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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
यू.के. से उषा राजे सक्सेना की कहानी- कैसे बताऊँ बिटिया को


शीना बेहद थकी हुई थी। वह घर आ कर चुपचाप, आँखें बंद कर सोफे पर लेट जाना चाहती थी पर उसकी आठ वर्षीय बेटी निन्नी को उसके आने की आहट मिल जाती है और वह खाना छोड़ कर भागती हुई आई और उसकी दोनों हाथों को अपनी गुदाज़ हथेलियों की पकड़ में लेते हुए पूछने लगी, ‘ममा, आज आपके मरीजों को कौन से रोग थे?’ निन्नी को पता है कि उसकी ममा सरकारी अस्पताल में साइकैट्रिस्ट है और वह उन रोगियों की चिकित्सा करती है जो मानसिक रूप से पीड़ित होते है।

शीना, निन्नी के माथे पर प्यार का चुंबन देने के बाद हाथ में पकड़े ब्रीफ़केस को मेज़ पर रखते हुए उसे अपनी दाहिनी बाँह में लपेट कर डाइनिंग रूम में खाने की मेज़ के पास पहुँच कर, उसे कुर्सी पर बैठा, खाने की ओर इशारा कर खुद साबुन से हाथ धोकर चेहरे पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए कहती है, ‘आज के मरीज़ भी वैसे ही थे निन्नी बेटे जैसे और दिनों के मरीज होते है। कुछ बहुत दुखी, कुछ बहुत बेचैन। एक मरीज की सोच इतनी बिगड़ी हुई थी कि उसने मुझे चिंतित कर दिया।
‘ ओह! फिर आपने उस रोगी को कैसे सँभाला ममा? ’
‘वैसे ही, जैसे हमेशा करती हूँ बेटी। उसके दुःखों और बेचैनियों को कम करने के लिए उसके साथ सहृदयता और सहानुभूति के साथ बातें कीं। देर तक उसकी समस्याओं को सुनती रही। उसे आश्वस्त कर उसमें भरोसा पैदा करने की कोशिश की फिर नर्स कायरा से उसका परिचय कराया और कुछ दिन उसके अस्पताल में रहने का प्रबंध कर दिया।’
 
शीना इस तरह का उत्तर घुमा फिरा कर निन्नी को कई बार दे चुकी है। निन्नी अब उसके इस उत्तर से संतुष्ट नहीं होती है। उसकी उम्र, परी कथा ‘सिंड्रेला’ और ‘स्लीपिंग’ ब्यूटी से आगे निकलकर किशोरों के ‘फेमस-फाइव’ जैसी जासूसी दुनिया में प्रवेश करने तैयारी कर रही है।
‘ममा आपके मरीजों की सोच क्यों बिगड़ जाती है?’ काँटे में फँसे सलाद के टुकड़े को मुँह में डालने से पहले निन्नी ने आग्रह करते हुए शीना से प्रश्न किया।

शीना निन्नी के इस प्रश्न से परेशान हो उठी। कैसे बताए वह अपनी नन्ही सी बिटिया को मरीज़ों के उन भयानक, शर्मनाक, और यातना पूर्ण मानसिक विकारों के बारे में? उनके त्रासद अकेलेपन को, उनके सामाजिक और पारिवारिक दबावों और तनावों को जिनको झेलते-झेलते वे इतने नर्वस, डरपोक, असंतुलित, असहाय और लाचार हो जाते हैं कि दुनिया उन्हें सनकी, पागल और न्यूरॉटिक कह कर खिल्ली उड़ाती है।

परेशान शीना कन्ज़रवेटरी में आ कर रॉकिंग चेयर में बैठ जाती है थकान से उसकी आँखें बोझिल होने लगती हैं पर अर्शिता भनोत की लाल चकत्तों से भरी नंगी बाँहें और बेचैन, पीड़ित आँखें उसका पीछा नहीं छोड़ती हैं।
‘मेरी चमड़ी में विषैले कीड़े घुस आए है डॉक्टर। इन सुर्ख चकत्तों को देख रही हैं न। देखिए कीड़े मेरी चमड़ी के अंदर घुस, मेरी देह को खाए जा रहे हैं।’ वार्ड का राउँड लेती शीना, अर्शिता भनोत के हाथ पर उभर आए चकत्तों को देखते हुए कुछ कहने को होती है कि अर्शिता अपने बालों को हाथों की पकड़ में लेकर ऊपर उठाती है और कहती है,
‘यह देखिए, मेरी गर्दन, इन कीड़ों ने मुझे इतना काटा है कि मेरे घावों में से खून रिसने लगा है। यह देखिए तकिए पर खून के दाग़।’ शीना सहानुभूति से सिर हिलाती, देख रही है, अर्शिता की सुर्ख हो रही चमड़ी को जो जगह-जगह छिली हुई है, कहीं-कहीं लहु के बिंदु भी उभर रहे है।

आगे फिर अर्शिता ने रुलाई को दबाते हुए कहा,
‘डॉक्टर इन कीड़ों से छुटकारा पाने के लिए मैं क्या नहीं करती हूँ। मैं तरह-तरह के कीट-नाशक साबुन से रगड़-रगड़ कर बदन को धोती हूँ। एंटी एलर्जिक क्रीम लगाकर, कीट-नाशक दवा से पूरे बदन को स्प्रे करती हूँ। क्या बताऊँ, ये जानलेवा विषैले कीड़े मेरा पीछा नहीं छोड़ते हैं...’ शीना की सहानुभूति पाकर अर्शिता उसके और पास सरक आई। शीना के नाक में अर्शिता के बालों और बदन से उठती कीट-नाशक दवा की गंध घुस जाती है। उसे मिचली सी आने लगती है पर वह सहानुभूति के साथ धैर्यपूर्वक अर्शिता के जीवन के त्रासद अनुभवों को सुनती हुई, उसके कंधों को भरोसा देने के लिए हल्के से दबाती है।

शीना की सहानुभूति का एहसास कर अर्शिता थोड़ी और उत्साहित हो उसका हाथ पकड़ कर कहती है,
‘जानतीं हैं डॉक्टर एक दिन बड़ी सावधानी से मैंने अपनी चमड़ी खुरच-खुरच कर कीड़ों को निकाला और एक जार में बंद कर एमरजेंसी लैब ले गई ताकि डॉक्टर लोग उन कीड़ों को माक्रोस्कोप से देख कर दवा तजवीज कर सकें परंतु एक लंबा समय गुज़र गया अभी तक लैब से कोई परिणाम नहीं आया। अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ...’

अर्शिता की शिकायत है कि उसके बदन और उसके घर में बहुत ही सूक्ष्म विषैले कीड़े और पिस्सू घुस आए हैं। वह उनसे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की कीट-नाशक दवाओं से घर को स्प्रे करती है। अपना बदन साबुन, डेटॉल और एंटीबैक्टीरिया लोशन से साफ़ करती है, फिर भी ये जानलेवा कीड़े हैं मरते नहीं हैं। वह तंग आ चुकी है। कीड़े न तो उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं न ही मरते हैं। दिनों दिन कीड़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। अर्शिता कहती है कि डॉक्टर की दी हुई दवाइयों से उसे कोई आराम नहीं मिल रहा है। एक लंबे समय तक अर्शिता अपने फ़ैमिली डॉक्टर की सर्जरी और एमर्जेन्सी अस्पताल के चक्कर काटती रही है।

यद्यपि इस बीच उसके फ़ैमिली डॉक्टर ने उसके खून की जाँच कराई। एलर्जी टेस्ट कराई किंतु अर्शिता के खून में न तो कीड़ों का कोई अस्तित्व मिला और न ही एलर्जी टेस्ट में कोई गड़बड़ मिली। फिर उस दिन खीझी परेशान अर्शिता अपने फैमिली डॉक्टर से झगड़ पड़ी और उँची आवाज़ में बोली, ‘डॉक्टर ब्रायन, आप मेरे इलाज में कोताही कर रहे हैं। मैंने तीस वर्षों तक नेशनल इंश्योरेंस का भुगतान किया है। आज मेरी ज़रूरत पर आप एन.एच.एस. (नेशनल हेल्थ सर्विस) के डॉक्टर मुझे नज़र अंदाज कर रहे हैं।’ क्रोधित और उत्तेजित सी वह डॉक्टर के टेबल पर मुक्का मारते हुए चिल्लाई ‘सुनिए! डॉक्टर ब्रायन, ना तो मैं अवैध नागरिक हूँ और ना ही अपढ़ गँवार और ना ही पागल...मैं...मैं...’ कहते-कहते उत्तेजना के कारण वह नीम बेहोश हो गई।

डॉ. ब्रायन की सेक्रेटरी भागी-भागी पानी का गिलास लिए कमरे में आई, पास बैठे स्टूडेन्ट छात्र मेडिको की सहायता से अर्शिता को रोगियों के इक्ज़ामिनेशन टेबल पर लिटा कर उसे ट्रैंक्यूलाइज़र का इंजेक्शन देकर शान्त किया और ऐम्बुलेन्स से उसे मनोरोगियों के अस्पताल भेज दिया, जहाँ शीना से बातें कर के अर्शिता को कुछ आश्वस्ती मिली। उसने उत्साहित होकर शीना से कहा, ‘डॉक्टर मुझे आप पर पूरा भरोसा है। आप चर्म-रोग विशेषज्ञ हैं न? आप अवश्य इन कीटाणुओं से मुझे छुटकारा दिलवाएगी न...’
शीना, अर्शिता को किसी भ्रम में नहीं रखना चाहती थी। मेडिकल एथिक्स के अनुसार वह मरीज़ से झूठ नहीं बोल सकती है। उसने अर्शिता की आँखों में सीधा देखते हुए, पूरी सहानुभूति के साथ उसके बाँहों को सहलाते हुए कोमल शब्दों में कहा, ‘सॉरी, अर्शिता, मैं चर्म रोगों की विशेषज्ञ नहीं हूँ। मैं मानसिक बीमारियों की डॉक्टर, एक साइकैट्रिस्ट हूँ। चर्म रोग के विशेषज्ञ डॉक्टर ने तुम्हारी पूरी जाँच कर लिया है। उन्हें तुम्हारे देह में अभी तक किसी तरह के विषैले कीटाणु नहीं मिले हैं। अब तुम्हें मेरे पास यानी मानसिक रोगियों के अस्पताल में भेजा गया है।’ अर्शिता का चेहरा बुझ सा गया। वह कनफ्यूज़्ड सी खड़ी शीना को घूरने लगी जैसे वह भी उसे पागल और सनकी समझ रही है।

‘घबराओ मत अर्शिता, मैं भी तुम्हारी तरह एक औरत हूँ। मैं तुम्हारे समस्याओ, दुःखों और तकलीफ़ों को अच्छी तरह समझती हूँ। अर्शिता, तुम्हें कोई मानसिक आघात लगा है, जिसके लिए तुम बिलकुल तैयार नहीं थी। तुम एक बहुत अच्छी और पढ़ी-लिखी और एक शानदार व्यक्तित्व की स्मार्ट और खूबसूरत महिला हो।..’ शीना के स्नेहिल और खूबसूरत शब्दों में आई सहृदयता, सहानुभूति और बहनापा, अर्शिता को अंदर तक स्पर्श कर गया और उसके अंदर जमा दर्द उसकी आँखों से टप-टप गिरने लगा। वह धम्म से निढाल बिस्तर के साथ रखी कुर्सी पर गिर कर सिसकने लगी।
शीना स्नेह से अर्शिता का हाथ पकड़कर अपने कंसल्टिंग-रूम में ले गई। जहाँ उसने उसे एक आरामदेह कुर्सी पर बैठाकर, मशीन से निकाल कर काफी का प्याला पकड़ाते हुए कोमल शब्दों में कहा,
‘देखो अर्शिता, एक डॉक्टर होने के साथ-साथ मैं तुम्हारी दोस्त भी हो सकती हूँ। तुम एक समझदार और पढ़ी-लिखी महिला हो यदि तुम चाहती हो कि तुम्हें इन कीटाणुओं और पिस्सुओं से छुटकारा मिल जाए तो तुम्हें मुझे अपने पूरे मन से सहयोग देना होगा। मेरी कार्य प्रणाली पर भरोसा बनाए रखना होगा। इस समय तुम थकी हुई हो। तुम्हें आराम की आवश्यकता है।’

शीना ने पास खड़ी नर्स कायरा से, अर्शिता का परिचय कराते हुए कहा,
‘यह कायरा है हमारे यूनिट की सबसे सहृदय और अच्छी नर्स। कायरा तुम्हारे अस्पताल में रहने, नहाने और खाने-पीने का ध्यान रखेगी। अब तुम वार्ड में जाकर आराम करो। मैं तुम्हें शाम को कन्सलटेशन दूँगी और विस्तार से इन कीटाणुओं और पिस्सुओं के बारे में बातें करूँगी जो तुम्हें इतने दिनों से कष्ट दे रहे हैं। विश्वास करो हम दोनों मिल कर इन कीटाणुओं से छुटकारा पाने का सही रास्ता खोज सकते है।’
अर्शिता और कायरा के जाने के बाद शीना ने मेज़ पर रखी अर्शिता की केस-हिस्ट्री को पढ़ना शुरू किया जिसमें लिखा था,
‘...अस्पताल में हुए विभिन्न टैस्ट स्पष्ट करते हैं कि अर्शिता को कोई शारीरिक रोग नहीं है। वह अवसाद ग्रस्त, मनोरोगी- एक साईकैट्रिक केस। किसी मनोविकार से ग्रस्त अर्शिता के मन में यह दृढ़ विश्वास जम गया है कि उसके चर्म के अंदर विषैले कीड़े घुस आए हैं साथ ही उसका घर विषैले कीड़ों और पिस्सुओं से बजबजा रहा है। ये कीड़े इतने सूक्ष्म हैं कि साधारण आँखों से नहीं दिखते हैं। अर्शिता के अनुसार उसके घर की हवा दूषित हो गई है।’

‘उफ़’ कहते हुए शीना ने पृष्ठ पलटा, और आगे पढ़ा,
‘इन कीड़ों से छुटकारा पाने के लिए अर्शिता खूब गर्म पानी में डिटर्जेंट डालकर नहाती है। बदन पर ‘इंसैक्ट रिपलैंट’ स्प्रे छिड़कती है। दिन में कई-कई बार वह अपने आपको डिसइन्फेक्ट करती है। अर्शिता का कहना है कि इन सबसे उसे कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है। उसके बदन और घर में घुस आए कीड़े मरने के बजाए दिन रात बढ़ते ही जा रहे हैं। अब वे उसके खाने-पीने के सामान और कपड़ों की अलमारियों में भी घुसते जा रहे हैं। तंग आकर वह अब इन मृत्युंजय कीड़ों को नष्ट करने के लिए अपने घर को ‘पैस्टी-साइड’ से फ्यूमिगेट करने लगी है। उसका भरोसा बुरी तरह से टूट चुका है। वह मैंटल केस बन गई है...’
‘ओ माई गॉड! पूअर आर्शिता...’ कहते हुए शीना ने मेज़ पर रखे गिलास से पानी पीया और फिर दूसरी फाइल उठा कर अर्शिता के चर्म रोग के विशेषज्ञ की रिपोर्ट पढ़नी शुरू की जिसमें लिखा था,
‘विषाक्त कीटांणु-नाशक दवाओं के संक्रमण में आने से अर्शिता की त्वचा में खुजली होती है, लगातार खुजाने के कारण उसके बाहों पर खूनी चकत्ते उभर आए हैं। गर्दन के नीचे मवाद और खून से भरे घाव और फफोले निकल पड़े हैं। इसके अतिरिक्त कीट-नाशक फ्यूमिगेशन में साँस लेने के कारण, उसे सांस लेने में उसे कठिनाई महसूस होने लगी है। इन तमाम लक्षणों ने अर्शिता के मन में यह दृढ़ अवधारणा बना दी है कि उसके घर के कोने-कोने में, उसकी चमड़ी की तहों में, उसकी श्वास नली में, उसके फेफड़ों में विषाक्त कीटाणुओं और पिस्सुओं ने अड्डा बना लिया है।’
शीना ने अर्शिता के दुःख से आहत हो, फाइल को बंद कर दिया और आँखें बंद करके सोचने लगी,
‘संभवतः अर्शिता बहुत अकेली है और किन्हीं विषम कारणों से वह अपने आप में बंद हो गई है। उसे भ्रम सा हो गया है कि उसका घर विषैले कीड़ों से बजबजा रहा है...’
 
शाम को घर जाने से पहले अर्शिता की काउँसिलिंग करते हुए शीना को बात-चीत के दौरान, टुकड़ों-टुकड़ों में पता चला कि रजोनिवृति (मैनोपाज़) के उम्र में अधिक रक्तस्राव के बीच जब अर्शिता के हार्मोन असंतुलित हो रहे थे और वह कुछ मुरझाई, कुछ चिड़चिड़ी हो रही थी। गर्म और ठंडे लपटों से परेशान, पसीने से लत-पथ खुद को समझ नहीं पा रही थी। ऐसे में रजोनिवृति की समस्याओ से जूझती सरल हृदया अर्शिता को पता ही नहीं चला कि उसका लॉग डिस्टैंट लॉरी ड्राइवर पति हरीश का एक लंबे समय से किसी अन्य स्त्री से संबंध है।

अचानक, एक दिन जब हरीश घर आया तो वह सीधा बेडरूम में जाकर फिर से बाहर जाने के लिए अपना सामान पैक करने लगा तो अर्शिता ने सहज ही उससे पूछ लिया कि आज-कल वह ज़रा ज्यादा लंबे-लंबे ट्रिप लगाने लगा है? हरीश ने पहले तो उसे कोई जवाब नहीं दिया फिर जब उसने दोबारा पूछा तो बस गुस्से से फुफकारता हुआ जल्दी-जल्दी अपना व्यक्तिगत सामान समेटता रहा।

अर्शिता चुपचाप दरवाज़े के पास खड़ी उसे देखती रही।
जब वह जाने लगा तो अर्शिता ने उसे दरवाज़े पर घेरते हुए पूछा कि आखिर वह इतना सब सामान लेकर जा कहाँ रहा है? तो उसने चिल्लाते हुए कहा, ‘ टु द हेल! वोमन, यू स्टिंक, दिस हाउस स्टिंक्स। इट्स बज़िंग विद पॉयज़न्स जर्म्स ऐन्ड इनसैक्टस’ कहते हुए उसने दरवाज़े पर खड़ी अर्शिता को ज़ोरों का धक्का दिया और धड़ से दरवाज़ा मार कर चला गया। अर्शिता फ़र्श पर गिर पड़ी बाद में जब वह होश में आई तो उसे कुछ याद नहीं रहा केवल हरीश का क्रोधित चेहरा ‘जर्म्स और स्टिंकिंग हाउस’ जैसे कुछ टूटे फूटे वाक्य याद कर हर वक्त परेशान रहने लगी।

शीना से बात करते हुए अर्शिता धीरे-धीरे सहजता के साथ खुलने लगी आगे उसने शीना को बताया कि उसे अपनी घर-गृहस्थी को सुंदर और सुचारु रूप से चलाने में गर्व की अनुभूति होती थी। अतः वह घर को साफ़-सुथरा रखने और परिवार को सुविधा देने में इतनी व्यस्त रहती थी कि उसे कभी किसी अन्य बात का ध्यान ही नहीं रहता था। गप-शप का वैसे भी उसे कोई शौक़ नहीं था। उसके पति को काम-काजी स्त्रियाँ शोख़ और चरित्रहीन लगती हैं। अतः पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी उसने कभी बाहर जाकर काम करने की नहीं सोची। वह अपने घर-गृहस्थी और बगीचे की देखभाल करने में सुख पाती है।

अर्शिता का चेहरा उस समय गुलाबी हो उठा था जब उसने बताया कि उसके पति ने प्रेम का इज़हार कर उसके माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध कोर्ट में जाकर उससे शादी की और दो महीने उसके साथ घर में रह कर हनीमून मनाता रहा। आगे अर्शिता बताया कि उसके एक बेटा है जो पिछले वर्ष उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चला गया है। वह हमेशा इस बात से खुश रहती है कि बेटा अपने पिता से फ़ोन पर बात-चीत कर लेता है। लड़की पढ़ाकू किस्म की है। वह हमेशा कानों पर हैड-फ़ोन लगाए अपने कमरे में बंद कंप्यूटर और फ़ोन पर लगी पढ़ाई करती रहती थी। उसे सिर्फ़ अपने खाने-पीने, पढ़ाई-लिखाई और पॉकेट-मनी से मतलब रहता था। माँ-बेटी में सिर्फ ज़रूरत भर का संवाद होता था।

एक दिन बेटी ने अर्शिता को बाँहों में भर कर कहा, ‘उसे जर्मन इंस्टीट्यूट से स्कॉलरशिप मिल गई है और वह आगे की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी जा रही है।’ यह तो खुशी की बात है अर्शिता ने सोचा। लड़की दो-तीन महीने पहले अपना सामान समेट कर आगे की पढ़ाई करने जर्मनी चली गई।

अर्शिता को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि वह दिनों-दिन अंदर-अंदर, और-और अकेली होती चली जा रही है। इधर बेटे-बेटी से भी उसका संपर्क टूट सा गया है। वह घर काम करती हुई हरीश का इंतज़ार करती रहती पर इस बीच उसने पाया कि हरीश काफी लंबे-लंबे ट्रिप लगाने लगा है।

धीरे-धीरे अर्शिता खुलती जा रही थी जैसे वह अपने आप से बातें कर रही हो, फिर आगे उसने बताया कि एक दिन अचानक जब उसका पति हरीश घर आया तो उसके आक्रामक और उद्दंड व्यवहार से उसको ज़बर्दस्त धक्का लगा। सरल स्वभाव की अर्शिता के दिल और दिमाग पर ऐसी चोट लगी कि उसके मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया। दुःख के तीव्र आघात के कारण उसके मस्तिष्क में बनने वाले रसायन का संतुलन बिगड़ने लगा और उसका नर्वस ब्रेक-डाउन हो गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर सब लोग उसे छोड़ कर इस तरह चले क्यों जा रहे हैं जब कि वह तो अपने पति और बच्चों के लिए इतनी समर्पित है।

पति के इस तरह चले जाने के बाद जब उसे होश आया तो उसे कुछ समझ नहीं आया फिर उसे हलके-हलके चक्कर आने लगे। जाने किस अनजाने क्षोभ और ग्लानि के कारण वह अपराधबोध से ग्रस्त सोचने लगी कि आखिर यह सब करा कौन रहा है? उसके घर में ऐसा क्या प्रवेश कर गया है जिसके कारण घरवाले, घर छोड़ कर भाग रहे हैं। दुःख के आवेग में वह अपने बाल नोचने लगी, बालों के उखड़ने से सिर में घाव होने लगे। घावों पर खुरंट जमने लगे, उनमें खुजली होने लगी। सिर खुजाते-खुजाते वह अपना बदन भी खुजाने लगी। अर्शिता के सोचने की शक्ति क्षीण होने लगी। उसे वास्तविक कारण दिखना बंद हो गया। छल, बिछोह, दुःख और तनाव से पीड़ित अर्शिता का ध्यान धीरे-धीरे बालों और देह में होने वाली खुजली पर केंद्रित होता चला गया। उसे विश्वास हो चला कि उसके बदन और घर में हज़ारों और लाखों की संख्या में विषैले कीड़े घुस आए है जो उसके बदन को खाए चले जा रहे हैं और वह खुद को और घर को डिसइन्फेक्ट करते-करते पैस्टीसाइड से फ़्यूमीगेट करने लगी...

हे प्रभु! शीना का हृदय करुणा से चीत्कार उठा। ऐसी विषम मानसिक स्थिति में दवा (‘ट्रैंक्युलाइज़र’) से अधिक रोगी को स्नेह, सौहार्द्र, सहानुभूति, विश्वास और आश्वासन की आवश्यकता होती है। अर्शिता के पास कोई सहारा नहीं था वह अकेली पड़ गई है। अस्थिर हो उठी है। आज का वर्तमान समाज जिस तरह विकसित हो रहा है और जिस तरह के दबाव-तनाव और अकेले पन की विषम परिस्थितियों से व्यक्ति, घर-समाज और परिवार गुज़र रहा है उसमें कोई भी सुरक्षित नहीं है किसी को भी मनोरोग हो सकता है। साइकॉसिस के इन भुतहे गलियारों से निकालने के लिए औषधि के साथ अर्शिता को स्नेह, सौहार्द्र के साथ साईकैट्रिक सहायता यानी काउँन्सिलिंग की आवश्यकता भी थी जो उसका फ़ैमिली डॉक्टर समय से उसे नहीं दे सका। ना जाने कब से वह इधर से उधर लावारिस सी एक फुटबॉल की तरह लुढ़कती फिर रही है।
शीना अभी यही सब सोच रही थी कि वह अर्शिता को किस तरह, उसके जीवन के यथार्थ से परिचित कराते हुए आश्वस्ती के साथ उसे पुनर्वासित करें। किस तरह अर्शिता के जीवन की गुत्थियों को सुलझाते हुए वह उसे उन भुतहे गुंजलकों से निकाल कर उसका विश्वास जीतते हुए सहजता के साथ सामाजिक जीवन में प्रवेश कराए...
तभी निन्नी खाना समाप्त करके तौलिए से हाथ पोंछती हुई उसकी गोद में आ कर बैठ गई और शीना के गालों पर चुम्मी देते हुए उसके चेहरे पर झूल आए लट को कानों के पीछे खोंसते हुए बोली,
‘ममा बताइये न आपके मरीजों की सोच कैसे बिगड़ जाती हैं, और आप उन्हें कैसे ठीक करती हैं?

शीना निन्नी के साथ बागीचे में पड़े झूले पर आ कर बैठ जाती है और उसकी कमर में हाथ डाल कर उसे अपने और करीब खींच लेती है फिर सावधानी से शब्दों का चयन करते हुए उसे बताती है। निन्नी आज जो महिला रोगी अस्पताल में आई थी, उसका दिमाग बहुत परेशान था, इतना परेशान था कि वह ठीक से सोच ही नहीं पा रही थी। रोगी का कहना है कि उसके बदन में विषैले कीटाणु घुस गए है और वे उसके बदन को काट-काट कर छलनी किए दे रहे हैं जबकि खून की जाँच और सोनोग्राफी बताती है कि उसके बदन में कोई कीटाणु नहीं है। रोगी का भरोसा डॉक्टर पर से उठ गया है उसका कहना है कि डॉक्टर उसकी जाँच ठीक से नहीं कर रहे हैं।

पहली प्रतिक्रिया में निन्नी की आँखे आश्चर्य से चौड़ी हो जाती है और वह ज़ोरों से हँस पड़ती है पर फिर दूसरे ही क्षण वह रोगी के भय, पीड़ा और निराशा के बारे में सोच कर दुःखी हो जाती है, मद्धम स्वरों में, शीना के कंधों पर सिर रख कर कहती है, ‘ममा ! अब क्या होगा? मुझे आपके रोगी की बड़ी चिंता हो रही है। वह ठीक तो हो जाएगी न ममा, प्लीज़ बताओ न?’ वह भरे गले से पूछती है।

कैसे बताए वह निन्नी को? निन्नी अब बच्ची नहीं रही उसके सोचने के ढंग के साथ उसके प्रश्नों में अब जीवन की सच्चाइयाँ प्रवेश कर रही हैं। निन्नी अधीर हो उठती है शीना को सोचने का समय नहीं देती है। ‘ममा, आप उस रोगी को ठीक तो कर देंगी, न?’ निन्नी ज़ोर देकर प्रश्न तुरत दोहराती है जिसका उत्तर वह ‘हाँ’ में चाहती है।

‘मेरी गुड़िया उसकी बीमारी बहुत जटिल है। अभी मैं उसकी बीमारी को जानने और समझने की कोशिश कर रही हूँ। सबसे पहले मुझे उसका भरोसा जीतना है फिर उसे उसके जीवन की सच्चाइयों से परिचित कराते हुए उसको पुनर्वास के लिए तैयार करना होगा। उसेके ठीक होने में बहुत दिन लगेंगे। लंबे अर्से तक उसे अस्पताल में रहना होगा।’
‘यह पुनर्वास क्या होता है ममा?’
‘पुनर्वास का अर्थ है कि उसे नए घर में, नए लोगों के साथ मिल-जुल कर रहना, उनकी खुशियों में खुश होना, नए-नए काम सीखना वगैरह...’
‘पर ममा वह ठीक तो हो जाएगी न?’ शीना निन्नी की आवाज़ में आई संवेदना और चेहरे पर पसर आई चिंता को देखती है। निन्नी को बाँहों में भर कर शीना उसकी आँखों में झाँकते हुए कोमल स्वर में समझाते हुए कहती है, ‘मुझे नहीं मालूम मेरी गुड़िया कि इस रोगी के ठीक होने में कितना समय लगेगा। पर वह ठीक हो जाएगी ऐसा मुझे आभास हो रहा है।’ शीना निन्नी के आँखों में अपने प्रति आश्वस्ती की झलक देखती है।

निन्नी ही नहीं, हम सब चाहते है कि रोग के लक्षण पहचान कर डाक्टर ऐसी दवा दे कि रोग चटपट ठीक हो जाए। काश! शारीरिक रोगों की तरह अवसाद ग्रस्त मनो-रोगों के लिए भी पेटेंट दवाएँ होतीं। बल्ड-टेस्ट होता, एक्स-रे होता, सोनोग्राफी होती। साइकैट्री में ऐसा कुछ नहीं है। साईकैट्रिस्ट असंतुलित हो गए मस्तिष्क के अंधेरे कोनों में उपजे गुंजलकों और गुत्थियों को सुलझाने के लिए स्नेह, सौहार्द्र, सहानुभूति आस्था, विश्वास के साथ परामर्श देते हुए रोगी के भावनाओं के उन अंधेरी कोठरियों और तहख़ानों में प्रवेश करते है जहाँ संदेह, संशय, डर, भय, घृणा, अविश्वास जैसे विषधर कुँडली मारे रोगी को डंक मारते रहते है। रोगी दिनों-दिन मानसिक रूप से अस्थिर होता चला जाता है और स्वयं पर से उसका नियंत्रण नहीं रह जाता है।

निन्नी इस समय जीवन के बड़े ही नाज़ुक दौर से गुज़र रही है। उसके बाल देह के अंदर सुप्त ग्रंथियो का रसायन बदल रहा है। वह बाल्यावस्था से कैशौर्य की ओर कदम बढ़ा रही है अतः निन्नी अब अधिक संवेदनशील और प्रश्नाकुल होती जा रही है। उसका अवचेतन मन कल्पना और यथार्थ में फर्क करना सीख रहा है। देह के साथ-साथ निन्नी का मानसिक विकास भी हो रहा है।

शीना सोचती है निन्नी के स्वस्थ, संतुलित शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए विशेषकर उसकी संवेदनाओं के मूल तत्व को समझते हुए उसे सतर्क और सहज करते रहना होगा। कुछ खोज निन्नी स्वयं करेगी और कुछ में उसे निन्नी का मित्र बनकर उसे सहयोग और सहायता देनी होगी...

‘अरे! निन्नी, वह देख तो सही जो टमाटर के पौधे तू पिछले दिनों नर्सरी से लाई थी। उसमें फूल आ रहे हैं और वह देख, दूसरे वाले पौधे में तो नन्हे-न्न्हे टमाटर भी आने लगे है। पौधे कुछ झुकने लगे है अगर समय से उन्हें सहारा नहीं मिला वे टूट जायेंगे। उनमें लटके सूखे पत्तों को चुन कर निकालना होगा और फिर जल्दी ही ये बेबी टमाटर बड़े होकर लाल और सुर्ख हो जाएगें...’ वह सायास निन्नी का ध्यान टमाटर के पौधों की देख-भाल की ओर मोड़ती है ताकि उसके अंदर प्रकृति के माध्यम से मनुष्य और समाज के प्रति संवेदना के साथ दायित्व का बोध भी जाग्रत हो सके। निन्नी की नज़र टमाटर के पौधों पर जा टिकती है...

वह दौड़ कर, बगीचे में टमाटर के पौधों के पास पहुँच जाती है और बड़ी सावधानी से झुके हुए टमाटर के पौधों को डंडी के सहारे खड़ा कर पौधों में लटके सूखे पत्तों को निकाल कर कॉम्पोस्ट बिन में डालती है। पानी में बेबी-बायो की तीन चार बूँदें डाल कर पौधे को स्नेह से सींचती है फिर खुरपी से पौधे के आस-पास की मिट्टी को गोड़ती है। घड़ी भर टमाटर के पौधों पर प्यार की नज़र डाल कर शीना से कहती है, ‘ममा क्या आपको मालूम है। पौधों के साथ हमें बात-चीत करनी चाहिए। उन्हें संगीत सुनाना चाहिए। अगर पौधे खुश रहते हैं तो जल्दी बढ़ते हैं और उनमें फल भी जल्दी आने लगते है। उनको भी कंपनी अच्छी लगती है।’ कहते हुए उसने दूसरे टमाटर के गमले को उसके पास सरका दिया।

फिर शीना से लिपटते हुए बोली, ‘ममा अब जब हवा चलेगी तो दोनो पौधे एक दूसरे को छूते हुए आपस में बातें करेंगे। है ना! और ये जो बाकी के पौधे है ना उन्हें भी अलग-अलग पॉट में लगाना होगा। उनका पुनर्वास करना होगा...’ कहते हुए वह खिलखिला कर हँसी ।

अभी शीना कुछ कहने जा ही रही थी कि निन्नी बोली, ‘ममा, आज मैं एक बड़ा सा ‘गेट वेल’ कार्ड बनाऊँगी आप उसे अपनी मरीज को दे देना और साथ में यह मेरी-गोल्ट का पॉट भी...’
शीना, गहरी दृष्टि से निन्नी को प्रसन्नता के साथ देखते हुए सोचती है, उसकी नन्ही बिटिया अब परियों के देश से निकल कर वास्तविक संसार में प्रवेश करने की स्वयं ही अच्छी और स्वस्थ तैय्यारी कर रही है उसे केवल उसके आस-पास रहते हुए समय-समय पर सहयोग, भरोसा और विश्वस्त संबल देना होगा ताकि वह अपना विकास स्वस्थ मानसिकता के साथ समाज के प्रति दायित्व के बोध विकसित कर सके... 

 

१ जुलाई २०२१

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