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सामयिकी

 

भारतीय संस्कृति प्रकट करती है
संस्कृत
- हृदयनारायण दीक्षित


केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाये जाने का विचार स्वागत योग्य है। इसको लेकर चल रहा विवाद बेकार है। देश में लगभग ११०० केन्द्रीय विद्यालय हैं। लगभग ८०००० में से ५५०००-६०००० छात्र छठी से आठवीं कक्षा तक जर्मन पढ़ रहे हैं। यह निर्णय २०११ में हुआ था। संस्कृत भारतीय संस्कृति की भाषा है और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की भी। जर्मन सहित सभी भाषाएँ ज्ञानवर्धक हैं। इन्हें विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाना अनुचित नहीं है। लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में भारतीय भाषाओं को ही पढ़ाया जाना चाहिए। भाषा मनुष्य की अनूठी कर्म उपलब्धि है। भाषा का अल्पतम घटक अक्षर है। अक्षर के बाद शब्द। शब्द और अर्थ ही भाषा की संपदा है। रूपों से भरे इस विराट विश्व के अलावा मनुष्य का अन्तर्जगत भी रहस्यपूर्ण है। प्रेम, राग, द्वेष, ममत्व, अवसाद, विषाद और प्रसाद जैसे अनेक भाव वस्तु या पदार्थ नहीं हैं। इनके रूप नहीं हैं। इन्हें नाम देना आसान नहीं है। संस्कृत में भावजगत के तमाम स्पंदनों के लिए भी नाम हैं। यहाँ भौतिक जगत पर निरन्तर शोध चले और अव्यक्त पराभौतिक पर निरन्तर बोध। शोध कर्म के लिए तमाम भाषाओं में शब्द हैं। लेकिन बोध की विराट संपदा में संस्कृत बेजोड़ है।

भारतीय भाषाओं की क्षमता विरल है। इसी संपदा के कारण मनुष्य ने समाज, राष्ट्र जैसी संस्थाएँ गढ़ीं। भाषा अभिव्यक्ति है। भाषा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की भाष धातु से बताई गयी है और भाष का अर्थ बताया गया है -व्यक्त वाणी। ऋग्वेद में वाणी का एक अव्यक्त रूप भी बताया गया है। कह सकते हैं कि बोलने के पहले बुद्धि के तल पर वाक् योजना। यही प्रकट होता है तो भाषा, भाषा वाचिक ध्वनि संकेत है। ऋग्वेद के ज्ञानसूक्त (१०.७१) में बताते हैं ‘प्रारम्भिक स्थिति में पदार्थों के नाम रखे जाते हैं। इनका शुद्ध ज्ञान अनुभूति गुफा में छुपा रहता है।’ ऋग्वेद का संकेत है कि भाषा का अपना कर्मफल है। कहते हैं ‘मेधावी जन बुद्धि ज्ञान शक्ति से भाषा को सुसंस्कृत करते हैं।’

भाषा का सतत विकास हुआ है। भावों का रूप आकार नहीं होता। प्रीति, प्रेम, राग, ईर्ष्या, द्वेष, रुचि, अरुचि आदि भाव हैं। श्रद्धा, आस्तिकता, समर्पण भक्ति आदि गहन अनुभूतियाँ हैं। ऐसे शब्द सम्बन्धित भावों के ध्वनि प्रतीक हैं। भारतीय भाषाओं में विशेषकर संस्कृत में अनुभूतिपरक ध्वनि प्रतीकों/शब्दों का कोष बड़ा है।

ऋग्वेद में सम्पूर्णता के भाव के लिए ‘अदिति’ व ‘पुरुष’ जैसे देव प्रतीक थे ही। उत्तरवैदिक काल में ब्रह्म सम्पूर्णता का पर्याय बना लेकिन छान्दोग्य उपनिषद् में इसके लिए ‘भूमा’ शब्द आया है। सौन्दर्य अनुभूति को भी बताना आसान नहीं। संवेदन की अभिव्यक्ति दुरूह साधना है लेकिन संस्कृत की शक्ति सामर्थ्य बड़ी है। वहां ध्वनियाँ हैं, शब्दों के अपने गुण हैं, वाक्यपद हैं। व्याकरण का अनुशासन है। संस्कृत का अपना विराट है, संगीत और नाद है। दुनिया की सारी भाषाएँ जहाँ आत्मसमर्पण करती हैं, संस्कृत उसके भी आगे की यात्रा पर निकल जाती है। ऋग्वेद में कहते हैं ‘ऋचाएँ परम व्योम में रही हैं। जहाँ देवता रहते हैं-वहाँ’। बाकी भाषाएँ मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद का उपकरण हैं।

संस्कृत प्रकृति की शक्तियों से भी संवाद बनाने की भाषा है। नदियों से संवाद ऋग्वेद का प्रतिष्ठित अंश है। नदी कहती है- ‘हम वैसे ही झुके जाते हैं जैसे दूध पिलाने के लिए माता।’ माता हमारे पिता की पत्नी ही नहीं है अपितु माता जननी है। इसीलिए पृथ्वी माता है। जल माताएँ हैं। ऐसी अनुभूति और अभिव्यक्ति संस्कृत में ही संभव है। संस्कृत भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति है। योग भारत का प्राचीन विज्ञान है। संस्कृत में उगा, खिला, महका। पतंजलि ने ईश्वर के बारे में बताया है कि समय के पार होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है। संस्कृत में समय के पार की धारणा को शब्द देने की शक्ति है। भारत में संस्कृत ही प्रार्थना की भाषा है। विवाह और अन्य संस्कारों की भी। इसी तरह मुस्लिम मित्रों के यहाँ संस्कार आदि की भाषा अरबी है। रोमन कैथोलिक में लैटिन है। यहूदियों में हिब्रू है। आर्थोडॉक्स ईसाई ग्रीक का प्रयोग करते हैं। भिन्न-भिन्न सभ्यताओं में प्रार्थना और संस्कार की भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं। हरेक भाषा के संस्कार भी होते हैं। वैदिक संस्कृत प्राचीनतम है। इसके अपने संस्कार हैं।

वैदिक समाज ने इसी भाषा को संवाद का माध्यम बनाया था और इसी को समाज गठन का उपकरण भी। इसी भाषा से दैनिक जीवन के कामकाज भी किए और इसी भाषा के माध्यम से सूर्य, चन्द्र, नदी, पर्वत और वनस्पति आदि से भी संवाद बनाया। यज्ञ कर्मकाण्ड के एक मजेदार मंत्र में कहते हैं ‘यह स्वाहा अन्तरिक्ष तक पहुँचे, यह समुद्र को और यह स्वाहा वनस्पतियों औषधियों तक पहुँचे।’ यहाँ समिधा को भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों तक ले जाने की शब्द प्रार्थना है।

अभिनय कला भारत में ही विकसित हुई। भरत मुनि ने उसे नाट्य शास्त्र बनाया। संस्कृत में ही। दर्शन भारत में देखा गया। दृष्टा महानुभाव ऋषि कहे गये। अर्थशास्त्र संस्कृत में ही उगा पहली बार। आयुर्विज्ञान संस्कृत में प्रकट हुआ। भारत के ज्ञान, विज्ञान, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, नाटक, संगीत, कला, योगदर्शन और अनुभूति की भाषा संस्कृत है। संस्कृत से प्रीति घटी, उसने नया रूप धरा। पाली प्राकृत और अपभ्रंश होते हुए हिन्दी का विकास हुआ। अनेक भाषा विज्ञानी विकास क्रम में भिन्न मत भी रखते हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति का विकास और कथन संस्कृत में हुआ था। हिन्दी ने उसे आगे बढ़ाया। हिन्दी संस्कृत की उत्तराधिकारी है। विदेशी सत्ता ने संस्कृति व संस्कृत को दुर्बल बनाया। हम भारतवासियों ने भी संस्कृत को कमजोर किया है और अब हिन्दी कमजोर करने का आत्महन्ता प्रयास सामने है। हिन्दी के पास संस्कृत का उत्तराधिकार है और पालि, प्राकृत, अपभ्रंश का सिंगार।

यह भारत की राष्ट्रभाषा राजभाषा है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी यहाँ अंग्रेजी लाई थी। उसके बाद अंग्रेजी सत्ता आई। भाषा अपने साथ संस्कार भी लाती है। हम अपने प्रिय का स्मरण कर रहे हों, वही प्रियजन अचानक आ जाए। हम चहक उठते हैं कि आइए ! आइए ! आपकी लम्बी उम्र है, आपकी ही चर्चा हो रही थी। अंग्रेजी ने अंग्रेजी में सिखाया ‘ओह! थिंक दि डेविल, डेविल इज हियर- शैतान को सोचा, शैतान हाजिर।’ अंग्रेजी संस्कार कमोवेश ऐसे ही हैं। ब्रिटिश सत्ता के दौरान अंग्रेजी सत्ता की भाषा बनी। दलालों चापलूसों ने भी अंग्रेजी में मिमियाना सीखा। प्रत्येक भाषा अपने लोक और संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है।

भाषा की अपनी संस्कृति होती है और हरेक संस्कृति की अपनी भाषा। संस्कृत हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाएँ भारतीय संस्कृति प्रकट करती हैं। हम भारत के लोग संस्कृत में ही संस्कृत हुए, सांस्कृतिक हुए। सहमना हुए। सहनाववतु हुए। सहवीर्य भी हुए। सामूहिक हुए। एक से अनेक हुए। अनेक से एक हुए। संस्कृत ने एक संस्कृति दी और एक संस्कृति ने एक राष्ट्र। मोलिनोवसी ने १९२३ में कहा भाषा सामाजिक संगठन का काम करती है। जर्मन भाषाविद् सामरलेट ने १९३२ में यही बात दोहराई लेकिन संस्कृत इसी को को सैकड़ों वर्ष पहले से ही कर रही थी। संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की समृद्धि समय का आवाहन है।

संविधान सभी में पं॰ नेहरू ने भी स्वीकार किया था कि ‘संस्कृत भारत में ही नहीं एशिया के बड़े क्षेत्र में विद्वानों की भाषा थी।’ आज संस्कृत की स्थिति वैसी नहीं है। संस्कृतविद् आधुनिकता की अपेक्षा से दूर हैं और आधुनिकता प्रेमी संस्कृत से। संस्कृत आधुनिक, विज्ञान, तकनीकी, उद्यम और प्रबोधन की भाषा भी हो सकती है।

१ दिसंबर २०१४

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