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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
प्रेरणा गुप्ता
की लघुकथा- धुआँ


विनोद के जाते ही, दीदी रसोईघर में घुस आईं। पटरे पर बैठी विमल तरोई सुधार रही थी, चूल्हे पे बटलोई चढ़ी हुई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि बात कहाँ से शुरू करें, “तरोई कितनी ताज़ी है न।”
“हाँ दीदी, मौसम की नई तरोई पहली बार आई है, लेकिन इन्हें पसंद नहीं, इनके लिए आलू की सब्जी बनाऊँगी।”
बटलोई गरम हो चुकी थी, उसने सब्जी छौंकने के लिए उसमें घी डाल दिया।

“विमल! एक बात बता, तू कितनी मुरझा गयी है, शादी में कितनी खिली-खिली थी।"
“ऐसी बात नहीं है दीदी।” घी में जीरा डालते हुए उसने हँसने का उपक्रम किया।
“देख विमल, मुझसे कुछ भी छुपा नहीं है अब। सच-सच बता दे, विनोद तुझसे बोलता नहीं न!"
तरोई छौंकने की छन्न के साथ उसका घाव भी हरा हो गया। वह सिर झुकाए बैठी रही।
“वह मेरा भाई जरूर है, पर तुझे जरा भी तकलीफ दी तो मैं उसके कान खींच लूँगी।”
अंदर भाप बनने के साथ सब्जी खदकने लगी थी, उसके अन्दर जमा हुआ सैलाब भी अब पिघलने लगा था।
“कुछ बोलेगी नहीं तो मुझे पता कैसे चलेगा?

तरोई गलकर सिकुड़ने लगी थी और उसके अंदर भी कुछ सिकुड़ रहा था।
“बोल विमल बोल! तुझे मेरी कसम!”
तेजी से बनती भाप रुक न सकी, अपने साथ सब्जी के रसे को भी छनछनाती हुई बाहर बहा लाई। दीदी ने जल्दी से बटलोई पर ढकी तश्तरी खोलने के लिए अपने हाथ बढ़ा दिए। उसकी पलकों में छुपे आँसू भी भरभराकर बह निकले, वह काँपती आवाज में बोली, “मैं उन्हें पसंद नहीं।”
दीदी फट पड़ीं, “पसन्द नहीं? तू क्या सब्जी भाजी है, जो पसन्द नहीं... तो उसने फेरे ही क्यों लिए?” कहती हुई वे अपनी जली उँगलियों को सहलाने लगीं।
बटलोई में सब्जी जलकर चिपक गयी थी और धुआँ चारों तरफ फैलने लगा था।

१ सितंबर २०१८

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