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पर्व परिचय                       


करवाचौथ
--दीपिका जोशी 'संध्या'


पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान का प्रमुख पर्व श्री करक चतुर्थी व्रत करवा चौथ के नाम से प्रसिद्ध है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का यह व्रत सौभाग्यवती स्त्रियों के जीवन से संबंधित है। मिट्टी, ताँबे, पीतल या चाँदी के बने करवे के दान से सुख,सौभाग्य, सुहाग, लक्ष्मी एवं पुत्र की प्राप्ति होने की मान्यता है।

यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है। सामान्य रूप से इस व्रत को निर्जल ही रखा जाता है। 'मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।' कह कर करवा चौथ के व्रत का प्रारंभ किया जाता है। शाम को ४ बजे से ही पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है। पूजास्थल सजाते हैं, सुशोभित पत्ते पर पीली मिट्टी से बनी गौर माता अंबिका को बिठाया जाता है। ऐसे ही गणेश जी की मूर्ति बना कर गौर माता के बगल में बायीं ओर बिठाते हैं। गौर माता को लाल कपड़े से ढक कर, रोली की बिंदी लगाते हैं।

पूजा में हर स्त्री का अपना अलग करवा होता है। अलग-अलग प्रदेशों में करवा दूध, पानी या किसी अनाज से भरा जाता है। जो करवा बायने में सास को देना है उसमें भी पानी, दूध या किसी अनाज को रखकर ऊपर ढक्कन वाली थाली में शक्कर का बूरा और दक्षिणा रखते हैं। इस थाली में सुहागिनें अलग-अलग तरह की चीजें जैसे सूखे मेवे व सास के लिये कपड़े रखती हैं। रोली से इस करवे पर स्वस्तिक बनाती हैं। गौरी और गणेश की परंपरानुसार भक्तिभाव से पूजा करती हैं। नैवेद्य में फल, मेवे या मिठाई रखी जाती है। पूजा शुरू करते समय गौरी को रोली लगा कर गीली रोली खुद सुहागिनें अपने माथे पर लगाती हैं और माँग में सिंदूर भी भरती हैं। हाथ में चावल या गेहूँ के तेरह दाने लेकर करवा चौथ की कथा कहते या सुनते हैं। कथा समाप्ति पर सासुजी को करवा देते हुए आशीर्वाद लिया जाता है। यदि सास नहीं हैं, ऐसे समय घर की और कोई बुजुर्ग महिला सदस्य को यह बायना दिया जाता है। विवाहित लड़कियों के पीहर से करवे भेजने की भी परंपरा है। रात्रि चंद्रमा निकलने पर छलनी की ओट से उसे देखकर अर्घ्य देकर पति से आशीर्वाद लिया जाता है। इसके बाद संयुक्त रूप से भोजन कर के अपना व्रत खोला जाता है।

कहते हैं कि इस व्रत की शुरुआत शिव पार्वती के यहाँ से हुई। शिव जी ने पार्वती को इस व्रत का महत्व समझाया था। द्वापर युग में द्रौपदी ने कृष्ण भगवान जी से इस करवा चौथ के व्रत के बारे में पूछा था। उसके उपरांत इंद्रप्रस्थ गाँव में वेदशर्मा और लीलावती की बेटी वीरावती ने यह व्रत पहली बार किया। उसी समय से आज तक यह व्रह सुहागिनें करती आ रही हैं। महाभारत के युद्ध के समय कृष्ण भगवान जी ने द्रौपदी को यह व्रत करने को कहा था जिससे अर्जुन कौरवों को युद्ध में पराजित कर अपना राज्य वापस पा सकें।

करवा चौथ की अनेक रोचक कहानियाँ हैं। एक कहानी में कहा जाता है कि बहुत समय पहले एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। बहन सभी भाइयों की बड़ी लाडली थी। उसे खाना खिलाए बिना कोई भी भाई खाना नहीं खाता था। शादी के बाद एक बार यही बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। एक दिन जब शाम को भाई काम पर से लौटे तो बहन को व्याकुल पाया। बहन उनके साथ खाना खाने को तैयार नहीं थी। बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह चंद्रमा देखकर उसे अर्घ्य देकर ही खाना खाएगी।

छोटे भाई से अपनी बहन की हालत देखी नहीं गई और उसने दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर छलनी की ओट में रख दिया। दूर से देखने पर वह चतुर्थी के चाँद की ही तरह लगता था। घर आकर उसने अपनी लाडली बहन से कहा कि चाँद निकल आया है। तुम अर्घ्य देकर भोजन कर सकती हो। बहन चाँद को अर्घ्य देकर खाना खाने बैठ गई। पहला टुकड़ा मुँह में डालते ही उसे छींक आ गई। दूसरा निवाला मुँह में डाला तो उसमें बाल निकल आया और तीसरे निवाले को हाथ में ही लिया था कि उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिला। वह एकदम घबरा गई।

यह सब देख कर उसकी भाभी ने उसे सच्चाई बताई और समझाया कि करवा चौथ का व्रत गल़त तरीके से टूटने के कारण देवता नाराज़ हो गए हैं। सच्चाई जान लेने पर साहूकार की बेटी करवा ने निश्चय किया कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिला कर रहेगी। एक साल तक वह पति के शव की देखभाल करती शव पर उगने वाली सुईनुमा घास को एकत्रित करती रही।

एक साल बाद करवा चौथ के दिन उसकी सभी भाभियों ने करवाचौथ का व्रत रखा। जब भाभियाँ उसे आशीर्वाद देने आईं तो उसने प्रत्येक भाभी से 'मुझे फिर से सुहागन बना दो' का वर देने का आग्रह किया पर हर भाभी अगली भाभी की तरफ़ इशारा कर के चल दी। इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी की बारी आई तो उसने बताया कि सबसे छोटे भाई की वजह से करवा का व्रत टूटा है अत: उसकी पत्नी ही मृत पति को जीवित करने की शक्ति रखती है।

अंत में छोटी भाभी उसकी तपस्या को देख कर प्रसन्न हुईं और अपनी छोटी अँगुली चीरकर उसमें से अमृत की एक बूँद करवा के पति के मुँह में डाल दी। करवा का पति श्रीगणेश - श्री गणेश कहता हुआ उठ बैठा। इस प्रकार 'हे श्री गणेश की माँ गौरी, जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का होने वरदान आपसे मिला है वैसा ही सब सुहागिनों के मिले।' ऐसा कहते हुए यह कथा पूरी की जाती है।

एक और कथा इस प्रकार है-- एक समय करवा नामक पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे एक गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह अपनी पत्नी को करवा - करवा कह कर पुकारने लगा।

उसकी आवाज़ सुनकर उसकी पत्नी आई और मगर को कच्चे धागे से बांध दिया। मगर को बांधकर वह यमराज के पास पहुँची और शिकायत के स्वर में कहने लगी-- 'हे भगवन, मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। इस अपराध में मगर को आप अपने पास नरक में ले जाएँ।'
यमराज ने कहा -- 'मगर की आयु तो अभी शेष है इसलिए मैं उसे नहीं मार सकता।'

करवा को गुस्सा आ गया, उसने कहा-- 'अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो मैं आपको श्राप देकर नष्ट कर दूँगी।'
यमराज पतिव्रता स्त्री के तेज के सामने नतमस्तक हो गए। करवा के पति को दीर्घायु का वरदान मिला और मगर को यमपुरी भेज दिया गया। इसी श्रद्धा के साथ करवा चौथ के पूजन में सुहागनें कामना करती हैं कि 'हे करवा माता, जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।'

चौथ की तिथि का गणेश जी गहरा संबंध है इसलिए करवाचौथ की एक कथा गणेश जी से भी संबंधित है। एक गरीब बुढ़िया अपने बेटे और बहू के साथ रहती थी। वह गणेश जी की बड़ी भक्त थी। रोज़ गणपति पूजन में ही उसका समय बीतता। गणेश जी एक बार प्रसन्न होकर प्रकट हुए और पूछने लगेऋ 'कुछ चाहिए तो माँग लो।'
बुढ़िया बोली- 'मुझे माँगना नहीं आता सो कैसे और क्या माँगूँगी।'
गणेश जी बोले-- 'अपने बहू-बेटे से पूछकर माँग लो।'
बेटे बहू से पूछने पर बेटे ने धन और बहू ने पोता माँगने की सलाह दी। बुढ़िया को लगा कि ये दोनों अपने मतलब की चीज़ें माँगने को कह रहे हैं। उसने सोचा- क्यों न पड़ोसियों से पूछा जाए। पड़ोसियों ने कहा- 'तुम्हारा थोड़ा सा जीवन बचा है- धन और पोता क्यों माँगो- केवल अपने लिए आँखें माँग लो ताकि बची हुई ज़िंदगी सुख से बीत सके। इस अँधियारे से छुटकारा मिल सके।' घर जा कर बुढ़िया सारी रात इस इस विषय में सोचती रही। मन में आया कि ऐसा माँग लूँ जिससे मेरे बेटे-बहू के साथ-साथ मेरा भी भला हो और सभी मतलब की चीजें मिल जाएँ।
दूसरे दिन गणेश जी आए और बुढ़िया से पूछने लगे- 'कहो, क्या चाहिए हमारा वचन है कि जो माँगोगी सो ही पाओगी।' गणेश जी का वचन सुनकर बुढ़िया बोली- 'हे गणराज, यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे नौ करोड़, निरोगी काया, अमर सुहाग, आँखों में प्रकाश, नाती,पोता, सुखी परिवार और अंत में मोक्ष दें।'

बुढ़िया की बात सुनकर गणेश जी बोले- 'बुढ़िया तूने तो मुझे ठग लिया। ख़ैर, जो कुछ तूने माँगा है वह तो सभी तुम्हें मिलेगा ही।' और गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए।

कथा के अंत में गणेश चौथ पर प्रार्थना की जाती है कि -- 'हे गणेश बुढ़िया माँ ने जो माँगा वो आपने सब दे दिया-- वैसे ही सबको देना और हमको भी देने की कृपा करना।'

९ अक्तूबर २००६

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