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पर्व परिचय

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हरिशयनी एकादशी
— दीपिका जोशी


शेष शय्या पर सोते विष्णु (एक मूर्तिशिल्प)
 


आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं–कहीं इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी कहते हैं। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर–सागर में शयन करते हैं। पुराणों में ऐसा कहा जाता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मास तक पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिनको 'देवशयनी' तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को 'प्रबोधिनी' एकादशी कहते हैं। आषाढ़ की इस एकादशी से देवदिवाली या कार्तिक एकादशी तक के समय को चातुर्मास कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इन चार मास में देवताओं के सो जाने के कारण विवाह और संस्कार आदि शुभकाम नहीं करना चाहिये। यह भी विश्वास है कि इन चार महीनों में पृथ्वी के सभी तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं सो चातुर्मास में केवल ब्रज की यात्रा कर सभी तीर्थों की यात्रा का पुण्य मिलता है।

इस दिन उपवास रख कर आगे चार महीनों के लिए जो भी संकल्प लिया है उसे निर्विघ्न पूरा होने के लिए श्री महाविष्णु की प्रार्थना करने की परंपरा हैं। एकादशी के दिन प्रातः सुबह जल्दी उठकर घर की साफसफाई की जाती है। स्नान कर के पवित्र जल का घर में छिड़काव किया जाता है। घर के पूजन स्थल या किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की मूर्ति की स्थापना की जाती है। पूजा के समय एक हजार या एक सौ आठ तुलसी पत्ते विष्णु भगवान को चढ़ाए जाते हैं। तत्पश्चात व्रत कथा सुन कर आरती व प्रसाद वितरण होता है।

आषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर की यात्रा का बड़ा महत्व है। सारे महाराष्ट्रभर से भाक्त यहाँ विठ्ठल के मंदिर में दर्शन करने आते हैं। आलंदी से संत ज्ञानेश्वर की पादुका लिए पालकी निकलती है जो एकादशी को पंढरपुर पहुँच जाती हैं। इसे दिंडी कहते हैं। इस दिंडी में शामिल भक्तगण बड़े जोश खरोश के साथ, अभंग गाते, एकतारा और झाँझ बजाते पैदल चलते रहते हैं। करीब बीस दिन में यह लम्बा सफर तय किया जाता है और थकान का कहीं नामोनिशान इन भक्तों के चेहरे पर नज़र नहीं आता।

इस दिन की एक मृदुमान्य नामक राक्षस की कथा प्रचलित है। मृदुमान्य राक्षस ने भगवान शंकर की उपासना कर 'तुम्हें किसी के हाथों भी मृत्यु नहीं आएगी' ऐसा वर प्राप्त कर लिया था। मृदुमान्य ने सभी देवताओं को जीतने का निश्चय कर किया तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक गुफ़ा में छिप कर बैठ गए। मृदुमान्य राक्षस उन्हें ढूँढने की कोशिश में लगा रहा। पर वे तीनों उसके हाथ नहीं आ पाए। तीन दिन बाद इन तीन भगवानों की घूँटी हुई साँस से एक देवी उत्पन्न हुई, वही यह एकादशी है जिसने बाद में मृदुमान्य का वध किया।

एक कहानी यह भी है कि एक राजा के राज्य में एकादशी के दिन प्रजा, नौकर–चाकर से लेकर पशुओं तक को इस दिन अन्न नहीं दिया जाता था। एक दिन दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास नौकरी देने के लिए कहने लगा। राजा ने हर महीने की हर एकादशी के व्रत की शर्त रखवाते उसे नौकरी पर रख लिया।

एकादशी के दिन जब उसे फलाहार दिया गया तो वह व्यक्ति गिड़गिड़ाने लगा – महाराज! मेरा इससे पेट नहीं भरेगा। मुझे अन्न चाहिए। राजा ने उसे शर्त की याद दिला दी पर वह नहीं माना। राजाने उसे आटा दाल चावल दे दिए। भोजन पकाने पर उस व्यक्ति ने भगवान को बुलाया – आओ भगवान! भोजन तैयार है। भगवान पीताम्बर धारण किए चतुर्भुज रूप में आ पहुँचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन किया। पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान चाहिए। भगवान भी साथ खाना खाते हैं तो मैं भूखा ही रह जाता हूँ। राजा को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह उसके साथ गया और पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। भोजन बनने के बाद वह व्यक्ति भगवान को बुलाता रहा लेकिन भगवान नहीं आए। अंत में उसने कहा– हे भगवान यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूँगा। भगवान नहीं आए तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का दृढ़ इरादा जानने पर भगवान प्रकट हुए और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा पी कर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए। यह देख राजा ने सोचा कि व्रत–उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी अब मन से व्रत–उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।

भगवान विष्णु के शयन के पीछे भी कुछ व्यावहारिक उद्देश्य रहे होंगे। हम हमेशा काम कर के थक जाने पर सो जाते हैं, आराम करना चाहते हैं वैसे ही प्रभु को विश्व के व्यवहार चलाने में थकान लगती होगी सो उन्हें चातुर्मास में आराम करनेकी जरूरत महसूस होती होगी। साथ ही भगवान खुद सो कर मानव को आत्मनिरीक्षण के लिए समय देना चाहते हों। परेशानी में मनुष्य भगवान को याद करता है, माँगने वालों की भीड़ भगवान के पास जुट जाती है। लेकिन निरपेक्ष होकर मांगने वाले कम ही नज़र आते हैं। शायद ऐसे बेमतलब माँगने वालों से बचने के लिए शिव कैलास में और विष्णु क्षीरसागर में कदाचित् सो जाते होंगे!

चातुर्मास के चार महीने वर्षा ऋतु कहलाते हैं। सृष्टि का सौंदर्य निखरता है, किसान को भरपूर फसल मिलती है और आनंद का वातावरण चारो तरफ नज़र आता है। मानव मंदिरों में जाकर प्रभु के गुणगान करता है, भगवान की कृपा का फल समझता है। पर प्रभु कहते हैं – मैं तो चार महीने सोया हुआ था। यह सारा वैभव और समृद्धि तुम्हारे परिश्रम का फल है।

संक्षेप में भगवान की नींद हमारे प्रति उनके विश्वास के कारण होगी तो वह अति उत्तम बात है। हमें मार्गदर्शन करने के लिए भगवान सो गए होंगे तो उसमें भी सुगंध है। परंतु आज के दिन इतना दृढ़ संकल्प तो करना चाहिए कि भगवान की नींद थकान, परिश्रम, ऊब, त्रास नीरसता या एकाकीपन के कारण नहीं है।

इसलिए हमारा जीवन व्रतनिष्ठ होना चाहिए। शायद इसीलिए वर्षा ऋतु में सबसे ज्यादा व्रत आते हैं। उनकी स्वस्थ नींद के लिए हम इस प्रकार का व्रतनिष्ठ जीवन जिएं कि वे हमारे भरोसे चैन से सो सकें यही अभिलाषा रखना इस आषाढी एकादशी का सार्थक उद्देश्य होगा।

 
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