मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


पर्व परिचय


महापर्व करमा

- पद्मसंभव


प्रकृति के परम-तत्व से साहचर्य स्थापित करने का पर्व। भाद्र पद एकादशी की तिथि को आदिवासी समाज इसे काफी उत्साह से मनाता है। इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली दूर-दूर तक छा जाती है। ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है, जिसे आदिवासी और सदान (गैर आदिवासी) दोनों ही समान रूप से मनाते हैं। सदान महिलाएँ और कुमारियाँ अपने भाई की ऋद्धि-सिद्धि के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं, जबकि आदिवासी भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए। दरअसल, करमा की पृष्ठभूमि में जनजातीय सांस्कृतिक-चेतना, जीवन-दर्शन, लोक-विश्वास, धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएँ हैं। निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा-नैवेद्य अर्पण करना मानव-सभ्यता के क्रमिक विकास का द्योतक है।

करमा का अर्थ है- ‘हाथमा’ अर्थात, भाग्य में। इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़कर उसकी पूजा की जाती है। आदिवासी समाज में उनके पुरोहित-पाहन करम डाली की पूजा को संपन्न कराते हैं, तो सदान समाज में पुरोहित- गोसाई यह पूजा कराते हैं। करमा पर्व के दिन नर-नारी दिनभर उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं। यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है। धूप-दीप, नैवेद्य, फूल-अक्षत, सिंदूर, खीरा, भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है।

करम वृक्ष की डाली

आदिवासी युवक वन में करम वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं कुँआरी कन्याएँ उन्हें बिदाई देती हैं। करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी माँदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की ओर जाते हैं। युवतियाँ उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं। करम के वृक्ष के पास पहुँचकर वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं। जो युवक-युवतियाँ पहली बार उपवास कर रहे होते हैं, वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे बाँधते हैं। फिर उस पर हल्दी-पानी छिड़कते हैं। इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़कर उसकी तीन डालियाँ काटता है। इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया जाता है। सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं। वे करम की डालियाँ कंधों पर ढो कर लाती हैं।

सभी युवक-युवतियाँ नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गाँव वापस आते हैं। पहनाइन गाँव के अखाड़े के पास उनका स्वागत करती है। उनके साथ पहान और महतो भी होते हैं। युवतियाँ डालियों को पहनाइन को थमा देती हैं। करम की डालियों को धोने के पश्चात पहनाइन अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती है। उस पर तेल-सिंदूर का लेप किया जाता है। उसके निकट एक दीप जलाया जाता है। फिर सारी रात और दूसरे दिन, करमदेव की विदाई तक, गीतों की अनवरत धारा बहती रहती है। माँदर, बाँसुरी, ठेचका, नगाड़ा वाद्ययंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं।

करमा के गीत

समय के आधार पर करमा गीतों को पाँच वर्गों- सुमिरनी, संक्षईया, अधरतिया, मिनसहर और ठढ़िया में वर्गीकृत किया जा सकता है। सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व और ईश्वर वंदना के गीत होते हैं। इनमें राम-कृष्ण और परमसत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत है एक सुमिरनी-

हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड, तानी रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निदा सिंगी आ-ए-
नलिन मेंदा जो रो बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी बा सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया

अर्थात, हाय! बाँसुरी बजाने वाला छोकरा (कृष्ण) कहाँ चला गया? हाय-हाय, कहाँ चला गया? रात-दिन उसके लिए आँखों से आँसू बरसते रहते हैं। हाय, वह छोकरा कहाँ चला गया? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये। हाय, वह बाँसुरी बजाने वाला छोकरा कहाँ चला गया?
संक्षईया में स्थानीय जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है। मध्य रात्रि के प्रथम पहर में गाया जाता है- अधरतिया या रिझवारी, जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता है। इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।
रात्रि का अंत होता है। पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है। मन में उमंगें जागने लगती हैं, तो स्वतः ही कंठ में सुर जगने लगते हैं। इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत, जिनमें संघर्षशील जीवन में क्षणभर के लिए, घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता है-

कनेत ऊँचे ये कारी बदरिया रे
कने तरिसे ज लमेघे
सरगे त ऊँघे ये कारी बदरिया
अधरे बरीसे जल मेघे...

ठढ़िया करम गीतों में जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक स्पर्श होता है। क्षणभंगुर जीव-जगत में ऐंद्रिक सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहेगा? इसलिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें, धरती को सँवारें।

भावी संतान का प्रतीक

झूमर नृत्य और करमा गीत के बाद युवतियाँ करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं। उनकी टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है, जो उनकी भावी संतान का प्रतीक होता है। करम-पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है। करमा कथा विभिन्न रूपकों में, भिन्न-भिन्न अंचलों में, भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती है। मुंडारी, संथाली, गौंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न हैं क्योंकि, काल और परंपरा इनके समाज में भिन्न हैं। लेकिन सभी करमा-कथाओं का सार लगभग एक-सा ही है- राजा द्वारा करम की उपेक्षा और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन। मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है। सामाजिक-व्यवस्था और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है। कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की कृपा के लिए करम-डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है। कथा की समाप्ति पर लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं। रात्रि में फिर पूजा-स्थल पर एकत्र होते हैं। रातभर, भोर की लाली फूटने तक, करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता है। नृत्य अबाध होता है, इसलिए इसकी गति तेज और मंद लय में रहती है। माँदर पर एक विशेष ताल ही बज सकता है। इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है। दिन चढ़ते ही पहनाइन करम की डालियाँ उखाड़कर युवतियों को सौंप देती है। वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं। झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं।

१५ सितंबर २०१५

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।