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पर्व परिचय

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वट सावित्री पर्व
- विनीता शुक्ला


उत्तर भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के अनेक भागों में 'वट सावित्री' या 'वट अमावस्या' का पर्व परिवार में सुख और स्त्रियों में सौभाग्य के लिये विशेष रूप से मनाया जाता है। जेठ मास की अमावस्या के दिन मनाए जाने वाले इस पर्व में भारत के राष्ट्रीय वृक्ष बरगद की पूजा एक विशेष आयोजन है जो इसे सीधा प्रकृति चेतना से जोड़ता है। अन्य पर्वों की भाँति व्रत, पूजा और शृंगार के साथ-साथ महिलाओं का मिलजुल कर बैठना इस उत्सव में भी होता है।

सुबह सुबह सिर से नहा कर निर्जल व्रत रखा जाता है। बाँस की एक टोकरी में रेत भर कर ब्रह्मा तथा सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की जाती है व दूसरी में सावित्री और सत्यवान की। इन टोकरियों को बरगद के वृक्ष के नीचे स्थापित किया जाता है। पूजन सामग्री में जल रोली हल्दी अक्षत भीगा चना फूल दीप और धूप जैसी सामान्य वस्तुओं के साथ हाथ से काता गया सूत विशेष रूप से होता है। विधि पूर्वक पूजा करने के बाद जल चढ़ाया जाता है और सूत को हल्दी में रंग कर बरगद के चारों ओर तीन सात सत्रह या एक सौ आठ बार परिक्रमा करते हुए बाँध दिया जाता है। इसके बाद सावित्री और सत्यवान की कहानी भी कही जाती है। पर्वों पर कहानी कहना भारतीय संस्कृति की प्रचीन परंपरा है जिसके द्वारा हम अपने गौरवशाली अतीत को याद रखते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सहजता से पहुँचा देते हैं।

वट सावित्री पर्व के दिन हर मुहल्ले में व लंबे रास्तों के किनारे रंगीन धागो से बंधे हुए, धूप-दीप और नैवेद्य से सुशोभित ऐसे वट वृक्षों की शोभा देखते ही बनती है। ऐसा विश्वास है कि सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान की रक्षा करने के लिये भी इसी व्रत का आयोजन किया था। पर्वों उत्सवों और व्रतों में पायी जाने वाली आस्था और उत्साह के साथ ही इस पर्व में परिवार की समृद्धि और पति की दीर्घ आयु की कामना प्रमुख होती है। जिस प्रकार वट का वृक्ष मज़बूती से खड़ा हुआ घनी छाया और संरक्षण देता है उसी प्रकार परिवार का मुखिया परिवार को संरक्षित करता रहे यह कामना पारिवारिक जीवन के प्रति अत्यंत कल्याणकारी और संवेदनशील प्रतीत होती है।

भारतीय लोक के प्रकृति प्रेम और उसकी उपयोगिता को दर्शाने वाला यह पर्व नदी की रेत, कच्चे सूत और बाँस से बनायी गयी टोकरियों के बहाने हमें प्रकृति और हस्त कौशल की उपयोगिता की शिक्षा भी देता है।


 वट पूर्णिमा (एक और रूप)

जिस तरह उत्तर भारत में 'वट सावित्री' या 'वट अमावस्या' जेठ अमावस्या के दिन मनायी जाती है उसी तरह महाराष्ट्र में यही त्योहार जेठ महीने के ही पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। सभी सुहागनें सज धजकर बरगद के पेड़ की पूजा करती है। सारे दिन का उपवास रखा जाता है और शाम को पूजा के बाद भोजन किया जाता है।

पूजा की सामग्री में गेहूँ और आम का विशेष महत्त्व होता हैं। बरगद के पेड़ की प्रदक्षिणा करते हुए हल्दी से रंगे सूत को बाँधा जाता है। सुहागनें वटसावित्री की कहानी सुनती है। आम का भोग लगाने के बाद ऐसा माना जाता था कि आम का मौसम अब खत्म हो गया है। आम मिलते भी हैं लेकिन उनका स्वाद और मिठास वर्षा प्रारंभ हो जाने से कम हो जाता है, इसलिए वटपूर्णिमा के बाद आम खाना निषिद्ध माना जाता है।

वटपूर्णिमा की कहानी में सत्यवान और सावित्री की कहानी है। अल्पायु होने के बावजूद भी सावित्री उसके साथ विवाह करती है । नारद की सलाह के अनुसार सावित्री वटपूर्णिमा का व्रत करती है। जब उसे पता चलता है कि अब सत्यवान की आयु के ३-४ दिन ही बचे हैं तो वह बरगद के पेड़ के नीचे बैठी अखंड व्रत शुरू कर देती है। जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगते हैं तब सावित्री उसका पीछा करती है। पति के प्राण के अलावा कोई भी वर माँगने के लिये यमराज के प्रस्ताव को ठुकरा कर सावित्री अपने दृढ प्रतिज्ञ होने और पतिव्रता होने का लोहा मनवा लेती है। आखिर में यमराज को झुकना ही पड़ता है और इस तरह सत्यवान दीर्घायु को प्राप्त होता है। पति की दीर्घायु की कामना करते हुए, यमराज तक से अपने पति को वापस ले आने वाले मनोबल और इच्छा शक्ति का वरदान मागते हुए यह व्रत किया जाता है।

समय के साथ इस व्रत का रूप भी बदल गया है। पुराने जमाने में तो जलप्राशन तक नहीं किया जाता था। पर आजकल यह अनेक घरों में फलाहर तक सीमित हो गया है। मुहल्ले के बरगद के स्थान पर पूजा घर में बरगद का बोनसाई या आँगन में बरगद की डाल के गमले ने ले ली है। फिर भी पारंपरिक रूप से पूजा और श्रद्धा करने वालों की कमी नहीं। छोटे शहरों और जहाँ कहीं भी पूजा करने के लिये बरगद के पास पर्याप्त स्थान है, इस दिन सजी धजी महिलाएँ पूजा की सामग्री लिये दिखाई देती हैं।

अपने सौभाग्य के लिये और पति के अच्छे स्वास्थ्य के लिये किया जाने वाला यह व्रत गर्मी के मौसम का एक मात्र उत्सव है जो पूरे भारत में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ मनाया जाता है। परंपराएँ तो भारत को विरासत में मिली हैं। लेकिन इन परम्पराओं को सहेज कर रखना और अपनी आगे की पीढ़ी को विरासत में देना भी अपनी जिम्मेदारी हैं जो भारतीय स्त्रियाँ उत्तरदायित्व के साथ पूरा करती हैं - पर्वों की रौनक और उत्साह में डूब कर।

- दीपिका जोशी
 

 
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