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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से सुषम बेदी की कहानी- कितने कितने अतीत


इधर कुछ दिनों से कौशल्या बस एक ही शिकायत करती थकती न थी। हर किसी से वही कहानी दुहरायी जाती। पहले तो निजी परिचारिका से कहा- हाय हाय मुझसे नहीं देखा जाता वह आदमी। मेरी टेबल पर ही बिठा दिया है उसको। हर वक्त नाक बहती रहती है, मुँह से लार टपकती रहती है और वह मुँह में खाना डालता रहता है। न नाक साफ करता है न लार। खाने के साथ लार भी... छिछि, घिन होती है मुझे। मैं नहीं बैठ सकती उस मेज पर।

परिचारिका बोली-तो क्या हुआ? तुमको तो कुछ नहीं कहता। अपना चुपचाप खाता रहता है।
और जो नाक गिरती रहती है खाने में? तो क्या मुझको फरक नहीं पड़ता। मुझसे नहीं देखा जाता। उल्टी आती है उसे देखकर। कम से कम नाक तो साफ कर ले। खाने के साथ साथ नाक भी निगलता जाता है। कोई उसको कुछ कहता क्यों नहीं?
मिस शर्मा। मार्क (यही उसका नाम था) बेचारे को अपना तो होश नहीं। वह क्या करेगा नाक साफ। कोई नर्स तो पीछे पीछे घूम नहीं सकती जो नाक साफ करती फिरे। टिशू का डब्बा उसके कमरे में रख देते हैं। बेचारे की उम्र भी तो हो गयी है। ९३ साल का तो हो चुका है।
हूँ खाने का होश है पर सफाई का नहीं!
कौशल्या ने मुँह बिचका कर कहा तो परिचारिका चुप हो गयी। उसे यूँ भी पता था कि एक बार जो बात शर्मा के दिमाग में आ गयी तो वहाँ से खिसकने नहीं वाली। वह यही सब दुहराती रहेगी। किसी का कोई भी जवाब यों भी उसे संतुष्ट नहीं कर सकता। और यहाँ एक अकेली बुढ़िया तो थी नहीं जिसे बैठकर समझाया जाये। इस संस्थान में रहने वाला हर बूढ़ा कोई न कोई नयी समस्या पैदा करता ही रहता था। दरअसल उनका खयाल रखनेवाले इन कर्मचारियों को यही संतुलन लगातार बैठाना पढ़ता था कि न तो किसी को नाराज करें न ही ओवरइंडल्ज यानि कि ज्यादा लाड़प्यार। उनको ऐसा न लगने दें कि उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा या उनकी सही सेवा-सुश्रूषा नहीं हो रही पर कर्मचारी अपनी सैनिटी न खोयें यानि कि अपने दिमाग का संतुलन भी बनायें कि न तो वह बहुत ज्यादा भड़कें कि गुस्से मे कुछ बकझक दें और न खुद पागलों जैसे आपे के बाहर हो जायें। कहने का मतलब यह कि इन सठियाये नहीं, अठियाये या नव्वाये बिगड़ैल बच्चों को पालना दुनिया के किसी भी काम से शायद ज्यादा माँग करने वाला है। तनख्वाहें अच्छी थीं इसलिये काम करने वाले मिल तो जाते थे पर सभी वहाँ सेवाभाव से प्रेरित होकर काम करने नहीं आते थे, बल्कि कमाई के लिये ही आते थे। इसलिये अकसर उनकी उलटी सीधी बातें भी सुन लेते और आगे ऐसा कुछ बोलते न थे कि अगले को बात चुभ जाये और बात का बतंगड़ बन जाये। बन जाये तो क्या पता नौकरी से ही हाथ धोना पड़े। और फिर अपने मालिकों को तो खुश रखना ही पड़ता है।

कौशल्या को इस स्थिति का कोई समाधान तो खोजना ही था।
समाधान यही हो सकता था कि उस मार्क नाम के बंदे को उस मेज से हटाकर कहीं और बिठाया जाये ताकि कौशल्या को उसकी बहती नाक और लार न देखनी पड़े।
पर यह कैसे होगा? हूँ, रास्ता ढूँढ़ना होगा।
यहाँ जो भी नियम बने होते हैं, जिस तरह से इंतजाम किये गये होते हैं उनमें बदलाव आसान नहीं होता, जैसे कि कोई जिगसा पज़ल हो कि एक हिस्सा हिला देने से पूरा का पूरा पज़ल ही खराब हो जायेगा, कुछ इस तरह बर्ताव करते हैं ये लोग।
अगर एक मेज पर फलाँ-फलाँ चार लोगों को बैठना है तो वही बैठेंगे। उसमें बदलाव नहीं किया जाता। कौशल्या को यह नियम-टियम बिल्कुल नहीं भाता। वह तो कभी इस तरह बँध कर रही नहीं। आखिर अपने घर में नियम तो वह बनाती थी। पति का बनाया नियम तक तो चलने नहीं दिया था और यहाँ साले चले हैं कौशल्या पर नियम लादने! यों भी पैंतालीस बरस की उमर से तो वह विधवा जीवन जी रही है। एकदम से अपने निर्देशों पर। जो मन आये किया, जब नींद आयी सो गये नहीं तो देर रात तक टेलीविजन देखते रहे। यहाँ तो उस पर कोई न कोई आकर रौब मार देता है। १२ बजनेवाले हैं, साथवाले कमरों से आवाजें आनी लगती हैं। उसके टीवी की आवाजें लोगो को सोने नहीं देतीं। और बहुत धीमा करके कौशल्या को कुछ सुनता ही नहीं और उसे खीज कर टीवी बंद करना ही पड़ता है। अब हर चीज में तो अगलों का रौब नहीं चल सकता न!

जिस्म ढीला हुआ है, पर कौशल्या का दिमाग फिलहाल दुरुस्त था। अपनी खाली-खाली सी जिंदगी में उसने वक्त कटी के लिये किसी न किसी के मीनमेख निकालने का शगल पाल लिया था। कौन कितने साल का है, कब और क्यों यहाँ आया, उसके परिवार में कौन है, या उसने उम्र भर शादी की ही नहीं, कौन स्कूल टीचर थी या कौन एक्टर था या किसको मिलने कौन आता है, इसकी सारी खबर रखने में उसे खासी दिलचस्पी थी।

बेचारी करे भी क्या! इसी तरह तो मन लगाना होता। कहाँ जाकर इन अमरीकियों के बीच फँस गयी थी। अब बुढ़ापे में आकर रहन-सहन के नये तौर तरीके सीखना उसके बस की बात नहीं रह गयी थी। खाना भी अमरीकी। भाषा भी अमरीकी। और ये काम करनेवाली कालियाँ (काले रंग की परिचारिकायें) उसे कतई न भातीं। उनका बोलने का एक्सेंट ही कौशल्या को समझ न आता था। न उनको कौशल्या का।

उस दिन स्वीडिश मीटबाल बने थे पर कौशल्या ने सुना स्वदेशी मीटबाल। और सोचती रही कि यह स्वदेशी मीटबाल भला कौन सा पकवान है। जब प्लेट सामने आयी और पता चला कि ये तो गउमाँस के कोफ्ते बने हैं तो छि छि करके प्लेट सामने से हटवायी। खाली उबली सी सब्जियाँ और नूडल मँगवा कर बड़े बेमन से खायीं। बीफ के तो नाम से ही उसके अंदर गालियाँ उठने लगती है।

अब भला कितनी अमरीकी बनेगी?
हाँ कौशल्या यहाँ रहते हुए एक बात बहुत ज्यादा अच्छी तरह से समझने लगी है और वह यह कि अपने मन की इच्छा इन अमरीकियों तक जरूर पहुँचानी है । अगर चुप रहे तो कुछ नहीं होने वाला। चुप रहो तो बस सहते रहो। जो चाहिये, उसके लिये कहना पड़ता है, अपनी आवाज सुनानी होती है और कभी कभार तो लड़ना भी पड़ता है। और इस रास्ते से मनमुराद पूरी करने में सफलता मिल ही जाती है।

अब कुछ लोग तो काफी अपंग से हैं, यादाश्त खो गयी है सो कुछ कह या कर नहीं पाते अपने लिये। पर कौशल्या की याद्दाश्त तो खासी ठीकठाक है। जब अपने साथियों के साथ तंबोला खेल खेलने लगती है तो सबसे ज्यादा जीत भी उसी की होती है। एक खेल प्राईस राइट में भी वह खूब जीतती है। इस खेल में उनको दिलचस्प स्नैक्स, कार्नफ्लेक्स, या ऐसे ही पैकेट्स दिखाये जाते हैं और कहा जाता है कि सही दाम बतायें। जिसका अंदाजा सबसे सही यानि की असली कीमत के करीब होता है उसको वह पैकेट मिल जाता है। कौशल्या ने ऐसे कितने ही जीते हैं। और तो और वह घुटनों की तकलीफ कम करने के लिये रोज सुबह नाश्ते के बाद कसरत वाले कमरे में जरूर जाती है और वहाँ खड़ी कसरतवाली साईकलों पर टाँगों से ढाई-तीन सौ चक्कर चला लेती है। तभी तो ८९ साल की उम्र मे भी धीरे धीरे वाकर के सहारे के साथ चल पाती है। यों जब यहाँ आयी थी तो बेहद कमजोर, लगभग मरने-मरने जैसी हालत में हो चली थी। तभी तो बिटिया ने कहा था- ममा वहाँ आपकी देखभाल होगी। मैं काम से कभी कहाँ, कभी कहाँ। बार बार आपको अस्पताल लाना हो नहीं पाता तो आप की ठीक से देखभाल नहीं होती।

यहाँ और सब तरह के सुख तो हैं, हर तरह से देखभाल की जाती है। इसलिये रहना भी यहीं है। वर्ना इस गिरते हए बदन को कौन सँभालेगा। न तो खुद नहा सकती है, न बाल धो सकती है, न कपड़े पहन सकती है। ऊपर से कभी घुटनों और टाँगों में दरद तो कभी पैरों में सूजन। कभी ब्लड प्रेशर हाई तो कभी शूगर हाई। कुछ न कुछ तो शरीर को लगा ही रहता है और अपने आप से कुछ होता ही नहीं। अब रहना तो इसी बूढ़ों के घर यानी कि असिस्टेड लिविंग में ही है। वह भी मोहताज होकर। करे भी क्या। जीना मरना तो उसी के हाथ में है। उसकी दी घड़ियों को तो काटना ही है।

यहाँ तो एक बात को मनवाने के लिये सारी की सारी मशीनरी हिलानी पड़ती है। खैर कौशल्या को जो नहीं पसंद उसका परिहार करने में वह भी कोई कमी नहीं होने देगी। तो ठीक है। यह अभियान भी शुरू हो जाये।
अगले दिन कौशल्या सोशल वर्कर के दफ्तर पहुँच गयी। सोशल वर्कर इन सेवा करने वाली परिचारिकाओं और नर्सों की सुपरवाइजर थी। सोशल वर्कर तो पहले से ही चिढ़ी बैठी थी शर्मा से। जिस किसी के साथ भी बैठती है इसे कोई न कोई शिकायत होने लगती है उससे। कोई आठ-दस साल पहले की बात है पर सोशल वर्कर को अभी भी याद है कि पहले बाब बैठता था तो इसने उसके खिलाफ कहना शुरू कर दिया कि ठरक झाड़ता है । माई गाड शी इज़ ऐटी इयर्स ओल्ड। हू इज इंटरेस्टेड इन हर।
इस को यों ही मुगालते होते रहते हैं। उसने कांप्लीमेंट क्या दे दिया यह उसको प्रेम प्रस्ताव मानने लगी है कि क्या!

कुछ था जो कौशल्या को जैसे जिंदगी की ओर खींचता था। हाँ भीतर का तार बजा तो था। बाब की जिजीविषा उस कंकड़ की तरह थी जो किसी भी पानी में फिंकता तो वहाँ भँवर तो पड़ ही जाते। पर कौशल्या डरती थी उन भँवरों से। पानी की
गतिशीलता से। अब उमर गुजर गयी, अब क्या छेड़ना! न ही मन में भरोसा उठता था कि इस उमर में भी कोई सच्चा प्यार दे सकता है। यों ही खिलवाड़ के लिये नहीं बनी कौशल्या। ये बाब तो ऊपर ऊपर से ही ठरक झाड़ता है। अगर वह उसेथोड़ी शह दे भी दे तो पता नहीं कब सबके सामने हाथ ही लगाना शुरू कर दे। क्या कहेंगे सब लोग। न बाबा न!

बेचारी सोशल वर्कर भी करे तो क्या। यहाँ रहने वाले डेढ़ सौ बूढ़ों में रोज ही किसी न किसी की कोई न कोई शिकायत लगी ही रहती थी।
कभी लांडरी से किसी का कपड़ा वापिस नहीं आया, तो किसी की दवाई समय पर नहीं पहुँची। हर काम के लिये ये लोग स्टाफ पर आश्रित हैं। यह तो डेढ़ सौ लोगों की गृहस्थी सँभालने जैसी जिम्मेदारी थी। एक अकेले घर की जिम्मेदारी से तो लोगों के नाक में दम आ जाता है, यहाँ ये लोग उससे परफेक्ट सर्विस माँगते हैं। और अगर शिकायत न हो तो और बड़े बड़े मसले पैदा होते रहते हैं। अकसर कोई बुरी तरह बीमार हो जाता तो डाक्टर या अस्पताल भेजने का इंतजाम करना होता, कभी किसी की हड्डी कड़क जाती तो किसी को हार्ट अटैक, तो किसी की साँस रुक जाती। और इस कौशल्या को तो वैसे ही समझ नहीं पाती थी। इसकी शिकायतें ही निराली होती हैं। कितनी फजूल की शिकायतें होती हैं। कभी इसको खाना पसंद नहीं आता तोकभी कोई परिचारिका। जिद्दी इतनी है कि अपनी बात मनवाये बिना मानेगी नहीं।

पर सोशल वर्कर समझे या न, कौशल्या भी अपनी जगह सच्ची थी। कभी वह बाब उससे कहता-शर्मा तुम जवानी में तो खासी जोरदार रही होगी। चलो अब हमसे ही दोस्ती कर लो? क्या कोई इंडियन दोस्त है तुम्हारा? तुम्हारे तो बहुत दोस्त रहे होंगे। पर अब भी बिन दोस्त रहने की जरूरत नहीं। मैं हाजिर हूँ। आई विल बी योअर बेस्ट फ्रेंड।

कौशल्या हर बार उसे झाड़- फटकार देती पर उस पर कुछ असर होता न दीखता। ओह तो अभी भी नखरे! ठीक है। यही तो मुझे भी भाता है तुममें। सीधी-सादी लड़कियाँ तो मुझे भी नहीं भातीं। आई लाईक काम्पलीकेटेड विमन। एक दिन कहने लगा-तुम भी अकेली, मै भी अकेला। क्यों नहीं जिंदगी के बचेखुचे दिन मजे से बिताते। तुम मुझे पसंद हो। अगर तुम हाँ कर दो तो देखो, वी विल हैव लाट आफ फन। कौशल्या उसे हिंदी में खूब गालियाँ देती तो उसका ढीठ जवाब होता मुझेमालूम है तुम भी मुझे पसंद करती हो। तुम्हारा स्टाईल बालीवुड का है न! न न में हाँ!

दुरफिटे मुँह! बदतमीज, बेशरम कहीं का।
और भी भड़क जाती तो कहती- कोढ़ पड़े तुझे। कहीं का न रहे। हाय हाय। कैसे पीछे ही पड़ जाता है। बाब ने दो चार हिंदी की फिल्में देखी हुई थीं। कहने लगा- मैं हिंदुस्तान भी गया था। जब भी टेलीविजन देखो लोग बस नाच रहे होते हैं। तुम नहीं नाचतीं? चलो एक दिन नाच करें। मेरे पास मयूजिक है नाच का।
जवाब गाली ही मिलनी थी सो मिली।
फिर एक दिन उसने कहा था अरे
मिस शर्मा तुमको जीने से डर लगता है। लाईफ को इन्जाय करने से घबराती हो। किस बात का खौफ? मुझसे बात करके कुछ बुरा नहीं होगा तुमको। डर किस बात का है?
कौशल्या का नाश्ते और लंच का टाईम उससे अलग था सो वास्ता नहीं पड़ता था। पर डिनर की यह दूसरी सिटिंग होती थी और पहले वाली उसके लिये बहुत जल्दी होती थी। उसकी हिंदुस्तानी आदत थी कि खाना जितनी देर में हो सके खाना चाहती थी वर्ना ये लोग तो पाँच बजे से ही रात का खाना खा लेते हैं। बाब भी उसी दूसरी सिटिंग में आता था।

शर्मा ने जब सोशल वर्कर को उसकी शिकायत लगायी तो वह हँसने लगी थी। कि यह भी कोई बात है शिकायत करने की। उसने कौशल्या से कहा था कि वह तो यों ही तुमको काम्पलीमेंट कर रहा होगा। ही इज हार्मलैस। मजाकिया (जोवियल) किस्म का बंदा दीखता है। शर्मा को खुश होना चाहिये कि इस उमर मे भी कोई उसको काम्पलीमेंट करता है।

अपनी जवानी में कौशल्या अच्छी खासी दीखती थी। लुधियाना में एक बार एक लड़के ने उसे छेड़ा था तो कस के तमाचा जड़ दिया था उसने लड़के के मुँह पर। उसके बाद कभी किसी ने ऐसी हरकत करने की हिम्मत नहीं की थी। अब देखो बुढ़ापा भी कहाँ कहाँ जा के बदले निकालता है उमर भर के।

सोशल वर्कर से कौशल्या बहुत नाराज हुई थी- प्लीज। यू आर लाफिंग। यू थिंक इट इज आल राईट... ही इज़ गुंडा। बैड। वैरी वैरी बैड। आय एम इंडियन। वी डोंट लाईक दीज़ थिंग्ज। दिस इस नाट आवर कलचर। आइ गिव हिम... वट यू काल... और कौशल्या को अंग्रेजी में यह कहना नहीं आया कि मैं तो उसे एक ऐसा झापड़ देती कि उसे होश आ जाते, सारी अकड़ पानी की तरह बह जाती। बदमाश कहीं का! - बस बुड़बुड़ायी। खैर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में भी कौशल्या अपनी बात तो दूसरे तक पहुँचा ही देती थी। यह और बात है कि उसका कहने का लट्ठमार तरीका अगले को चाहे कितना ही बुरा लगे। कौशल्या शर्मा का गंभीर चेहरा देखकर सोशल वर्कर को भी बात की गहराई समझ आ गयी थी। यह जरूरी नहीं कि सबको ऐसी बातें सही लगें, अनुरंजक लगें। उसे कुछ करना ही होगा। और बाब को डाईनिंग रूम के दूरे सिरे पर जाकर टेबल मिली थी जहाँ से वह शर्मा को दीखता भी न था। कभी लाबी में उसे बैठा देखती तो कौशल्या टीवी रूम मे चली जाती। वह टीवी रूम में होता तो लाईब्रेरी या लाबी में बैठ जाती।

कई दिन तक कौशल्या उसकी बातें याद भी करती रहती और भुनती रहती। एक दिन परिचारिका ने जब उसे कहा कि अब तो खुश होगी वह कि बाब की मेज बदल गयी तो कौशल्या जैसे अपने आप को ही सचेत होकर कह रही थी-दिस इस नाट राईट। नाट राइट टु टाक लाईक दिस। ही इज ओल्ड मैन। ही इज शेमलैस। आई डोंट लाईक दिस।

और कहते कहते कौशल्या किसी दूसरी दुनिया को जीने लग गयी थी। बरसों पहले की दुनिया। हाँ... उसने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि वह अपनी जिंदगी को नकार रही है। पड़ोसी था वह उसका। मिस्टर कोहली। कोहली साहब कह कर बुलाती थी वह उसे। पति की अचानक दुर्घटना में मौत के बाद कौशल्या की बहुत मदद की थी उन्होंने । हर तरह के कागजात के काम, इधर उधर दफतरों में ड्राइव करके साथ ले जाना। जब उस बड़े से सरकारी घर से निकलना पड़ा था तो भी उन्होंने हर तरह से साथ दिया, हर तरह का काम करवाया। कौशल्या मन ही मन उनकी बहुत आभारी थी। यह भी सोचती कि उनकी मदद ने उसके वैधव्य को झेलने का काम कितना आसान कर दिया था।

बिटिया ने तो अभी कालेज पूरा ही किया था और आगे की पढ़ाई के लिये अमरीका में कई जगह अर्जियाँ भेज रखी थीं। बिटिया पढ़ने क्या आयी बस यहीं की हो गयी। मिलने तो आती थी, फिर यहीं बुला लिया। पर जितने साल वह अकेली भारत में रही वही उसका सहारा थे। यों कुछेक और सहेलियाँ रिश्तेदार भी थे। एक बहन भी शहर में ही थी पर रोजमर्रा की जिंदगी में शिरकत कोहली साहब की ही थी। बहुत भले थे, बहुत शिष्टता थी उनके व्यवहार में। आकर्षित तो वे थे कौशल्या के प्रति पर कभी उनके मुख पर कोई अश्लील शब्द नहीं आया। उनके अपनी भी पत्नी और दो बेटे थे। बस एक दिन कुछ ऐसा हुआ था, वे खुद पर काबू न रख पाये और कौशल्या को बाँहों में भर लिया था। पल भर बाद कौशल्या ने छिटका लिया था खुद को। तब उन्होंने बहुत कोमल स्वर में कहा था- क्या तुम्हारा मन नहीं करता! कौशल्या हाँ या न, कुछ भी नहीं कह पायी थी। बस यह ठीक नहीं है, कुछ इस तरह की बात निकली थी उसके मुँह से और प्लीज, आगे से कभी ऐसा मत... कहकर वह अलग हो गयी थी। कौशल्या के भीतर चाहे कितनी भी इच्छा हो, उस इच्छा का स्वीकार उसके संस्कारों में था ही नहीं। शायद इसीलिये कोहली साहब को अपने सवाल का जवाब हमेशा न में ही मिलता।

कोहली साहब ने दोबारा फिर ऐसी कोशिश नहीं की थी । और इतने साल अमरीका में रहने के बाद भी कौशल्या की भारत से जुड़ी स्मृतियों में सबसे बड़ा क्लोज़-अप इन्हीं सज्जन का था। मन में एक धुँधली सी छवि हमेशा बनी रहती। एक बार जब अपनी छोटी बहन की बेटी की शादी में वह भारत गयी थी तो मन में एक मूल आकर्षण यही था कि वह कोहली साहब को जरूर मिलेगी। शादी से निबटने के बाद एक दिन उसने लगभग बेशरम होकर(उसकी अपनी नजरों मे) अपनी बहन से कहा था कि वह कोहली साहब से मिलवा दे। भले आदमी का शुक्रिया कर देगी। कमीज लायी थी उनके लिये। बहन ने पता लगा कर कहा कि रिटायर होने के बाद से वे कुछ मील दूर अपनी पत्नी के साथ एक अपार्टमेंट में रहते हैं और काफी बीमार हैं ।
-तब तो और भी मिलना जरूरी है। बड़ा खयाल रखा था उन्होंने मेरा तो मेरा भी बनता है न कि उनका हाल पूछूँ। -- कौशल्या ने कहा था। वहाँ पड़ोस में जाकर अपार्टमेंट का नंबर किसी पड़ोसी से ही पूछा था
तो पड़ोसी बोला- वो कोहली साब का फ्लैट न। उनको तो जी लकवा मार गया है। यही दूसरी मंजिल वाला फ्लैट है। आप लोग चली जाइये इन सीढ़ियों से उपर। मैं उनकी पत्नी को खबर कर देता हूँ।

यह भी अजीब विडंबना थी नियति की। कौशल्या के घुटनों में आर्थराइटिस था और उन दिनों बहुत सख्त दर्द रहता था, वह सीढ़ियाँ चढ़ ही नहीं सकती थी। उधर कोहली साहब की टाँगों को लकवा मार गया था वे नीचे नहीं आ सकते थे। इतना ही नहीं उनकी याददाश्त भी जा चुकी थी। उनकी पत्नी ने कहा कि वे उनको बालकनी में ले आती हैं, मिसेज शर्मा नीचे से ही बात कर लें। और मिसेज कोहली अपने पति को नीचे गाड़ी में बैठी मिसेज शर्मा को दिखा कर कह रही थीं-ये आयी हैं आपसे मिलने। याद है न मिसेज शर्मा जो हमारी पड़ोसी थीं। जब हम सरकारी कोठी में थे तो साथ वाले मकान में रहा करती थीं। अब अपनी बेटी के पास अमरीका में रहती हैं। कोहली साहब जैसे अपनी पत्नी के कहे शब्द मे अपना एकाध शब्द जोड़कर ही दुहरा रहे थे-मिसेज शर्मा, कौन मिसेज शर्मा, अमरीका, हाँsss।

साफ था कि उनकी स्मृति का पृष्ठ एकदम कोरा था। ये हरकत दो तीन बार दुहरायी गयी। पर जो कुछ कोहली साहब ने कहा वह उनकी पहचान का सुबूत न दे सका। एक बार कोहली साहब ने कहा-अच्छा तो ये साथवाले फलैट में रहती
हैं। और कौशल्या की रग रग आहत, अपमानित, लज्जित जैसे धरती के फट जाने के इंतजार में थी।

यह व्यक्ति उसे जिलाना चाहता था। आज वह मौत का भयंकर रौद्ररूप धारण किये है। जीवन की कुरूपता का साक्षात बन कर खड़ा है। भागी थी वह वहाँ से। जो उसके वैधव्य के कैनवस पर हल्के हल्के रंग भर सका था, आज वह खुद मौत की गिरफ्त में है। कैसा अजीब खेल है यह नियति का। पता नहीं कितनी लंबी है यह पीड़ा भरी यात्रा इसकी!
और उसकी अपनी?

चल शीला, जल्दी निकल यहाँ से। अब और नहीं रूका जायेगा मुझसे।
आँखों से कुछ टपका था।
क्या से क्या हो जाता है!
मौत उसने अपने पति की झेली थी, एक्सीडेंट में कटा-फटा शरीर भी देखा था पर यह मौत का स्वरूप और भी भयावह था। इसमें इंसानी लाचारी और बेबसी का एक दूसरा ही रोंगटे खड़े कर देनेवाला, बहुत डरावना पक्ष था। रौरव नरक का साक्षात दर्शन! कभी कल्पना भी नहीं कर सकती थी वह कि जो वयक्ति इस तरह से उस पर छा गया था और जिसे उसने अपनी उपस्थिति से पूरी तरह छा लिया था, आज लाख कोशिश करके भी कौशल्या की हस्ती उसके लिये कुछ भी नहीं थी। और वह खुद क्या था शायद इसका भी कोई भान उसे नहीं था। क्या इतना बेदर्द, इतना अमानुषी होता है बुढ़ापा! रिश्ते सफाचट, भावनाएँ सफाचट। अपने होने से बेखबर। होना ही न होने के बराबर!

शायद कौशल्या ने ही देरी कर दी उस बिछड़े अतीत की खबर लेने में। उमर बढ़ती जाती है तो अतीत में भी तो कितने अतीत जुड़ते चले जाते हैं। उसका आज का अतीत! यह तो नितांत अकल्पनीय ही था! एक दूसरी जमीन, दूसरा समाज, दूसरे लोग, उनकी दूसरी अजीबोगरीब संस्कृति, व्यवहार, भाषा, आचार, सोच! कभी सपने में खयाल न आया होगा कि उमर का यह हिस्सा यहाँ अजनबी परदेस में कटेगा!
किस्मत भी क्या क्या रंग दिखावे है।

सोशल वर्कर के पास और भी वजहें थीं शर्मा से नाराजगी की।
कौशल्या जिस पोटली में अपने पैसे बाँध कर रखती थी। वह पोटली पता नहीं कहाँ चली गयी। बस कौशल्या चली गयी सोशल वर्कर के पास कि मेरे कमरे से तो पैसे चोरी हो गये हैं। चोरी का इलजाम लगाना कौशल्या के लिये तो आसान बात थी। जब भारत में रहती थी तो नौकर-चाकर अकसर चोरी करते ही थे और न भी करें तो जो चीज न मिले, उसका इलजाम कंप्यूटर के आटोमैटिक डीफाल्ट की तरह उन पर लग ही जाता था। फिर वे जैसे भी खुद को बेकसूर साबित करें और न कर पायें, यानी कि चीज अगर ढूँढकर न दे सकें तो या तो रोज-बरोज गालियाँ खायें या फिर नौकरी से हाथ धोयें। किसी भी स्थिति में हर्जा तो नौकर का ही था। सो कौशल्या नौकरों की चोरी-चकारी की आदी थी, यानी कि उन पर झूठा-सच्चा इल्ज़ाम लगाने की भी आदी थी। उसकी सोच थी कि इस असिसटेड लिविंग में भी तो ये नौकर चाकर ही हैं। उसके कमरे की रोज सफाई करने परिचारिका आती है तो एक उसे नहलाने आती है। सुबह की परिचारिकायें अलग हैं, शाम की डयूटीवाली अलग। अब वह हमेशा तो कमरे में बैठी नहीं रहती कि कौन कब आता है। वह तो कमरे में ताला भी नहीं लगाती कि कौन चाबी सँभाले और ताला खोले। कब कौन आकर पैसे निकाल ले गया यह वह क्या जाने। अब जो भी हो, यही पता लगाये कि किसने चोरी की है। छोटी मोटी चीजों की तो वह परवाह नहीं करती पर यह तो उसकी सारी जमा पूँजी थी।

सोशल वर्कर ने कहा था-हम अगर किसी पर इल्ज़ाम लगायेंगे तो वे तो नौकरी छोड़ कर ही चले जायेंगे। या मुझी को गलत व्यक्ति पर इल्ज़ाम लगाने के चक्कर में अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। यहाँ कभी किसी को इस तरह नहीं कह सकते । जब तक कि सौ फीसदी पक्का न हो, किसी की तलाशी नहीं ले सकते। इस मामले में कौशल्या की यह संवेदना विकसित नहीं हुई थी कि अगर किसी ने चोरी नहीं की और उस पर इल्ज़ाम लगाया जा रहा है तो उसकी मानसिक हालत क्या होगी? कि काम करने वालों की अपनी कोई डिगनिटी होती है, आत्मसम्मान होता है, कि वे भी एक व्यक्ति ही होते हैं, कि उनके पास भी सही-गलत की नैतिकता होती है। उसके घर के माहौल में नौकर नौकर था, उसमे डिगनिटी जैसी चीज का खयाल सोच के बाहर था, उससे नौकर की ही तरह व्यवहार करना चाहिये। ज्यादा सिर चढ़ाने से बिगड़ते हैं। कौशल्या ने इसरार किया-किसी ने तो लिये हैं मेरे पैसे। वर्ना गायब कैसे हुए।

सोशल वर्कर बोली-आई डोंट फील कंफरटेबल अबाउट इट। वट इफ यू जस्ट मिसप्लेस्ड इट!
कौशल्या जितना ढूँढ सकती थी, ढूँढा था। उससे भी ज्यादा ऊपर नीचे तो हुआ नहीं जाता। जहाँ जहाँ संभव था, झुक कर भी देखा। और कहा-आई टोल्ड यू। इट इज नाट देयर। आई लुक्ड एंड लुक्ड एंड लुक्ड। एवरीवेयर लुक्ड!

खैर वे पैसे मिले नहीं। पर सोशल वर्कर भी अपने स्टाफ को हिलाना नहीं चाहती थी। उसने एक नयी परिचारिका को भेजा शर्मा के पास कि खोजने में मदद करे। और बहुत दिनों बाद अचानक वह पोटली आल्मारी में सूटकेस के पीछे मिल गयी। पता नहीं वहाँ कैसे जाकर गिरी कि कौशल्या को पता ही नहीं लगा। पैसे तो मिल गये पर सोशल वर्कर उससे और भी नाराज हो गयी थी। उसने खुदा का शुक्र किया कि शर्मा के कहने से उसने कोई एक्शन नहीं लिया। वर्ना उसकी खूब भद्द उड़ती। शायद नौकरी से ही हाथ धोना पड़ जाता।
कौशल्या खासी परेशान थी। इस बार उसकी दाल नहीं गलनेवाली।

सोशल वर्कर ने तो साफ मना कर दिया। क्या अब डायरेक्टर से शिकायत करे। पर वह भी कहेगा कि कौन कहाँ बैठता है इसका फैसला सोशल वर्कर करती है। वह इन सब बातों में दखल नहीं देता। तब क्या कर लेगी वह! अगली शाम कौशल्या डिनर के लिये डाईनिंग रूम में गयी ही नहीं। उसने परिचारिका से कहा कि तबीयत कुछ नासाज है सो खाना कमरे में ही ले आये। मन ही मन कोसती रही सबको। यह कैसी जबरदस्ती है कि मैं उस घिन भरे आदमी की मेज पर बैठूँ। उसे देख कर तो जी में मितली उठती है, भला खाना कैसे खा सकती है वह। हाय भगवान! यहाँ तो कोई सुनता ही नहीं मेरी! किसको सुनाऊँ अपनी मुसीबत! खाने का मजा डाईनिंग रूम में ही आता है। गरमागरम परसती हैं परिचारिकायें। कुछ और भी चाहिये हो तो माँग लेते हैं और जो पसंद हो बस वही खाओ। खाने के बाद वह एक प्याला नीबू वाली चाय भी पीती है। ऐसे तो जो एक बार कमरे में आ गया बस वही खाना है। खाने का मजा आता नहीं। अगले दिन कौशल्या डाईनिंग रूम में जा रही थी तो ऐसे महसूस कर रही थी जैसे कि ठीक यमराज या किसी नरक के प्रतिनिधि के साथ बैठ कर उसे खाना खाना हो। एक दुपट्टा साथ ले गयी कि इससे नाक और आँख ढक कर बैठेगी । पूरी तरह से तैयारी कर रही थी कि जैसे सचमुच पीप और मवाद के दैव के साथ बैठ कर भोजन करने की तलवार उस पर लटक रही थी। यों यह व्यक्ति बहुत भला सा था। किसी को कुछ कहता नहीं था। अपने में ही रहता। बस उसकी यह दयनीय हालत कौशल्या को असह्य थी।

पर आज वह आदमी मेज पर न था। तो आज लेट हो गया वह। कौशल्या कल्पना करती रही कि अभी वही बहती नाक और मुँह से लार टपकाता वह बूढ़ा मार्क वाकर के सहारे आयेगा, कंधे और सिर झुका हुआ, आँखें जमीन पर गड़ीं, मेज पर लार गिरती जायेगी और उसकी अनुपस्थिति में भी कौशल्या को उबकाई आ गयी। खाना बाहर आने को हुआ। तभी परिचारिका को सुना-शर्मा, फ्रूट या चाकलेट पुडिंग?
कौशल्या का ध्यान बँटा?
परिचारिका मीठा क्या लेना है यह पूछ रही थी। कौशल्या के मुँह से निकला- वेयर इज मार्क?
ही वाज टेकन टु इमरजैंसी
कौशल्या को एकदम धक्का सा लगा।
सो ही इज इन हास्पिटल?
यैस। ही वाज हैविंग ब्रीदिंग प्राब्लम।

कौशल्या का मन उचट सा गया। पुडिंग का बस एक चम्मच हाथ मे पकड़े बैठी रही। कमरे में आकर चुपचाप लेट गयी। मन में बेचैनी और खदबदी सी मची। वह दूसरी शाम भी खाने पर नहीं था, तीसरी शाम भी। कौशल्या के मन में कुछ डर सा हुआ। अकसर ऐसा होता था। यहाँ रहनेवाले लोग उम्र के ऐसे पड़ाव पर थे कि इमरजेंसी जाते तो फिर लौट कर ही न आते। पर ऐसे भी तो थे जो ठीक ठाक हो कर लौट आते थे। कौशल्या को खुद छाती में कितना दर्द हुआ था तो आधी रात इमरजेंसी में गयी। अगले दिन आपरेशन भी कर दिया डाक्टर ने। अब तो नब्बे साल की होने वाली है और देखो तब से ठीक ठाक चल रही है। थोड़ी बहुत ऊँच-नीच तो सबके साथ होती रहती है। अरे बाबा, ठीक हो कर आये। इसका नाक और मुँह बहना बंद करवा दें। सच वर्ना कैसे सहेगी मेज पर उस आदमी को! ये लोग तो मेरी सुनने नहीं वाले! उस रात वह ठीक से सो नहीं पायी। अजीब अजीब से सपने आते रहे -- कोई काले, लंबे दैत्याकार उसे घेरे हैं और आपस में जैसे कुछ परामर्श कर रहे हैं उसे कहीं ले जाने का। कौशल्या डर से काँप रही है। थर्रायी सी आवाज में कह रही है -- नहीं, वह कहीं नहीं जायेगी। फिर जैसे कोई एक भला सा आकार आता है जो उन काले दैत्यों को कहता है कि नहीं अभी वक्त नहीं हुआ ले जाने का और वे आकार पीछे हटने लगते हैं। तभी नींद खुल गयी थी। उसका शरीर पसीने से भीग गया था। चेहरे पर वे दैत्याकार छाये रहे थे सारा दिन। क्योंकर ऐसा सपना देखा उसने? क्या कहना चाहते थे वे उसे? क्या सचमुच कौशल्या का समय आ गया है। क्या यह कोई संकेत था उसके लिये? क्या संकेत था? किसका संकेत था? सपने से उबर नहीं पा रही थी वह। शाम डिनर पर जब डाईनिंग हाल में गयी तो परिचारिका खाने की प्लेट उसके सामने रखते हुए बोली-मार्क विल नैवर कम। यू कैन बीहैप्पी नाउ।

कौशल्या को कुछ समझ नहीं पड़ा- वट...? आई सैड मार्क इज गान! ही इज नो मोर! कौशल्या बुत-सी बनी रह गयी। मुँह से बस इतना ही निकला- ऐसा तो नहीं सोचा था मैंने! और अचानक उसे लगा कि सामने वाली खाली कुर्सी पर मार्क बैठा है, उसके नाक और मुँह से लार टपक रही है, पर कौशल्या को घिन नहीं लगी। वह बस देखती रही और लगा कि वह उसकी आँखों के आगे से हटेगा नहीं!

९ मार्च २०१५

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