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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में इस बार प्रस्तुत है
मुक्ता की पुराण-कथा- गंगा का विवाह


बहुत समय पहले की बात है, इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक राजा हुए। वीरतापूर्वक तथा सत्यनिष्ठा के साथ राज्य करते हुए उन्होंने अनेक अश्वमेध और राजसूय यज्ञों का आयोजन करके स्वर्ग प्राप्त किया। वे देवताओं के साथ विहार करते थे और उन्हीं के समान उनके आचरण थे। लेकिन पूर्व जन्मों में पृथ्वी के वासी होने के कारण वे अपने व्यवहार में एक चूक कर बैठे।

एक बार ब्रह्मा जी के महल में एक विशाल आयोजन किया गया। सभी देवतागण और राजर्षिगण, जिनमें महाभिष भी थे, इस आयोजन में आमंत्रित किये गए। आयोजन में स्वर्ग के अनुरूप सभी ऐश्वर्य के साधन उपस्थित थे। देवता और राजर्षि सुंदर परिधानों में सुसज्जित थे। देवियाँ और राजपरिवार की महिलाएँ सर्वश्रेष्ठ वस्त्राभूषण में सभी को आर्षित कर रही थीं। इसी समय उत्सव में पुण्य सलिला गंगा जी का भी आगमन हुआ। उनके पारदर्शी कौशेय वस्त्र हवा में लहरा रहे थे और उनके आभूषणों में टाँके गए घुँघरू सुंदर ध्वनि पैदा कर रहे थे। सभी की दृष्टि उस ओर आकर्षित हो गई।

अचानक वायु के वेग के कारण गंगा जी का श्वेत परिधान उनके शरीर से कुछ सरक गया। यह देखकर समस्त उपस्थित अतिथियों ने अपनी आँखें झुका ली किन्तु राजर्षि महाभिष गंगा के अद्वितीय सौदर्य को अपलक देखते रह गए। गंगा उनके इस व्यवहार से आहत हुईं और उन्हें पृथ्वी पर वापस चले जाने का शाप दे बैठीं। शाप पाते ही महाभिष की चेतना लौटी और वे अपने व्यवहार पर लज्जित हुए। उन्होंने गंगा से क्षमा माँगी। गंगा ने इस शाप से मुक्ति के लिये उन्हें ब्रह्मा जी के पास जाने के लिये कहा।

ब्रह्मा जी ने कहा, “राजर्षि महाभिष, तुम्हारे इस कृत्य के फलस्वरूप तुम्हें मृत्युलोक तो जाना ही होगा जहाँ गंगा के प्रति कामना एवं उनको आहत करने के पाप को कर्म-फल की भाँति भुगत लेने के बाद ही तुम शाप मुक्त हो सकोगे। महाभिष ने गंगा के शाप और ब्रह्मा जी के शापमुक्ति के उपाय को शिरोधार्य करते हुए मृत्युलोक में पुरुवंशी राजा प्रतीप के पुत्र शान्तनु के रूप में जन्म लिया।

उधर आयोजन से लौटते समय मार्ग में पतित पावनी गंगा की भेंट आठ वसुओं से हुई जो ऋषि वशिष्ठ के शाप से मर्त्यलोक की ओर जा रहे थे। उन्होंने गंगा से अपनी मुक्ति की प्रार्थना की और गंगा ने उन्हें अपने पुत्र के रूप में स्वीकर कर उनकी मुक्ति का वचन दिया। कालांतर में गंगा ने भी पृथ्वी पर जन्म लिया और समयानुसार शान्तनु से उनकी भेंट हुई। शान्तनु ने अपने कर्मचक्र के अनुसार गंगा पर मोहित हो विवाह का प्रस्ताव रखा। गंगा ने विवाह करना स्वीकार किया किन्तु यह वचन भी लिया कि राजा शान्तनु गंगा के किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।” शान्तनु ने गंगा की इच्छानुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया।

गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्रों के रूप में आठ वसुओं ने जन्म लिया जिन्हें जल में प्रवाहित कर गंगा ने उनका उद्धार किया। अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। आठवें पुत्र को गंगा में प्रवाहित करते समय शान्तनु ने गंगा को टोंका और उनका वचन भंग होते ही गंगा उन्हें छोड़कर स्वर्ग को चली गईं।

आहत हुए राजा शान्तनु को गंगा तट पर देख, मुक्ति से प्रसन्न वसुओं ने अपनी विद्या, बुद्धि, विवेक और पराक्रम का एक-एक अंश जोड़ कर राजा शान्तनु को पुत्र रूप में भेंट किया। इस पुत्र का नाम देवव्रत हुआ। महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया। कालांतर में गंगा का यह पुत्र भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।

१७ जून २०१३

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