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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की लघुकथा- नवरात्र


शर्मा जी की यों तो आदत बहुत खाने की है, बुराई एक है, अपने खाने में से वो किसी को पूछते नहीं कि भैया जी थोड़ा सा आप भी खा लें। धार्मिक इतने कि कार्यालय कभी प्रातः साढ़े ग्यारह से पहले नहीं आते और चार बजे कार्यालय छोड़ देते। कारण पूछो तो बताते कि पूजा पर बैठते हैं।

नवरात्र में वे फलाहार कार्यालय कैम्पस के बाहर लगे फलों के ठेले पर करते। सो नित्य की भाँति वे फलाहार करने गए। पीछे पीछे मैं भी गया कि व्रत के नाम पर एक दो केले मुझे भी मिल जाएँ। पर ऐसा सौभाग्य कहाँ? एक दर्जन केला खरीदा और शुरू हो गए। मैं जानता तो था ही आदत उनकी, मुझे निराशा ही हाथ आयी। सो मैने भी दो केले ले लिये। देखा कि एक छोटी बालिका अपनी गोद में शिशु लिए शर्मा जी की ओर इस प्रत्याशा से टुकुर टुकुर टाक रही थी कि शायद कृपा दृष्टि हो और शर्मा जी से एक आध केला मिल जाए। मगर शर्मा जी कहाँ पिघलने वाले। एक दर्जन केला सफाचट और निगाहें मेरे दो अदद केलों पर।

मुझसे तो रहा न गया, मैंने एक केला बालिका को दे दिया। दूसरा शर्मा जी को दे दिया। बालिका के अधरों पर आयी मुस्कान मुझे संतृप्त कर गयी। शर्मा जी नवरात्र में आप घर में कन्या नहीं खिलाते?

१ अक्तूबर २०१८

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