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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
संयुक्त अरब इमारात से पूर्णिमा वर्मन की कहानी- सपने


"धत्, तेरे काकरोच की। फिर चुन्नी में छेद। इन तेलचट्टों ने तो नाक में दम किया हुआ है। अब चुन्नी भी खानी थी तो रेशमा गुप्ता की। कभी मेहर पद्मसी की चुन्नी चाट कर देखी है? मगर मेहर की चुन्नी, रेशमा की चुन्नी की तरह कमरे में तार की अरगनी पर लटकी नहीं रहती है रात भर। बन्द रहती है गोडरेज की आलमारी के भीतर 'मौथप्रूफ' खुशबू में।

"अभी पिछले ही दिनों नया सूट सिलवाया छींटदार चूड़ीदार और कुर्ता। चुन्नी के लिए रूपये इकठ्ठा करते–करते दो महीने लग गये इस बीच सिर्फ एक बार पहना, आखिर अमरेश की बहन से कितनी बार चुन्नी माँगी जा सकती थी? उसके पास भी तो दो ही रंगीन चुन्नियाँ हैं। हफ्ता भर ही हुआ चुन्नी को खरीदे। एक बार पहनी नहीं कि हो गया सत्यानाश।"

रेशमा ने नाक तक चढ़ा गुस्सा भगौने में पानी के साथ गैस पर चढ़ा दिया और खुद पटरे पर बैठ गयी, पैरों को दोनों बाहों में समेट घुटनों पर चेहरा टिका लिया।

रेशमा के पास मेहर पदमसी जैसी अलमारी नहीं है। बस एक बक्सा है और यह अरगनी। पर जिस शौक से धीरे धीरे उसने अपने यूनिवर्सिटी पहन कर जाने वाले कपड़े तैयार कर लिए हैं उसके सामने दुनिया का हर फैशन बुटीक कुर्बान। चेहरा मोहरा सुंदर हो तो कुछ भी पहनो सुंदर लगता है। फिर रेशमा अकेली थोड़े ही है, साथ में है उसकी दो साल छोटी बहन रश्मि, पड़ोसी और सहपाठी अमरेश और अमरेश की बहन अनीता। सब एक दूसरे के कपड़े पहन लेते हैं। थोड़ा छोटा-बड़ा हो तो भी फर्क नहीं पड़ता।

–आज मैडम जोशी का सेमीनार है। प्रिपेयर होकर जाना चाहिए वर्ना क्या इम्प्रेशन पड़ेगा। नया–नया स्कूल है। अरे धत् तेरे की! स्कूल नहीं यूनिवर्सिटी। बारह साल स्कूल में क्या बिताए स्कूल ही चढ़ा रहता है जुबान पर, अभी अमरेश होता तो हँस देता "फिक्क" से। सत्तर परसेन्ट नम्बर क्या आ गये खुद को तीसमारखाँ समझने लगा है।

गीला–गीला सा लगा तो उठ कर देखा— पेटीकोट की निचली किनारी पूरी तरह भीग गयी थी। अब जमीन पर गैस रखकर खाना पकाना इसीलिये इतना बुरा लगता है उसे। अम्मा से खड़े होकर खाना ही नहीं पकता। थक जाती हैं खड़े हो कर खाना पकाने में। पर रेशमा को लगता है जैसे बैठे–बैठे गठिया लग गया हो घुटनों में। सुबह–सुबह रसोईघर धोने के बाद फर्श पर जगह जगह पानी भर जाता है। इतनी ठंड में, इसी पानी में, नंगे पैरों बनाएँगी अम्मा खाना। चाहे उँगलियाँ खुजलाते–खुजलाते लाल होकर सूज जाएँ। इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि गैस मेज पर रख लें और पैरों में चप्पल डाल लें।

उसने पेटीकोट थोड़ा उठाकर कमर में खोस लिया। और सोचने लगी सितंबर का महीना आ गया है। यानि तीन महीने हो गए यूनिवर्सिटी में, क्या उसका तीन महीने का कोर्स पूरी तरह तैयार है? कहीं साल के अंत में मुसीबत तो नहीं आने वाली है। इस बार उसको भी सत्तर प्रतिशत नंबर लाने हैं कम से कम मनोविज्ञान में। उसे कुछ किताबों की ज़रूरत है। ख़रीद तो नहीं सकेगी। पुस्तकालय से मिल जाएँ तो अच्छा है वर्ना किसी से माँग कर नोट्स बनाएगी। पुस्तकालय से किताबें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं। पहले तो लंबी लाइन और फिर पता चलता है कि किताब है ही नहीं। पिछली बार तीन घंटे लगे थे लायब्रेरी में फिर भी किताब तो नहीं मिली थी। अमरेश और उसके विषय अलग अलग हैं नहीं तो मिल कर एक किताब पढ़ी जा सकती थी। पड़ोस में उसके विषय वाली कोई लड़की नहीं।

गैस पर चढ़ा पानी खौलने लगा था। नीचे उतार कर चाय और चीनी डाल दी। अम्मा नहा कर आ गयी थीं। उसने चाय छानकर सबको दी और अपनी प्याली लेकर कमरे में आ गयी। गुप्तकाल की सभ्यता और संस्कृति का पाठ निकाल लिया। मैडम जोशी का सेमीनार अभी तक दिमाग में घूम रहा था गुप्तकाल का सामाजिक जीवन, वर्णव्यवस्था, वस्त्राभूषण से केशसज्जा तक जाते–जाते उसे याद आया कि मैडम जोशी कितना प्यारा जूड़ा बाँधती हैं। धत् तेरे की। फिर जूड़ा, अम्मा ठीक कहती हैं कि यूनिवर्सिटी में जाकर उसके दिमाग में फैशन का फितूर घुस गया है ना बाबा अब सिर्फ पढ़ना और सेमीनार। सेमीनार यानी गुप्तकाल का सामाजिक जीवन... वर्णव्यवस्था...।

रेशमा की बस सवा नौ बजे आती है। इसलिए सुबह के चाय नाश्ते का ज़िम्मा उसका। अम्मा का यह समय नहाने धोने और पूजापाठ का है। वे तैयार हो कर खाना बनाने बैठती हैं तो रेशमा तैयार होने जाती है। अम्मा फटाफट पूरा खाना तैयार करती हैं रेशमा के यूनिवर्सिटी जाने से पहले। बढ़वार की उम्र और पढ़ाई के बोझ का समय, ऐसे में बच्चों के खाने पीने का ध्यान वे बिलकुल ठीक से रखती हैं। लौटते समय कभी लायब्रेरी हो कर आना होता है या वहीं बैठ कर नोट्स तैयार करने होते हैं तो लौटते–लौटते कभी तीन–कभी चार तक बज जाते हैं।

अम्मा ने खाना पकाना शुरू कर दिया था। गरम गरम दाल चावल, कभी–कभी सब्ज़ी वर्ना ज्यादातार सब्ज़ी रोटी सिर्फ शाम को बनती है। अम्मा पास के स्कूल में पढ़ाती हैं। पिछले तीन सालों से जबसे पापा नहीं रहे। उनका स्कूल दस बजे शुरू होता है। रश्मि अम्मा के साथ स्कूल के लिए निकलती है।

रेशमा की पढ़ाई और यूनिवर्सिटी की तैयारी तेज़ी से साथ साथ चल रही थी। हाथ कुर्ता प्रेस कर रहे थे। आँखें सामने पड़ी प्राचीन इतिहास की किताब पर थीं और दिमाग याद कर रहा था गुप्तकाल का राजनैतिक जीवन... सामाजिक जीवन... पारिवारिक जीवन... महिलाओं की स्थिति... और इन सबके बीच में उसका अपना जीवन, उसकी अपनी स्थिति, सब सपनों की तरह आकार लेने लगते हैं, तब रेशमा गुप्ता मेहर पदमसी हो जाती है, खुशबू में बसी तितलियों की तरह नित नवीन कपड़ों में, कार में बैठ कर यूनिवर्सिटी आती हुई... कभी वह आरती दीक्षित हो जाती है हरा चश्मा चढाए, नयी नयी किताबों को कैरियर में लगाए, साइकिल चला कर यूनिवर्सिटी आती हुई... कभी अमाया राजदान मंच पर धारा प्रवाह वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेती हुई... वह इसमें से किसी के जैसी नहीं है... न ही हो सकती है शायद... लेकिन सपने हैं कि रुकते नहीं... सपने हैं कि तमाम मुसीबतों के चलते भी झुकते नहीं... सपने कुछ बड़े नहीं... छोटी छोटी खुशियों में पिरोये हुए छोटे छोटे सपने जिन्होंने रेशमा की दुनिया बसाई हुई है... जिन्हें देखते हुए वह जीवन की सारी कमियाँ भूल जाती है।

सुबह उठते ही रेशमा जब चाय नाश्ते के काम में लगती है तभी से यूनिवर्सिटी के लिए क्या पहनना है और क्या पढ़ना है दोनों बातें एक साथ चक्कर लगाती हैं उसके दिमाग में। यूनिवर्सिटी की बस न छूट जाए उसकी भी फिक्र करनी होती है। रिक्शे का किराया होता है पाँच रुपये जबकि बस का किराया एक रुपया, तो रोज़ रिक्शे से जाने की रईसी तो नहीं की जा सकती ना?

खट...खट...।
दरवाजे पर आहट होते ही अम्मा ने आवाज दी,
“रेशमा बेटे, जरा दरवाजा तो देखना।
"रश्मि प्लीज, उठ जा देख ले दरवाजा।" उसने पास ही पढ़ रही छोटी बहन को पुचकारा।
“ऊँ हूँ... ”कह कर रश्मि फिर अपनी किताब में डूब गयी। रेशमा का उस ओर ध्यान नहीं गया।

दूसरी बार दरवाजा खटका तो माँ को गुस्सा आ गया,
“ओफ्, ओह... एक बात नहीं सुन सकती है ये लड़कियाँ।”
जोर से आवाज दी, "रेशमा... देख तो कौन है दरवाजे पर।"
रेशमा अभी आधा अध्याय भी न पढ़ पायी थी, दूसरी आवाज पर झुँझला गयी। पास बैठी रश्मि की किताब खींची। "उठ नहीं सकती, छटंकी भर की है और रौब इतना" हाय... अच्छा। तो ये उपन्यास, रश्मि की शर्म के मारे हँसी छूट गयी और वो सीधे दरवाजा खोलने भाग गयी।"

रेशमा के कान दरवाजे पर ही लगे थे। आवाज से लगा दिल्ली वाले चाचा और चाची हैं। वह रजाई छोड़कर उठ बैठी। झट से बक्सा खोल कर पलंग पोश और "ड्रेसिंग–गाउन" निकाल लिए। रजाई तहा कर बक्से पर डाली, पलंग पोश बिस्तर पर बिछाया और पुराने कुर्ते और पेटीकोट पर ड्रेसिंग गाउन कसकर जल्दी जल्दी अरगनी के कपड़े ठीक कर दिये।

अम्मा की आवाज दरवाजे से आ रही थी। पहुँच गयी होगी आटा सने हाथ लिये, उसने सोचा। अभी चाची के घर जाओ तो मेकअप लगाए बिना कमरे के बाहर नहीं आएँगी। कुछ रिश्तेदार भी कितने मेहमान होते हैं। अभी कुछ मंगाना होगा बाजार से। उसने कपड़े ठीक नहीं पहने हैं। रश्मि तो चाचा चाची के साथ ही उलझ गयी होगी कुछ मीठा मंगा लिया जाये। वो आलू के पराठे सेंक लेगी।

उसने आलू गैस पर उबलने के लिये चढ़ा दिये और दरवाजे पर जा कर बाहर देखने लगी। कोई दिख जाये तो मीठा लाने को बोले। पाँच मिनट तक कोई नहीं दिखा तो फिर भीतर आ गयी। अम्मा बिलकुल सीधी हैं, बैठक में जाकर फिर भीतर की बात ही भूल जाती हैं। चावल का उफान बह रहा था। पकड़ दिखी नहीं उसने जल्दी में अपने ड्रेसिंग गाउन की बाहों से ही उतार लिये। सारी माँड बाहों में लग गयी। धत् तेरे की। अभी चाचा चाची के सामने भी नहीं गयी और खराब हो गये कपड़े। आलू में पानी खौलने लगा था। यूनिवर्सिटी जाने के कपड़े सब प्रेस नहीं हुए थे और मैडम जोशी का सेमिनार भी दिमाग में घूम रहा था। साढ़े आठ हो गये सवा नौ बजे तक बस आ जायेगी।

"रश्मि... " उसने जोर से आवाज दी। थोड़ी देर वो ही बैठे रसोई में। रश्मि आई तो उसे रसोई में बिठाना ठीक न लगा। आवाज़ थोड़ा सा नर्म करके बोली, "रश्मि प्लीज मेरा लाल वाला सलवार कुर्ता प्रेस कर दो" रश्मि चुपचाप कुर्ता प्रेस करने चली गयी। आजकल रश्मि भी समझदार हो गयी है। वरना पहले की तरह होती तो चीख कर कहती, "हाय राम! इत्ता अच्छा लाल कुर्ता बाहर आने जाने के लिये है कि रोज़ यूनिवर्सिटी में पहनने के लिये।"

रेशमा ने एक बार फिर दरवाजे पर बाहर आ कर देखा। अमरेश दिख गया "अमरेश"... उसने आवाज दी तो अमरेश ने पलट कर देखा,
“आ गया न काम! बस काम आया नहीं कि याद आ गई अमरेश की। कल मैने ब्रेसलेट माँगा तो फिर पलट कर कोई जवाब ही नहीं दिया?"
“अरे वो छोटा था मेरे साइज़ का तुम्हें नहीं आता।”
“ऐसा थोड़ी, वो तो एडजेस्टेबल होता है। दूसरे चेन पर भी हुक लगा सकते हैं। मुझे मालूम है तेरा मन ही नहीं था देने का। आन्टी होतीं तो बताता तू गयी थी पिक्चर घर में बिना बोले। वैसे बताऊँगा तो हूँ ही, अभी लौटकर आता हूँ।" कह कर वो आगे बढ़ने को हुआ तो रेशमा ने फिर से आवाज दी...

"एई अमरेश! कुछ गेस्ट आए हैं प्लीज मीठा ला के दो अभी, फिर लड़ना। वादा रहा अगली बार जब भी ज़रूरत हो माँग लेना ब्रेसलेट। खोना मत मुझे बहुत प्यारा है।"
अमरेश उसकी बात समझ कर पास आ गया। उसने नयी शर्ट पहनी थी। रेशमा ने पिछले दिनों "डिसकाउन्ट सेल" में एक जीन की पैन्ट खरीद ली थी। टॉप अभी तक नहीं खरीद पायी। शायद अगले महीने भी न खरीद पाये। "शर्ट अच्छी है।" रेशमा ने कहा तो अमरेश मुस्कराकर आगे बढ़ गया।

रसोई में लौट कर रेशमा ने आलू छील डाले। तब तक रश्मि ने सूट प्रेस कर लिया था बोली, दीदी तू जा तैयार होने। मैं बना देती हूँ पराठे। रेशमा तैयार होने भाग गयी।

उफ्, सिर्फ पचीस मिनट। नहाना तो इतनी सर्दी में वैसे भी नहीं था। कपड़े बदले, कंघी करके चेहरा ठीक किया, किताबें समेटीं और फिर रसोई में लौट आयी। रश्मि ने चार पराठे सेंक लिये थे। दो खाये। अमरेश अभी तक नहीं आया था। यूनिवर्सिटी-बस आने वाली होगी, उसने सोचा। अब सेमिनार का प्रिपरेशन बस में ही कर लेगी।

सर्दी थी। उसने गले में अपना एक मात्र लाल स्कार्फ बाँध लिया। रश्मि ने उसकी ओर मुस्करा कर देखा, जिसका मतलब था, "अच्छी लग रही हो।" तब तक अमरेश भी आ गया। रेशमा बैठक में सबको नाश्ते के लिये कहने गयी। चाची ने देखते ही उसे सीने से लगा लिया, "जीजी तुम्हारी बेटी तो बड़ी होकर बड़ी सुन्दर निकली है।" अम्मा फूल कर कुप्पा हो गयीं। वे सबको नाश्ता करने रसोई में ले गयीं और रेशमा अमरेश के साथ बाहर आ गयी।

“किताबों का क्या करेंगे अमरेश? लायब्रेरी से नहीं मिलीं।” रेशमा को फिक्र सी लग गयी थी।
”सेकेंडहैंड किताबों की भी दूकानें होती हैं। नाम लिख कर दो, मैं पता करता हूँ। तुम किसी सीनियर लड़की से नोट्स का पता करो। जब तक किताब न मिले तो उससे भी पढ़ सकते हैं। अमरेश ने कहा, फिर धीरे से पूछा, "रेशमा यह स्कार्फ कब लिया।"
"बहुत पहले।"
“पहले कभी नहीं देखा।”
“सँभाल कर रखा था। पहना नहीं था अभी तक”
"मुझे दोगी, सिर्फ एक दिन के लिये।"
"पिक्चर देखने की शिकायत करो अम्मा से। मैं क्यों दूँ।"
"अरे नहीं करूँगा शिकायत सिर्फ एक दिन के लिये दे दो।"
"बदले में ये शर्ट दोगे मुझे, सिर्फ एक दिन के लिये।"
"ले लेना।" अमरेश ने कहा तो रेशमा की बाँछें खिल गयीं। कल जीन की पैन्ट और ये शर्ट पहन कर जायेगी यूनिवर्सिटी। रेशमा ने कदम तेज किये। खूब खुश थी वह।

गली के बाहर मेनरोड पर बस आ पहुँची थी। रेशमा ने दौड़ लगा दी।

बस पर चढ़ कर बैठी तो सैंडिल कुछ ढीला सा लगा। धत् तेरे की... दौड़ जो लगाई तो अँगूठे वाला स्ट्रैप पता नहीं कब टूट कर बाहर आ गया। खैर बस तो नहीं छूटी ना! रेशमा ने लंबी साँस लेकर पीठ को सीट पर टिकाया और खिड़की के बाहर देखा। अमरेश वेव कर रहा था। उसने भी मुसकरा कर हाथ हिला दिया, फिर चैन की साँस ली और इतिहास की किताब खोल ली। बस शहर की सड़कों पर दौड़ने लगी थी और रेशमा का दिमाग गुप्त काल की नगर व्यवस्था पर...

१ जून २०१५

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