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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
गिरीश बख्शी की लघुकथा- सारा झगड़ा खत्म


इस बार छुट्टियों से शुभद्रा जब अपने मायके राजनांदगांव के ब्राम्हणपारा में आई तो खबर पाकर सुमति भी गौरी नगर से आ गई। पुलकित को देखते ही सुरभित फिर तो अपना मचलना भूलकर, चट पुलकित दादा का हाथ पकड़ सामने दशरथ टेलर की दुकान तक घूमने निकल पड़ा।

कुछ देर बाद वे दोनों रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरने लिए घर आ गए और फिर कतरन को लेकर उनकी दोस्ती, लड़ाई में बदल गई।

सारे कतरन को टिन की अपनी छोटी सी पेटी में रखता हुआ पुलकित बोला-’’ये सब मेरा है।‘‘
कतरन बीनने में सुरभित ने भी मदद की थी, तो वह पूछ उठा ’’और मेरा?‘‘
पुलकित ने बेफिकरी से जवाब दिया-तुम्हारा डोंगरगढ़ में है, यहां का मेरा है?
बेचारा सुरभित कुछ क्षण सोचता रहा फिर एकाएक बोला-’’ये....ये स्कूल मेरा है ‘‘ और वह चट स्कूल पर जा बैठा।

पुलकित कब चुप रहने वाला था।
उसने कहा-’’ये कुर्सी मेरी है। तो सुरभित ने कहा-ये सोफा मेरा है।‘‘
पुलकित उछल कर तखत पर जा चढ़ा और चिल्लाया-’’ये तखत मेरा है।‘‘
इस तरह मेरा-मेरी की लड़ाई में धीरे-धीरे घर के पूरे सामान एक दूसरे के हो गए। तब सामान के बाद लोग बांटने लगे।
’’ये मेरी मम्मी है।‘‘
-’’ये मेरे मामा है।‘‘
-’’ये मेरी नानी है।‘‘
-’’ये मेरे नाना है।‘‘
और सब जन भी बँट गए तो पुलकित फिर क्या बोले? किस पर अपना अधिकार जताए? वह एकदम उत्तेजित हो गया और हाथ दिखाते हुए एक सांस में कह उठा ’’ये......ये घर...........वो ........वो सड़क वो...सब वो.......वो..खूब दूर वो बादल तक सब.......सब मेरा है।‘‘

सुरभित क्या कहे? वह सोच में पड़ गया। उसके लिए अब तो कुछ शेष बचा ही नहीं। वह अचानक, एक झटके से उठ खड़ा हुआ और दौड़ कर पुलकित से लिपट कर बोला ’’ये पुलकित दादा मेरा है।‘‘

पुलकित खुश हो गया। उसने सुरभित को चूम कर कहा-’’ये छोटा भैया मेरा है।‘‘
और तब सारा झगड़ा खत्म हो गया।

२१ मई २०१२

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