते थे और कुछ अध-पीले हैं जो, पीलों क देखा-देखी अलग हो गये और कुछ एकदम से हरे थे उन्हें बरगद का साथ गवारा नहीं हुआ और वे तीव्र हवा के झोंको के बहकावे में आकर उनके साथ उड़कर मौज-मस्ती की दृष्टि से चलकर उनके साथ हो लिये परिणामस्वरूप अब तुम्हारे सामने हैं बिखरे हुए। अब यदि ये सब पत्ते चाहें भी कि दुबारा उसी पेड़ पर टहनी में लगकर शेष जीवन व्यतीत कर लें तब भी संभव नहीं है, इनके लिये दोबारा इसी बरगद के पेड़ में जाकर लगना।

मैंने तो बेटे घर में यह बरगद का पौधा इसलिये रोपकर बड़ा किया था कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा और खेत पर हल जोतकर जब शाम को वापिस आऊँगा तो इसी पेड़ की छाँव में बैठकर सुस्ताकर अपनी थकान दूर कर लिया करूँगा किन्तु तुम चाहते हो कि यह पेड़ ही न रहे तो तुम्हारी मर्जी वैसे तुम्हारी तरह तुम्हारी माँ भी वर्षों से तानें देती आ रही है कि रोज डलवा भर पत्ते भरकर साफ करती हूँ घर को और रोज फैल जाते हैं ढेरों पत्ते इसलिये अब फैसला तुम्हें करना है यदि तुम समझ सको इस बरगद का दर्द तो ठीक नहीं तो तुम्हारी मर्जी।'

छगनू ने विभिन्न रंगों के पत्तों को देखा सबक ले वह कभी बापू की तो कभी बरगद को देख रहा था उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। उसने पत्नी को प्यार-सहित समझाकर बरगद वाले घर में ही आजीवन रहने का सकारात्मक निर्णय लिया।

३० मई २०११

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