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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
प्रेरणा गुप्ता की लघुकथा- नयी काम वाली बाई


फोन पर घंटी बजी जा रही थी।
"हेलो!" सखी! कहाँ रहती है तू आजकल? मैं फोन रखने ही जा रही थी।"
"अरे... आ तो रही थी..!"
"इतनी हाँफ क्यों रही है! कोई बाई-वाई मिली कि नहीं अभी तक?"
"अरे...बाई की तो पूछो मत। वैसे भी आज सुबह से मेरा भेजा खराब है।" आवाज अनमनी हो उठी।
"हूँ..., लगता है आज, कुछ टैंशन हो गयी है घर में।"
"हाँ, तू ठीक कह रही।" आवाज भर्रा उठी।"
"अच्छा! देख, पहले पानी पी कर आ, फिर बता कि बात क्या हुई?"
"बात क्या होगी? वही बाई-पुराण! ऊपर से ये पति, नासपीटे कहीं के, ऊँह!"
क्रोध हाई स्केल पर पहुँच कर गुर्राने लगा था।
"अच्छा सखी, देख अब शांत हो जा। इतना गुस्सा ठीक नहीं। ठंडे दिमाग से बताएगी कि आखिर हुआ क्या?"
"तुझे तो मालूम ही है, जब से पुरानी वाली बाई गयी है, इतनी कड़ाके की ठंड में बरतन घिस-घिस कर मेरे हाथ...।" आवाज दुखियारी हो चली।
"एक बात कहूँ, डिश वाशर खरीद ले। फटाफट काम, और आराम ही आराम।"
"ऐसा है, अब तू बेकार की अकल तो हमें सिखा मत, बहनों के पास बैंगलोर गयी, ऑस्ट्रेलिया भी गयी। सब देख आई हूँ कि कितना सुख है मशीन का! पहले तो एक-एक बरतन की झूठन साफ करो, पानी से धो। फिर मशीन के खाँचों में उन्हें सेट करो। और मशीन महारानी, अपना पूरा समय लेकर ही बरतन निकाल कर देगी। इससे अच्छा खुद ही न कर लो।"
"हम्म!... फिर तवा, कढ़ाई और कुकर तो खुद ही माँजना पड़ता है।"
"जब सब मालूम है, तब भी बेकार की अकल सिखाती है।"
"अच्छा ये बता पतिदेव से क्या खटर-पटर हो गयी।"
"अरे...... ! एक तो सुबह से दस ठो काम, ऊपर से एक भी बाई नहीं। तो फिर हम होंगे न हैरान! और पतिदेव, बैठे-बैठे अपनी ही रामायण बाँच रहे थे-
बीस ठो बाइयाँ आईं, कोई भी न टिक पाई। हे प्रभु! अब तो कृपा करके तुम कोई ऐसा साँचा तैयार करो और उसमें मेरी पत्नी की पसंद की, बाई ढाल कर धरती पर भेज दो। ताकि सफल हो जाए ये जीवन।"
"हे राम! इन पतियों की भी न, तफरी लेने की आदत...।"
"वही तो..., एक तो सारा दिन काम करो, ऊपर से बोली-आवाजा सुनो इनकी। आज तो खूब जम कर हुई।"
"अरी, तू ही चुप हो जाती न।"
"अरे ! चुप कैसे हो जाती ! इन लोगों को क्या मालूम, किस तरह से ये बाई लोग हमारा इंटरव्यू लेती हैं। एक तो इत्ता सारा पैसा माँगती हैं। दूसरे घर-खर्च देते वक्त तो इन पतियों की नानी मरती है।"
"सच कहा तूने। आजकल बाई लोग के दिमाग भी सातवें आसमान पर हैं।"
"जब मैंने कह दिया कि मुझे अपने डिपार्टमेंट में किसी और की दखल-अंदाजी पसंद नहीं, तो बड़ी जोर की मिर्ची लग गयी। बोले, यहाँ तो हँसी मजाक भी पसंद नहीं लोगों को। साली काम वालियों के पीछे...।"
फौरन मैंने भी दहाड़ कर उन्हें चुप कराया, "ऐ... ये साली-वाली न कहना कामवालियों को। मैं ननद कहूँ तो कैसा लगेगा!"
"हा हा हा! ये भी खूब रही।"
"येल्लै! इहाँ आग लगी है और तुझे ठहाके सूझ रहे!"
"फिर आगे क्या हुआ? ये तो बता...!"
"होना क्या था, खूब दंगल मचा हमारे बीच।"
"अच्छा! तो तूने उनकी रामायण को महाभारत में बदल दिया!"
"और क्या, बोलती बंद कर दी आज तो हमने उनकी। वो तो दरवाजे पर घंटी न बजती तो शायद और देर तक चलता ही रहता।"
"कौन आ गया था डिस्टर्ब करने?"
"अरे नयी कामवाली बाई! कल बात कर गयी थी न। सच कहूँ, बड़ी मुश्किल से पसंद आई हूँ मैं उसे।" आवाज पायल-सी छनन-छनन बोल उठी।
"अहा! सचमुच तू कितनी लकी है। वैसे एक बात तो है, बाई न सही, मगर शादी के लिए तेरे पति ने तुझे एक बार में ही पसंद कर लिया था।"

१ फरवरी २०१९

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