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पर्व परिचय                      

बुद्ध पूर्णिमा
—मनोहर पुरी

इसे नियति की एक महती योजना ही समझना चाहिए कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्म ५६३ ई. पू. बैसाख पूर्णिमा को हुआ। यह दिवस उनके और उनके अनुयायियों के साथ तब से आज तक जुड़ा हुआ है। भगवान बुद्ध ने बैसाख पूर्णिमा ४८३ ई. पू. में ८० वर्ष की आयु में, देवरिया ज़िले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया। उनका परम प्रिय शिष्य आनन्द, पत्नी यशोधरा, सारथी चन्ना और यहाँ तक की अश्व कटंक भी अपनी जीवन यात्रा का प्रारम्भ करने के लिए इसी दिन जन्मे। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ ने कठिन तपस्या कर बोधिसत्व प्राप्त किया उसका रोपण भी बैसाख पूर्णिमा को ही हुआ था। इसी दिन समाज में पतिता समझी जाने वाली सुजाता ने तपस्या के जर्जर सिद्धार्थ को पूजा के लिए खीर अर्पित की थी।

बौद्ध साहित्य के अनुसार इस प्रकार बैसाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध के प्रत्येक सहयात्री, घटनाक्रम और जीवन परिवर्तन का पावन दिवस रहा है। इसे नियति की एक महती योजना ही समझना चाहिए कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्म ५६३ ई. पू. बैसाख पूर्णिमा को हुआ। यह दिवस उनके और उनके अनुयायिओं के साथ तब से आज तक जुड़ा हुआ है। भगवान बुद्ध ने बैसाख पूर्णिमा ४८३ ई. पू. में ८० वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया। उनका परम प्रिय शिष्य आनन्द, पत्नी यशोधरा, सारथी चन्ना और यहाँ तक की अश्व कटंक भी अपनी जीवन यात्रा का प्रारम्भ करने के लिए इसी दिन जन्मे। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ ने कठिन तपस्या कर बोधित्व प्राप्त किया उसका रोपण भी बैसाख पूर्णिमा को ही हुआ था। इसी दिन समाज में पतिता समझी जाने वाली सुजाता ने तपस्या के जर्जर सिद्धार्थ को पूजा के लिए खीर अर्पित की थी। बौद्ध साहित्य के अनुसार इस प्रकार बैसाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध के प्रत्येक सहयात्री, घटनाक्रम और जीवन परिवर्तन का पावन दिवस रहा है। आज विश्व के कोने-कोने में बैसाख पूर्णिमा के शुभ अवसर को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है।

भगवान गौतम बुद्ध की जन्मस्थली होने के कारण भारत की धरती पर ही जन्मा है बौद्ध धर्म, प्रारम्भ से ही बौद्ध धर्म ने भारतीय जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आज भी इस धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की अपनी प्रासंगिकता है। यदि भगवान बुद्ध द्वारा दिखाए गए मार्ग पर हम चलने लगें तो विश्व को शान्ति के मार्ग पर आगे ले जाने के लिए हम एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। जब भगवान बुद्ध इस धरती पर अवतरित हुए तब चारों ओर हिंसा और स्वार्थ का बोलबाला था। हिंदू समाज को अनेकानेक कर्मकांडों ने अपने बंधनों में जकड़ा हुआ था। समाज के कुछ वर्ग अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए अन्य वर्गों का शोषण करने में जुटे थे। बलि प्रथा का सर्वत्र प्रचलन था फलत: प्रतिदिन हज़ारों पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। पशु-पक्षियों के वध के कारण चारों ओर हिंसा का वातावरण बना हुआ था। लोगों की धर्म से आस्था उठने लगी थी। आज भी वैज्ञानिक प्रगति के कारण लोगों की धर्म में अनास्था बढ़ती जा रही है। भौतिकता की अधिकता के कारण उनके मन अविश्वासी और शंकालु बनते जा रहे हैं। आज हिंसा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक भयावह आकार धारण किए पूरी मानवता को त्रस्त किए हुए है। अणु बमों के रूप में हिंसा की एक छोटी-सी चिंगारी सारी मानवता को तहस नहस करने में सक्षम समझी जा रही है। ऐसी स्थिति में अहिंसा ही एक ऐसा मूल मंत्र है जो मानव समाज की इस विनाश से रक्षा कर सकता है। यही वह बिन्दु है जहाँ गौतम बुद्ध आज की परिस्थितियों में भी उतने ही प्रासंगिक हो उठते हैं जितने आज से हज़ारों वर्ष पूर्व थे।

आज का मनुष्य जितना अधिक अधीर एवं असंयमी है उतना शायद पहले कभी नहीं रहा। वह रातों रात वह सब कुछ पा लेना चाहता है जो उसके पूर्वज सदियों में भी प्राप्त नहीं कर पाए थे। सब कुछ अपने पास ही समेट लेने की चाह ने जहाँ उसे स्वार्थी बनाया है वहीं उसे हिंसा का शिकार भी बना डाला है। फलस्वरूप वह मानसिक तनावों का शिकार हो कर लोभी, कामी, क्रोधी और हिंसक को उठा है। मानवीय मूल्यों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। ऐसी हालत में गौतम बुद्ध के सिद्धांतों का शीतल मरहम ही उसके घावों को ठंड़क पहुँचा सकता है।

ऐसे समय में जब भारतीय समाज अनेकानेक कुरीतियों और कर्मकांड़ों में फँसा अस्त व्यक्त हो रहा था, गौतम बुद्ध ने जन्म लेकर समाज को सुव्यवस्थित करने के लिए अहिंसापरक सिद्धान्तों की स्थापना की। गौतम बुद्ध का उस समय के समाज और आने वाली पीढ़ियों पर इतना अधिक प्रभाव हुआ कि उन्हें सहज रूप से ही विष्णु का दसवाँ अवतार मान लिया गया। लोगों की यह धारणा समय के साथ-साथ दृढ़ से दृढ़तर होती गई कि जैसे राम और कृष्ण के रूप में भगवान विष्णु ने धरती पर अवतार लिया था वैसे ही पशु हिंसा को रोकने एवं मानव को शान्ति का मार्ग दिखाने के लिए गौतम बुद्ध इस पृथ्वी पर अवतरित हुए। सिद्धार्थ के रूप में भगवान गौतम बुद्ध का जन्म राजा शुद्धोधन के यहाँ लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ। नेपाल की तराई में स्थित यह स्थान उनकी राजधानी कपिलवस्तु के समीप ही है। राजा शुद्धाधन शाक्य क्षत्रिय वंश के एक अच्छे शासक थे। सिद्धार्थ की माता महामाया कौशल राजवंश की राजकुमारी थी। बचपन में ही सिद्धार्थ की माता का स्वर्गवास होने के कारण उनका लालन पालन विमाता महाप्रजापति गौतमी ने किया। राजवंशीय परम्पराओं के अनुरूप ही उनका लालन-पालन अति वैभवपूर्ण वातावरण में हुआ।

बचपन से ही सिद्धार्थ परपीड़ा से विचलित हो उठते थे। किसी को भी कष्ट में देख कर उसकी सहायता करने की उनके मन में एक सहज ललक थी। ज्योतिषियों ने राजा शुद्धोधन को सचेत कर दिया था कि यदि उनका पुत्र चक्रवर्ती सम्राट नहीं बन पाया तो सन्यासी हो जाएगा। सिद्धार्थ का मन इसी दुनिया के भोग विलास में रम कर रह जाए इसके लिए हर प्रकार के साधन उपलब्ध कराए गए और १८ वर्ष की अवस्था में एक रूपमती कन्या यशोधरा से उनका विवाह कर दिया गया। जब उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो सिद्धार्थ ने उसका नाम राहुल अर्थात बन्धन रख दिया परन्तु यह बन्धन भी उनके लिए पगबाधा नहीं बन सका। सिद्धार्थ अपने जीवन में मोहमाया को बन्धन मानते थे फलत: शीघ्र ही उन्होंने परिवार के सब बन्धन तोड़ डाले और २१ वर्ष की युवावस्था में ज्ञान की खोज में घर से निकल पड़े।

गृह त्याग के पश्चात सिद्धार्थ ने निरंजना नदी के तट पर पीपल के एक वृक्ष के नीचे घोर तपस्या करके ज्ञान प्राप्त किया, इसी ज्ञान की ज्योति कालान्तर में भारत ही नहीं विश्व के कोने कोने में फैली। आज भी मानवता इसके आलोक में आलोकित हो रही है। ज्ञान की इस दिव्य ज्योति के कारण राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाए। गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं के संबंध में अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया। सारनाथ नामक ग्राम के एक उपवन में बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय का महामंत्र गूँज उठा, दु:ख, अज्ञान और परस्पर वैमनस्य से त्रस्त लोग इस अवतरित महापुरुष के समक्ष नतमस्तक होने लगे। गौतम ने जन जन को अन्धविश्वासों, आतंक, हिंसा और स्वार्थ की संकुचित प्रवृतियों को उतार फेंकने का उपदेश दिया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लिए सत्य, अहिंसा और प्रेम का सन्देश दिया। जन-जन को प्राणीमात्र के लिए दया, ममता, परस्पर मेल जोल और अपरिग्रह का पाठ पढ़ाया।

इसी शताब्दि के मध्य में महात्मा गांधी ने गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप दिया। यही कारण है कि महात्मा गांधी को वर्तमान युग का बुद्ध कहा जाने लगा। महात्मा गांधी के इस प्रयास ने बुद्ध की वर्तमान समय में प्रासंगिकता को भी सर्व सिद्ध कर दिखाया।

गौतम बुद्ध ने लगभग ४० वर्ष तक घूम घूम कर अपने सिद्धांतों का प्रचार प्रसार किया। वह उन गिने चुने महात्माओं में से थे जिनके जीवन में ही उनके सिद्धांतों का प्रसार तेज़ी से हुआ और उन्होंने अपने द्वारा लगाए गए पौधे को वृक्ष बन कर पल्लवित होते हुए स्वयं देखा। गौतम बुद्ध ने बहुत ही सहज वाणी और सरल भाषा में अपने विचार लोगों के सामने रखे। अपने धर्म प्रचार में उन्होंने समाज के सभी वर्गों, अमीर गरीब, ऊँच नीच तथा स्त्री-पुरुष को समानता के आधार पर सम्मिलित किया। किसी के मार्ग दर्शन में भी उन्होंने किसी प्रकार का भेद भाव नहीं किया। उन्होंने संघ की स्थापना की जहाँ सभी लोग मिल जुल कर समाज के उत्थान के लिए कार्य करते थे और उसमें अपना अपना योगदान देते थे। बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की घोषणा करते हुए कहा कि उनके निवारण के लिए हर व्यक्ति प्रयास करने में सक्षम है। बुद्ध मानते थे कि संसार दु:खमय है, दु:खों का कोई न कोई कारण है, दु:ख का निरोध है और दु:ख निरोध का उपाय भी है। उन्होंने अविद्या को दु:ख का मूल कारण माना। मन, वचन और कर्म से साधना के मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक संकल्प, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि को अनिवार्य बताया। महात्मा बुद्ध का मानना था कि साधना द्वारा सर्वोच्च सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। यही अवस्था बुद्ध कहलाती है और इसे कोई भी प्राप्त कर सकता है।

यद्यपि बौद्ध धर्म का जन्म इसी पावन भूमि पर हुआ फिर भी अन्य भारतीय धर्मों की भान्ति बौद्ध धर्म में ईश्वर और आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं किया गया। गौतम बुद्ध ने अपने आप को आत्मा और परमात्मा के निरर्थक विवादों में फँसाने की अपेक्षा समाज कल्याण की ओर अधिक ध्यान दिया। उनके उपदेश अधिकतर सामाजिक एवं संसारिक समस्याओं तक ही सीमित रहे। यही कारण है कि उनकी बात लोगों की समझ में सहज रूप से ही आने लगी। महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज ही जुड़ा हुआ पाया। बुद्ध का मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा प्रहार किया और व्यक्ति के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया।

मानवता को बुद्ध की सबसे बड़ी देन है भेदभाव को समाप्त करना। यह एक विडम्बना ही है कि बुद्ध की इस धरती पर आज तक छूआछूत, भेदभाव किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। उस समय तो समाज छूआछूत के कारण अलग अलग वर्गों में विभाजित था। बौद्ध धर्म ने सबको समान मान कर आपसी एकता की बात की तो बड़ी संख्या में लोग बौद्ध मत के अनुयायी बनने लगे। अभी कुछ ही दशक पूर्व डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ने भारी संख्या में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध मत को अंगीकार किया ताकि हिन्दुओं समाज में उन्हें बराबरी का स्थान प्राप्त हो सके। बौद्ध मत के समानता के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप देना आज भी बहुत आवश्यक है। हिन्दुओं धर्म में आई कुरीतियों का विरोध करने के कारण कुछ विद्वान बौद्ध मत को हिन्दुओं धर्म से पृथक नहीं मानते। उनके विचार में मूलत: बौद्ध मत हिन्दुओं धर्म के अनुरूप ही रहा और हिन्दुओं धर्म के भीतर ही रह कर महात्मा बुद्ध ने एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी आन्दोलन चलाया।

बौद्ध धर्म हर प्रकार के भेद भाव से सर्वथा मुक्त रहा। किसी भी प्रकार के भेद को निर्वाण के मार्ग में बाधा नहीं माना गया। गौतम बुद्ध ने अत्यन्त कुशलता से बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना का विकास किया। इसका अहिंसा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने दो वर्ष बाद इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक लगा दी। इस प्रकार बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्राप्त हो गया। सिद्धार्थ का क्षत्रिय कुल इस धर्म का संरक्षक बना और बौद्ध मत देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी ज्योति फैलाने लगा। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, बुद्धिवादी और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी व्यवस्था पर ज़ोरदार प्रहार किया जा सकता है। यही धर्म आज भी दु:खी एवं अशान्त मानवता को शान्ति प्रदान कर सकता है। ऊँच नीच के अभाव में लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास कर सकता है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है।

१९ मई २००८

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