|  
                  लम्बी बीमारी के बाद बाबू जी का 
					बम्बई में स्वर्गवास हो गया। मैं कुछ महीने पहले ही उनके पास 
					तीन हफ्ते बिता कर आया था। बेचारे बहुत ही कष्ट में थे। 
					डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मैं बहुत चाह कर भी उनके 
					अन्तिम क्रियाकर्म के लिए समय पर नहीं जा सकता था। मान्ट्रीयल 
					से बम्बई पहुँचने में कम से कम तीन चार दिन तो लग ही जाते। 
					कैनेडियन नागरिक होने के कारण मुझे एक दिन तो ओटावा में भारतीय 
					हाईकमीशन से भारत का वीसा लेने को ही लग जाता। गीता और ममी ने 
					भी आग्रह किया कि मेरे आने की कोई जरूरत नहीं है। सब कुछ सोच 
					विचारकर मैंने बम्बई जाने का इरादा बदल दिया। मेरे भारत जाने 
					से बाबूजी तो वापिस आने से रहे। वैसे भी पिछले तीस वर्षों से 
					मेरे संबंध अपने परिवार वालों से खास अच्छे नहीं थे। बाबूजी के 
					जीवन काल में भी हमेशा हमारे रिश्तों में 
					तनाव ही रहता था।
					1
 बाबूजी के स्वर्गवास की खबर मैंने अपने तीनों मामाओं को कर दी। 
					सबसे बड़े मामाजी और मामीजी का स्वर्गवास कुछ वर्षों पहले हुआ 
					था इसलिए उनके सबसे बड़े बेटे को ही जयपुर में पत्र लिख कर 
					सूचना दी। दो बीच के मामा भरतपुर में रहते थे उनको वहां पत्र 
					लिख कर सूचित किया। सबसे छोटे मामाजी दिल्ली में रहते थे, उनको 
					और मामीजी को सम्बोधित करके पत्र लिखा। मौसीजी और मौसाजी को 
					जयपुर में पत्र भेजा। दिल्ली में पुष्पा के डैडी को भी बाबूजी 
					के स्वर्गवास की खबर दी।
 
					हर 
					पत्र में बम्बई का पता भी लिख भेजा ताकि अगर वे लोग चाहें तो 
					बम्बई पत्र लिख कर अपना शोक जाहिर कर सकें। मेरे पत्र लिखने के बाद दोनों मामाओं के जो भरतपुर में रहते 
					थे, ममेरे भाई का और मौसाजी का जयपुर से पत्र आया अपना–अपना 
					शोक प्रकट करते हुए। हर एक ने लिखा था कि उन्होंने बम्बई में 
					भी पत्र लिखा है। पुष्पा के डैडी से भी फोन पर बात हुई। पुष्पा 
					की सबसे छोटी बहन के पति ने भी पत्र लिखकर अपना शोक प्रकट 
					किया। पुष्पा की सबसे छोटी बहन के पति ने भी पत्र लिखकर अपना 
					शोक प्रकट किया। घर के कुछ लोग पुष्पा की सबसे छोटी बहन के पति 
					को जरा तेज मिजाज का समझते हैं। परन्तु बाबूजी के निधन पर उसने 
					पत्र लिखकर मेरा मन जीत लिया। पुष्पा के बाकी सब भाई बहनों में 
					से केवल उसी ने ही पत्र लिख कर अपना जो रूप प्रकट किया था उससे 
					प्रभावित हुए बिना मैं नहीं रहा।
 मैं मन ही मन काफी खिन्न हुआ जबकि सबसे छोटे मामाजी का कोई भी 
					पत्र नहीं आया। अम्मा अपने चारों भाईयों और एक बहन को बेहद 
					प्यार करती थी और उनके जीवन काल में वे भी शायद उनसे बेहद 
					प्यार करते थे। परन्तु चालीस साल पहले अम्मा का स्वर्गवास हो 
					गया तबसे हम लोगों के बीच दूरियाँ होती गई। यह नहीं कि मुझे 
					अपने ननिहाल वालों से प्यार नहीं है, पर पिछले पैंतीस वर्षों 
					से विदेश में रहने के कारण यहाँ की व्यस्त जिन्दगी में उनको 
					पत्र नहीं लिख पाता था। आजकल ई–मेल के जरिए अपने कुछ ममेरे और 
					मौसेरे भाइयों से संपर्क बना रहता है।
 
 अम्मा अपने जीवन के आखिरी दस वर्षों में छोटे मामाजी और मामीजी 
					के काफी करीब हो गई थीं। छोटे मामाजी दिल्ली में डिफेन्स 
					मिनिस्ट्री में साइंटिस्ट थे और बाबूजी मोदीनगर में मोदी 
					टेक्सटाइल्स में काम करते थे। इतने पास होने के कारण मामाजी के 
					पास आना जाना लगा ही रहता था। बाबूजी कम्पनी के काम से कई बार 
					कार से दिल्ली जाया करते थे। तभी कभी कभी अगर कार खाली होती थी 
					तो बाबूजी के साथ सवेरे दिल्ली मामाजी से मिलकर शाम को लौट आती 
					थी।
 
 उमा मामीजी हमारे परिवार में दूर दूर तक पहली ग्रॅज्युएट थी। 
					पढ़ी लिखी बहुत ही शान्त मिजाज़ की। उनसे मिलना होता रहता था 
					इसलिए वे मुझे बहुत ही अच्छी लगती थी। अम्मा भी मामीजी की पहली 
					दो बेटियों के पैदा होने के समय मामीजी की देखरेख के लिए उनके 
					यहाँ कई–कई हफ्ते रह चुकी थीं। मामीजी भी अम्मा का बहुत आदर 
					करती थी। दोनों ननद भौजाई में काफी प्यार था।
 
 अम्मा की मौत के समय मामाजी और मामीजी ही अम्मा के पीहर के थे 
					जो हर रोज उनसे मिलने नर्सिंग होम में दरियागंज में आते थे। जब 
					भी मामाजी और मामीजी उनसे मिलने आते थे तब–तब अम्मा के चेहरे 
					पर खुशी और शान्ति की एक लहर दौड़ती थी। हमारे घर के तो कितने 
					ही लोग थे पर अम्मा उन लोगों के पास होने से उतनी संतुष्ट नहीं 
					होती थी जितनी अपने भाई भाभी को देखने से। आखिर अम्मा और 
					मामाजी ने एक ही माँ के पेट में पैर जो पसारे थे।
 
 मामाजी का शोक प्रकट करता हुआ पत्र न आने से मेरा मन उनके 
					प्रति खट्टा हो गया। उस साल मैंने किसी को भी नए वर्ष की 
					शुभकामनाओं का कार्ड नहीं भेजा इसलिए मामाजी को भी नहीं भेजा।
 
 दिल्ली में दिसम्बर में एक कॉन्फ्रेन्स थी। कॉन्फ्रेन्स वालों 
					के आग्रह से मैंने भी कॉन्फ्रेन्स में भाग लेने का निमंत्रण 
					स्वीकार कर लिया। मैं एक शोध पत्र पर मेक्सिको के एक प्रोफेसर 
					के साथ काम कर रहा था। उसी शोध कार्य पर आधारित शोध पत्र को 
					मैं उस कॉन्फ्रेन्स में पढ़ना चाहता था। दिल्ली में कॉन्फ्रेन्स 
					अटेन्ड करने के लिए में हमेशा ही उत्सुक रहता हूँ। दिल्ली की 
					आय.आय.टी. के कुछ प्रोफेसरों के साथ मैं बरसों से शोध कार्य कर 
					ही रहा हूँ। उनसे मिलना हो जाता है और आय.आय.टी. के 
					विद्यार्थियों को भी एक आध रिसर्च सेमिनार दे ही देता हूँ। और 
					इन सब कारणों में सबसे प्रमुख कारण है पुष्पा के डैडी, बड़े भाई 
					और तीन बहनों का दिल्ली में होना। दिल्ली में कॉन्फ्रेन्स होने 
					के कारण उन सबसे मिलन आसान हो जाता है । होटल में रहने की 
					तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। पुष्पा के डैडी के साथ घर पर ही रहना 
					होता हैं। दिल्ली के बाहर कॉन्फ्रेन्स होने से यात्रा में या 
					हवाई अड्डे पर इन्तजार करते हुए आने जाने में ही दो दिन खराब 
					हो जाते हैं।
 
 दिल्ली में मुझे मामाजी और मामीजी की बहुत याद आई। बार बार 
					उनको फोन करने का मन किया परन्तु मैंने उनको फोन नहीं किया। 
					पहले जब भी कभी दिल्ली आता था मामाजी को अवश्य फोन करता था। 
					फिर या तो उनके घर आकर उनसे मिल आता था या फिर करोलबाग में 
					मामाजी और मामीजी अपनी बड़ी बेटी के घर आ जाते थे। वहीं उन सबसे 
					मिल लेता था। इस बार न जाने क्यों मैं उनको फोन करके लिए 
					उत्साहित नहीं था। मामाजी ने बाबूजी के स्वर्गवास पर मुझे पत्र 
					न लिख कर जिस बेरूख़ाई का परिचय दिया उसको मैं नहीं भुला सका। 
					मामाजी की बड़ी बेटी आभा के घर के पास से न जाने कितनी बार 
					गुज़रा हूँगा परन्तु मैं स्कूटर रिक्शा वाले को उसके घर की ओर 
					चलने को न कह सका।
 
 कॉन्फ्रेन्स के बाद मैं और पुष्पा दो दिन के लिए महावीर जी 
					टेकसी गए। रास्ते में भरतपुर पड़ता था। मेरे दो मामा उस शहर में 
					रहते हैं और मैं उनसे बिना मिले जा रहा हूँ, यह सोचकर मुझे मन 
					ही मन बहुत खराब लगा। मेरी स्वर्गवासी माँ की आत्मा को बहुत ही 
					कष्ट हो रहा होगा कि उनका बेटा उनके दो भाइयों के घर के इतने 
					पास से जा रहा है उनसे बिना मिले। मैं शायद अपने आप को भी नहीं 
					माफ कर पाऊँगा कि मैंने ऐसा क्यों किया। अगर जीवन में कभी समय 
					मिला तो मैं अवश्य ही अपने दोनों मामाओं से मिलने भरतपुर 
					जाऊँगा। मैंने मन ही मन संकल्प किया कि इस बेरूखी का मुझे कभी 
					न कभी प्रायश्चित करना होगा। निश्चय किया कि अपने अगले भारत 
					भ्रमण में भरतपुर अवश्य जाऊँगा।
 
 महावीर जी से आने के बाद अगले ही दिन हमारी वापिसी की हवाई 
					उड़ान थी। हम न्यू इयर ईव अपनी बेटी के साथ बिताना चाहते थे 
					इसलिए ३१ दिसम्बर की शाम को मॉन्ट्रीयल वापिस आ गए। पिछले दो 
					सालों से मैंने भी किसी को नए वर्ष की शुभकामनाओं के कार्ड 
					नहीं डाले थे इसलिए हमारे पास इस बार बहुत ही कम कार्ड आए। जब 
					हम कार्ड नहीं भेजेंगे तो कोई क्यों कर हमारे पास कार्ड 
					भेजेगा।
 
 यूनीवर्सिटी तीन जनवरी को खुल गई थी और हमेशा की तरह कक्षाएँ 
					भी उसी दिन से शुरू हो गई थी। कैनेडा में यूनीवर्सिटी में पढ़ाई 
					पहले दिन से ही पूरे जोर शोर के साथ शुरू हो जाती है। कुछ ही 
					दिनों में हम भूल ही गए कि कुछ ही दिनों पहले हम भारत से लौटे 
					हैं। अपने साथ लाई हल्दीराम हलवाई की मिठाई ही हमें भारत भ्रमण 
					की एक मात्र यादगार बची थी।
 
 जनवरी में मान्ट्रीयल में कितनी सर्दी होती है उसकी कल्पना भारत 
					के लोग नहीं कर सकते। घर के बाहर एक या दो फीट बर्फ होती है और 
					तापक्रम –२० डिग्री सें. से लेकर –३५ डिग्री सें.तक होता है। 
					इतनी ठंड होती है कि नाक का बहता पानी नथुनों में जम जाता है। 
					मैं घर से यूनीवर्सिटी जाने के लिए बस स्टॉप पर जा रहा था। 
					रास्ते में ही पोस्टमैन मिल गया। उससे मैंने अपने पत्र ले लिए 
					और उन्हें अपने ब्रीफकेस में रख लिया। बस से यूनीवर्सिटी 
					पहुँचा। अपना विंटर कोट, विंटर बूटस् और टोपा उतारा। ठंड के 
					मारे नाक जम गई थी। कान अकड़ गए थे। पन्द्रह बीस मिनट बाद मैं 
					सामान्य हो पाया। उन तीन पत्रों में से एक पत्र भारत से भी था। 
					लिफाफे के ऊपर मौसाजी का पता लिखा था।
 
 मैंने लिफाफा खोला। मौसाजी हमेशा ही बहुत स्नेह भरा पत्र लिखते 
					हैं। परिवार की खबरें थी, नए वर्ष की शुभकामनाएँ थी। पृष्ठ के 
					दूसरी तरफ मौसाजी ने एक बेहद दुखद सूचना दी थी। दिल्ली में उमा 
					मामीजी की ब्रेन ट्यूमर के कारण दिसम्बर में मृत्यु हो गई थी। 
					मौसाजी के पत्र ने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया। मैं और पुष्पा 
					दिसंबर में तो दिल्ली में ही थे। अगर एक बार भी मामाजी को फोन 
					करता या उनकी बड़ी बेटी से करोलबाग में मिल लेता तो अवश्य ही 
					मामीजी के दर्शन हो जाते।
 
 बाबूजी के स्वर्गवास के समय मामाजी ने मुझे शोकपत्र नहीं लिखा 
					उस बात को लेकर मैं एक ऐसा अपराध कर बैठा जिसके लिए मैं अपने 
					आप को कभी भी क्षमा नहीं कर सकता। संभवतः बाबूजी के स्वर्गवास 
					के समय मामीजी के ब्रेन ट्यूमर की बीमारी की बुरी खबर मामाजी 
					को पता चली होगी। उन हालातों में उनको मुझे शोक पत्र लिखने की 
					कहाँ सूझती।
 
 जीवन में कई अवसर आते हैं जब इंसान अपनी ही नजरों में अपने को 
					बहुत छोटा महसूस करने लगता है। जहाँ मामीजी ने अपने जीवन काल 
					में मुझे अपने प्यार से एक ऊँचे धरातल पर रख दिया था, उनकी 
					बीमारी और मौत ने मुझे अपनी ही संकीर्ण भावनाओं के कारण मुझे 
					पाताल में पहुँचा दिया। अपनी ही गलतफहमी का मैं ही शिकार बन 
					गया था।
 |