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परिक्रमा लंदन पाती

धूप छाँव . . .(2)
—शैल अग्रवाल

चित्र में बाएं सेः नैना शर्मा, विभाकर बख्शी, नरेश भारतीय, पीसी हलदर एवं तेजेन्द्र शर्मा

आजीवन टेढ़े–मेढ़े और कठिन रास्तों से गुजरने वाले, समतल की तलाश में डूबे और उसी दिन पद्मानन्द साहित्य से संस्मरण पुस्तक 'इस पार, उस पार' के लिए सम्मानित श्री नरेश  भारतीय जी भी उतनी ही लगन, बेबाकी और तड़प के साथ ब्रिटेन में रचे–बसे लोगों के बारे में लिख रहे हैं।

भारत के साथ वे आज भी कहीं बहुत गहरे जुड़े जान पड़ते हैं और हर प्रवासी का दर्द अपने मन में छुपाए बैठें हैं। गौरव करने लायक भारतीय संस्कृति की हर परंपरा और आदर्शों को बचाना चाहते हैं। आजके इस आगे बढ़ने की धुन में दौड़ते समाज के पैरों तले सब कुचल न जाए इसी प्रयास में हैं वह भी। उन्होंनें भी समझ लिया है कि 'कौन क्या कहेगा उनकी किस बात पर' इसकी चिंता आजकी ब्रिटेन की भारतीय युवा पीढ़ी को नहीं है।

' गली में प्रायः देखता हूँ कार में बैंठे युवक–युवतियाँ रेडियो टेप कैसेट पर ऊंचा–ऊंचा संगीत सुनते हुए, सिगरेट फूँकते और शोर शराबा करते हुए। –– सभ्य व्यवहार की परिभाषा बदल गई हैं। जब हर कोई अपनी धुन पर अपना ही राग अलापने लगे तो फिर किसी समाज द्वारा यह निर्धारित करना भी असंभव हो जाता है कि सभ्य क्या है और असभ्य क्या, क्योंकि सर्वमान्य आचार व्यवहार के लिए किसी एक मापदंड की आवश्यकता होती है। जब युवा पीढ़ी यह कहने लगे कि उसे कोई चिंता नहीं है कि समाज क्या कहेगा तो समाज क्या करेगा कोई भी दिशा निर्देश देकर। इसलिए जहाँ कोई भी बचा पाता है किसी भी तरीके से बचाने का प्रयत्न करता है।

इस इक्कीसवीं सदीं में जब विश्व के हर समाज को आधुनिक तकनीकी उपलब्धियों ने काफी हद तक जोड़ दिया है तो अच्छा–बुरा, दबा–ढका, सब कुछ खुल कर ही एक दूसरे के सामने आएगा। गडबड़ ही होगा। फलतः एक नयी विश्व संस्कृति जन्म ले रही है। अधिकांश देशों और समाज में केन्द्र–बिन्दु समूह और परिवार से हटकर व्यक्ति विशेष या खुदपर आ पहुँचा हैं। पहले जो गलत या अवांछनीय था अब ' दिस इज माई लाइफ' के कवच के अन्दर छुपा लिया जाता है –– फिर वह चाहे राजा हो या प्रजा, किशोर हों या प्रौढ, पूरब हो या पश्चिम। बारबार याद आ रही है आजसे तीस–पैंतीस साल पहले की वह घटना ––

नई–नई भारत से आई थी और नई–नई शादी हुई थी। पति आपद्कालीन विभाग में जूनियर डॉ• थे। अकेले मन न लगने से कभी–कभी यूँ ही अस्पताल चली जाती थी और वार्ड में छोटे–मोटे कामों में –– फ्लावर–अरेंजमेन्ट वगैरह में थोड़ी बहुत मदद कर आती थी। कल जैसी याद हैं वह घटना –– बीस–पच्चीस साल का एक युवक भागा–भागा आया और कहने लगा कि उसकी माँ सीढ़ियों सो फिसल कर गिर गई हैं –– शायद रीढ़ की हड्डी टूट गई हैं। तुरंत चलना होगा, उसे तुरंत ही एँबुलेंस और उपचार चाहिए।
'क्या तुम हमारे साथ नहीं चलोगे ––' पता पटककर जाते उस युवक से जब पति ने आश्चर्य से पूछा तो उसने दो टूक जवाब देकर अपनी जिम्मेदारी खतम कर ली। 
'नहीं मेरी पत्नी चाय पर मेरा इन्तजार कर रही होगी।'

मन पाश्चात्य सभ्यता और यहाँ के सोशल सीक्योरिटी पर खड़े रिश्तों का ठंडापन देखकर क्षुब्ध हो गया। खुद को संतुलित करते हुए सोचा शायद हमारे भारत में ऐसा कभी नहीं होता –– वहाँ बेटा पहले माँ का इलाज करवाता। पत्नी के साथ चाय पीने की बात उसे शायद याद भी नहीं रहती। नहीं जानती थी कि एक दिन कुछ ऐसा ही भारतीय परिवार में भी होगा। ऐसी ही मिलती–जुलती कहानी किसी भारतीय परिवार के बारे में नरेश जी ने भी अपने संस्मरण से सुनाई। रिश्तों में वही बेरूखी, स्वार्थ। सब जगह, हर सभ्यता में आज बस यही दिखाई देता है। पता नहीं दोषी कौन है –– हमारा अतिव्यस्त जीवन या फिर एक उलझी और बीमार मानसिक संकीर्णता –? बीमारी पर याद आया कि अब तो करीब–करीब हर लाइलाज बीमारी का भी इलाज हो जाता है। लोगों की आयु दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। और वैज्ञानिकों का कहना है कि (अच्छे–बुरे इन सभी तरह के इन्सानों की बढ़ती जनसंख्या के बोझ से शायद) पृथ्वी बीच से फैलकर चपटी होती जा रही है।

लंदन के एक बहुत ही विख्यात और शोधरत अस्पताल में जहाँ जाने–कितने मौत के मुंह में खड़े फिरसे जीवन का वरदान पाते हैं – आते और स्वस्थ होकर घर वापस चले जाते हैं, एक नन्हा सा दो ढाई साल का बच्चा वार्ड में घूमता–फिरता हर किसी को रोजही दिख जाता है। बच्चा सुन्दर और स्वस्थ है फिर यहाँ कैसे – दूसरे बच्चों के माँ–बाप आश्चर्य करते हैं –– पर कभी कभी उसकी तरफ देखकर भी मुस्कुरा देते हैं। एक–आध बात उससे भी कर लेते हैं। एक–आध टॉफी उसे भी पकड़ा देते हैं क्योंकि वह हरेक के पास प्यार की अपेक्षा करता पहुँच जाता हैं। यही अजनबी उसके परिचित और परिवार हैं। यूँबच्चा अक्सर सीढ़ियों पे बैठा हफ्ते में एक बार आनेवाली माँ का इन्तजार करता भी दिख जाता हैं। मन करूणा और ग्लानि से भर उठता है –– भाग्य और विज्ञान की विडम्बना पर भी –।

पैदा हुआ है तब से वह यही रह रहा है क्योंकि कुछ भी रक्त में पचा न सकने की एक दुर्लभ बीमारी हैं उसे। सबकुछ सीधे उसके रक्त में ही पहुँचाना पड़ता है। जाने को तो वह घर जा सकता हैं पर माँ–बाप के पास समय नहीं कि उसे संभाल पाएँ। उनका अपना जीवन है – अन्य बच्चे हैं। जितनी यह सदी तरह–तरह के आविष्कारों की सदी बन रही हैं उतनी ही नई–नई उलझनें सामने आ रही हैं –– बढ़ते जीवन के साथ दुख बढ़ रहे हैं। अपेक्षाएँ और उपेक्षाएँ बढ़ रही हैं। पर इस चमत्कारों और वैज्ञानिक उपलब्धियों की सदी में सही गलत का फैसला हम आप नहीं कर सकते। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है –– और टूटा हुआ ही जोड़ा जा सकता है। खोज जारी रहनी चाहिए –– चाह हो तो राह निकल ही आती है। राह पर याद आया कि अंत्येष्टि के लिए भारत गंगा किनारे जाते भारतीयों के लिए ब्रिटिश सरकार आयर नदी जो यौर्क शायर में ही है की सुविधा दे रही हैं। अब देखना यह हैं कि यह विदेशी गंगा भारतीय आत्माओं को मोक्ष दिला पाती हैं या नहीं।

चलिए प्रसन्न होने के लिए कुछ और चन्द हलकी–फुलकी बात करते हैं। विश्व भर में दूध पीते गणेश जी के बारे में तो आप सबने सुना ही था। यहाँ इंग्लैंड में एक बैंगन के अन्दर बीजों से साफ–साफ अल्लाह लिखा निकला। और यही नहीं, यहाँ बरमिंघम के पास रूजली नाम के सबर्ब में एक महिला की किचन सिंक के नीचे डेढ़ सौ साल पुराना रेन फौरेस्ट से लाया गया एक वृक्ष अभी भी काँच के जार में पुराने ऊनी स्वैटर में लिपटा सुरक्षित रखा हैं। बस जार का पानी मटमैला, गाढ़ा और सिरपी हो चुका है। यह सिरप अब उनके यहाँ पीढ़ी–दरपीढ़ी को पेट की खराबियों से मुक्ति दिला रहा है। पेड़ की जाति और मूल जानने के लिए वह खुद दो बार रेन फौरेस्ट भी जा चुकी है पर सफलता नहीं मिलीं। पेड़ बचपन में उसकी दिवंगत दादी ने दिया था।

सुना है ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक के पास बैटी नाम का एक ऐसा बुद्धिमान कौवा है जो खाने के लिए तार को मोड़कर चोंच से हुक बना लेता है और जहाँ उसकी चोंच न पहुँचे उन जगहों से खाना निकालकर खा लेता है। किसी भी पशु–पक्षी का इस तरह से औजार का खुद बनाकर प्रयोग करने का वैज्ञानिकों के आगे यह पहला सबूत है। शायद इस कल–युग का आदमियों पर ही नहीं पशु–पक्षियों पर भी असर हो रहा है। वैसे भी पेड़–पौधों से बातचीत करने वाले, उन्हें संगीत से मोहित करने वाले तो आपको कई बड़े–बड़े और विख्यात नाम मिल जाएंगे।

और भी चमत्कृत होना चाहते हैं इस धूप–छाँव से तो सुनिए बी•बी•सी के ब्रेकफास्ट शो पर कल–परसों खबर थी कि एक सेब को काटने पर उसके अन्दर सोने की रिंग मिली। अब कभी आश्चर्य मत करिएगा कि दुष्यंत की अंगूठी मछली के पेट में कैसे पहुँची और अगर पहुँच ही गई तो वह चमत्कारी मछली शकुन्तला की ही प्लेट में कैसे पहुँची –– और तब तो इक्कीसवीं सदी भी नहीं थी।

अगस्त 2002

 
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