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परिक्रमा लंदन पाती

पहचान

—शैल अग्रवाल

र देश की अपनी एक पहचान होती है जैसे कि हर व्यक्ति, जगह या रिश्ते की होती है, शायद तभी इनके अपने अपने नाम होते हैं . . .नाम जिन्हें सुनते ही ज़हन में एक तस्वीर उभरती है . . .तस्वीर जो हमें याद दिलाती है किसी ख़ास नाक–नक्श, आवाज़ की। समुद्र, पहाड़, गलियों . . .तौर–तरीके, रीति–रिवाज़ की। एक भूगोल और इतिहास की . . .एक खास तरह की परिस्थिति में एक खास प्रतिक्रिया और अन्दाज़ की।

पर तब क्या होता है जब पहचान तो वही रहती है परन्तु प्रतिक्रिया और आदत या अस्मिता बदलने लगती है – सदियों से टिका विश्वास टूटने लगता है . . .शायद इसी भ्रम से अराजकता या विद्रोह का जन्म होता है। आज के कई युवाओं का बदलता बाह्य परिवेश . . .हर हिन्दुस्तानी पहचान से खुद को दूर रखने का प्रयास शायद इसी विद्रोह से जन्मे हैं।

भारतीय या एशियन एक पहचान जिसे वे इन पाश्चात्य देशों में जन्म लेकर, यहीं बड़े होकर भी नहीं बदल पा रहे . . .एक नाम जो उनकी चमड़ी पर लिखा रह जाता है और उससे लड़ते–जूझते ये बच्चे, युवा, बूढ़े सड़कों पर, कक्षाओं में, दफ्तरों में कोकोनट और बनाना जैसी उपाधियां अर्जित कर लेते हैं। यानि कि बाहर से चाहे जो भी रूप–रंग हो, चाहे जिस देश या जाति का प्रतिनिधित्व कर रहे हों, उनका अंतस और सोच विदेशियों जैसी हो चुकी है . . .या बनना चाहते हैं . . .निश्चय ही अपने मूल से दूर जा चुके हैं ये।

क्या है यह भारतीयता जिसे हम सहेज कर रखना चाहते हैं। भारतीयता के संदर्भ में अक्सर यह सवाल मन में उठता है और उत्तर तलाशने व तराशने लग जाता है . . .रहन–सहन, खाना–पीना, रीति–रिवाज़, भाषा, साहित्य, कला, आदर्श, धर्म . . .आखिर क्या चीज़ है जो देश की, उसके चरित्र की पहचान बनती है। संभवतः उपरोक्त सभी कुछ। सदियों से आज़माए, काल की कसौटी पर खरे उतरे ये मूल्य और आदर्श ही तो किसी देश, जाति या परिवार की आदत फिर संस्कृति बन पाते हैं। प्रवासी भारतीयों के लिए तो यह खोज और भी अधिक उद्देश्यपूर्ण और अर्थमय है क्योंकि न सिर्फ़ विदेश में यह उनकी पहचान से जुड़ी है अपितु बहुमूल्य और गौरवान्वित विरासत है जिसे निश्चय ही वह आगामी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखना चाहेंगे।

परन्तु जिस देश में 'पांच कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी' उसकी संस्कृति को समझना इतना आसान तो नहीं . . .आखिर क्या है हमारी संस्कृति और क्या है इस संस्कृति का इतिहास . . .

भारतीय संस्कृति को मुख्यतः तीन क्षेत्रीय भागों में बांटा जा सकता है . . .पर्वतीय सीमान्तक, सिन्धु गांगेय प्रदेशी और दक्षिणी। इस ऐतिहासिक और भौगोलिक विविधता ने हमारे देश का एक अपूर्व और अनेक रंगी चित्र बनाया है जो अद्वितीय और अनुपम तो है ही, गहरे कहीं सारे वैविध्य और भिन्नता के बावजूद एक ऐसे सूत्र से जुड़ा है जो देश के एक कोने से दूसरे तक आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि तीनों ही क्षेत्रों की मूल संस्कृति का स्वर एक है, स्रोत एक है . . .भारतीय संस्कृति का आदिकाल या वैदिक सभ्यता का युग। लगभग चार हज़ार ईसा पूर्व से छह सौ वर्ष ईसा पूर्वतक। नागों, आर्यों, किन्नरों और गंधर्वों की संस्कृतियों के मिलन से उत्पन्न संस्कृति। पिंड से लिंग और लिंग से शिव इसी युग में बने।

दूसरा युग शुरू हुआ बुद्ध के जन्म से। धर्म परिष्कृत हुआ . . .मंदिर बने, मूर्तियां बनी। बिहार बने जो ज्ञान विज्ञान और धर्म के केन्द्र रहे। यही वह समय था जब कनिष्क तथा दूसरे शक और कुषाण शासकों ने बौद्ध और शैव भक्तों को आश्रय देकर दार्शनिकता का चोला पहनाया।

तीसरा युग गुप्तकालीन युग था जब बौद्ध, शक और शैव मत आपस में सौहार्दपूर्ण तो रह रहे थे किन्तु नाथों, सिद्धों, जोगियों और तांत्रिकों का प्राबल्य भी आरंभ हो गया था और उत्तर से भोगी और गुणों की ताकत उभर रही थी।

अगला पड़ाव संस्कृति का अघात काल था। महमूद गजनवी के आक्रमण के साथ देवी–देवता नष्ट हुए। जनता असुरक्षित होकर न सिर्फ़ चमत्कारों की तरफ़ देखने लगी वरन उनमें विश्वास भी करने लगी। राजा और देवताओं का भेद मिटने लगा। इस स्थिति को बदलने की कोशिश नेपाल से आए गोरखों ने की लेकिन सफ़ल नहीं हुए। जोर–शोर से वैष्णव धर्म का प्रचार आरम्भ हो गया। कुछ राज घराने वैष्णव बन गए और वैष्णव धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया। भगवान विष्णु अपने विविध रूपों में मंदिरों में स्थापित हुए पर शिव की तरह कभी–कभी उन्हें भी मेलों में शामिल होने के लिए बाहर निकलना पड़ा। गोरखों, सिखों और अंग्रेजों के बीच प्रभुत्व स्थापित करने के लिए संघर्ष हुए जिसमें अंग्रेज जीते। सतलज के आरपार की रियासतों को सनदें देकर अंग्रेजी छत्रछाया में लाया गया। राजा अपना राजपाट अंग्रेजों को सौंप विलासी हो गए और जनता पिसती चली गई फलतः त्रसित जनता बगावत कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गई और समाज सुधारकों का नया धर्म आर्य समाज लोकप्रिय हुआ। उसके बाद का इतिहास इतिहास नहीं, हमारा वर्तमान है . . .और इस आज को सही रूप में पहचानने और पकड़ने के लिए हमें जानना ही होगा कि हमारा देश व विश्व किन–किन दौर से गुज़रा और गुज़र रहा है – किन–किन परीक्षाओं और कठिनाइयों का हमने और हमारे पूर्वजों ने सामना किया। क्योंकि ये अनुभव ही तो चरित्र और इतिहास की आधारशिला हैं। आज भारतीय पूरे विश्व में बसे हुए हैं और उनके मन में बसा भारत विश्व के कोने–कोने में फैल गया है। करी और पापडम भारतीय ही नहीं, ब्रिटिश परिवार की साप्ताहिक ख़रीद–फ़रोख्त की सूची में भी शामिल हो चुके हैं। आधुनिक युग की लड़ाइयां नई हैं – हार–जीत अब देश और धर्मों की न होकर बस आर्थिक है।

पहचान जहां दिमाग़ की प्रक्रियाओं की पहली कड़ी है और अपेक्षा निश्चय ही अंतिम। और यदि संभावनाओं से अपेक्षाएं ज्यादा हों तो निराशा ही हाथ लगती है। जड़ से उखड़कर कहीं और बसने वाली हर पहली या एक दो अगली पीढ़ी के साथ प्रायः ऐसी ही उथल–पुथल होती है बाद में तो प्रकृति और व्यक्ति खुद ही सामंजस्य कर लेते हैं क्योंकि यही संरक्षण का नियम है। अब सवाल उठता है कि संभावनाओं और अपेक्षाओं की इस कसौटी या मापदंड को कैसे और कब निर्धारित किया जाए? इसके लिए हमें अपने मन में झांकना होगा, ज़रूरतों को समझना होगा। कितनी योग्यता से हम अपने और समाज के हित में इसका प्रयोग कर पाते हैं यही हमारी समझ या विवेक की कसौटी होगी . . .हार–जीत कहलाएगी। अपेक्षाओं के दर्पण को साफ़ करते ही रहना चाहिए तभी तो संभावनाओं की एक स्पष्ट और सही तसवीर उभर पाएगी। इन्सान यदि धोखा खाता है तो भी अपनी बुद्धि से और भटकता है तो भी अपनी ही बुद्धि से।

किसी भी देश की अस्मिता को समझने के लिए अब हमारे लिए अपने आस–पास को – पूरे विश्व को समझना भी उतना ही ज़रूरी हो गया है क्योंकि अब कोई भी देश एक अकेली इकाई बन कर नहीं रह सकता। यूरोपियन और एशियाई संघटन इस सोच के गवाह हैं परन्तु इस विश्वीकरण का अर्थ होना चाहिए एकता, न कि एकरूपता – एकता जो सहानुभूति से जन्मी हो, किसी लालच से नहीं। प्रकृति का भी तो यही नियम है। मानवता के संदर्भ में इस उपभोक्ता समाज की आपाधापी में हमें मानवता को ही नहीं भूल जाना चाहिए। वैसे भी हज़ार ख़ामियों के बाद भी विश्व अपने इस दायित्व को कभी भी पूरी तरह से नहीं भूल पाया है और इक्के–दुक्के प्रशंसनीय उदाहरण सामने आते ही रहे हैं जैसे कि भोपाल गैस दुर्घटना पर बॉलीवुड नहीं हॉलीवुड का फ़िल्म बनाना और मुख्य अभिनेत्री का दायित्व एक भारतीय अभिनेत्री (ऐश्वर्या राय) को देना। यानी कि गरीब और पिछड़े देशों के शोषण की कहानियां अब नज़रअन्दाज़ नहीं की जाएंगी। ठीक ही तो है सौहार्द और सहानुभूति द्वारा ही हम इस विविध रूप रंग की धरती के सौंदर्य को सहेज पाएंगे। संचार, प्रगति और यातायात सुविधाओं ने जब भौगोलिक सीमाएं मिटा दी हैं तो आखिर मन की सीमाएं ही क्यों – क्या सिर्फ़ इसलिए कि रोज़–रोज़ की इन लड़ाइयों को प्रमाणित किया जा सके – इसलिए कि चन्द तेल के कुंओं की वजह से पूरा देश उजाड़ा जाए – इसलिए कि जब भी कोई देश सोने की चिड़िया बने तो लुटेरों को खबर मिल सके और आक्रमण हो? आप सोच रहे होंगे कि क्या कहना चाहती हूं मैं – बस इतना ही कि किसी भी आज को समझने के लिए अतीत को समझना ज़रूरी है तभी तो हम किसी मानसिकता से, आत्मा से अपना और दूसरों का परिचय करवा पाएंगे।

कितना अच्छा था जब धरती चपटी व सपाट थी। अपनी छोटी सी दुनिया में एक सिरे से दूसरे सिरे तक घूमता आदमी आराम से सबकुछ देखता और जानता था – नियंत्रण रख सकता था। फिर आई गोल धरती और इस गोल धरती के साथ हमने भी गोल गोल चक्कर लगाने शुरू कर दिए। जानी–अनजानी हर चीज़ को पहचानना, अपनी और दूसरों की ताकत व संभावनाओं को परखना और तौलना शुरू कर दिया। चांद सूरज ही नहीं, बुध, शुक्र, राहु, केतु किसी को भी तो नहीं छोड़ा हमने। हर जगह लहराते परचम की तस्वीर ने सम्पूर्ण मानवता की आंखों से नींद चुरा ली। अंतरिक्ष में पहुंचने और आधिपत्य जताने की होड़ लग गई। पर वहां जाकर भी क्या हाथ लगा सिवाय इसके कि उलझन कुछ और बढ़ गई। उन रहस्यों में कुछ और डूब गए हम।

अब वैज्ञानिकों का कहना है कि चपटी या गोल धरती और इसके साथ घूमते अनगिनत ग्रह–उपग्रह वाकई में किसी भी आकार या रूप के नहीं, अपितु छोटी–छोटी लचीली अनगिनत डोरियां हैं जो गुरूत्व और चुम्बक के आकर्षण और विघटन में फंसी नित नए रूप, आकार बदलती रहती हैं . . .संसार रचती हैं। सवाल उठता है कि कैसे रचती हैं ये नए–नए संसार – शायद वैसे ही जैसे हम प्रवासियों ने भारत से दूर कई नए भारत बना डाले . . . ब्रिटिश, फ्रेंच या कैनेडियन हर पार्लियामेंट में दिवाली मना डाली। परन्तु यह सृष्टि तो रचयिता की तरह अबूझ और अगम है . . .अटूट सपना है जिसके टूटने के इन्तज़ार में जीते हम बारबार ही ठगे जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि मचलती थिरकती यह लचीली डोरियां तुड़ती–मुड़ती रहती हैं और इस प्रकरण में ही नए–नए रूप ले लेती हैं जैसे खुद और संसार की अपेक्षाओं पर खरा न उतरा आहत मन नए–नए रूपों और प्रकरणों से खुद को भरमाता रहता है। एक भगवान को अनेक रूप दे डालता है अपनी ज़रूरतों के हिसाब से। जी हां भरमाना ही तो कहा जाएगा क्योंकि ब्रह्मा या ईश्वर द्वारा सात दिन में रचा यह संसार तो हमेशा ही अनादि और अनंत था . . .बचपन से यही तो सुनाया और बताया गया है हमें . . .सृष्टि चाहे पुराणों में हुई हो या जेनेसिस की किताबों में। माना प्रलय आने पर नोहा इसे अपने जहाज़ में बचा सकते हैं या फिर स्वयं विष्णु शेषनाग बन सर पर उठा सकते हैं परन्तु जीवन के हर सुखद भ्रम की तरह ज्ञान–विज्ञान की यह दुनिया भी तो बस अंत की तरफ़ ही अग्रसर हो सकती है।

बुद्धिवादियों के लिए आज ईश्वर या कन्ट्रोलर (अपनी संस्कृत में ईश्वर माने नियंत्रक ही होता है) बेहद पुराना हो गया है और वे निरंतर तलाश में हैं कुछ नए की, जहां उनकी अबूझ और अनन्त जिज्ञासा बहल सके। प्रत्युत्तर में आई ऐसी ही एक मान्यता है बिग बैंग थ्योरी। यानी कि संसार उस रचयिता का चमत्कार नहीं वरन एक बड़े अनियंत्रित विस्फोट से जन्मा है . . .एक बड़ा धमाका हुआ और यह अदभुत सृष्टि चारों तरफ कण–कण ही विभिन्न रूपों में बिखर गई। बात अब यहीं कैसे रूकती . . .जब एक इन्सान के दिमाग और हृदय में विस्फोट होने से जाने क्या क्या रच और बिगड़ जाता है तो फिर भगवान तो भगवान ही है . . .और इन्सान का दिमाग़ कब रूकता है। शायद यही वजह है कि भगवान बनने की ख्वाहिश में, सिद्धांत की आजमाइश में शक्तिशाली और पीड़ितों ने बड़े बड़े धमाके करने शुरू कर दिए हैं, विश्वास नहीं होता तो किसी भी दिन का, कोई भी अख़बार उठाकर पढ़ लीजिए।

सृष्टि और इसके सृजन के संदर्भ में भी कई मान्यता आईं हैं और आती रहेंगी। नई स्टि्रंग या एम थ्योरी (हम भारतीय तो इस प्रेम की डोरी के बारे में जाने कबसे जानते हैं) भी इसी श्रृंखला की एक नवीनतम कड़ी है। डोरियां या अणु – सृष्टि क्या है आज भी बस एक उलझन ही है . . .क्या हम कभी दुनिया और उससे आगे की असलियत जान पाएंगे . . .शायद नहीं। जब हम और हमारा यह संसार लचीली डोरियां मात्र हैं तो इन डोरियों का संचालन करने के लिए भी तो कोई चाहिए ही? क्या हम वापस फिर उसी ईश्वर की ओर मुड़ गए, नहीं – इसका भी जवाब है वैज्ञानिकों के पास। उनके अनुसर सारा खेल मात्र गुरूत्व और ऊर्जा का ही है। जितना गुरूत्व उतनी ही ऊर्जा और इन दो मिश्रणों से ही सबकुछ अपने आप जन्मता और बदलता रहता है यानि कि कुरसी या पर्स जितने ही भारी, ताकत और ऊर्जा उतनी ही महान और आसपास नाचते–घूमते उतने ही ग्रह उपग्रह। नहीं समझ में आ रहा न . . .घबराइए मत, यह सब सांसों का खेल है . . .हर बात सांसों पर ही तो निर्भर है . . .जितनी सांसें उतनी ज़िन्दगी और जितनी ज़िन्दगी उससे भी ज्यादा मान्यताएं . . .गपशप . . .खबरें। कुछ सही, कुछ बे सिर पैर की। कहीं मंत्रीजी को मात्र एक रेल की टिकट का दुरोपयोग करने से लेने के देने पड़ गए तो कहीं गाय भैंस के चारे की तरह कई करोड़ों को भी बेझिझक डकार गए। बात बस समझने की है . . .सात समंदर की दूरी की है . . .

'सासों से तन भारी नहीं समझ ले तू खूब
मुर्दा रहता तैरता आदमी जाता डूब।'

विद्वानों और वैज्ञानिकों के संसार में कवि तो यूं ही हारा बैठा है क्योंकि विद्वान चाहे हार भी जाए, वैज्ञानिक कभी नहीं हारते। उनका पूरा जीवन ही अपने मत को प्रमाणित करने के लिए होता है। एक बार कहीं वैज्ञानिकों में बहस चल रही थी कि भगवान है या नहीं . . .दोनों पक्ष के वैज्ञानिक अपनी–अपनी तरह से सिद्ध कर रहे थे कि भगवान है या नहीं। अन्त में विपक्ष के वैज्ञानिक ने जब सफलता से यह सिद्ध कर दिया कि भगवान नहीं है तो वह माथे का पसीना पोंछकर बोला कि थैंक गॉड मैं प्रमाणित कर सका कि भगवान नहीं हैं। ज्ञान–विज्ञान ही नहीं, पूरा जीवन ही भरमाने के लिए है . . .

इस समंदर ने बहुत ही भरमाया मुझे . . 
.रेत ही रेत थी जहां भी देखा . . 
.एक न मोती पाया मैंने।
ज़रूरी तो नहीं कि डुबकी मारने पर मोती हाथ ही लगे – मोती की कद्र जानना और पाना दो अलग बातें हैं और जानने और पाने के इस अन्तर को ही शायद विद्वान और अवसरवादी अपने–अपने अन्दाज़ में किस्मत कहते हैं। उपरोक्त पंक्तियां जनमानस के प्रिय कवि गोपाल दास नीरज जी ने लिखी हैं और उनसे रू–बरू होने और सुनने का पिछले महीने हम ब्रिटेनवासियों को एक सुखद सौभाग्य मिला। दुनिया भर से बेहद प्यार और सत्कार के अनगिनत मोती पाने वाले वेदना और दर्शन के इस राजकुमार की आवाज़ और भावों में आज भी वही बुलंदी और आकर्षण है जो पिछले पचास–साठ वर्षों से चला आ रहा है।

नीरज जी बरमिंघम भी आए पर एक बार फिर बस मैनचेस्टर में ही उन्हें सुनकर संतोष करना पड़ा . . .वह भी बहुत ही थोड़े समय के लिए क्योंकि कवि सम्मेलन नहीं, वह कानपुर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों का वार्षिक पारिवारिक प्रीति सम्मेलन था जहां खाने–पीने और मौज–मस्ती के बीच नीरज जी भी आमंत्रित थे और अपने नायाब गीतों के साथ उस शाम को एक दूसरे ही धरातल पर ले गए। चाहे जब सुनिए कुछ लाइनें हमेशा के लिए मन में उतर ही जाती हैं – एक दर्शन, एक जोश, एक याद बनकर . . .हरेक के लिए वही प्यार – वही आवाहन – उसी शाम की याद में खुद उनके हाथ से लिखी ये पंक्तियां मन ने सहेज ली हैं . . .
प्रेम पथ न हो सूना कभी
इसलिए जिस जगह मैं थकूं उस जगह तुम चलो।

आठ दस साल पहले मैनचेस्टर में सुनी लाइनें तो आज भी एक यादगार, एक उलाहना बनी उमडे़ बादलों सी रोज़ ही भिगोती हैं . . .
अबकि सावन में फिर शरारत मेरे साथ हुई
मेरे घर को छोड़ शहर भर में बरसात हुई।

जीवन भी क्या वास्तव में ऐसा ही नहीं . . .एक अंधे बादल सा . . .रेगिस्तान को छोड़ समुन्दर पे बरसता . . .सूखे में सूखा, गीले में गीला . . .वरना काबुल, बगदाद, कश्मीर, न्यूयार्क सब जगह चैन की बंसी न बज रही होती . . .क्या कभी सोचा है बिन लादेन, बुश और बंशी सब 'ब' से ही क्यों शुरू हुए होते हैं . . .अब आप यह मत सोचिए कि बदमाश, बहादुर और बेवकूफ भी तो 'ब' से ही शुरू होते हैं?

छोड़िए इन बातों को, हम आप अब बस कविता और गीतों की ही बातें करते हैं। पिछले महीने ही चन्द दिनों के लिए भरपूर स्नेह और सान्निध्य मिला सूरिनाम से आई कवयित्री पुष्पिता जी और बरेली से आई कवयित्री निर्मला सिंह जी का। निर्मला जी का सान्निध्य उनकी कविताओं और व्यक्तित्व सा ही सरल और अपनापन लिए था। अपना काव्य संग्रह 'वक्त की खूंटी' ही नहीं, स्नेह की खूंटी पर वे कई यादें भी छोड़ गई मेरे घर में। पुष्पिता जी की कविताओं में कैरेबियन आइलैंड की कोकाकोला नदी की मस्ती और वहां के सदाबहार बसंत का आनंद था और उनके सान्निध्य में बनारस की गलियों और परिचितों की कई नई पुरानी यादें . . .कुछ शिक्षकों का स्नेह, सान्निध्य और मार्गदर्शन, जो हम दोनों को ही बनारस के विद्यार्थी–जीवन में मिला।

कानपुर में जन्मी पुष्पिता जी की शिक्षा बनारस में हुई और बचपन बीता कानपुर में . . .शायद यही वजह थी कि चलते–चलते बोलीं, जात और कर्म से तो तुम मेरी बहन हो पर वैसे भाभी . . .कानपुर के पतिदेव को भाई बनाएं या जीजा, पुष्पिता जी अंत तक असमंजस में ही रहीं। 
इस प्यारी उलझन को याद करते ही 
'तुम भी पियो हम भी पिएं रब की मेहरबानी
प्यार के कटोरे में गंगा का पानी।' 
हाल ही में स्थानीय कवि सम्मेलन में सुनी भारत से आए युवा गीतकार की पंक्तियां याद आने लगती हैं।

24 दिसम्बर 2004

 
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