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कला दीर्घा


सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत

डॉ. दिनेशचंद्र अग्रवाल


युगों-युगों से उत्तर प्रदेश का गंगा जमुना दोआब क्षेत्र कला तथा संस्कृति का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पुरातात्विक विपुल सामग्री से भरपूर है यह क्षेत्र। यहाँ की अनेक अनजानी जगहों पर आज भी अनेक सिसकते हुए पुरावशेष अपने जिज्ञासुओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

इस क्षेत्र की उत्तर पश्चिमी सीमा में स्थित सहारनपुर जनपद ऐसा ही क्षेत्र है जहाँ आज भी एक जमाने की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अनेक भित्तिचित्र विद्यमान हैं। इन चित्रों का निर्माण १९ वीं सदी २० वीं सदी के तीसरे दशक तक होता रहा था। लगभग एक सौ वर्षों के जमाने की गाथा इन चित्रों में संजोयी हुई है। ये चित्र न केवल भवनों के साज-सजावट की ही सामग्री थे वरन् यहाँ के समाज की जीवन पद्धति के जीवंत प्रतिबिम्ब भी रहे हैं। इतनी विपुल संख्या में इन चित्रों को देखकर मेरी शोधवृत्ति ने इनका विस्तृत अध्ययन करने को मुझे प्रेरित किया। संपूर्ण जनपद-क्षेत्र का गहनता से विधिवत सर्वेक्षण करने पर मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कलात्मक महत्व की इतनी बड़ी संख्या में बिखरी कलाकृतियाँ अभी तक कला-समीक्षकों, अन्वेषकों और सांस्कृतिक जिज्ञासुओं की नजरों से अनदेखी पड़ी रही हैं।

ऐसा भी लगा कि मानों यहाँ के निवासी भी इनसे अनजान हैं और यह कलाकृतियाँ उन सबके बीच रहते हुए भी गुमनाम सी पड़ी हुई हैं। इस जनपद से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री इसकी प्राचीनता को सिंधु घाटी सभ्यता और सरस्वती सभ्यता के युग तक ले जाती है। यहाँ की अति उपजाऊ धरती हरा सोना उगलती रहती है। अतएव यहाँ की संपन्नता और समृद्धि ने समय-समय पर धन के लोभियों को खूब ललचाया जिसके फलस्वरूप ११वीं सदी में महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजी कम्पनी के शासन काल तक अनेक आक्रांताओं ने इसे कई बार जी भर कर लूटा और विनाश भी किया। बहुत लम्बे समय तक अहिन्दू और विदेशी शासकों के अधिपत्य में रहने और विध्वंस के थपेड़ों के कारण यहाँ की सांस्कृतिक संपदा विलुप्त होती चली गयी।

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ होते ही, अनुकूल वातावरण पाकर यहाँ की निष्प्राण संस्कृति पुनः सशक्त हो उठी। भवन-निर्माण, लकड़ी पर नक्काशी, संगतराशी, गचकारी, मनोतगिरि, मुसव्वरी, ग्रंथ लेखन, मिट्टी के खिलौने व बर्तन बनाना, कठपुतली बनाना और कई दूसरे कलात्मक शिल्पों का व्यापक विस्तार इस जनपद में तेजी से हुआ। स्थानीय जमींदारों और अन्य संपन्न व्यक्तियों के उदार आश्रय में नये मंदिरों, हवेलियों तथा अन्य धार्मिक भवनों का निर्माण हुआ जिनको अनेक नयनाभिराम भित्तिचित्रों से सजाया गया। यह रचनात्मक आंदोलन लगभग सौ वर्षें तक चलता रहा। एक दो स्थानों पर नहीं वरन पूरे जनपद में विद्यमान हैं ये भित्तिचित्र। इस जनपद में गंगोह, नकुड़, देवबन्द, कनखल, भगवानपुर, कोटा, झबरहेड़ा, लंढौरा, मंगलौर, चिलकाना, सुल्तानपुर के ग्रामीण क्षेत्र तथा सहारनपुर शहर के कई भवनों पर ये चित्र आज भी देखे जा सकते हैं।

इन भवनों के छज्जे, खिड़कियाँ, कंगूरे, महराब, साये, गोखे, सिरदल, सपील, छत, कोने, आले, छतरी, गुमटी और दीवारें आदि छोटे-बड़े चित्रों व फूल-पत्तियों की आकर्षक सजावट से अटीं पड़ी हैं। कोई हवेली तो इतनी ऊँची है कि किसी जमाने में उस पर बने चित्रों को भरपूर नजर से देखने वालों की टोपियाँ गिर जाती थीं किन्तु आज अपने रंगों और रेखाओं में एक जमाने के उतार-चढ़ाव की गाथा समेटे हुए ये चित्र चुपचाप विसूरते रहते हैं। किसने बनाये थे ये सुन्दर चित्र? इस प्रश्न का कोई प्रामाणिक समाधान नहीं मिल सका। क्योंकि इनके रचयिताओं ने चित्रों पर या अन्य कहीं पर अपना नाम या अपनी कोई पहचान तक नहीं छोड़ी थी। कुछ व्यक्तियों ने दावे से बताया कि उनके ही कई बुजुर्ग संबंधियों ने ही इन चित्रों को बनाया था लेकिन वे कोई प्रामाणिक सूचना नहीं दे सके। यह ज्ञात हो सका कि इन चितेरों को अन्य श्रमिकों की भांति दैनिक पारिश्रमिक दिया जाता था।

इन चित्रों में विविध प्रकार के कई विषयों को अभिव्यक्त किया गया है किन्तु धार्मिक विषयों की अधिकता है इनमें। श्रीकृष्ण, विष्णु, राम, शिव और देवी दुर्गा आदि से संबंधित प्रसंगों की बहुत सरल व रोचक अभिव्यक्ति की गयी है। इनके अतिरिक्त समकालीन सामंती व संपन्न व्यक्तियों व साधारण लोक समाज के दैनिक जीवन के क्षण, प्रेम प्रसंग, बिहारी सतसई से प्रेरित श्रंगारिक भावपूर्ण विषय, कुछ देशी-विदेशी व्यक्तियों के शबीह (पोट्रेटस), ऐतिहासिक प्रसंग, लोक गाथाओं के कुछ रोचक अंश, प्रतीकात्मक आकृतियाँ, पशु पक्षियों के चित्रों की भी संख्या कुछ कम नहीं है। इस सबसे हटकर फूल पत्तियाँ व अन्य चित्रों के बॉर्डर व फ्रेम रूप-अलंकारों द्वारा सजाये हुए एक से बढ़कर एक सुन्दर पैनल, आलेखन तथा बारीक सजावट भी अपने आप में अनूठी और अनोखी है। इन चित्रों से प्रतीत होता है कि शिक्षित न होते हुए भी चित्रकारों की अभिरुचि, सौंदर्यात्मक अनुभूति, संवेदनशीलता तथा उन्मुक्त कल्पना में रचनात्मक मौलिकता का समावेश था।

कुछ चित्र तो अत्यंत गहन आध्यात्मिक विषय की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से ‘नौ नारी के हाथी पर सवार कृष्ण’, ‘नौ नारी के घोड़े पर श्रीकृष्ण’, ‘नौ नारी की पालकी पर कृष्ण’ तथा अन्य चित्र भी हैं किन्तु इनका विवरण अधिक स्थान की अपेक्षा करता है। इन भित्ति चित्रों को तैयार करने की सदियों पुरानी परम्परात्मक, तकनीक को अपनाया गया है जिसके अन्तर्गत चित्रण के आधार को चूने के महीन पलस्टर से विशेष विधि से तैयार किया जाता है तथा खनिज मिट्टी व पत्थरों से रंग तैयार किये जाते हैं। इस विधि को ‘फ्रेस्को सेक्को’ कहा जाता है। चित्रों के रंग सीमित, सपाट किन्तु चमकदार हैं। कला-सिद्धांतों व नियमों की अज्ञानता अथवा अवहेलना होते हुए भी इनमें ऐसा सम्मोहन है कि ये दर्शकों के बढ़ते हुए कदमों को रोक लेते हैं और निगाहें चित्रों से हटती ही नहीं।

इन चित्रों की शैली में भारतीय चित्रकला की जानी मानी मुगल, पहाड़ी और कम्पनी शैलियों की मिली-जुली छाप है जिसमें क्षेत्रीय लोक तत्व और चित्रकारों की निजी विशेषताओं की जुगलबंदी से एक नवीन शैली का आभास होता है। चित्रों में बनी मानवाकृतियों की वेशभूषाओं तथा अन्य सामग्री से हिन्दू, मुगल तथ अंग्रेजी संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। सर्वाधिक उल्लेखनीय है, इन चित्रों की स्त्री आकृतियों में अंकित बड़े आकार वाली ‘नथ’ जो यहाँ की हिन्दू विवाहित महिला के ‘सुहाग’ की निशानी मानी जाती है और उसकी अति प्रिय वस्तु भी। जनपद की उत्तरी सीमा से लगे गढ़वाल क्षेत्र में बड़े आकार वाली नथ पहनने का आज भी बहुत प्रचलन है।

अधिकांश चित्रों की शैली के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ऐसी अवधारणा बनती है कि भित्ति चित्रण की यह परम्परा यहाँ के लोक समाज में उन्नीसवीं सदी से भी पहले लगभग पचास वर्षों की काल-गहराई तक अस्तित्व में रही होगी। इन चित्रों को सहारनपुर जनपद की ही नहीं वरन समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत कहा जाय तो अनुचित न होगा। धन्य हैं, वे लोग जिन्होंने थोड़े से पारिश्रमिक के बदले में समाज को एक अमूल्य निधि दे डाली और उस पर अपनी मुहर भी नहीं लगायी। आज के जमाने में चारों ओर बदलते हुए परिवेश में यह समृद्ध परम्परा समाप्त हो चुकी है और ये चित्र एक-एक करके गिरते छिपते जा रहे हैं। इनके महत्व से अनभिज्ञ समाज द्वारा इनकी उपेक्षा और प्रकृति के क्रूर थपेडों की चोट से यह सांस्कृतिक कला कोश ओझल होता जा रहा है।

२ सितंबर २०१३

 
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