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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
पूनम पांडेय
की लघुकथा- कर्तव्यबोध


“कितनी धूल जमी हुई है इन व्हीलचेयर्स पर... लगता है एक अरसे से इनका इस्तेमाल नहीं हुआ है” मेरे पति ने अस्पताल के एक कोने में रखी व्हीलचेयर्स की तरफ इशारा किया।

“चलो अच्छा है न! कोई ज्यादा जख्मी मरीज नहीं आया होगा” मैंने कुछ तसल्ली महसूस की।

तभी पीछे से आवाज़ आई, “हटो, हटो, हटो” और हम लोग एक किनारे खड़े हो गए।

दो व्यक्ति एक वृद्धा के भारी भरकम शरीर को, लगभग घसीटते हुए, लिए चले आ रहे थे। हड्डियों का अस्पताल था वो और वृद्धा को शायद कमर में चोट लगी थी।

उन्हें इस तरह मरीज को घसीट कर लाते देख पतिदेव ने कहा, “भाई व्हीलचेयर ले लेते, ये रखी हुई हैं।”
उनमें से एक ने जवाब दिया, “नहीं, उसकी कोई जरुरत नहीं है हम अपनी माँ का भार उठा सकते हैं।”
इतना कह कर वे दोनों सुपरमैन जैसी मुस्कान फेंक वृद्धा को फिर घसीटने लगे। मुझे हैरत हुई इस असमय शक्ति प्रदर्शन पर और नज़र जब वृद्धा के चेहरे की ओर गई, तो देखा, उनकी आँखों में आँसू छलक आये थे।

साफ दिख रहा था कि वे आँसू अपने शक्तिवान बेटों की प्रशंसा में नहीं बल्कि अपनी पीड़ा के प्रति उनकी संवेदनहीनता पर उमड़े थे।
माँ समझ गई थी कि उसके पुत्रों का कर्तव्य-बोध केवल उसका भार उठाने तक ही सीमित है, वे उसकी पीड़ा भी समझेंगे, ये बात शायद उनकी क्षमता के बाहर है। 

१५ जुलाई २०१६

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