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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
ज्ञान चतुर्वेदी की लघुकथा- गंगाजल और गंदला नाला



नाले का सड़ता, बजबजाता, गंदा पानी।
जमाने भर की गंदगी और पाप से सराबोर पानी।
और पट्ठा आकर मिल गया गंगा नदी में। बहने लगा ठाठ से। पवित्रता के ठसके से।

नाला शहर के किसी अनाम से छोर से चला था। उसकी जीवनयात्रा में बीसियों गंदली नालियाँ आकर उसमें मिलीं। यहाँ वहाँ का कचरा उसने शौक से समेटा। सुअरों को अपने दामन में प्यार से जगह दी उसने। जहरीले कीड़े-मकोड़े पैदा हुए उसमें। कीचड़त्व में ही जीवन की सार्थकता मानी उसने। शहर की हर गंदगी में उसका हिस्सा। दुष्कर्मों के बुलबुले उसमें सर्वत्र। उसकी बदबू, किसी बदनामी सी सर्वत्र व्याप्त। वह जहाँ से भी निकलता है, शहर के लोग बचकर निकलते हैं या उस रास्ते को छोड़कर ही चलते हैं। ‘उधर गंदा नाला है, इधर से चलो’। नाले से दूरी भली। नाले पर भी पुलिया बनी है यत्र-तत्र, परंतु नागरिक बैठते-बतियाते नहीं उन पर। गंदगी तैरती रहती है नाले के जल में। यह सब, परंतु नाला अपने संपूर्ण गलीज के साथ सिर उठाए गुजरता है सारे शहर के बीच से।

शहर से ही गुजरती है गंगा।
अब गंगाजल का तो बखान ही क्या।
पावन स्वच्छ जल! हिमालय की उज्जवल परंपरा! गंगोत्री से जन्मा, तीर्थों के भजन कीर्तन-सत्संग में दीक्षित होता, कलकल करता निर्मल पवित्र जल। अपनी पवित्रता पर गर्वित, गौरवान्वित, गंगाजल। और क्यों न गर्व करे वह? सारा विश्व उसमें डुबकी मारकर पवित्र होता है सो गर्व से कलकल-कलकल बहता गंगाजल। आसपास ‘हर गंगे’ के निनाद। लहरों का गर्वोन्नत मस्तक उठाए गंगाजल।

कि इस शहर का यह बदनाम, गंदला नाला आकर मिल गया गंगा नदी में और गंगाजल जैसी ही गर्वोन्नत मुद्रा में बह निकला, ठाठ से। साथ बह रहे गंगाजल ने यह अनर्थ होते देखा तो वह चकित भी हुआ और क्रोधित भी। गंगाजल ने आश्चर्य के साथ यह भी देखा कि लोग गंगा में मिल गए नाले के जल में भी उसी श्रद्धा तथा भक्तिभाव से डुबकियाँ मार रहे हैं। गंगा का हिस्सा बनकर नाला भी वही सम्मान पाने का अधिकारी हो गया है।

‘यह भी खुब धाँधली है...’ गंगाजल ने कहा।
‘कैसी धाँधली?’ नाले ने अकड़कर कहा।
‘लोग तुमको भी वहीं सम्मान दे रहे हैं, जो मुझे मिलता है...।’
‘जल तो हम भी हैं, तुम भी।’
‘कहाँ मैं और कहाँ तुम...छीः।’

‘यह सत्य है कि मैं गलत संगत तथा गंदी आदतों के चलते गंदगी में बहकर नाला बन गया, परंतु... फिर भी...’

‘फिर भी क्या?’
‘फिर भी यह गंगाजल महाशय, कि इस देश में यदि नाला समझदार हो, तो वह जीवन पर्यंत भी गंदगी से उफनता बहता रहे, तब भी धर्मप्राण जनता उसकी जय जयकार कर उसकी पूजा अर्चना कर सकती है बशर्ते...’
‘बशर्ते क्या?’
‘बशर्ते वह जुगाड़ करके, येने-केन-प्रकारेण अंततः गंगा में मिल जाए।’ ‘मैं समझा नहीं? गंगाजल को राजनीति नहीं आती न, सो उसने पूछ लिया।’

‘तुम दिल्ली से होकर नहीं गुजरते न, इसीलिए। कभी अपनी जमुना बहन से पूछना कि दिल्ली में कैसे-कैसे गंदे नाले वहाँ बह रही सत्ता की गंगा में मिलकर इस देश में सम्माननीय तथा स्वीकार्य हो जाते हैं। प्रिय मित्र, इस देश में हर गलीज नाला पूजनीय हो सकता है, बशर्ते वह उचित अवसर पाकर गंगा नदी में घुसने का जुगाड़ कर ले।’

संसद तथा विधानसभा से बहुत दूर बह रही गंगा में हजारों गंदे नाले आकर मिल रहे हैं। इस देश के भोले मतदाता तथा आमजन को पता ही नहीं है कि जिस जल में श्रद्धा से डुबकी लगाकर वह सुखी जीवन की कामना तथा याचना कर रहा है उसका पानी जहरीला होता जा रहा है।
इसीलिए न गंगा से उसकी उम्मीदें पूरी हो रही हैं; न संसद से।

२४ मार्च २०१४

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