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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
राहुल देव की लघुकथा- जलेबी


सत्येन्द्र की शहर के मार्किट में मिठाइयों की दूकान थी। इसी इलाके में तेजतर्रार दारोगा की एकदम नयी पोस्टिंग थी, वह सुबह-सुबह ही उधर आ निकला। सत्येन्द्र की दूकान पर ताज़ी छन रही जलेबी देखकर वह अपने को रोक न सका। इधर-उधर की बातें करते हुए उसने ढाई सौ ग्राम जलेबियाँ लीं और अखबार के पन्ने उलटते-पलटते सब चट कर गया। बोनी न होने के बावजूद उसके रोबीले व्यक्तित्व को देखकर सत्येन्द्र कुछ बोल न सका। चलते-चलते दारोगा उसकी दूकान के बोर्ड की ओर देखकर भारी-भरकम आवाज़ में बोला, ‘सत्येन्द्र स्वीट होम एंड आर्डर सप्लायर्स, अच्छा नाम है। हाँ तो सतेन्द्र भाई चलता हूँ कभी काम पड़े तो याद करना।’
सत्येन्द्र ने सिर हिलाया और दारोगा जी खींसे निपोरते हुए चल दिए।

उतने में इलाके का नम्बरी भाई उसकी दूकान पे आ धमका। उसने एक किलो जलेबियाँ तौलायीं और बगैर पैसे दिए जाने को मुड़ा। सत्येन्द्र ने उसे रोका तो वह आँखें तरेरते हुए बोला, ‘जादा चूँ-चपड़ नई करने का, शाम को भाई लोग इदर आयेगा तो तेरा पईसा मिल जायेगा। अम अराम की नई खाता, अभी इदर पैसे नई हैं समझा क्या!’

सहसा सत्येन्द्र को पता नहीं क्या हुआ और उसने गला फाड़कर जाते हुए दारोगा साब को आवाज़ लगायी। साहब जी फ़ौरन लौट के आये। सत्येन्द्र ने जल्दी-जल्दी उन्हें सब स्थिति बता डाली। इस पर दारोगा जी भाई के ऊपर गर्जे, ‘क्यों बे! बाप का माल समझ रखा है क्या कि जब मन चाहा मुँह उठाते हुए चले आये। अब बहुत दिन ऐश कर लिए तुम सब, अब अन्दर जाने का टेम आया है।’ यों कहकर उन्होंने भाई की बाँह पकड़ी। इस पर भाई कुछ दबा लेकिन निर्भीकता से बोला, ‘अरे साब क्यों मज़ाक करते हो, इदर कल शाम से अपुन भूका है एकदम सच बात, खा लेन दो न! आप भी खाओ, अम आपको कैसे भूल सकता है, वो क्या है न कि इदर मौसमी बेरोजगारी चल रई है सो अपुन का मामला एकदम ठंडा है नईं तो अपन आपके सामने तुरंत एकदम फंटास गाँधी जी को भेंट करता साब, अम इतना गिरा नई है।’

दारोगा साब उसे डांटते हुए बोले, ‘चल-चल जलेबी रख! ज्यादा बातें न बना और दफा हो जा यहाँ से, दुबारा नज़र आया तो अन्दर कर दूँगा, समझा!’
‘ठीक है साब, जैसी आपकी मर्ज़ी, कहीं और चला जाऊँगा। मैं भूल गया था कि यह आपका इलाका है!’ यों कहकर वह वहाँ से भागा।
दारोगा साब ने हँसते हुए सत्येन्द्र से कहा, ‘अरे मेरे होते हुए तुम्हें चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है, ये तो रोज का धंधा है और हाँ आधा किलो जलेबी ज़रा और पैक कर दो घर के लिए तुम्हारी भाभी जी और बच्चों को यहाँ की जलेबियाँ बहुत पसंद हैं।

सत्येन्द्र क्या कहता, चुपचाप उसने आधा किलो जलेबियाँ तौलीं और दारोगा साब को ससम्मान विदा किया।
सत्येन्द्र उन्हें जाता हुआ देखता रहा फिर उसने हिसाब लगाया कि उसकी ढाई सौ ग्राम जलेबियाँ बच गयीं थीं, वह इसके आगे कुछ और भी सोचना चाहता था लेकिन सोच न सका। क्या करना उसे यह सोच वह चुपचाप अपने काम में लग गया।

३ नवंबर २०१४

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