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परिक्रमा लंदन पाती

 मे बी . . .(2)

—शैल अग्रवाल

सुधी साहित्य–प्रेमियों और साहित्यकारों ने भी कई अच्छे सवाल अलकाजी से पूछे, जैसे क्या उनका दूसरा उपन्यास पहले उपन्यास की ही अगली कड़ी नहीं – क्योंकि पात्र लगभग एक से ही परिवेश से हैं . . . ?  जिसे नकारते हुए अलकाजी ने बताया कि नहीं ऐसा नहीं, क्योंकि कृति हमेशा रचयिता के व्यक्तिगत अनुभवों से काफी हदतक जुड़ी होती है, इसलिए परिवेश और पृष्ठभूमि में समानता होना कोई अनहोनी बात नहीं। इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने बतलाया कि उन्हें पारलौकिक घटनाओं आदि में भी विश्वास है . . . इस सबमें वह अपनी दादी से सुने अनुभवों से काफी प्रभावित हुई थीं।

दूसरी शाम, अलकाजी के अलावा स्थानीय साहित्यकार श्रीमती ऊषा वर्मा जी ने भी अपनी कहानी सुनाई। कहानी के बाद कई अन्य पहलू भाषा और शिल्प पर उभर कर सामने आए जिनपर खुल कर बहस हुई।

एक विषय यह भी था कि हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्द होने चाहिएँ या नहीं। पर भाषा जब काल की संस्कृति वाहिनी है — समाज का दर्पण है तो हम अपनी भाषा को कैसे बाँध कर रख सकते हैं। जब हामें रेलगाड़ी और कम्प्यूटर कहने में ऐतराज़ नहीं तो फिर इस तरह की नुक्ताचीनी क्यों?

आज जब विश्व का एकीकरण हो रहा है तो न हम पूरी तरह से अलग थलग खड़े हो सकते हैं और ना ही हमारी भाषा। भाषा की समृद्धि ही नए संपर्क शब्दों से होती है। यह समागम तो युगों से होता आरहा है। अरबी, फारसी, यूनानी सभी शब्द हिन्दी में आकर मिले। फिर अंग्रेज़ों से तो हमारा यह अजीबो–गरीब रिश्ता पिछले करीब पाँच सौ साल से चल रहा है। नियरे नियरे पर दूर दूर (भोजपुरी के यह शब्द सुनकर मैं बचपन में ही अवाक् रह गयी थी।)

सच्चाई तो यह है कि वैसे ही यह ज़िन्दगी हमें कब्र से भी कम ज़मीन देती है। अगर पाँव फैलाइये तो दीवारों से सर टकराने का अंदेशा रहता है तो फिर ये दायरे और छोटे क्यों और किस लिये? आगे बढ़ना है अपनी बात दूसरों को समझानी है तो हमें जन साधारण की भाषा में ही बात करनी होगी। आजकल जब सबकी आँखें हमारे इस सुंदर देश पर, इसकी कला और संस्कृति पर गड़ चुकी हैं और इंगलैंड को हमने इंगलिस्तान बना लिया है तो इन नए संदर्भों से भरपूर शब्दों का हमें जी खोल कर स्वागत करना चाहिये। जब हम जानते हैं कि दुनियाँ में हर छटा सातवाँ आदमी भारतीय है तो अगर हम अपनी भाषा न भूलें तो कुछ सशक्त, सुविधाजनक और प्रचलित विदेशी शब्दों से हमारी राष्ट्रभाषा मरेगी नहीं अपितु समृद्ध ही होगी।

आज जब फिल्में संस्कृति का अभिन्न अंग और भारतीयों की विदेश में पहचान बनती जा रही हैं, यह चिठ्ठी अधूरी होगी यदि हम हाल ही में प्रदर्शित एक नई फिल्म ‘बेन्ड इट लाइक बेखम’ की बात न करें जो आज के ब्रिटिश एशियन समाज को, उनके टकराते मूल्यों को हल्के फुल्के नजरिये से पर स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। इस फिल्म ने एशियन और अंग्रेज़ दोनों का ही ध्यान एक सा आकर्षित किया है — क्यों कि यह समन्वय ही आज का सच्चा ब्रिटेन है। इसकी लेखिका निर्देशिका गुरूमीत चद्ढा जो यहीं पली बढ़ी हैं, ने अपनी बात बहुत ही इमानदारी से कही है जिसमें हास्य व्यंग्य के साथ एक अच्छी बॉलीवुड फिल्म के सभी मिर्च मसाले भी हैं और ब्रिटेन की पूर्ण व्यावहारिकता भी।

वैसे भी आजकल यहाँ बॉम्बे ड्रीम्स का मौसम चल रहा है। आर के रहमान और एंड्रू लॉयड वेवर के म्यूज़िकल से लेकर बड़े–बड़े लंदन के स्टोर तक सभी भारत से जुड़े जान पड़ रहे हैं। लंडन का एक मंहगा और फैशनेबल स्टोर सेल्फरिजेज़ तो भारतीय पक्ष मना रहा है जिसमें भारत की कलाकारियों, कलाकृतियों के साथ भारत के कलाकार सभी का प्रदर्शन हो रहा है। सर्वप्रिय कलाकार अमिताभ बच्चन और करण जौहर जैसे सफल फिल्म निर्देशक के साथ कई अन्य लोग भी इसमें भाग लेने सहर्ष आए हैं।

भारत के विलक्षण परिधान साड़ी में अब हमें बस भारतीय सुंदरियाँ ही नहीं बल्कि गोल्डी हॉन और नियोमी कैंपबेल जैसी मशहूर विदेशी सुंदरियाँ भी दिखाई दे जाती हैं — बिंदी और मेंहदी के जादू से पूर्णतः मुग्ध। यहाँ के स्टोर्स अब चिकेन टिक्का और समोसा व अनियन भाजी से पटे दिखाई देते हैं। हमारी ज्योतिष विद्या, आयुर्वेद और योग विद्या ने इन्हें पूरी तरह से मंत्र मुग्ध कर लिया है। हम भारतवंशियों के लिये भारत का, हमारे खानपान का इतने अधिक सुर्खियों में होना गर्व और सम्मान दोनों की ही बात है। क्या पता फिर से हमारे भारत का स्वर्णिम युग आ रहा हो . . .शायद जल्दी ही . . .मे . . .बी . . .

अभिनेत्री गोल्डी हॉन न्यूयार्क प्लाज़ा होटल में अभिनेता मिशेल डगलस और अभिनेत्री कैथरीन ज़ीटा जोन्स के विवाह के अवसर पर साड़ी में।

6 मई 2002

 
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