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सामयिकी


जैविक हथियार और चीन

- संकलित


जैविक तकनीक के बहुत से सैन्य उपयोगों में से जैविक हथियार बनाने का विकल्प सबसे घातक और नुकसान पहुँचाने वाला है। दुनिया के सत्रह देशों के बारे में माना जाता है कि या तो उनके पास जैविक हथियार हैं या फिर वो जैविक हथियार बनाने का कोई कार्यक्रम चला रहे हैं। इन देशों में अमेरिका, कनाडा, चीन, क्यूबा, फ्रांस, जर्मनी, ईरान, इराक, इजराइल, जापान, लीबिया, उत्तर कोरिया, रूस, दक्षिण अफ्रीका, सीरिया, ताइवान और ब्रिटेन शामिल हैं।

जैविक हथियारों के साथ चीन का पहला अनुभव दूसरे विश्व युद्ध के दौरान का रहा है। तब जापान ने चीन के खिलाफ जैविक हथियारों का इस्तेमाल किया था। उन हमलों में जापान ने प्लेग से ग्रस्त कीड़ों की चीन के नागरिकों पर बरसात की थी। जापान का जैविक हमला झेलने के बाद १९८४ में चीन ने जैविक हथियारों से जुड़ी संधि में शामिल होने की घोषणा की थी। जैविक हथियारों की इस संधि (BWC) में, ‘जैविक और जहरीले हथियारों के विकास, उत्पादन, हासिल करने, किसी को देने, जमा करने और इस्तेमाल करने पर प्रभावी ढँग से रोक लगाई गई है’। सार्वजनिक रूप से तो चीन यही कहता है कि उसने जैविक हथियारों की संधि में खुद ही शामिल होने का फैसला करके अपनी अच्छी नीयत’ की मिसाल पेश की थी। चीन का ये दावा भी है कि वो न तो जैविक हथियारों का विकास करता है, न उनका उत्पादन करता है, न जमा करता है और न ही उसके पास कोई जैविक हथियार हैं। इसके अलावा, चीन ने हमेशा इस बात से भी इनकार किया है कि उसके पास जैविक हथियार या इनके प्रयोग का कोई जरिया या डिलिवरी सिस्टम है।

१९९३ में अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने चीन के दो असैन्य जैविक अनुसंधान केंद्रों आकलन किया था। जैविक अनुसंधान की इन प्रयोगशालाओं के बारे में माना जाता है, इनमें जैविक हथियारों का उत्पादन करके उन्हें जमा किया गया था और इन पर चीन की सेना का नियंत्रण था। उसी साल अमेरिका ने पहली बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘इस बात की संभावना प्रबल है कि चीन ने जैविक हथियारों संबंधी समझौते पर दस्तखत के बावजूद, जैविक हथियारों के अपने कार्यक्रम को खत्म नहीं किया है’। उसके बाद से ही चीन द्वारा जैविक हथियारों से जुड़े समझौते की शर्तें मानने को लेकर शक और चिंता भरे सवाल बने हुए है।

बाद में, १९९९ की एक रिपोर्ट में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने अपनी ये राय जाहिर की थी कि चीन ‘अपने पास जैविक और रासायनिक हथियारों के एक छोटे से भंडार या फिर ऐसे हथियार बनाने के लिए जरूरी संसाधनों को जमा करके रखने के विचार को मूल्यवान मानता है। चीन का मानना है कि अगर उसके पास जैविक हथियारों का ये भंडार होगा तो, ये किसी भी दुश्मन की ओर से उसके ऊपर संभावित रासायनिक खतरे या हमले से बचाव करेगा।’ ये रिपोर्ट तैयार करने वाले अमेरिकी खुफिया अधिकारियों ने ये भी कहा था कि इस बात की संभावना काफी अधिक है, क्योंकि चीन को लगता है कि पहले भी महाशक्तियों ने उसके ऊपर हमला करने के लिए जैविक हथियारों का इस्तेमाल किया है। अमेरिका पर आरोप लगते हैं कि उसने कोरियाई युद्ध के दौरान जैविक हथियारों- जिसमें चेचक, प्लेग, टाइफस और एँथ्रैक्स जैसी बीमारियों के रोगाणु शामिल हैं- का इस्तेमाल किया था। चीन की सेना इन आरोपों को सच मानकर ही चलती है।

जब चीन अपने यहाँ किसी जैविक हथियार कार्यक्रम के होने से इनकार नहीं करता है, तो उसका तर्क ये होता है कि इस संबंध में उसके सैन्य रिसर्च आत्मरक्षा के लिए हैं। १९९४ में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की जैविक हथियार निरोधक इकाई के प्रमुख फू जेनमिंग ने कहा था कि, ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पास किसी अन्य देश पर हमले के लिए जैविक हथियारों की टुकड़ी नहीं है। लेकिन, हमारे पास जैविक हथियारों का युद्ध लड़ने की क्षमता रखने वाली टुकड़ी जरूर है।’ आधिकारिक रूप से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की इस इकाई को मिलिट्री मेडिकल रिसर्च यूनिट ऑफ बीजिंग मिलिट्री रीजन के नाम से जाना जाता है। इसका दूसरा नाम इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री मेडिसिन है और इसकी जिम्मेदारी संक्रामक रोगों का अध्ययन करने की है।

इन बातों से इतर, चीन पर ये आरोप लगते रहे हैं कि उसने हमला करने की तैयारी के लिहाज से जैविक हथियारों पर ऐसे रिसर्च किए हैं, जिनके नतीजे घातक हो सकते हैं। सोवियत संघ की बायोप्रिपेयराट के प्रथम उप निदेशक केन एलिबेक ने दावा किया था कि १९८० के दशक के आखिर में चीन के शिंजियाग सूबे में-चीन के परमाणु परीक्षण वाली जगह लोप नोर के पास खूनी बुखार की दो महामारियाँ फैली थीं। केन एलिबेक का दावा था कि ये बीमारियाँ, ‘एक लैब में हादसे की वजह से फैली थीं, जहाँ पर चीन के वैज्ञानिक वायरस से होने वाली बीमारियों को हथियार बनाने का काम कर रहे थे।’

हाल ही में चीन ने अपने ‘मेड इन चाइना २०२५’ कार्यक्रम और ताजा पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जैविक तकनीक पर काफी जोर दिया है। ये बात ऊपरी तौर पर तो संदेह से परे लगती है। लेकिन, अगर हम जैविक तकनीक को बढ़ावा देने की चीन की इस कोशिश को वहाँ हो रहे अन्य बदलावों के साथ जोड़कर देखें, तो जैविक तकनीक के सैन्य इस्तेमाल की संभावनाएँ एकदम स्पष्ट हो जाती हैं। जैसा कि एक खुफिया रिपोर्ट में अमेरिका ने कहा था कि, चीन का नेशनल जीनबैंक डेटाबेस (CNGBdb) जेनेटिक जानकारियों के दुनिया के सबसे बड़े खजानों में से एक है। रोगाणुओँ की इस जानकारी का प्रयोग महामारियों का और अधिक असरदार इलाज और सटीक दवाओं के विकास के लिए किया जा सकता है। लेकिन, इन्हीं संसाधनों का विकास बेहद सटीक निशाना लगाने वाले जैविक हथियार बनाने में भी किया जा सकता है। इसके अलावा चीन का राष्ट्रीय खुफिया कानून और उसकी सैन्य असैन्य संस्थाओं को एक साथ मिलाकर चलने की रणनीति से चीन की सेना को हर असैनिक अनुसंधान और मूलभूत ढाँचे का इस्तेमाल करने की खुली छूट मिल जाती है। इसका मतलब सैद्धांतिक तौर पर चीन के पास जैविक तकनीक के सैन्य इस्तेमाल के सारे विकल्प खुले हुए हैं।

जैविक हथियारों में चीन की क्षमता

वर्ष १९९९ में अमेरिका के रक्षा विभाग (DOD) ने ये अनुमान लगाया था कि चीन के पास बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों के अलावा, ऐसे ‘बमवर्षक और लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, गोलीबारी के हथियार, रॉकेट, मोर्टार और स्प्रेयर हैं, जिनका इस्तेमाल वो परमाणु, जैविक और रासायनिक हमले के लिए भी कर सकता है।’ वर्ष २००१ की एक रिपोर्ट में अमेरिका के रक्षा विभाग ने ये भी कहा था कि, ‘चीन के पास जैविक तकनीक का एक उन्नत मूलभूत ढाँचा और ऐसे जरूरी संसाधनों वाली क्षमताएँ मौजूद हैं, जिनसे जैविक हथियारों का विकास, उनका उत्पादन और हथियारों के रूप में इस्तेमाल करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।’

ऐसा माना जाता है कि पिछले कई वर्षों के दौरान चीन ने संभावित जैविक हथियारों के रोगाणुओं पर काफी रिसर्च की है। इनमें टुलारेमिया, क्यू बुखार, प्लेग, एँथ्रैक्स, ईस्टर्न इक्वीन एँसेफेलाइटिस और सिट्टाकोसिस जैसी बीमारियों के रोगाणु शामिल हैं। ये भी माना जाता है कि चीन के पास ऐसी तकनीक उपलब्ध है, जिससे वो पारंपरिक जैविक हथियार बनाए जा सकते वाले रोगाणुओं जैसे कि एँथ्रैक्स, टुलारेमिया और बोटुलिज्म के लिए जिम्मेदार जीवों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकता है। संभावना इस बात की भी है कि चीन ने राइसिन, बॉटुलिनम, टॉक्सिन और एँथ्रैक्स, कॉलरा, प्लेग और टुलारेमिया के रोगाणुओं का बड़ा भंडार तैयार कर लिया हो। अनुमान है कि चीन ने वुहान के बेहद बदनाम हो चुके वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में बेहद संक्रामक वायरस जैसे कि SARS, H5N1 फ्लू, जापानी एँसेफेलाइटिस और डेंगी पर भी अध्ययन कर लिया है।

ऐसा लगता है कि चीन एरोबायोलॉजी में भी काफी दिलचस्पी रखता है। खबर है कि कीटाणुओं और विषाणुओं पर चीन की प्रयोगशालाओं के भीतर ऐसे प्रयोग हो चुके हैं, जिनसे हवा के जरिए उनके फैलने की संभावनाओं का पता लगाया जा सके। चीन ने जैविक हथियारों की संधि के तहत विश्वास बढ़ाने वाले कदम के तौर पर ये बताया है कि उसने जैविक एरोसॉल पर रिसर्च की है। चीन के जैविक हथियारों के एक विशेषज्ञ ली यिमिन, जैविक हथियारों का हवा के जरिए प्रसार करने वाले एरोसॉल के एक बड़े इलाके में बेहद प्रभावी होने के गुण की काफी तारीफ कर चुके हैं।

दिलचस्प बात ये है कि १९९३ में चीन ने स्वयं से ये घोषणा की थी कि, उसके आठ अनुसंधान केंद्रों में, जैविक हथियार संबंधी राष्ट्रीय आत्मरक्षात्मक अनुसंधान एवं विकास के कार्यक्रम’ चल रहे हैं। इनमें वैक्सीन बनाने वाले केंद्र जैसे कि वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल प्रोडक्ट भी शामिल है। चीन की सिनोफार्म कंपनी अपनी कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए इसी केंद्र की सुविधाओं का प्रयोग करती है। उसके बाद से वर्ष २०१५ के एक अध्ययन में पाया गया है कि चीन की सरकार के रक्षा प्रतिष्ठानों से जुड़े १२ केंद्र और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से जुड़ी ३० सुविधाएँ ऐसीं हैं जो जैविक हथियारों पर रिसर्च, उनके विकास, उत्पादन, परीक्षण या भंडारण के काम से जुड़ी हुई हैं। इनमें वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी शामिल नहीं था। हालाँकि, अमेरिका ने हाल ही में ये पता लगाया है कि, वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने चीन की सेना के साथ मिलकर गोपनीय प्रोजेक्ट पर काम किया है, और उनकी रिपोर्ट का प्रकाशन भी किया है। यही नहीं, चीन का ये संस्थान, ‘उसकी सेना की ओर से २०१७ से ही ऐसे गोपनीय रिसर्च में भी शामिल रहा है, जिसमें जानवरों पर प्रयोग किए गए हैं।

१ जून २०२१

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