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रंगमंच

हिंदी रंगमंच प्रयोग और परंपरा
श्याम नारायण


हिंदी रंगमंच को हम डेढ सौ वर्ष पुराना ही कह सकते हैं अतः अभी कोई निश्चित परंपरा बन ही नहीं पाई है परंपरा के नाम पर कई धाराएँ हैं, जिनसे प्रेरणा ग्रहण कर उन्हें आत्मसात करते हुए अनेक विरोधाभासी प्रवृत्तियों में समन्वय करने का प्रयत्न होता रहा है इन सबके साथ ही हिंदी रंगमंच की परंपरा बनने की प्रक्रिया में है।

पहली धारा संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ और पुष्ट परंपरा है जो नवीं दसवीं शताब्दी तक मिलती है ऐसा प्रतीत होता है कि भरत का नाट्य शास्त्र एक लंबी अलिखित परंपरा का मानकीकरण एवं शास्त्रीकरण हैं अतिशास्त्रीयता शायद इसे नाटकों से दूर ले गई और भरत नाट्यम हमें आज नृत्य शैली के रूप में रंगमंच का हिस्सा बना मिलता है, जिससे संवाद गायब हो गए गायन बोल भावाभिनय और नृत्य का समावेश हो गया।

दूसरी धारा लोकनाट्य परंपरा की रही। लोकनाट्य परंपरा ने ही वस्तुतः भारतीय रंगमंच को जीवित रखा नौटंकी, माच विदेशिया, आल्हा, भांड आदि अनेक लोक नाट्य शैलियाँ प्रचलित रहीं जिनमें किसी लिखित आलेख के बिना ही कलाकार मनोरंजन हेतु किस्से गढ़ लेते थे कालांतर में आधुनिक हिंदी रंगमंच में संगीतबद्ध या संगीत पर आधारित लोकनाट्य जैसे मंचन हिंदी रंगमंच की कड़ी बन गए।

तीसरी धारा हमें पारसी नाटकों की मिलती है ये अपने सारे कलेवर में व्यवसायिक थी प्रत्येक कंपनी अपने नाटककार रखकर इस हिसाब से नाटक लिखवाती और खेलती थी कि वे जनता में लोकप्रिय हों और अधिक से अधिक धनोपार्जन कर सकें जोर अतिनाटकीयता और चमत्कार पर था चमत्कार भी नाटक के कथानक भाषा अथवा रसभावना में नहीं, रंगमंच की ऊपरी चटकमटक और वेशभूषा की नवीनता में था आख्यान इतिहास या पुराण से भी तो नाटक नायक नायिका के प्रेम शेरो शायरी और वेशभूषा और नाचगाने की चाशनी में लपेटकर पेश किये जाते थे हम कह सकते हैं कि पारसी थियेटर की यह व्यावसायिक परंपरा रंगमंच से ज्यादा फिल्मों के हिस्से आई और आज भी हिंदी फिल्में लगभग उसी नमूने पर चटपटी मसालेदार बन रही हैं जिनमें दिमाग बंदकर केवल मनोरंजन के लिये देखा जाय तो कुंठा नहीं होगी भारतेंदु ने इन्हीं परंपराओं का समन्वय कर औपचारिक हिंदी रंगमंच की स्थापना की।

चौथी धारा हिंदी में पाश्चात्य रंगमंच या अन्य भारतीय भाषाओं से अधिग्रहीत हुई भारतेंदु से पूर्व इप्सन या बर्नार्ड शॉ का यथार्थवादी थियेटर सात्र का अस्तित्ववाद और कालातंर में एब्सर्ड थियेटर उसमें भी बैकेट ब्रेख्त की धाराएँ सबका समन्वय कर हिंदी रंगमंच ने अपना रास्ता बनाया सभी पाश्चात्य धाराओं में जिनका भारतीय राजनीतिक वातावरण में भारतीय रूपांतरण हुआ एक बात समान रूप से पाई जाती है वह है परंपरागत जीर्ण शीर्ण मान्यताओं से विद्रोह, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षिक, व्यवसायिक, प्रशासनिक व्यवस्था का विरोध साठवें दशक में साहित्यकारों ने नाटक को एक और लोकनाट्य से जोड़ने की कोशिश की, तो दूसरी ओर पाश्चात्य प्रभाव भी उन पर हावी रहा साठ तक आते आते विकसित देशों में जन समाज बनने लगा था उपभोक्तावाद जो मारने लगा था, मनोरंजन और उद्योग निर्णायक होने लगा था, टी वी फिल्में विज्ञापन और बाजार एक दूसरे से मिलकर नए नए जनक्षेत्र बनाने लगे थे इस सबका अपरोक्ष रूप से भारतीय रंगमंच और साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा

बढ़ते जनक्षेत्र तक पहुँचने की ललक, राजनीतिक चेतना, राजनीतिक स्थितियों के कारण आवाम का मोह भंग और विपन्नता के मिले जुले प्रभाव से हिंदी रंगमंच में एक नया प्रयोग और कालांतर में पाँचवीं नई धारा के रूप में ब्रेख्त के स्ट्रीट कार्नर थियेटर की परंपरा में नुक्कड़ नाटक का प्रादुर्भाव हुआ नुक्कड़ नाटक का शाब्दिक अर्थ ही हुआ वह नाटक जो गाँव या शहर या कसबे के किसी मोड़ पर किसी चौराहे या नुक्कड़ पर खेला जा सके जहाँ किसी भी प्रेक्षागृह परिधान, रूपसज्जा या मंचदीपन की आवश्यकता नहीं होती किंतु हिंदी नुक्कड़ नाटक भी प्रयोग के रूप में परंपरा से अलग नहीं था नुक्कड़ नाटक का मूल तत्व लोक साहित्य में ही है चौपाल में किस्सागोई की परंपरा कठबैठी और मेले वेले में डुग्गी, पीटकर सामंती आदेशों को जनमानस तक पहुँचाने की प्रवृत्ति ही इस विद्या के केन्द्र में रही है।

नुक्कड़ नाटक हों या बंद अँधेरे प्रेक्षागृह में बना मंच नाट्य लेख का मंच रूपांतरण हो या बिना नाट्य लेख के मनोरंजन व संदेश पहुँचाने के लिये आयोजित लोक नाटक, पैट्रोमैक्स या दिन की रोशनी में मंचित नाटक हो या व्यापक और क्लिष्ट प्रकाश ध्वनि की व्यवस्था रंगमंच में हर स्थिति में हर मोड़ पर और हर अंग में प्रयोग की संभावना होती है सच पूछें तो हर नया मंचन एक नया प्रयोग होता है क्यों कि वह पूरा पूरा अपने को नहीं दोहराता दोहरा सकता भी नहीं।

प्रयोग रंग प्रशिक्षण के स्तर से प्रारंभ हो सकता है रंग प्रशिक्षण में अभी कई रिक्तताएँ हैं दया प्रकाश सिन्हा के अनुसार हमारे नाट्य प्रशिक्षण में साहित्य से जुड़ने की कोशिश नहीं होती अतः प्रशिक्षित रंगकर्मी रंगमंच को एक क्राफ्ट के स्तर पर जीने की कोशिश करते हैं साहित्य से न जुड़े होने के कारण वे नये नाटक पढ़ते नहीं जब वे पढ़ते नहीं तो उन्हें यह ज्ञान ही नहीं होता कि हिंदी में कौन से नाटक लिखे जा रहे हैं आज भी एन एस डी राष्ट्रीय नाटक विद्यालय से निकले लोग कैलियर के कंजूस या बीवियों का मदरसा कर रहे हैं तो वे एक प्रोडक्शन की कापी कर रहे हैं प्रशिक्षण के स्तर पर प्रयोग किये जा सकते हैं कि वह प्रशिक्षक आधारित न होकर प्रशिक्षार्थी आधारित हो उठे रंग प्रशिक्षण ऐसा हो कि प्रशिक्षण लेकर निकला हर कलाकार स्वतंत्र रूप से अपना व्यक्तित्व अपनी शैली अपना दिमाग लेकर निकले, परंपरा को पहचानने वाला प्रयोग को तत्पर।

प्रयोग नाट्य लेखन के स्तर पर हो सकता है यह भ्रामक धारण फैशन के तौर पर दोहराई जाती है कि हिंदी में नाट्य लेखन की स्थिति दयनीय है वस्तुस्थिति इसके विपरीत है हिंदी नाटकों, उसमें भी स्तरीय नाटकों का एक सम़द्ध भंडार है यदि हम सिर्फ बहुचर्चित बहुमंचित मौलिक नाटकों के नाम गिनाने लगें तो वे २५ के आसपास पहुँच जाएँगे शिल्प के स्तर पर ये की धाराओं की निरंतरता में हैं इनमें कहीं पाश्चात्य नाटककार इप्सन की तर्ज पर दो या तीन अंकों वाला यथार्थवादी मुहावरा मौजूद है कहीं भारत की शास्त्रीय और लोकनाट्य शैलियों से प्रेरणा ली गई है और कहीं या तो इन सबके मेल से नहीं तो अपने आप से एक नितांत मौलिक बनावट तैयार करने की कोशिश की गई है अपनी स्रोत सामग्री में ये नाटक तीन चार मुख्य धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी तरफ़ आज के विभिन्न नाटककार बार बार लौटते रहे हैं यथा शुद्ध ऐतिहासिकता में से नाटक का जन्म मिथक अथवा लोककथाओं की फंतासी समसामयिक राजनीतिक स्थितियों पर व्यंग्य और अंततः जीवन की जटिलताओं में मुख्यतः आदमी और औरत के रिश्ते की जाँचपड़ताल।

नाट्यलेख में प्रयोग कथ्य केस्तर पर हो सकता है, शिल्प के स्तर पर हो सकता है, प्रस्तुतिकरण के स्तर पर हो सकता है नाटक बिंब लेकर चले पुनः काव्य की ओर लौट जाएँ शब्द चित्र उकेरे या संवादों के बीच नियोजित मौन से वातावरण की रचना करें हर दिशा में नये प्रयोग संभव हैं कई परंपराओं का सम्मिश्रण किया जा सकता है चीन जापान और एशिया के अन्य देशों की समृद्ध परंपराएँ हैं जिनसे चुनिंदा चीज़ों का भारतीयकरण कर नये किस्म के आलेख तैयार किये जा सकते हैं कथ्य विचार या शिल्प के स्तर पर नई जमीन तोड़ने वाले नाटक लिखे जा सकते हैं परंतु इस काम को निर्देशकों के सहयोग के बिना नहीं किया जा सकता।

नाट्य लेखन के प्रयोग की राह में रोड़ा रंगकर्म की रूढ़ियाँ अटकाती हैं जो वर्तमान संसाधनों और प्रक्रियाओं के चश्मे से ही देखने का कष्ट उठाती हैं और प्रयोगों को नकार देती हैं इसका एक जीवंत उदाहरण भुवनेश्वर है भुवनेश्वर अपने समय से बहुत आगे थे इसलिये उनके साहित्य के लिये समाज साहित्यकार समीकरण तैयार नहीं थे समझ नहीं सके स्वीकार नहीं कर सके।

आदर्श स्थिति वह होगी जिसमें लेखक और निर्देशक मिलकर प्रयोग करें एक दूसरे को खुले दिल दिमाग से सहयोग देकर नई दिशाएँ खोलें प्रायः जो नाट्य लेख अपूर्ण घोषित कर दिये जाते हैं उनके मंचन के आयाम का अन्वेषण करना निर्देशक का प्रमुख कार्य है सफल नाटक वही है जो साहित्यिक और रंगमंचीयता दोनो दृष्टियों से सफल हो।

जब हम सफल रंग कर्म का जायजा लेते हैं चाहे वह हमारे देश का हो या विदेश का तो हम नाटक कारों को अमूमन रंगमंडलियों के साथ या उनके सदस्य के रूप में मौजूद पाते हैं चाहे शक्सपियर हों या जार्ज बर्नार्ड शॉ, भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या आगा हश्र काश्मीरी, ब्रेख्त हों या बादल सरकार। अपने जन्म से ही नाट्य कला एक सामूहिक कला है जिसे अलग अलग विधान अलग अलग कलाकार और निर्देशक तैयार करते हैं।

प्रयोग धर्मिता निर्देशक के जिम्मे अधिक पड़ेगी नाटक का कुल प्रभाव अभिनेता की शारीरिक मुद्राएँ संवाद ध्वनि मंच सज्जा सबके सम्मिश्रण का परिणाम होता है इनमें से हर विभाग में नये प्रयोगों की संभावना होती है प्रकाश व्यवस्था से लेकर रूप सज्जा तक किसी में भी नया कोण पकड़कर नया प्रयोग किया जा सकता है प्रश्न जोखिम उठाने का है देखा यह भी गया है कि प्रायः प्रयोग करने वाले निर्देशक एक प्रयोग के सफल हो जाने पर उसी को दोहराते रहते हैं असफलता का भय उन्हें नए प्रयोग करने से रोकता है और यह दायित्व फिर किसी अन्य निर्देशक पर पड़ता है।

परंपरा और प्रयोगों की बात करते समय हम यह नहीं भूल सकते कि हिंदी रंगमंच इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है उपभोक्ता और बाज़ार में उद्योग संस्कृति को जन्म दिया है हर चीज एक उत्पाद है रंगमंच पर हुआ प्रयोग या परंपरावादी मंचन की कभी चर्चा इसलिये होती थी कि कोई व्यक्ति या विषय महत्त्वपूर्ण होता था उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में कोई व्यक्ति या विषय तब महत्त्वपूर्ण होता है जब मास मीडिया उसकी चर्चा करता है और चर्चा तभी करता है जब कुछ हटकर हो रहा हो संस्कृति के क्षेत्र में सभी लोग समझ गए हैं कि मीडिया को घटिया या बढ़िया रचना से कोई मतलब नहीं रह गया है वह चालू और गंभीर दोनो किस्म की विधाओं और व्यक्तियों के बारे में दिलचस्प और केवल दिलचस्प किस्म की बात करना चाहता है वह लोगों को दिलचस्प बात के लिये दिलचस्प विषय देना चाहता है

आज इस दशक में जब वैश्वीकरण और अप संस्कृति के दबाव में परंपराएँ टूट तेजी से रही हैं, पर नई बन नहीं पा रही हैं एक शून्य की स्थिति पैदा हो गई है वास्तविकता इतनी भयावह है कि जब जब हिंदी नाटक और रंगमंच की वास्तविक स्थिति का आकलन करने की चेष्टा होती है हम साने खड़ी चुनौतियाँ नज़रंदाज कर आरोप प्रत्यारोप में व्यस्त हो जाते हैं रंग कर्म के विभिन्न भागीदारों नाटक कारों निर्देशकों अभिनेताओं आदि के बीच छिड़ी घमासान प्रायः निष्कर्ष विहीन होती है जिसमें अपनी उपलब्धियों को बढ़ाकर और अन्य को नजरंदाज कर स्थिति बिगड़ने के लिये सदैव दूसरे को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है निर्देशक कहता है कि नये नाटक नहीं हैं नाटककार कहता है कि निर्देशक मनमानी करता है अभिनेता रंगमंच को छोड़ टीवी और फिल्मों की ओर पलायन कर जाता है।

अतः हिंदी रंगमंच को अपने अस्तित्व के लिये पिछली परंपराओं से शक्ति ग्रहण कर नित्य नए प्रोयोग करने पढ़ेंगे इसके लिये मिशनरी उतसाह और दलगत भावना की आवश्यकता है जिसके बिना की भी प्रयोग गुणवत्ता पूर्ण और सफल नहीं हो सकता बाजारीकरण के इस दौर में यह कोई नहीं देखता कि आपने प्रयत्न कितने किये हर एक की नज़र नतीजों पर ह अतः अपने अहम का बलिदान कर सबको हाथ मिलाना होगाष एक दल के रूप मेसफल प्रयास करने के लिये बटने की टूटने की लड़खडाने की परंपरा छोड़ ये प्रयोग हिंदी रंगमंच के लिये आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य हैं।

१३ सितंबर २०१०

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