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पर्व-परिचय

नेपाल का दशहरा
-रणवीर सिंह सेठी

विजयादशमी का पर्व संसार के विभिन्न देशों में विभिन्न जातियों व समुदायों द्वारा अपने-अपने विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है। वैसे तो यह दिवस अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है, जिसका आरंभ माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर के संहार पर हुआ था और बाद में राम की रावण पर विजय को दशहरे का रूप दे दिया गया, लेकिन यह पर्व मुख्यत: क्षत्रिय पर्व ही माना जाता है। तभी तो गोरखा या नेपाली समाज इसे बहुत ही उल्लासपूर्वक मनाते हैं।

नेपाल में विजयादशमी (टीका) के आगमन की भनक के साथ ही एक पारंपारिक गीत सुनाई पड़ने लगता है -
'दशैं आयो, खाऊंला-पिऊंला।
कहाँ वाट ल्याऊंला? चोरेर ल्याऊंला।
धत पाजी, पर जा!'
अर्थात दशमी आ गई, खाऊँगा-पीऊँगा, पर कहाँ से लाऊँगा? कहीं से चोरी कर ले आऊँगा। धत पाजी, तू दूर जा यानी चोरी करना पाप है। अंतिम पंक्ति नेपाली लोगों की ईमानदारी ज़ाहिर होती है, जो भूखे को चोरी करने से रोकती है।

बच्चों का गीत

नेपाल में दशमी आने के पहले माताएँ-दादियाँ बच्चों को गोद में बिठाकर उनकी छोटी-छोटी पाँचों अँगुलियाँ अपने हाथों में लेकर एक-एक अँगुली पकड़कर यह गीत सिखाती हैं। पहले कानी अँगुली पकड़कर कहेंगी -दशैं आयो। फिर उसके बाद वाली (अनामिका) अँगुली पर खाऊँला-पिऊँला, मध्यमा अंगुली- कहाँ बाट ल्याऊँला? उसके बाद तर्जनी यानी चोर अँगुली कहेगी- चोरेर ल्याऊँला। इस पर अँगूठा दूर हटता हुआ कहेगा - धत पाजी, पर जा!

दशहरा आते ही नेपाल के घर-घर में चहल-पहल शुरू हो जाती है। नेपाली दशमी के आगमन का आभास नागपंचमी से ही हो जाता है। दशमी ऐसे ही नहीं आती। नागपंचमी से लेकर और भी कई त्योहार उसे पास खींच लाते हैं - जैसे

त्योहारों का राजा विजयादशमी

होली या फाग का नेपाली जनजीवन में ज़्यादा महत्व नहीं है। दशमी त्योहारों का राजा है और अन्य त्योहार इसके दरबारी! अन्य त्योहार आते हैं तो मनाए जाते हैं, उन अवसरों पर कोई ख़ास तैयारी नहीं होती, लेकिन दशमी को बुलाया जाता है और इसके स्वागत की तैयारी धूमधाम से होती है। ग़रीब सीमित ढंग से और अमीर असीमित ढंग से, लेकिन है यह सबका त्योहार। इस अवसर पर मदिरा का भोग लगाना ज़रूरी होता है और बलि भी दी जाती है। घर में आनेवालों को 'भुट्नबजी' (भुना हुआ गोश्त, चिवड़ा) के साथ चावल का 'ऐला'(ठर्रा) पेश करने की परंपरा है।

सेनाएँ और कालरात्रि

नेपाल या गोरखा सेनाएँ बहुत ही अद्भुत ढंग से दशहरा मनाती हैं। वहाँ माँ काली तथा माँ दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक की जाती है। नवरात्रि के प्रथम दिन विशाल मैदान में विशेष रूप से निर्मित पूजा-गृह में जौ की बिजाई के पश्चात माँ दुर्गा की मूर्ति के सामने पाँच फलों, जिनमें पेठा विशेष होता है, की बलि दी जाती है। इसके आठवे दिन कालरात्रि का आयोजन होता है। मध्य रात्रि में बारह बजे बैंड, शंख, नगाड़े आदि कालरात्रि के आगमन की सूचना देते हैं जो पशु-बलि के लिए निर्धारित समय के द्योतक हैं। कालरात्रि को पाँच फलों की बलि के पश्चात पशु बलि दी जाती है। शांति के संदेश के लिए कबूतरों को आकाश में भी छोड़ा जाता है। महिषासुर के प्रतीक एक हट्टे-कट्टे भैंसे की बलि के साथ यह समारोह चरमावस्था पर पहुँचता है। इस प्रकार विजयादशमी शस्त्रपूजा या महाबलिदान के रूप में मनाई जाती है।

पर्व की एकरूपता

नेपाल में ही नहीं, नेपाली या गोरखे संसार में कहीं भी हों, दशहरा समान रूप से मनाते हैं। नेपाल में ख़ासकर काठमांडु में इसका रूप कुछ और भव्य हो जाता है राजकीय समारोहों से। जनता में लोकप्रिय होने के लिए शाहवंश के राजाओं ने काठमांडु की कई धार्मिक परंपराओं को अपना लिया है और ये परंपराएँ जनजीवन, देश की सांस्कृतिक धरोहर का एक मुख्य अंग बन गई हैं जैसे कुमारी जात्रा, खडग पूजन, कोतबलि, टीका आदि। वहाँ पर किसी धार्मिक समारोह में वह राजा नहीं रह जाता। रहेगा भी तो कुछ दिन, कुछ मास या कुछ साल। स्थायी नहीं रह सकता। कुमारी देवी का टीका राजगद्दी का नवीनीकरण है। हर वर्ष करना ही होगा। उसी प्रकार टीका (विजयादशमी) वाले दिन राज दरबार में राजा प्रजा को अबीर, चावल, दही का टीका लगाते हैं। कोई ज़रूरी नहीं है कि सब काम छोड़कर आप पहले राजा से टीका लगवाने जाएँ। आपको जब भी अवकाश मिले, आप जाएँ। राजा बैठे रहते हैं, लोग आते रहते हैं। नेपाली जनजीवन का यह दर्शन खुलकर दशहरे में सामने आता है। खाओ, पीओ, जीओ! बस, और कुछ नहीं। कितनी साधारण-सी बात हर साल तुतलाते बच्चों को सिखाई जाती है, लय में - दशैं आयो, खाऊँला-पिऊँला और यह नेपाल में 'सांस्कृतिक ध्वनि' बन गई है। निरंतर प्रतिध्वनित होती है। तब तक प्रतिध्वनित होती रहेगी, जब तक आज का भौतिकवाद नेपाल में विद्यमान धार्मिक परंपराओं को स्मृति शेष न बना दें।

१ अक्तूबर २००६


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