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							 पाँच मिनट की रामलीला
 पाँच लाख की भीड़
 -मृदुला शर्मा
 
                            काशी की रामलीला का अपना 
							आकर्षण है। वर्षा ऋतु जब विदा ले लेती है और शरद ऋतु 
							का प्रभाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है, तब काशी 
							में त्यौहार का क्रम शुरू हो जाता है। काशी को ‘मंदिरों और त्यौहारों का शहर’ भी कहा जाता 
							है। तभी तो काशी की सुबह मंगल और खुशी की उमंग से शुरू 
							होती है।
 
 वाराणसी के प्रमुख लक्खी मेले
 
 वाराणसी में तमाम धार्मिक स्थलों एवं सांस्कृतिक 
							परंपराओं के साथ मेले-ठेले का अपना अलग ही आकर्षण है। 
							वाराणसी में कुल तीन ‘लक्खी मेले’ होते हैं। ये हैं- 
							तुलसीघाट की नागनथैया, नाटी इमली का भरत-मिलाप तथा 
							चेतगंज की नक्कटैया। वैसे तो रामलीलाएँ अनेक शहरों में 
							आयोजित की जाती हैं, किंतु वाराणसी के ‘लक्खी मेले’ 
							तथा रामलीलाएँ अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
 
 रामकथा और मंच
 
 रामायण का पाठ करना रामकथा की मौखिक परंपरा रही है, 
							इसी पाठ के फलस्वरूप रामायण की अभिनय कला का जन्म हुआ। 
							प्रारंभ में रामकथा का अभिनय संस्कृत नाटकों के माध्यम 
							से शुरू हुआ। भवभूति, भास और जयदेव आदि ने रामकथा पर 
							आधारित कथानक लिखे। दसवीं शताब्दी में संस्कृत के 
							नाटकों की परंपरा के ह्रास होने से क्षेत्रीय भाषाओं 
							में रामायण की रचना हुई और इसी के बाद मध्ययुगीन नाटक 
							परंपरा की श्रीगणेश हुआ।
 
 वाराणसी में रामलीला का प्रचलन
 
 वाराणसी में रामलीला का प्रचलन कब से हुआ, यह 
							निर्विवाद रूप से कह पाना असंभव है, साथ ही यह भी नहीं 
							कहा जा सकता है कि वाराणसी के किस क्षेत्र में सबसे 
							पहले रामलीला प्रारंभ की गयी। रामचरित मानस के सुविज्ञ 
							अध्येता और व्याख्याता स्वर्गीय आचार्य विश्वनाथ 
							प्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘गोसाई तुलसीदास’ में 
							लिखा है कि चित्रकूट नामक स्थान पर पहले वाल्मीकीय 
							रामायण के अनुसार रामलीला होती थी। तुलसीदास के 
							रामचरित मानस के आधार पर रामलीला का चलन मेघा भगत ने 
							किया। आचार्यजी ने यह भी प्रतिपादित किया है कि 
							वाराणसी में मानस की एक रामलीला लाट भैरव नामक मुहल्ले 
							में होती है। यह लीला ‘आदि रामलीला’ के नाम से विख्यात 
							है। उक्त मुहल्ला हनुमान फाटक नामक मुहल्ले के पास है, 
							जहाँ तुलसीदास ने आरंभ में रामलीला ‘लाट भैरव’ नामक 
							स्थान पर ही प्रवर्तित की। कदाचित इसी से वह ‘आदि 
							रामलीला’ के नाम से विख्यात है।
 
 रामलीला के प्रवर्तक
 
 रामलीला के प्रवर्तक का नाम स्थिर करना कठिन है। 
							रामलीला का उद्भव मध्ययुगीन नाट्क परंपरा, झाँकियाँ, 
							पंचरात संहिताओं, शोभा यात्राओं, भाषा नाटकों आदि की 
							प्रेरणा रही हैं। मध्य युग में समस्त कलाओं यथा 
							मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला आदि के द्वारा धर्म का 
							प्रचार व प्रसार किया गया। इसी आधार पर ऐसी धारणा है 
							कि रामलीला का भी उद्भव इन्हीं परंपराओं के साथ हुआ 
							है। हरिवंश पुराण में रामायण के नाटक स्वरूप को 
							प्रस्तुत करने की बात कही गयी है।
 
 नाटी इमली का भरत-मिलाप
 
 नाटी इमली के भरत-मिलाप को ही ‘चित्रकूट की रामलीला का 
							भरत-मिलाप’ कहते हैं। यह लीला वाराणसी के तीन लक्खी 
							मेलों में से एक है। किवदंती है कि इसी दिन मेघा भगत 
							को राम-लक्ष्मण के दिव्य दर्शन हुए थे। इससे इस 
							भरत-मिलाप के प्रति जन आस्था में वृद्धि हुई। 
							भरत-मिलाप के संबंध में एक और जनश्रुति प्रचलित है। 
							कहा जाता है कि एक वर्ष वरुणा नदी के किनारे 
							सीता-अन्वेषण की लीला चल रही थी। उसी समय काशी के 
							प्रधान पादरी कैकसन, जिलाधिकारी तथा कुछ अन्य अँग्रेज 
							अधिकारियों के साथ लीला-स्थल पर पहँचे, जहाँ कथा-क्रम 
							सुनकर पादरी ने कहा कि हनुमान तो समुद्र लाँघ गये थे, 
							क्या तुम्हारी लीला का यह हनुमान वरुणा नदी लाँघ सकता 
							है?
 
 हनुमान का अभिनय करने वाले हनुमान भक्त ब्राह्मण 
							टेकराम का पूरा शरीर पादरी की यह बात सुनते ही गनगना 
							उठा। शरीर के रोएँ खड़े हो गये, आँखों से चिंगारियाँ 
							छिटकने लगीं। बिना कुछ बोले उन्होंने लीला का काम चालू 
							करा दिया। राम की प्रदक्षिणा की और उनका आदेश लेकर चल 
							पड़े। जब नदी लाँघने का समय आया, तो वह एक ही छलांग में 
							वरुणा नदी के उस पार पहुँच गये। यह अप्रत्याशित कार्य 
							देखकर अँग्रेज पादरी व अन्य अँग्रेज अधिकारी 
							हक्का-बक्का रह गये। हजारों कंठ से ‘रामभक्त हनुमान’ 
							और ‘राजा रामचंद्र की जय’ के घोष में अँग्रेज भी 
							सम्मिलित हो गये। ‘वीर हनुमान’ वरुणा नदी लाँघकर जिस 
							स्थान पर गिरे थे, वहाँ भीड़ एकत्रित हो गयी। भक्त लोग 
							‘हनुमानजी’ को उठाकर ले आये। हनुमानजी भरत-मिलाप तक 
							जीवित रहे। भरत-मिलाप पर अपने इष्टदेव की झाँकी 
							प्राप्त करके परम पद को प्राप्त हो गये। यह लीला एक 
							संक्षिप्त झाँकी मात्र रूप में होती है। इस मेले में 
							शहरी नागरिकों के अलावा दूर-दूर गाँव के नागरिक भी आते 
							हैं। स्वयं पूर्व काशी राज डॉ. विभूति नारायण सिंह 
							झाँकी के दर्शन हेतु राजशाही हाथी पर सवार होकर 
							उपस्थित रहते हैं।
 यह लीला नाटी इमली मुहल्ले के एक बड़े मैदान में आयोजित 
							की जाती है। इस मैदान में दो स्थायी मंच विपरीत दिशा 
							में बने रहते हैं। प्रतिवर्ष विजयादशमी के एक दिन 
							पश्चात भरत-मिलाप की झाँकी का आयोजन किया जाता है। 
							मैदान में दर्शकों के बैठने के स्थान को बाँस-बल्लियों 
							से घेर दिया जाता है। सुबह से ही भरत-मिलाप स्थल पर 
							लोगों की भीड़ इकट्ठा होने का क्रम चालू हो जाता है और 
							चार बजे तक लीला स्थल और उसके आस-पास लाखों की भीड़ जमा 
							हो जाती है। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए हजारों की 
							संख्या में पुलिस और पी.ए.सी. के जवान रहते हैं 
							आकाशवाणी द्वारा झाँकी का आँखों देखा हाल प्रसारित 
							किया जाता है।
 
 जिस समय हाथी पर रखे विशेष हौदे में बैठकर पूर्व 
							काशीराज लीला-स्थल पर पहुँचते हैं, लाखों की तादाद में 
							एकत्र जन-समुदाय ‘हर-हर महादेव’ के उद्घोष से उनका 
							स्वागत करता है। काशीराज के हाथी के पीछे एक और हाथी 
							होता है। मैदान में एक बार परिक्रमा करने के बाद पूर्व 
							काशीनरेश पात्रों को कुछ भेंट देते हैं। सूर्यास्त से 
							कुछ समय पूर्व ५ बजकर ५५ मिनट पर चारों भाई (राम, 
							लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) दौड़कर आपस में गले मिलते हैं। 
							इस समय सूर्य की लालिमा की अंतिम किरणें बहुत ही 
							मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करती हैं। गले मिलने के बाद 
							राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न एवं हनुमानजी को एक रथ पर 
							बैठाया जाता है तथा उक्त रथ को लाल पगड़ी बाँधे सैकड़ों 
							यादव बंधु अपने कंधे पर उठाकर नगर के विभिन्न हिस्सों 
							से घुमाकर ‘बड़ा गणेश’ ले जाते हैं। सबसे आगे काशीनरेश 
							हाथ जोड़कर लोगों को अभिवादन करते हुए चलते हैं। जिस 
							समय रथ लीला-स्थल से नगर की ओर आता है, छतों पर खड़े 
							भक्तजन फूल मालाओं की वर्षा करते हैं।
 कुल पाँच मिनट के लिए होने वाली इस झाँकी की विशेष 
							प्रसिद्धि का कारण यह है कि भक्तजनों को अटूट विश्वास 
							है कि जिस वक्त भरत-मिलाप में भगवान राम अपने भाइयों 
							से गले मिलते हैं, उस समय क्षण मात्र के लिए भगवान 
							अपनी वास्तविक झाँकी देते हैं। वास्तव में यह दृश्य 
							अत्यंत भावनात्मक तथा अविस्मरणीय होता है। आज न तो 
							तुलसीदास हैं, न मेघा भगत और न ही रामभक्त टेकराम, 
							किंतु रामभक्त टेकराम ने जो मुकुट पहनकर वरुणा नदी को 
							पार किया था, वह आज भी सुरक्षित है। अब इस मुकुट की 
							पूजा की जाती है। यह मुकुट हमारी आस्था, निष्ठा, भक्ति 
							और पूर्वजों के पौरुष का प्रतीक है।
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