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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
तंजानिया से प्रियंका ओम की कहानी- जट्टा और चिरैया


वह औचक ही सामने आ गया था। मुझपर नजर पड़ते ही शर्मिंदगी से उसकी आँखें झुक गई थी। मानो उसका कृत्य क्षण भर पहले का हो। इतने वर्ष बीत गये, वक्त नये नये पैहरन तैयार करता रहा और पुरानी उतरनें बनती रही। उन्ही उतरनों में से एक आज मेरे समक्ष ऐसे आ गया जैसे काले रंग का वह कुर्ता जिसे पहनने के बाद किसी अप्रिय घटना का घटित होना तय होता और वह दिन हमेशा ही गुरुवार होता।
ताई जी कहती – गुरुवार को काला ना पहना कर और शनिवार को पीला, अपशगुन होता है। दुनिया के शुरू होने से पहले से ही शनिदेव और बृहस्पति देव में निरंतर शीत युद्ध चल रहा है।
आज भी मैंने पीला पहना है और दिन शनिवार है। मैंने उसे अनिच्छा से देखा, अब वह बूढ़ा हो चला है। उसके सफेद हो चुके बालों में बचे काले बाल आसानी से गिने जा सकते थे। उसकी बिल्लौरी आँखें निस्तेज हो गई हैं, माँस हड्डियाँ छोड़ चुकी हैं। अब वह पहले की तरह आकर्षक नहीं रहा।
‘पहचाना इसे?’ मेरे मनोभावों से नितांत अनभिज्ञ दादा ने उसके समक्ष प्रश्न यों फेंक दिया जैसे सामने बैठे प्रतीक्षारत प्रत्याशी के सामने ताश के पत्ते फेंके जाते हैं। किंतु प्रत्याशी? नहीं नहीं। यह मेरा पिता, छी.. पिता नहीं, मेरी माँ का प्रेमी है। रगों में बहने वाला ठाकुरों का खून... मन वितृष्णा से भर गया।
नहीं, मैं प्रियम्वदा ठाकुर हूँ। मेरे नाम के साथ मेरे मृत पिता और बाबा की प्रतिष्ठा जुड़ी है। गुरूर में मैं तन कर खड़ी हो गई।
चिरैया… उसने स्नेहिल नजरों से देखते हुए कहा।
‘चिरैया’ समय की गुफा से आती हुई आवाज किसी बवंडर की तरह मुझे अपने साथ गोल गोल घुमाते हुए अंतिम छोर पर ले जाकर पटक गई।
जट्टा की कहानी मेरे जन्म से पहले की कहानी है, लेकिन उसकी कहानी का मुझसे जुड़ाव तब शुरू होता है जब मैं माँ के गर्भ में थी और वह मेरी माँ को छुप छुप कर ताकता था।

माँरॉ (रोटी) सिर्फ एक बार बोला गया यह शब्द ब्राह्मण वंश के ठाकुरों के महलनुमा घर में ऐसे गूँज रहा था जैसे व्याकुल प्रेमी द्वारा पहाड़ों में पुकारे गये प्रेयसी के नाम गूँजते हैं। यह जट्टा की आवाज थी।

जट्टा गठिले शरीर वाला नवयुवक है और उसकी आवाज भी उसके शरीर जैसे ही गठीली है। यह नाम उसके व्यक्तित्व और आवाज, दोनों के साथ खूब मेल खाता है। हालाँकि ये नाम उसे कब और किसने दिया और इसका अर्थ क्या है, ये ना तो कोई जानता है ना जानना चाहता है।
‘आ गये जट्टा?’ हमेशा की तरह पूछने के लहजे में ठकुराइन ने कहा।

उसके ‘जी मालकिन जी’ कहने से पहले ही थाली उसके सामने रख दी गई थी। एक इंच ऊँची घेरे वाली बड़ी सी काँसे की थाली। आधी थाली में थाली के भीतरी आकार की मकई की एक मोटी रोटी के दो टुकड़ों को एक के ऊपर एक रख दिया गया था और बची हुई आधी थाली को गरम गरम अरहर की दाल से भर दिया गया था। जब तक जट्टा ने अपने साथ लाए काँसे के लोटे से अँजुरी में पानी लेकर थाली का आचमन किया, तब तक तो दाल रोटी वाले क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित कर चुकी था और दो टुकड़े रोटी का नीचे वाला आधा टुकड़ा दाल में भीग कर फूलने लगा था। जट्टा ने नीचे का आधा भाग ऊपर किया और बचे हुए दाल में मसल मसल कर खाने लगा। बीच बीच में बाड़ी से तोड़ कर अपने साथ लाई हरी मिर्च को दाँतों से ऐसे काटता जैसे मिर्च से कोई पुरानी दुश्मनी हो और वह आज ही पकड़ में आई हो।

कभी कभी स्वाद बदलने के लिये वह अचार माँग लेता, तब दुल्हिन जी उससे पूछ कर आम या कटहल का अचार देतीं। वह ज्यादातर कटहल का माँगता, कटहल की सब्जी का बहुत रसिया था और कटहल का कोया तो दरिद्र की तरह हपा हप खाता था वह।

अभी उसने आधी रोटी ही खाई थी कि मैंने सामने पालथी लगा ली। जट्टा ने एक छोटा सा कौर बनाया और मेरे मुँह ने डाल दिया। ’हे भगवान, कलयुग है कलयुग। ठाकुरों की बेटी नौकर के हाथ से... पता नहीं कौन जात है।’ बड़ी ठकुराईन बड़बड़ा रही थीं।’ जट्टा के आने से पहले भर पेट खिला काहे नहीं देती हो ई चिरैया को?’

‘केतना भी खिला दो ठकुराईन, ई चिरैय्या जब तक हम्मार हाथ से नहीं खायेगी, पेट नहीं भरेगा इसका भी और हमारा भी।’
‘बस बस, बहुते बोलने लगा है। मालिक सर पे बिठाए हैं।’
‘माफी दे दो मालकिन। हमहूँ तोहरे बच्चा हूँ। अप्पन माँ बाप तो याद भी नहीं।’
‘हाँ बच्चा त तू हमरा ही है। दस बारह साल का रहा तुम जब मालिक साहब ले आये।’
जिस घर में बाहरी पुरुष का क्षणिक प्रवेश भी निषिद्ध था, उस घर में स्वयं बड़े ठाकुर जट्टा का हाथ पकड़ ड्योढ़ी पार भीतर ले आए थे।
कचहरी के पास चूसे हुए मालदह आम की गुठली जैसी सूरत वाला यह लड़का भीख माँग रहा था। चेहरे के भीतर धँसी आँखों से खाली पेट का सूनापन चू रहा था, जैसे भीगे हुए कपड़ों से पानी चूता है या बरसात में किसी गरीब की छत।

‘काम क्यों नहीं करता’ बड़े ठाकुर ने झिड़क दिया था। कचहरी में हुई बहस से कुछ खीजे हुए थे।
‘मिले तो…’ इतना ही कह पाया था कई दिनों का भूखा मरियल जट्टा।
‘नाम क्या है?’ उसकी निरीह काया को देख ठाकुर साहब का मन पसीज रहा था।
‘सब जाट कहता है...’ ठाकुर साहब के सम्मान में झुका हुआ सर बस थोड़ा-सा ऊपर उठा था।
‘जाट कोई नाम थोड़े है? हम तुमको जट्टा कहेंगे। चल गाड़ी में बैठ जा।’
गाड़ी बड़े ढाबे पर रोक दी गई।
भर पेट खाना मिला तो ठाकुरों का होकर रह गया जट्टा।
उसे अब खुद भी याद नहीं कि वो कौन था, कहाँ का था और किसका था। बस याद है, तो बड़े ठाकुर साहब और उनकी हवेली।

कोई पूछता – कौन है तू, तो कहता – हवेली वाले ठाकुर साहब का जट्टा।
शुरुआत में उसका काम सिर्फ बैठक से जूठे चाय का कप और नाश्ते की प्लेट उठाना था और इस काम में उसका मन भी बहुत लगता था। जब भी कोई मेहमान आते, उसका होली दशहरा सब हो जाता। दुल्हिन जी कहतीं – जूठे प्लेट का बचा हुआ अपनी थाली में उलट ले।
बड़े लोग भी खूब मनचोर होते हैं। प्लेट में तरह तरह की मिठाई और नमकीन सजा कर परोसी जाती है तो सिर्फ एक टुकड़ा ही तोड़ कर मुँह में रखते हैं बस और गरीब एक टुकड़े के लिए भी तरसते हैं।
तरसा हुआ तो जट्टा भी था लेकिन जल्दी ही उसका मन अघा गया। जब नया नया आया था तो छज्जु हलवाई के आने से पहले ही उसको सुगंध लग जाती।
‘दुल्हिन जी… लिस्ट बना लीजिए। छज्जु आ रहा है।’
‘तुमको कैसे छज्जु के आने का पता लग जाता है?’ दुल्हिन जी को बड़ा अचरज होता।
‘छज्जु की देह से एक लग्गा पहिले से दूध और घी की महक आती है औ पिछले जनम में हम जरूर कुक्कुड़ रहे थे’ कहते हुए मासूमियत से दाँत निपोर देता।

‘कुक्कुड़ त तुम इस जनम में भी हो, ठाकुरों की देखा देखी छगनलाल को छज्जु छज्जु करता है। अप्पन औकात में रहो जट्टा।’ ठकुराइन को उसका हँसना बोलना तनिक नहीं भाता था।
ठकुराइन को जट्टा कभी नहीं सोहाया। कहतीं– कँजी आँखों वाला अपसगुण होता है। जेतना धरती के बाहर ओतना धरती के भीतर। जेकरा अप्पन मतारी-बाप नहीं पूछा, उसको मालिक घर के भीतर काहे ले आये।’ कहते हुए उनकी आवाज किसी अनिष्ट की आशंका से काँप जाती और यह सब सुन जट्टा सहम जाता।

कभी कभी किसी फुर्सत में ठकुराइन की बातों को याद करते हुए शीशे का टुकड़ा अपनी आँखों के नजदीक लाकर खूब ध्यान से देखता। उसे दूध के उजले कटोरे में चाँद का प्रतिबिम्ब हरा दिखाई देता। सबका तो करिया है, खाली हमरे हरियर, ठकुराइन ठीके कहती है, जरूर कौनो दोष है।
दुल्हिन जी का उससे अलग सा स्नेह था। जब भी भँसा में कुछ नया बनाती तो उसे भी देती... ठकुराइन के परेम जैसा थोड़ा-सा।
‘स्वाद कैसा था’ कभी मौका पाकर पूछती।
तब वह विस्तार से उस लज्जत का ऐसा वर्णन करता मानो कोई श्रेष्ठतम लेखक किसी स्त्री के रूप सौंदर्य का विस्तार लिखता हो।

दुल्हिन जी उसकी मासूमियत पर बहुत मुग्ध होती। वह माँ कितनी ही अभागी होगी जिसने इस स्फटिक से कंचन मन वाले बच्चे को खोया है। वह कुरेदती – जट्टा कुछ याद है तुमको?
‘नहीं, दुल्हिन जी, अब त भूख और गाड़ी भी बिसर गया। याद है त बस ठाकुर साहेब औ ई हवेली’ कहते हुए उसकी आवाज दीवाली के दीये की लौ की तरह तैलीय हो जाती।

बैठक में काम कम होने के कारण वह धीरे धीरे गौशाला में मेदनी काका की मदद करने लगा। कुट्टी काटना, नाद में भूसा मिलाना और गायों को नहलाना और फिर गोबर समेट कर गोईठा थापने में वह जल्दी ही निपुण हो गया।

बीच बीच में मेदनी काका हवेली के उन किस्सों को साझा करते जो उससे कभी किसी ने ना सुनाए हों। काका कहते – ठाकुरों की एक रानी होती है और एक पटरानी होती है। खेतों में मचान होता है। फसल की रखवाली के लिये मचान पर एक लठैत सोता है। दूर एक घर होता है, दीया बाती करती हुई एक अभागन होती है, अभागन का भाग्य दीया बोता कर बनता है, फिर दिन भर वह खेत होती है, बिना फसल वाली खेत।
और कहते – ये सब किस्सा कहानी मेरे साथ चिता पर बैठ सती होगा।

वह अचरज से उन्हें मुँह बाये ऐसे देखता मानो कानो से नहीं मुँह से सुन रहा हो। मेदनी काका की बातें उसे रहस्यमय लगतीं जिन्हें सुलझाने की कोशिश में वह पूछता ‘काका औरत खेत कैसे हो जाती है?’
‘तू बकलोले रहेगा।’ कहकर मेदनी काका उसे फटकार देते।
काका कभी कभी ठकुराइन के क्रोधी और दुल्हिन जी के मृदुल स्वभाव का चित्रण किया करते थे। वो कहते – ठकुराइन ने दुनिया देखी है। दुल्हिन अभी कच्ची मिट्टी का घरौंदा है, उसको पकने में समय लगेगा।
‘काका अब दूध दुहना सिखा दो’ वह चिरौरी करता।
‘बकलोल बंदूक चलाना सीख ले। दूध दुहना सीखकर का करेगा, जब गंदरवा मुनिया बंदूक तान देगा।’

‘गंदरवा मुनिया कौन चिड़िया का नाम है? जट्टा नये नये बतबनाई में भी पारंगत हो रहा था।’
‘डाकू है डाकू, लूट पाट मचाता है। गोलियाँ दागता है। बड़ा निर्मम है। आस-पास का दस गाँव में कहर बरपा है, ई गाँव का नम्बर भी जल्दिये आयेगा’ कहकर काका जोर जोर से खाँसने लगे।
‘ई गोली ससुर जान लेबो करता है, जान बचैबो करता है’ कहते हुए काका ने एकसाथ दो गोली फाँक ली।
काका के बीमार होते ही घर का प्रवेश द्वार जट्टा के लिये खुल गया। एक बार क्या वह घर के भीतर आया, फिर तो घर का ही होके रह गया। सब्जी काटने से लेकर जमाई छाली को मथकर घी निकालने में प्रवीण हो गया। दुल्हिन जी की अन्य सहायिकाएँ उसे मौगा कहती, तिस पर मात्र वह खीसें निपोर देता।

जब रोज सुबह वह बाल्टी भर दूध दूह कर लाता तो दुल्हिन जी उसे गिलास भर चाय पकड़ा देतीं जिसे वह वहीं आँगन में बैठ सुड़क-सुड़ककर घंटे भर में पीता। फिर घर की तमाम स्त्रियों के स्नान और रसोई के काम-काज के लिये चापाकल से पानी भरता। जिस दिन बहूजी को बाल धोना रहता, उस दिन घर की सभी बाल्टियों को वह पानी से लबालब भर देता। बहूजी के बाल कमर तक लम्बे हैं...घने हैं। बालों को आँवला शिकाकाई से धोने से एक रात पहले वह मलसी भर सरसों का तेल लगवाती है इसलिये धोने में पानी भी खूब लगता है।
दूसरी सेविका कहती – ई मरद वाला काम है। लौहकल चला कर तू लोहे जैसा मजबूत बनेगा।
‘और जो औरत खेत में काम करती है ऊ मर्दानी हो जाती है का?’ जट्टा हाजिर जवाबी हो रहा था।
सच ही वर्षों से लोहे का चापाकल चलाते चलाते उसके हाथ लोहे की तरह मजबूत हो गये थे और शरीर रोज घंटों कसरत करने वालों जैसी कटीला। खेतों में काम करने वाली मजदूरिन लड़कियाँ जब दिहाड़ी लेने आतीं, तब उसे देख देखकर खूब लजाती। कुछ अधेड़ उम्र की स्त्रियाँ उसे खुलकर छेड़ती ‘जट्टा कौन सुहाता है, सरस्वती भौजी कि लक्ष्मी भौजी’
‘हम इस कलयुग का हनुमान हूँ। ऊ भगवान राम के भक्त थे, हम ठाकुर साहब के भक्त हैं। उनकी मैय्या सीता थी, हमरी मैय्या ठकुराइन हैं।’ उसके इस कथन को सुनकर ठाकुर साहब का छाती खुशी से फूल जाती। वह कहते – बस बस…इसको और तंग मत करो कोई।

उसकी काया ऐसी कि साबुन लगाकर नहाने के बाद सूर्य की किरणें उसकी देह से टकरा कर वापस लौट जातीं और कुमारियों का आँचल बिन पूरबैया भी सर से ससर जाता। उनकी आत्मा से निछुड कर नेह आँखों से रुई के गीले फाहे की तरह चू जाता लेकिन जट्टा का जीवन अपनी ही रौ में था।
छोटे ठाकुर के बियाह में खूब देन लेन हुआ। आस पास का सौ गाँव में चर्चा हुआ।
मेदनी काका ने कहा – ठाकुर साहब को गंधरवा मुनिया का चिट्ठी आया है।
‘का लिखा है उसमें?’ जट्टा ने कौतुक से पूछा।

‘बुरबक…पढ़े नहीं, सुन गुण सुने हैं। उ मरदे ताल ठोक कर लूटने आता है। छोटका ठाकुर का बियाह का चर्चा दस गाँव में है। एतना लेन देन कि सबका आँख फट गया।’
ठाकुर साहब बगल में भरी बंदूक रख कर सोने लगे। पूरा घर भय के साये में सो रहा था। अंततः वह क्रूरतम रात भी आई जब गंधरवा मुनिया लूटने तो आया धन लेकिन लूट गया छोटकी का भाग्य। छोटे ठाकुर के खून की गर्मी उनकी देह को ठंडा करने का कारण बनी।

हफ्ता हुआ ब्याह कर आई थी, पैरों का आलता बदरंग भी नहीं हुआ था। माँग में नारंगी सिंदूर गोधूली सा शोभता…कोमल हाथों में मेहंदी महकती, किंतु आह! भाग्य की मारी, अभागन का क्या दोष जो कुलटा पुकारी गई।
अंधेरी काल कोठरी में कैद हुई, उलटी हुई तो छोटे ठाकुर की पुनः वापसी का उत्सव शुरू हुआ, किंतु नौ महीने बाद चिरैया जन वह और अभागी हुई। यह उसके कुभाग्य का अंत नहीं था। चिरैय्या को उसकी गोद से छीन कर उसे भाग्य पर रोने के लिये छोड़ दिया गया था।

उस दिन वह अजाने ही जट्टा को अवलोकित हुई थी। चिरैय्या उसकी गोद में थी। प्रेम लुटाती उस ममतामयी को किबाड़ लगाने की सुध नहीं रही। दुल्हिन जी ने जट्टा के समक्ष हाथ जोड़ दिये। राजदार होने की कसम दे दी गई। ऐसा करुण दृश्य, कलेजा में कील सा चुभा। जैसे बिंधता है तीर कोई…हिरण के शरीर में प्राणघाती।
जट्टा का मन भर आया था। कोमलाँगी के दृष्टिगोचर होने मात्र से ही वह व्याकुल हो उठता। उसके मन की समतल दीवारों पर एक रेखा खिंच गई थी। उसमें किसी असंभव की आकांक्षा जागी थी। कभी वह पलाश के वनखंड सा दहकता कभी जलावन की सूखी लकड़ियों सा अकड़ता, उसमें चंद्रमा की ललक थी।
उसकी रातों में उजाड़ था, वह प्रतीक्षा का विग्रह बना अपना प्रेम दोगाना अकेले ही गाता।
दालान पर जब दोपहर करवट लेकर साँझ को पुकारती, उस वक्त उसका हृदय मरण पर सुदूर का रुदनगीत हो जाता और रात के नीम अंधेरे में उसकी जवानी खेत हो जाती। उसे प्रेम का सूद चुकाना था। द्वैत चाहनाओं की बाती अनुल्लंघ्य नियमों की ढिबरी में रात भर जलती। उसकी रातें रीती ही रहतीं।
हृदय का ऐसा शिशुहठ, अनुरागी की जिद दुल्हिन जी की अनुभवी आँखों से छुपी न रह सकीं। अनुग्रह की याचना कर बैठीं– उसे इस नर्क से निकाल दो।

एक पल के लिये वह शर्त हो गया था, वह भोगी नहीं भक्त था, किंतु प्रेम से बड़ी कोई उपासना नहीं। अमावस की काली रात में स्वर्णिम सुबह की चाह लिये उसका हाथ पकड़ निकल पड़ा। दुल्हिन जी ने पोटली में रुपये पैसे गहने बाँध दिये थे। अश्रुपुरित नेत्रों से इतना ही कहा था ‘जट्टा तुमको बेटा ही समझे, तुम इसको सम्भालना। हम चिरैय्या को संभाल लेंगे। जाओ... कहीं दूर चले जाओ, पीछे मुड़ कर नहीं देखना।’ पैरों पर गिर पड़े थे दोनों, दुल्हिन जी ने दोनों को सीने से लगा कर विदा कर दिया था।

भाइयों की लाड़ली प्रियम्वदा राजकुमारी की तरह पलने लगी। उसे कभी पता भी नहीं चला... माँ और ताई जी में क्या फर्क है। दादा का चिरैय्या से अतिरिक्त स्नेह था। वह दादा को दादा से अधिक गुरु समझती थी। एक ऐसा गुरु जो उसके मन पर पड़ी काइयों को कोमलता से हटाता है, जो उसे अंधेरी कोठरी से निकाल कर रोशनी दिखाता है।

समय ने करवट ली थी। ठाकुर साहब-ठकुराइन के बाद दुल्हिन जी के राज काज में पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा। दुल्हिन जी और चिरैय्या की सुध लेने जट्टा वर्षों बाद लौट आया था।

प्रियम्वदा डॉक्टर बन गई थी। लोगों के दुःख दर्द दूर करती थी। दादा के साथ बुलाने पर आई थी। शायद सबकुछ पूर्व नियोजित था। दादा प्रतिमानों और प्रतीकों द्वारा उससे कुछ कहना चाहते थे। वह भी पूछना चाहती थी – क्या मेरी माँ भी इससे प्रेम करती थी? अंतस में शूल की तरह उठा यह सवाल भीतर गोदने लगा था।
‘प्रेम सौंदर्य का उपासक नहीं, अपितु निष्पक्ष होता है।’
दादा प्रेम को निष्कलंक मानते थे।
दादा ने जट्टा को गले लगाते हुए कहा – यह कलयुग का भक्त प्रेमी नहीं, उपासक है। इसने मात्र पूजा की है।
जट्टा की आँखों में अनुरक्ति की धारा बह निकली थी। प्रियम्वदा अनायास ही उसके पैरों पर झुक गई।

 

१ दिसंबर २०२१

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