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परिक्रमा– लंदन पाती

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सुर - सावन
शैल अग्रवाल


जुलाई यानी की सावन का महीना और यदि सावन के महीने में हम बरखा की बात न करें तो मौसम के साथ भी तो बेईमानी ही होगी। वैसे तो इंगलैंड में बारहों महीने बस रिमझिम ही रिमझिम है पर जब बरखा की बूँदों के साथ हवा में तैरते सुर मिल जाएँ‚ चिड़ियों के कलरव के साथ काव्यपाठ सुनाई दे तो पुलकित मन की थिरकन का अन्दाज आप खुद ही लगा सकते हैं और उसपर से सैर सपाटा यानी कि पिक–निक।
 
जी हाँ कुछ कहीं से पिक किया यानी कि बिना पूछे उठा लिया और कुछ निक किया यानी कि छीन लिया। अंग्रेजी शब्द की यह अनूठी परिभाषा दी संस्कार भारती के नरेश भारती जी ने और फिर तुरंत ही गम्भीर होते हुए कहा कि यह तो हमारी संस्कृति ही नहीं क्या हम कोई और दूसरा हिन्दी का शब्द इसके विकल्प में नहीं ढूँढ सकते। विश्वास मानिए वहाँ सुन्दर कविताओं‚ मधुर गीतों और स्वादिष्ट व्यंजनों के अलावा कुछ भी और पिक या निक नहीं हो रहा था। गवाही देने के लिए कई प्रतिभाएँ चाँद सूरज सी चमक रही थीं। नेहरू सेन्टर से सपत्नी आए श्री पवन वर्मा जी, अमेरिका से श्री राहुल वर्मा और सुषम बेदी जी, लंदन से अनिल शर्मा और सरोज जी‚ पद्मेश गुप्त‚ नरेश भारतीय‚ वीरेन्द्र संधु‚ सुदर्शन भाटिया‚ दिव्या माथुर‚ अमृता तोषी‚ दिवाकर शुक्ल और कई नए तरोताजा फूल से खिलते‚ मदद करते युवा व बच्चे। कवेन्ट्री से प्राण शर्मा और वूवरहैम्पटन से सत्यव्रत शर्मा और महेन्द्र सोलंकी जी‚ बर्मिंघम का करीब करीब पूरा कृति परिवार – पूरा पूरा इसलिए कि पारिवारिक व्यस्तता की वजह से न आपाईं अनुराधा जी की कमी सबको अखर रही थी।

कड़कती तेज धूप में जैसे ही हमारी अपनी अख्तर बाजी अख्तर गोल्ड ने 'मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न मान'–गाना शुरू किया बादल तक हमारे पास आकर झूमने लगे और रंग में भंग होते देख‚ सुषम वेदी जी ने बहुत ही सुरीली और सधी आवाज में हाव भाव के साथ 'जारे बदरा बैरी जा' गाना शुरू कर दिया‚ हम सबने भी भरपूर साथ दिया पर बादलों ने एक न सुनी और बूँदों की रिमझिम लड़ी लगा दी। फिर तो 'गरजत बरसत सावन आयो री लायो न संग में बिछुड़े बलम को 'एक के बाद एक सुरीले गानों की झड़ी लग गई और सभी उपस्थित साजन सजनी सुर बरखा में भरपूर भीग गए। पिकनिक अब बरखा महोत्सव में बदल चुकी थी। सामने एवन नदी में तैरते हंसों के जोड़े पानी में अठखेलियाँ कर रहे थे और गोल गोल भँवर बनाती बतखें झुंड बना कुशल बैलेरिना सी बारबार आँखों के आगे से तैर जा रही थीं। किनारे पर झुकी हरी नाजुक विलो की डालियाँ सुर के हर नाजुक मोड़ पर पुलक पुलक दाद दे रही थीं। प्रकृति ने एकत्रित प्रतिभाओं के लिए एक सुन्दर रंगमंच तैयार कर दिया था। इन्हें एकत्रित करने का और इस सुन्दर कार्यक्रम को आयोजित करने का पूरा श्रेय जाता है कृति यू॰ के॰ की महासचिव तितिक्षा शाह को जिन्होंने वातायन की दिव्या माथुर के साथ मिलकर इस सुरीली–रसीली पिकनिक का आयोजन किया था। साथ व सहायता के लिए हर काव्य रसिक जुड़ गया था। सरोज भाभी यानी सरोज शर्मा ने तो अकेले ही सबके लिए ढेरों पूरियाँ बनाने का महारथी काम कर डाला था।

वहाँ जितने कवि थे उतने ही सुरीले सुर भी। कोई किशोर की याद दिला रहा था तो कोई मुकेश की‚ कहीं नूरजहाँ और शमशाद बेगम थीं तो कहीं सुरैया। कहीं निदा फाजली का गीत था तो कहीं राजस्थान का लोकगीत। राग रंग और शोर शराबे की इस महफिल में जब कविताओं का दौर शुरू हुआ तो मानो आयोजन का रंग ही बदल गया। कोई कविता आँखों में अपना अस्तित्व ढूँढ रही थी तो कोई गिर–गिरकर सँभल रही थी। कोई उर्दू का शायर था तो कोई हिन्दी का विद्वान। वातायन की परंपरा को कायम रखते हुए पद्मेश जी ने उसी पल जन्मी अपनी नवीनतम कविता का ही पाठ किया।

जहाँ 'किस किस के झूठे अधर किसकिस से सच अब क्या बोलेंगे' –सुदर्शन भाटिया की हलकी फुलकी और चटपटी 'किस' शब्द पर खेलती कविता बरखा के छींटों सी यहाँ की संस्कृति पर छींटा–कसी कर रही थी और खुद ब खुद विद्यार्थी दिनों की यादों में ले जा रही थी जब मनचले सहपाठी किसमिस या किस–मिस और टुगैदर या टु–गेट–हर जैसे शब्दों को नई–नई और चुलबुली व्याख्या दे देते थे‚ तितिक्षा शाह की कविता युवा भविष्य की संस्कृति और समझ को लेकर चिंतित थी जिन्हें माँ के हाथ की खीर की जगह स्ट्राबेरी कस्टर्ड ज्यादा पसन्द आता है और जिन्हें हमारा प्यार और धरोहर आउटडेटेड ही लगती है।

कोमल प्रेम गीतों की कवियत्री अमृता तोषी जी एक लम्बी और त्रासद बीमारी के बाद साहस की सरहदें पार कर फिरसे कलम उठा चुकी हैं और उन्होंने अपनी नाजुक प्रेम की कविता से मौसम को कुछ और ही भावमय कर डाला। दिव्या जी की कद लम्बा करती नटखट नासमझ और महत्वाकांक्षी मेहराब से लटकी बूँदें गिरकर नष्ट हो जाने के बाद भी मन की गोदी में ही बैठी रहीं। पर मन की गहराई में उतरीं अमेरिका से आईं और उस गोष्ठी की मुख्य कवि सुषम बेदी की कविताएँ। तुम यहाँ होकर भी नहीं हो और नहीं होकर भी हो–एक मुग्धा नायिका जो अपने भावों की तीव्रता और गहराई से सभी को मुग्ध किए जा रही थी। 

इसके पहले दिन ही हम बर्मिंघम वासी एक शाम सुषम बेदी के साथ बिता चुके थे। सुषम बेदी एक कवियत्री‚ सुषम बेदी एक साहित्यकार और सुषम बेदी एक कलाकार से रूबरू हो चुके थे। उनकी यादों की उँगली पकड़े उनके साथ जलंधर‚ लखनऊ और दिल्ली की गलियों से निकलते अमेरिका तक जा पहुँचे थे। वहाँ की 'सड़क की लय' सुन चुके थे। जान चुके थे कि कैसे माँ उनकी रचनाओं में अक्सर आती जाती रहती है और कैसे आज भी वह हर बेटी की तरह माँ की सुगंध में रची बसी हैं। कितने साहस और ईमानदारी के साथ उन्होंने अपने लेखन में प्रवासी मन के भय और उद्वेलन को समेटा है। विचार सजग और कर्मठ लेखिका सुषम बेदी से रूबरू कराया था हमें हिस्ट्री टॉकिंग-कॉम के रचयिता श्री विजय राणा ने अपने उसी सहज और रोचक अंदाज में।

डायरी के पन्नों की तरह अपने बचपन के पन्ने पलटते हुए उन्होंने हमें बताया कि कैसे उनका बचपन में सोलह साल की उम्र में लिखा पहला उपन्यास किसी बाल सहेली के पास ही रह गया और सन ७८ से उन्होंने एक बार फिर से लिखना शुरू किया। अपने साहित्य के बारे में बताते हुए उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने उपन्यास 'लौटना' में यह बताने की कोशिश की है कि जीवन में कभी लौटना संभव ही नहीं हो पाता क्योंकि जो छूटा वह अपने मौलिक रूप में न कभी लौट पाता है और ना ही वापस मिल पाता है। और यदि हम लौट भी आएँ तो नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। पांडव लौटे तो महाभारत हुआ‚ राम लौटे तो सीता को बनवास मिला। कृष्ण कभी नहीं लौटे इसीलिए बहुत कुछ कर पाए। जहाँ रहो उसी को अपनाओ और यहाँ मैं उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। आगे की ओर देखो शायद यही कर्मवीर योगेश्वर कृष्ण ने गीता में भी तो कहा है। जब पुराना हटता है तभी तो कुछ और नया पनप पाता है। प्रकृति का भी तो यही नियम है। भले ही यह छूटने और टूटने की प्रक्रिया कितनी ही तकलीफदेह क्यों न हो पर कभी न कभी तो अलग होना ही पड़ता है। जीवन का भी यही नियम है। मजबूर हूँ सोचने को क्या यदि गाँधी न लौटते तो क्या हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रूप में भारत दो टुकड़े होने से बच पाता? परन्तु गाँधीजी ने तो इस विभाजन को रोकने के प्रयास में अपनी जान तक गँवा दी थी। सुरों और भावों की रिमझिम में हम सब इतना भीगे कि अंत में बस सब पानी पानी ही था। बाहर अंदर आसपास आँखों में होठों पर बालों पर और पैरों के नीचे भी। 

जैसे बरखा के बाद धूप जरूर निकलती है वैसे ही थी हाल ही में बर्मिंघम में हुई एक और यू॰ के॰ की प्रमुख साहित्यिक गतिविधि। परिसर था स्थानीय भारतीय दूतावास और आयोजन था गीतांजली बहुभाषीय समुदाय का। उसी शनिवार को लंदन के नेहरू सेंटर में एक सफल और शानदार आयोजन में भारत से आए श्री विभूति नारायण राय जी को अपने व्यंग्य उपन्यास तबादला के लिए इन्दु शर्मा कथा सम्मान से और अचला शर्मा जी को उनके रेडियो नाटकों के लिए परमानन्द साहित्य सम्मान से सम्मानित किया जा चुका था। और अब इतवार को यह मौका था बर्मिंघम वासियों का सम्मानित दोनों साहित्यकारों से मिलने का। साथ में सोने में सुहागे की तरह लब्ध प्रतिष्ठ और आज के युग के प्रमुख लेखक‚ सम्पादक श्री रवीन्द्र कालिया जी भी मौजूद थे। दोनों ही जगह उन्होंने सभा की अध्यक्षता की थी व खुले रूप से अपने विचारों को आगे रखा था। जहाँ उन्होंने हिन्दी के भविष्य के प्रति आस्था और विश्वास की बातें कहीं, वहीं कम्प्यूटर के बढ़ते प्रयोग के कारण बहु प्रचलित होती रोमन लिपि से देवनागरी लिपि के लिए बढ़ते खतरे के बारे में भी अपनी चिंता व्यक्त की। सवाल जवाबों के बीच किसी चिंतातित श्रोता ने "भारत की इतनी भ्रष्ट और गिरी तस्वीर पेश करते उपन्यास को क्या यहाँ पर सम्मान देना उचित है?" ऐसा प्रश्न भी उठाया। प्रश्न और शंका अपनी जगह वाजिब थी परन्तु चिंता नहीं क्योंकि बीमारी छुपाने से कोई फायदा नहीं‚ और बीमारी को दूर करने के लिए निदान ही नहीं‚ इलाज भी चाहिए ही। हाँ इस प्रयास में व्यक्तिगत पसंद‚ नापसंद और छींटा कशी से अवश्य बचते रहना चाहिए। इतनी निर्भीकता से और रोचक शैली में भ्रष्टाचार जैसे कठिन और नीरस विषय का चित्रण करने के लिए उपन्यासकार और चयन के लिए चयनकर्ता बधाई के ही पात्र हैं, आलोचना के नहीं।

श्री राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि यहाँ विदेश में इतने हिन्दी प्रेमी देखकर उन्हें हिन्दी का भविष्य भारत से ज्यादा उज्ज्वल नजर आ रहा है। यहाँ के हिन्दी प्रेमियों को नई नई किताबें पढ़ते रहना चाहिए और स्थानीय दूतावास और संस्थाओं को किताबों की सहज उपलब्धि के बारे में भी सोचना चाहिए। हर भारतीय को मजबूरी में नहीं मन से हिन्दी सीखनी चाहिए। उनके अनुसार आज हिन्दी के सबसे ज्यादा स्कूल तामिलनाडु में हैं। क्योंकि हिन्दी अब रोजगार से जुड़ गई है सरकार की भाषा हो गई है लोग हिन्दी सीख रहे हैं वरना भारत में भी कई लोग सिर्फ नौकरों और ड्राइवरों से बात करने के लिए ही हिन्दी सीखा करते हैं। इसमें थोड़ा बहुत कसूर हम हिन्दी भाषियों का भी है क्योंकि जब त्रिगुण सेन ने विद्यार्थियों के लिए त्रिभाषीय फॉर्मूला भारत में लागू किया था तो बजाय कोई प्रान्तीय भाषा पढ़ने के हिन्दी क्षेत्र के विद्यार्थी हिन्दी अंग्रेजी के साथ संस्कृत ले लेते थे। उनकी बात में कितनी सच्चाई और दर्द था मेरी समझ में आ रहा था क्योंकि विद्यार्थी की तरह मैने खुद भी इन्हीं तीनों भाषाओं को लिया और पढ़ा था। मुद्दों के इस बीहड़ जंगल में अक्सर कभी हम बात नहीं समझ पाते तो कभी जरूरत। वैसे भी तो जितने मुद्दे उतने वाद‚ जितने वाद उतनी ही संस्थाएँ और संस्था में जितने सदस्य उतनी ही नीतियाँ। वादों की धुंधभरी वादियों में भटकती‚ अगर मगर के सौदे करती ये नीतियाँ जीवन के हर क्षेत्र में अतिक्रमण कर चुकी हैं फिर साहित्य ही क्यों अपवाद हो? कितना आसान है किसी सहृदय‚ संवेदनशील और जागरूक लेखक को वामपंथी कह देना। क्या सभी सामाजिक विधाओं की तरह साहित्य का भी धर्म नहीं कि वह समाज के यथार्थ को‚ बुराइयों को निर्मूल करे? अपनी सोच के अनुसार हल और आदर्श भी दे, सत्यं शिवं सुन्दरम् का समावेश करे।

समाज के हित को लेकर सलीके और सुन्दरता के साथ जो रचा जाए वही साहित्य है। संभवतः साहित्य शब्द की उत्पत्ति इसी सोच की गर्भ से हुई हो सत्यं शिवं सुन्दरम्। पर आज लगता है साहित्य की यह परिभाषा बेमानी हो चुकी है। बदलती सोच और समझ के साथ जाति वाद‚ धर्मवाद‚ समाजवाद‚ पूँजीवाद और न जाने किन किन वादों को खिलौने की तरह तोड़ता मरोड़ता एक नया वाद सम्पूर्ण मानवता को निगलने के लिए तैयार खड़ा है। आज हर वाद को हम व्यक्तिवाद या अवसरवाद ही कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। छोटे मोटे वादों का हल तो शायद हम आप मिल बैठकर ढूँढ भी पाएँ पर इस महाराक्षस की ताकत का तो अभी हम अन्दाज ही नहीं लगा सकते। व्यक्ति क्या यह तो पूरे के पूरे देश-महाद्वीप तक नष्ट कर सकता है। राजा को भिखारी बना बिल तक खदेड़ सकता है और अपराधी को विधायक बना देता है। अब राजा तो होते नहीं। दादागिरी के साथ–साथ साम दाम दंड भेद सभी हथकंडे बखूबी से इस्तेमाल करना जानता है यह वाद। जिसे पहले हम स्वार्थी कहते थे‚ जो अवगुण समझा जाता था आज सफलता की कुंजी है। अपना हित देखो और सोचो। क्या यही आज के व्यक्ति का धर्म है और आज के आगे-आगे दौड़ते मानव की जात की और पहचान नहीं?

जुलाई-२००४

 
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